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चेतना का रूपांतरण : २
रूपान्तरण करना सब चाहते हैं, पर यह कठिन काम है। आदमी चाहता है बदलना, पर बदलना सहज-सरल नहीं होता । यदि रूपान्तरण की प्रक्रिया ज्ञात न हो, बदलने के उपाय ज्ञात न हों तो चाहने पर भी बदला नहीं जा सकता । एक आदमी बीमार है । वह चाहता है, बीमारी मिटे और वह स्वस्थता का अनुभव करे । रोगी रहना कोई नहीं चाहता । रोग से छुटकारा पाने की, निरोग होने की भी एक प्रक्रिया है । ऐसे ही कोई निरोग नहीं हो जाता । निरोग होने की प्रक्रिया का पहला अंग है- शोधन । शोधन होने पर रोग मिट सकता है। आजकल शोधन की अपेक्षा नहीं मानी जाती । तेज दवाइयों से रोग को दबाने या उपशान्त करने का प्रयत्न किया जाता है। तेज दवाइयों से बीमारी दब जाती है, समाप्त नहीं होती । उस रोग पर एकपक्षीय इतना भार पड़ता है कि वह दब जाती है, किन्तु भीतर ही भीतर वह और अधिक सक्रिय हो जाती है । उससे अनेक नयी बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं । शोधन में यह प्रतिक्रिया नहीं होती | आयुर्वेद का कथन है, रोग के कारणों का शोधन करो । जो रोगोत्पत्ति के मूल बीज हैं, उन्हें उखाड़ फेंको, जिससे कि वह रोग भी मिटे और दूसरे नये रोग भी उत्पन्न न हों।
रूपान्तरण में भी शोधन की प्रक्रिया बहुत जरूरी है | शोधन की प्रक्रिया के तीन अंग हैं :
१. अइयं पडिक्कमामि- मैं अतीत का प्रतिक्रमण करता हूं। २. पडिपुण्णं संवरेमि– मैं वर्तमान का संवरण करता हूं। ३. अणागयं पच्छक्खामि— मैं भविष्य का प्रत्याख्यान करता हूं। अतीत, वर्तमान और भविष्य के शोधन की यह पूरी प्रक्रिया है । अतीत
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