Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d apRISHMENSES PART 13-63838 र ग्रंथमाला नंबर ५ मो. श्रीमद् विजवादकारि सिविता श्री अज्ञानतिमिरभास्कर. A SIARRASS ( आवृत्ति बीजी) पावी प्रसिह कर्ता. - श्री जैन आत्मानंद सभा :--- जावनगर वीर संवत २४३२ विक्रम संवत १९६२ आत्म संवत ११ मूख्य अनी पीया * ANTARVASN ग्रंथकतना हुकमी प्रसिद्ध कर्ताप सर्व हक स्वाधीन राख्या छे. विवि KIRAMANANEWSSAR पत२. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Event ISIL BRANCH PERKAMOL TAROMA भावनगर श्री " विद्या विजय " मिन्टींग प्रेसम माना शाद पुरुषोतमदास खुशंकित कर्यु. KOMSTENPINGROUVING CAVATORS Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायाम्भोनिधि श्रीमद्विजयानन्द सूरि. ( आत्मारामजी महाराज. ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAN श्री अर्पण पत्रिका. श्रीमान श्रावकगुणालंकृत, स्वधर्मनिष्ठ, देवगुरु नक्त, श्री पाटण निवासी, शेठ नगीनदास झवेरचंद. आप श्रावक धर्मना पूर्ण संपादक छो. देवगुरुनी नक्ति रूप नागीरथीमां सदा स्नान करनारा गे, आईत वाणीना नपासक गे, शु६ गुरुना नपदेशथी व्यापारनी प्रवृत्तिमां सदाचारधी वर्ननारा गे अने व्यापारनी प्रवृत्तिमां प्रवीण उतां धर्मनी धुराने धारण करवानो उत्साह राखो गे. ए आदि अनेक सद्गुणोने संपादन करवाना , चिन्हरूप एवा ज्ञान क्षेत्रने पुष्टि प्रापवाने आपे आ ग्रंथने पूर्ण आश्रय आप्यो , एथी करीने नारतवर्षनी जैन प्रजाना महोपकारी श्री विजयानंद सूरिना पाहित्य नरेला लेखने प्रसार करवाना तेमना शिष्य परिवारना नत्तम नपदेशने मान आपी खरेखरी गुरु नक्ति दर्शावी बे; ते आपनी नज्वल प्रवृत्ति जोश अमे आ ग्रंथ आपने अर्पण करीए बीए अने गुरु नक्तियुक्त हृदयथो असाधारण पूज्य नाव पूर्वक ते गुरुनु स्मरण करी नीचे- आशी. र्वादात्मक पद्य नच्चारिए बीए:Hannnnnnnnnnoooonga Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RS (शार्दूलविक्रीमित.) जेणे श्रीधन वावियु प्रणयथी श्रीज्ञानना केत्रमां, ग्रंथोशर को सहर्ष हृदये प्रीति धर। नेत्रमां; आनंदे गुरु नक्तिनाव धरतां आराधी सत्कर्मने, धर्मानंद नगीनदास जगमां पामो धरी धर्मने. ॥ १ ॥ जेणे श्री उपधानना वहननी माला धरी अंगमां, एवा चंदनबाइ जे सदनमा रहेछे सदा रंगमां; न्यायोपार्जित वित्तना नियमथी जे शुरूपाम्या मति, ते नीतिज्ञ नगीनदास जगमां श्रीधर्म पामो अति. २ अमे बीए, श्री आत्मानंद सभाना अंगनूत श्रमणोपासको. -9HSMA S mewa mSINA ASEV ARISON Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. परोपकार रसिक महात्माओना लेखोनी महत्ता करंक श्र पूर्व होय बे. ते अगाध जंडारना जोक्ता थवानो आधार तेना - ज्यासीना अधिकार नपर रहे बे. उत्तम लेखनुं स्वारस्य ने माहात्म्य प्राश्चर्य जनक बे. ते पुनः पुनः प्रादर पूर्वक प्रन्यासथी ज प्रकट र सुख शांति प्रापे बे. आत्मरुचि श्रने स्वशक्ति अनुसार समर्थ विद्वान्ना योग्य विषयनो अने तेना लेखोनो स्वीकार करी तेनुं आदर पूर्वक श्रवण, पठन अने मनन कर, ए अंते मदा फलदायी थाय बे. जगतमां अनादि · समर्थ जैन दर्शन जणावे वे के, “ श्र कालीज मिथ्यात्व बे. " या शास्त्रीय लेख खरेखरो बे, प्रेम आपणे मानवुं जोइए अने तेम मानवानुं कारण पण श्रापलने प्रत्यक्ष विगेरे प्रमाणोथी सिद्ध थाय बे. ए अनादि कालथी संपर्क पामेला मिथ्यात्वनुं कारण शुं बे ? येवो विचार करतां श्रापलने ज्ञान थशे के, धेनुं खरेखरुं कारण अज्ञान बे. अज्ञान अने मिथ्यात्व ए कार्य कारण रुपे ग्रथित बने रहतुं बे. तेमनो एकी नाव पामेलो वो संबंध वे के, ज्यां प्रज्ञान त्यां मिथ्यात्व ने ज्यां मिथ्यात्व त्यां ज्ञान - द्विपुटी परस्पर एक बीजानी श्राधार भूत थ रहेली बे. श्रावा मिथ्यात्वना कारण रूप अज्ञानने दूर करवानी खास जरुर बे. ए अज्ञान आपला आनंदमय ने सुखमय एवा धार्मिक जीवननुं विरोधी वे शिवपद रूप परम श्रेयनी शोध करवामां ए अज्ञान अंतराय रूप याय बे. इतर धर्मना तत्वज्ञो पोताना विविध मतोथी आ जगत् ईश्वरकृत के अने पूण्य पापनी उत्पत्ति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) ईश्वरकृत मानी ईश्वरमां विषमताना अने बीजा दोष प्रगटाव्या . वली तेमना तरफथी तेनो खुलासो धर्म अधर्म अथवा शुन्ज अशुन कर्मने वचमां आणी ईश्वरने मात्र कर्म फलदाता कही करवामां आपी तेमां पण अन्योन्याश्रय दोष पवामां आव्यो . ए अज्ञानथी कोइए स्कंध अने तृष्णामांथी पापनो समुद्लव मान्यो . वली बीजाओ सारुं अने खोटुं अq परस्पर विरुद एक इंद्रज स्वीकार्यु . आवी अनेक कपोल कल्पनाओ ए अज्ञानना प्रनावथी प्रगटेली . खरेखरी वस्तुगति उपर विश्वास न लावी अक्षा अने शंकामां आंदोलित श्रवाय, ए बधुं ज्ञानना अन्नावरूप जे अज्ञान, वस्तुगतिने यथार्थ न अनुन्नववा रूप अज्ञान अने ते अज्ञान जन्य जे मिथ्यात्वतेनुंज परिणाम के प्रेम कहेवामां कांश पण बाध नथी. वली अज्ञान एज पापर्नु मूल . पाप करवानी वृत्ति अज्ञान जन्य . ते वस्तुगतिना ज्ञाननी न्यूनताथीयाय . ज्यां प्रकाश ने, त्यां अंधकार संनवतोज नथी. प्रकाश न होय त्यांज अंधकारनो प्रवेश छे. प्रकाशमां सर्वदा निर्नयता, निःशंकता अने विशालता रहेली . अप्रकाशमांज नय, शंका तथा संकोच वसे छे. आश्री ए अज्ञानरुप अंधकारने नाश करवा श्रा महान् लेखके पोतानो लेख विस्तार्यो ने अने ए लेखन " अज्ञानतिमिर नास्कर " अबु सार्थक नाम आपेलुं . आधी करीने श्रे महोपकारी महाशये पोतानुं गुरुत्व पण कृतार्थ करेलु वे. ते विषे कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंसूरि पोताना योगशास्त्रमां नीचे प्रमाणे लखे - यद्वत्सहस्त्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमन्नस्य । तहजरुरत्र भवेदज्ञानध्वांतपतितस्य ॥१॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___“जेम घाटा अंधकारमा मग्न अयेलाने सूर्य प्रकाश कर्ता चे, तेम आ संसारमा अज्ञानरुपी अंधकारमा पमेलाने गुरु प्रकाश ' कर्ता . आवा यथार्थ गुरुपणाने धारण करनारा परम नपकारी पूज्यपाद गुरु श्री विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) ए नारत वर्षनी जैन प्रजानो ते अज्ञानरुप अंधकारथी नहार करवाने माटे श्रा लेख लखेलो . ते महाशयना लेख प्रथमश्रीज प्रशंसनीय थता आवे . आईत धर्मना तत्वोनी जे नावना तेमना मगजमा जन्म पामेली, ते लेख रुपे बाहेर आवतांज अाखी बुनियाना पंमितो, ज्ञानीनो, शोधको, शास्त्रझो, धर्मगुरुयो, लेखको अने सामान्य लोको उपर जे असर करे , तेज तेनी सप्लारता अने नपयोगिता दर्शाववाने पूर्ण के. मिथ्यात्वजनित अज्ञानताने लश्ने अन्यमति नारतवासिीओ सनातन जैन धर्म नपर जेजे आदप कर्या ने अने करे ने तथा वेदादिग्रंथोना स्वकपोल कल्पित अर्थ करी जे जे लेख द्वारा प्रयत्नो कयाँ ने ते न्याय अने युक्ति पूर्वक ते ते ग्रंथोनुं मथन करी या ग्रंथमां स्पष्ट रीते दर्शाववामां आव्युं . अने जैन दर्शननी क्रिया तथा प्रवर्तन सर्व रीते अबाधित अने निदोष , अर्बु जगतना सर्व धार्मिकोनी दृष्टि सिह करी आपेल छे. हंत धर्मनी नावना जुनामां जुनी बतां तेने इतर वादीओ नवी अने कल्पित ठरावी जनसमूहागल मुकवानो यत्न करता आव्याने नेकरे, ते बधुं लक्ष्यमां लश् आप्रवीण ग्रंथकारे ए नावनानी आवश्यकताने आखा विश्वनी प्रवृत्तिथी सिह करवाना यत्न नपरांत ए नावना पोते शुंने ? तेनुं सारी रीते आ ग्रंथमा सूचन करवामां पाठ्यु डे अने ते साधे इतर वादीओना धर्मनी नावनानुं रहस्य Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुल्लु करी जैन धर्मना तत्त्व स्वरूपने सर्वोपरि सिह करवामां आव्युं . ग्रंथना पूर्व नागमां आस्तिक अने नास्तिक मतना विचार, जैन धर्मनी प्रबलताश्री वैदिक हिंसानो परान्नव, वेदना विनाग, वेदज्ञ ऋषिोना मांसाहारनुं प्रतिपादन, वैदिक यज्ञ कर्मनो विवेद, वैदिक हिंसा विषे विवध मत, शांकर नाष्य रचवानो हेतु, अने शंकराचार्यनो वाम मार्ग इत्यादि घणा विषयोनुं स्पष्टीकरण करी, तेमज वेद, स्मृति, उपनीषद् अने पुराणादि शास्त्रोमां दर्शावेल यज्ञ विगेरेनुं स्वरुप वर्णवी अने मिथ्यात्व नरेली तद्गत अज्ञानता दर्शावी सारं विवेचन करनार आ विश्वासलायक ग्रंथ तो अर्वाचीन जैन ग्रंथोमां एकज ने, एम कहवामां कांपण अतिशयोक्ति नथी. वली बौछ, नैयायिक, सांख्य, जैमिनेय आदि दर्शनवालाओ मुक्तिना स्वरूपने केवी रीते कथन करे ? तथा ईश्वरमां सर्वज्ञपणानी सिदि करवा तेओ केवी युक्तिओ दर्शावे ठे? तेनुं यथार्थ जान करावी ग्रंथकारे घणु पांडित्य नरेलुं विवेचन करेलु , जे वांचवाथी जैन बंधुओने नारतवर्षमा प्रसरेला गाढ मिथ्यात्व, स्वरूप जणाइ पोताना शुद्ध झान, दर्शन, चारित्र रूप सनातन धर्मनी नपर सारी दृढता नत्पन्न थाय तेम . ग्रंथना बीजा नागमां साधु अने श्रावकनी धर्म योग्यता दीववा माटे एकवीश गुणोनुं विस्तारथी वर्णन, नावश्रावकना षट्छार संबंधी सत्यावीश नेद अने तेमना सत्तर गुणोनुं स्वरूप विवेचन सहित आपवामां आव्युं . ते साथे स्याहाद सितना ग्रंथोमां आत्मानुं स्वरूप जणाववा माटे जे जे लखवामां आव्यु डे, ते जाणवु धणुं उर्घट होवाथी तत्त्वजिज्ञासुओ तेनुं स्वरूप यथार्थ जाणी शकता नश्री, तेश्री तेमने सुगम रीते जाणवा माटे Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा ए त्रग प्रकारना आत्मानुं स्वरूप शास्त्रीय प्रमाणो साधे आ ग्रंथमां घणुं संदेपमा प्रा. पवामां आव्युं . कोइपण निष्पक्षपाती तत्वजिज्ञासु पुरुष आ ग्रंथर्नु स्वरूप प्राद्यंत अवलोकशे तो तेना जाणवामां पावशे के, एक जैनना समर्थ विछाने नारतवर्षनी जैन प्रजानो नारे नपकार कीयो . ते साथे प्रावा विच्छिरोमणि महाशय पुरुष सांप्रत काले विद्यमान नश्री, तेने माटे तेने अतुल खेद प्राप्त थशे. स्वर्गवासी ग्रंयकारे नारतनी जैन प्रजानो महान उपकार करी जैनोनी प्राचीन स्थितिनुं स्मरण कराव्यु . एक समये जैन प्राचीन विद्यानो बहु नत्कर्ष हतो अने कुमारपाल जेवा परम धार्मिक नदार महाराजाना आश्रय नीचे जैन विद्याने बहु सारां नत्तेजन अने पोषण मळ्यां करतां. तेवो काल जो फरीथी आवे अने आवा लेखको विद्यमान होय तो जैन प्रजा पानी पोताना पूर्व नत्कर्षना शिखर नपर स. त्वर आरूढ पाय, तेमां कांइपण आश्चर्य नथी. वटे अमारे आनंद सहित जणावq पमे ले के, स्वर्गवासी पूज्यपाद श्री आत्मारामजी महाराजना हृदयमां जे अनगार धमनीसाये परोपकार पणानी पवित्र गया पडी हती, ते गयाना घणा अंशो तेमना परमपूज्य शिष्य वर्गना हृदयोमां नतयाँ छे पोताना गुरुर्नु यथाशक्ति अनुकरण करवाने ते शिष्यवर्ग त्रिकरण शुझ्यिा प्रवर्ते जे. महात्माअोने पोतानी धार्मिकता अने विद्या साथे जे एकता होय , अने जे स्वार्पण तथा अहंतान्नाव होय , ते तेमना शिष्यवर्गमा प्रत्यक्ष मूर्तिमान् जोवामां आवे ने. तेन परम सात्विक होइ सर्वने तेवांज देखे ने अने तेवांज करवाने इच्छे . जैन सिशंतनी जेम तेमने गुरु सितनी नपर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (G) अनन्य प्रेम , अने तेमन जीवन गुरु नक्तिमय छे. आवा केटलाएक शिष्य वर्गना गुणोने लश्ने तेस्वर्गवासी पूज्यपादना ले. खनी आवृत्ति करवानो आ समय आव्यो . अने तेमना नपदेश द्वारा लोकोमां तेनोप्रसार करवानी पण नत्तम तक मली . आ ग्रंथ प्रथम आ शहेरना रहेनार मरदुम गुरुराजना परम नक्तोनी बनेली श्री जैन हितेच्छ सन्नाए बहार पामेलो हतो जेनी एक पण कोपी हालमां नहीं मलवायी मरहुम गुरुराजना परिवार मंडलनी आझा श्रवाश्री अने ते सन्नाना आगेवान सन्नासदोनी परवानगीश्री आ बीजी आवृत्ति सुधारा साथे अमोए बहार पाडेली छे. आ बीजी आवृत्तिमां जुदा जुदा विषयोना नाग पामी अने जे जे वैदिक प्रमाणो अर्थ रहित हतां तेमना अर्थ दीवी ग्रंथना स्वरूपने शोन्नाव्युं छे. ते साधे वाचकोने सुगमता थवाने विषयोनी अनुक्रमणिका पण आपी बे. आ ग्रंथ आयंत तपासी आपवामां एक विद्वान् मुनि महाराजाए जे श्रम लीधो ने तेने माटे आ सना अंतःकरगायी आन्नार माने . ग्रंथनी शुश्ता अने निर्दोषता करवामां सावधानी राख्या उतां कदि कोइ स्थले दृष्टिदोषथी के प्रमादयी स्खलना थ होय तो तेने माटे मिथ्या उप्कृत . संवत १९६२. ज्येष्ठ कृष्ण ज. श्री आत्मानंद सभा. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. विषय. मंगलाचरण. प्रास्तिक ओर नास्तिक मतका स्वरूप. ग्रंथका प्रयोजन. वेद विरुद्ध मतोका प्रदर्शन. वेद गौतमादि मतोका खंरुन. वेदपरत्व ब्राह्मणोकी जिन्न जिन्न संज्ञा. वेदमें देवता की संतुष्टी. वेदमें हिंसाका उपदेश. जैनधर्मकी प्रबलता वेदकी क्रिया दग्गइ इसका विवेचन ariat विभाग विषे. वेदक जिन मित्र संज्ञाका विचार. वेदोकी नृत्पत्तिका विविध विचार. नपनीषद् विषे. ऋषियोका मांसाहार वैदिक यज्ञ कर्मका विछेद. वैदिकी हिंसा में विविध मत. शांकरभाष्यकी रचनाका देतु. दया धर्मका प्रचारसें हिंसाका प्रतिबंध शंकर स्वामी शाक्त-वाम मार्गीथा इसका विवेचन. अद्वैतमतकी स्थापना. पाखं मत वास्ते शिवका अवतार. शंकराचार्य वास्ते मध्वमतका अभिप्राय, पृष्ट. १ ३ Ա Ա ८ १० १० ܕ ११ १२ १२ १३ १३ १३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) शंकर स्वामि पीछे भिन्न भिन्न मतोकी उत्पत्ति. वल्लनाचार्यका भक्तिमार्ग. वैदिकी हिंसाका स्वीकार. मांसाहारी ब्राह्मण. यज्ञमें मांस भक्षण. पशु होमका प्रचार. पुनामें वाजपेय यज्ञ. एक दि शास्त्रमें आधा सच्चा - और आधा जूग नहि दोइ सकता है. कर्मकां ब्राह्मणोकी आजीविका है. संन्यासका प्रचार. तीर्थोका माहात्म्य सो टंकशाल है. ब्राह्मणोकी कुटिलता. ए ग्रंथका दुसरा प्रयोजन. श्री ऋषन देवका विद्यादान और भरतने. जैन वेद बनाया. जैन राजाओका समयमेंजी जैनयोकी शांति; पाराशर स्मृतिका अनादर. कलियुगमें हिंसाका निषेध. सांप्रतकाल में अग्निहोत्री बहोत है. मधुपर्ककी उत्पत्ति. पुराणमंत्री मांसखाने की छूट है. वेद बनायेका मित्र जिन्न समय. वेद शब्द लगा कर अन्यनामन्त्री बने है. वेद विधि देवताका श्रावादन और विसर्जन. कृष्णाजी ब्राह्मणोसें मरता है. १४ १४ १४ १५ १५ १५ १६ १६ १७ १७ १८ १ १७ २० २१ श्‍ २२ १३ २३ २४ २५ २५ श्‍ २६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिशब्दका अर्थ. पोपलोगका वर्त्तन. वेद विद्या गुप्त रखते है. वेद मदिरा पिनेका मंत्र. श्रुति में परस्पर विरोध. वेद सर्प, विबु और कुत्तेके मारने वारते लिखा है. वेद पुरुष, स्त्री और कन्याका वधकरनेका उपदेश है. सती होनेका चाल ब्राह्मणोसें उत्पन्न जया है. देवताकुं बलीदान करनेका प्रचार. वेद जी मंत्र है. वेदमें मरणका प्रयोगदै. दयानंदका पाखंरु. शुक्क यजुर्वेद कोने बनाया है. दयानंद सरस्वतीका कपोल कल्पित अर्थ. दयानंदकुं उपनीषद् प्रमुखमेंजी शंका है. विचार. दयानंदका जैन मत विषे जूठ वेद यज्ञका प्रयोजन. सूर्य और पृथ्वी विषे दयानंदका विचार, वेद विषे पंति मोह मूलरका अभिप्राय. वेदका वाम मार्ग. प्रथम खंड. अग्नि स्थापन. पात्रे व स्थाने. यज्ञशाला के भेद. ( ११ ) अनुष्ठानका नाम. पशु यज्ञका विधि. २६ २६ २७ २७ श् श् श ३० ३१ ३१ ३१ ३१ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३८ ३८ ३ ~DD D m १ ‍ 2 श् ३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) विविध यज्ञोका नाम. यज्ञका सजाय मंत्रो. वेदका तीननाग व्यासजीने बनाया है. वेदकी संहिताका चालिश अध्याय. पशु होममें पशु की विविध संख्या. सामवेदका वर्णन. वेदोत्पत्ति. वेदका हिस्सा. कात्यायन कल्पसूत्र. नव कंमिका था. इसूत्र. लाट्यायनीय श्रौतसूत्र अर्थ सहित. गृहस्थधर्म प्रकरण. श्राद्ध विवेकका लेख. शतरुयका मंत्रार्थ. अनेक संप्रदायकी उत्पत्ति. उपास्य देवताकी जुदी जुदी मान्यता. विविध मतोंकी उत्पत्ति. कुकामतका स्वरूप, वेदांतिका प्रचार. वेदोका यशो में हिंसा बहोत है. महाभारतकी उत्पतिका काल. भारत में हिंसाका निषेध. हिंसा में मुसलमान लोगका दृष्टांत. वेद हिंसक ठरते है. स्वामी दयानंद. नरमेध यज्ञपर भारतकी कथा. १० १४ १६ १६ १० २३ হU ३२ ४६ ४६ ५१ ६४ ८० ՆԱ ՆԱ १ ‍ ३ Y ԽԱ ԽԱ ६ rug UU Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० १०३ १०४ १०५ १०० ܕܐܐ ११६ ११० ११ प्राचीन बर्दी राजाकी कथा. जैनी जैसा नारदका नपदेश. विचरव्यु राजाकी कथा. उत्तराध्ययनमें जयघोष और विजयघोषकी कथा. जैन मतमें वेदका विचार. हिंसाका विषयमें पूर्वपद और नत्तरपद. दयानंदका वेद संबंधे विचार. मुक्तिसें नाव और अन्नाव दोंनोहि है. याज्ञवल्क्यका मोकका विचार. प्राचीन मुक्तिका विचार. नसमें पांच पद. दयानंदमतसमीक्षा. ओंकारका अर्थमें दयानंदका ब्रम. ईश्वर अन्यायी उरते है. ईश्वरका खं नामका खंमन. सत्यार्थ प्रकाश सो असत्यार्थ प्रकाश होता है. जैनमतमें ओंकारका अर्थ. जपमालाका स्वरूप. दयानंदका मतकी गोदमी. ईश्वरका नामकी कल्पित व्युत्पत्ति. जगत्कर्ता ईश्वरका खंमन. नास्तिक और आस्तिकका संवाद. दयानंदका कुतर्क. बाबू शिवप्रसादकी हस्ताकर पत्रिका, सप्तनंगीमें दयानंदका कुतर्क. दयानंदका अमूर्तिवाद. १२४ १२५ १२६ १२७ १७ १२ १२॥ १३० १३ए १४५ १४ १५२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ १६५ १६न १७० १७३ १७४ १७६ (१४) द्वितीय खंड. जैन मतकी नत्पत्ति. जैन ग्रंथ नै फैलनेका कारण. जैनोका पूर्व इतिहास. जैन ग्रंथोका इतिहास. जगत्कर्ताका विचार. जैनमत पुराना है. जैन ग्रंथो प्राकृतमें लिखनेका प्रयोजन. नश्वरजीके नंमारमें ताम्रपटका लेख. मूर्तिपूजाका खंमन. जैनमतमें दर्शावेल आयुष्य और देह प्रमाणका प्रतिपादन. निन्दवोका स्वरूप. ढुंढकमतकी उत्पत्ति. एकवीश गुणका स्वरूप. मांसाहार विधे पूर्व तथा उत्तरपद. धर्मका स्वरूप, श्रावकका एकादश नेद. चतुर्विध धर्मका स्वरूप. नावसाधुका स्वरूप. नावसाधुका लिंग, आर्य रक्षित उर्बलिका और पुष्पमित्रकी कथा. अतृप्ति श्राका स्वरूप. शुइ देशना श्रक्षाका स्वरूप. धर्म देशनाका स्वरूप, १एप रएन १०३ २०६ २२३ २४७ श्य शए? शएश Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए शए ३०१ ३०६ (१५) स्खलित परिशुहि श्रःक्षका लक्षण. साधुकुं दूषण लगनेका दश प्रकार. अप्रमादि साधुका स्वरूप. आचार्यके उत्तीस गुण. उत्तीस गुणका तिसरा प्रकार. जैन मतका किंचित् स्वरूप. बहिरात्माका स्वरूप. अंतरात्माका स्वरूप. परमात्माका स्वरूप. गुरुप्रशस्ति. इति विषयानुक्रमणिका समाप्ता. ३०॥ ३१ ३२५ ३७ ३२७ ३३० sonal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ernational www.jainel Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओवीश उदयका यंत्र - - - - - - - - 22222220/02/2 २७ । उदयवर्षे || उप सर्वाचार्य संख्या प्रधान प्रमाण मास दिन प्रहर १ सूरिकोटि ७० | २० | ६१७ / १० / २७ ७ ७ २ सूरिकोटि ३० | २३ /१३ः । १० / २९ | ३ कोटिलक्ष १०९८ १५००/ ११ / २०७ ७ /७ ३. | ४ | कोटिलक्ष १० / ७८ | १५४५ २९| ७ ७ ७ ४ | ५ कोटि लक्ष १० ७५ १९०० ३ २९ ७७ ५ | ६ | कोटिलक्ष १० / ८९ | १९५०/ ९ २२७७ ६ कोटिलक्ष १० १००/१७७० | ८ | कोटिलक्ष ५ ८७) १०१० १० १५, ७ ७ ७ ८ ९ । कोटिसहस्र१० ९५ . ८८० १ १८ ७ ७ ७ . ९ | १० कोटिसहस्र १० ८७८५० २.१२ / ७ ७ ७ | १०॥ ११ । कोटिसहस्र१०७६/ ८०० ३ | १४ । ७ ७ ७ ११ ॥ | १२ | कोटिसहस१० ७८ ४४५ | ४ | १९ । ७ ७ ७ | १२ | | १३ | कोटिसहस्र१० ९४, ५५० ७ | २२ ७ ७ ७ | १३ १४ । कोटिसहस्र५ १०८/ ५९२ / ५ १५ कोटिशत १०/१०३ / ९६५ | ६ | २९ १६ | कोटिशत १० | १०७ | ७१० ९ | २० | १७ | कोटिशत १०/१०४ ६५५, ६ २४ ७ ७ ७ /१७ | १८ कोटिशत १० ११५, ४९० ९ १९ | कोटिशत १०/१३३. ३५९ | २० । कोटिशत ११०० ४०८ ४ | ७ २१ | कोटिशत १ ९५ / ५७० २२ कोटिशत १ | ९९ ५९० ५ २३ कोटिशत १ ७ - - و و و و وود | 99 | دودو ود او او او او او او او 29/0/29/22/29 - ७ | ए २००४ सर्व U - - - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आद्यसूरि नामानि उदय स्य गृहवास व्रतपयोया युगप्रधान काल. सर्वायुः || गृहवास व्रतपर्याय युगप्रधान काल ५० । IN - २३ उदयोंके आद्य अरुअंत युगप्रधानोका यंत्र. नेवीसउदयोंकी | अंतके युगप्र धानोंके नाम सुधर्म । ०४२ २०० र दुर्वलिकापुष्यमि २७ ३० २३ ६० | २ | वयर | ९ | ११६, ३ | १२८ २ अरहमित्र | २० | २६ / २५ | ६१|| ३ पाडिवय ३ वैशाख २५/१० ४ | हरिस्सह ९/६०/१३/०२/ सत्कीर्ति | १६, २२ नंदिमित्र | १३ थावरसुत १३/२० ६ | सूरसेन । १३ ४० / २०६३ ६ रहसुन १३ २८ | १३ ५४ ७ रविमित्र | १३ | ४० / १० / ६३|| जयमंगल | १५/२० | १३ | ४८ श्रीप्रभ |१३ ४२६३ सिद्धार्थ | १५ | २० ९ मणिरति१३ | ४२ ९ ईशान १५/३० २० यशोमित्र १४ | ४१/ ६३|| | १० रथमित्र २२/१० | ११ धरासिंह १४ ४० ॥ ११ भरणिमित्र १० | २० | २२ सत्यमित्र १४ ४० / १२ /६६ ||१२ दृदमित्र १४ १५ २६ ५५ | १३ | धम्मिल्ल / २०/३० १२ ६२ [१३ संगतिमित्र १२/१५ २२ १४ विजयानंद | २२ / ३० १४ | ५६ १४ श्रीधरसुत १८/१०/१० १५ सुमंगल १२ / २०२४ ५६ १५ मागधसुत १३/११/९ १६ जयदेव १२/ २०/१०/५० | १६ अमरसुत १५ /२४ /१३ १७ धर्मसिंह | १७ रेवतिमित्र २२ १९ १८ सुरदिन्न १७२७ १०५४ १८ कीर्तिभित्र २०१० २९ विशारद । २०२० सिंहमित्र २० | १४ २० कौडिन्न १२१ १९५० २० फल्गुमित्र १३/१०७३० २२ माथुर । २० २५ २५ ५० २१ कल्याणमित्र ८१६ २२ वणिपुत्त १०/२० | २२ देवमित्र १२ १२ १२ २६ |२३ श्रीदत्त २५ २५० २३ दुय्यसहसूरि २२ ४ ४ २० - - - - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहवास व्रतपयाय |युगप्रधान सर्वायु मास - - संभूति- ४२/४०८ विजय जिनभद्र १४30 प्रथम अरु द्वितीय उदयका युगप्रधानोका यंत्र. प्रथमोदय । ॥ द्वितीयोदया । युगप्रधान ॥ २ युगप्रधान | २ |सुधर्म ५०/४२ ८१२००३३॥ २ वयर ९१६ ३ १२८ ३ ३ जबू १६/२० २ नागहस्ति २९/२८/६९ २६६ २५ ३ प्रभव ३०४४ ११. ३ रेषतमित्र २०३०५९ ४ सिंहसूरि १८२० | ४ शय्यंभव २८/२१ २२/६२ ३ ३ नागार्जुन १४ १९ | यशोभद्र २२४ ५०/८६४४|| ६ भूतिदिन २८ २२ ७ कालिकाचा १२/६०/ नसत्यमित्र २०३० ८ स्थूलभद्र ३०/२४ ४५ ९ हारिल २७३१ ९ महागिरि ३०/४०३० सुहस्ति ३०२४४६ पुष्पमित्र ८ |१३ संभूति २०१९/४९ ২২ লতিফাবাৰ২ ২৭ হি হি १४ संभूतिगुप्त २०/३०/६० १५ धर्मरक्षित १५ /२०/४० २४ रेवंतमित्र २४४८३६८०५ २६ ज्येष्ठांगगणि १२/१८/५ २७ फल्युमित्र २४ २३४९ १८ धर्मघोष ८२५७८ १०१ १६ भद्रगुप्त |१९| विनयमित्रा० १९८६/११५ १७ श्रीगुप्त ३५ ५० १५ २० शीलमित्र ११ २०७९/११० १८ वचखामी ८४४ ३६८० २१ रेवंतसूरि ९ १६/७८/१०३/ १९ आर्यरक्षिना२२/१०/२३ २२ सुमिणमित्रा९२ २८/०८/२० दुनिया ५७।३०/३/६०७७ २३ अरिहदिन्न २० १९६४५२ उE FGFNE|| दिन 6666/ 01/ 06 गणिक्षमा उमास्वाति २० | کی IN I alod20 ७१४१०१३३ विधिमनार ०५.४४ 10 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ अज्ञानतिमिरभास्कर. 0000000000000 स्त्रग्धराटत्तम् । अस्तो विश्ववंद्या विबुधपरिवृद्धैः सेव्यमानांहिपद्माः सिज्ञ लोकांतनागे परमसुखघनाः सिदिसौधे निषण्णाः। पंचाचारप्रगन्नाः सुगुणगणधराः शास्त्रदा: पाठकाश्च समध्यानलीना: प्रवरमुनिवरा: शश्वदेते श्रिये स्युः ॥१॥ __ अनुष्टुप्त्त म् । तत्वज्ञाने मनुष्याणामवगाहनलिध्ये । नाषायां क्रियते ग्रंथो बोधपादपबीजकः ॥२॥ अज्ञानतिमिरौघेन व्याप्तं हि निखिलं जगत् । तन्निरासाय ग्रंथोयं हितीयो नास्करो भुवि ॥ ३ ॥ विदित होके इस समयमें इस आर्य खममे बहुतसे मत मतांतर प्रचलित हो रहेहै. एक जैनमतके शिवाय जितने हिंज्यो के मतवाले है वे सर्व वेदको मानते है क्योंकि ब्राह्मण लोगोंके बनाये वामेसें कोईनी बाहिर नही निकल सकता है, यद्यपि गौतम, कपिल, पतंजलि, कणाद, कबीर, नानकसाहिब, दाउजी, गरीबदास प्रमुख मताध्यहोने वेदोंसे अलग अपने मतके पुस्तक संस्कृत प्राकृत नाषामें बनाये है तोन्नी तिनकी संप्रदायवाले दस वीसादि वर्षतक अपने मतके पुस्तको वांचकर इधर उधर फिर फिराके अंतमें फिर वेदोंहिका शरण लेलेते है. जैसे नानकसाहिबके पंश्रके नदासी साधु इसकालमें वैदांतिक हो गये है तथा गुरुगोविंद Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर सिंदके पंथके बहुते निर्मले साधुश्रो गुरुका वेष ककरद चकरी केश प्रमुख छोडके धातुरंगे वस्त्र कमंगलु प्रमुख वेष अन्यमतके साधुयोंका चिन्ह धारण करते है, और अपने गुरुका ग्रंथ गेडके वेदांत मानते है. ऐसेंही दाऽपंथी निश्चलदास दाजीका बनाया ग्रंथ गेमके वैदांतिक बन गया.और दाजीके चेले सुंदरदासने सांख्य मत माना है. तथा गरीबदासीयत्नी प्रत ब्रह्मवादी परमहंस बने फिरतेहै. यह तो हम जानते है कि जिसको अपने घरमें टुकमा खानेकों नही मिलता वोही उसरे घर मांगने जाता है, परंतु अपने घरके मालिककी हजों होतीहै. इस लिखनेका प्रयोजन तो इतनाही है कि वैदांतियोंके पुस्तकतो ननोंके गुरुयोंके समयमेंनी विद्यमान थे तो फिर नविन पुस्तक बनानेकी क्या जरुरथी. बिचारे क्या करे, जे कर वेदोंको न मानेतो ब्राह्मण लोग झटपट ननकों नास्तिकमती बनादेवें. फिरतो ननकी महिमात्नक्ति बंध हो जावे क्योंकि वेदोंके असल मालिक ब्राह्मण है. जे करतो ब्राह्मणोंके अनुयायी रहें और ब्राह्मणोको किसी आजीविकाका नंग न करे तबतो गक बने रहेंगे, नहींतो ब्राह्मण बल पाकर नन साधुयोंकों राजाप्रोके राज्यसे बाहिर निकलवा देवें बौधमतवत्. और ननके बनायें पुस्तकोंको पानिमें गलवा देवें जैसे दक्षिण में तुकाराम साधुके पुस्तक रामेश्वरनट्टने नीमानदीमें डुबवादीए क्योंकि तुकाराम साधु नक्तिमार्गका नपदेशक था. नसके बनाए पुस्तकोमें यझोकी और ब्राह्मणोंकी निंदा लिखी है. इसी वास्ते जो कोई बाबा नक्त नवीन पंथ निकालता है, वोतो अपने हठसे अपने निकाले मतका पूरा निर्वाह करता है, परंतु नसके चेलोंकी दाल ब्राह्मण नही गलने देते है. इसी वास्ते जो नवीन पंथ निकलता है वो अंतमे वेद और ब्राह्मणोंकी चरणशरण जा गिरता है. ये अंग्रेजी राज्यही का माहात्म्य है जो वैरागी नंमारा करके वैरागीयोंकों जिमा और Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, सिख लोग गुरुके सिखांको जिमावे,अखामेके साधु मंदिरोंके साधुयोंको जिमावे और ब्राह्मण बिचारे खाली बैठे मुख नपरसेंमकीयां नमावे; जव सर्वमतांवाले अंतमें वेदस्मृति पुराणादिकोंकों मानते हैं. तो फिर नवीन ग्रंथ बनाना और पंथ निकालनेका क्या. प्रयोजन है. यहतो नवीन पुस्तक और पंथ निकालनेसे हिंऽस्तानीयोंका फजीतां करणा है, क्योंकि बहुत पंथोंकें न्यारे न्यारे पुस्तक देखके लोकोंकीधर्मर्से श्रक्षा व्रष्ट हो जाती है.वे कहते है-हम किसको सच्चा और किसको जूग माने. यहनी वात.याद रखनी चाहिये. कि जव ब्राह्मणोंका जोर हुआथा तब वेदोंके न माननेसे बौधमत वालोंके बच्चोंसे लेकर वृक्ष्तक हिमालयसे लेकर सेतुबंधरामेश्वर तक कतल करवाये. ये वात माधवाचार्य अपने बनाये शंकरदिग्वि जयमें लिखता है. “आसेतोरातुषाराज्ञिनां वृक्ष्वालकान न हंति यः स इंतव्यो नृत्य इत्यवशं नृपः॥” “ सेतुबंधरामेश्वरसे हिमालयपर्यंत बौइ लोकोका आ बालवृकुं जे पुरुष मारता नहीं है, सो पुरुष राजा लोकोकुं इंतव्य है.” हम धन्य वाद देते है, अंग्रेजी राजको जिनके राजतेजर्से सिंह बकरी एक घाट पानी पीते हैं. मकर नही किसी मतवालेका जो किसी धर्मवालेकों. गर्म आंखसें देख शके. आस्तिक और एक और बात बहुत आश्चर्यकी है कि हमने किनास्तिक मतका विचार तनेक पुस्तकोंमें तथा ब्राह्मणोंके मुखसें सुना है कि जैनमत नास्तिक है. यह कहना और लिखना सत्यदैवा असत्य है ? हमारी समजतो यह कहना और लिखना जूठ है.क्योंकि जो कोई नरक, स्वर्ग, पापपुण्य ईश्वरकों तथा पूर्वोत्तर नवानुयायी अविनाशी आत्माको नही मानते है वे नास्तिक है तथा जिस शास्त्रमें जीवहिंसा, मांसनक्षण, मदिरापान, परस्त्रीगमन करनेसे पुण्य, धर्म, स्वर्ग मोक्का फल लिखा है तिन शास्त्रोंके Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ย अज्ञानतिमिरजास्कर. बनाने और माननेवाले नास्तिक है. जैनमतमेंतो नपर लिखे ना स्तिक मतके लक्षणोंमेंसे एकनी नही है तो फेर जैनमतकों नास्तिक कहना जूट है. साहिब तुम नही जानते नास्तिक नसक कहते है, जो वेदोकों न माने. जैन बौध वेदोकों नही मानते है, इस वास्ते नास्तिक कहे जाते है. यह कहना मूर्खोका है, अप्रमाणिक होनेसें. क्योंकि किसी मूर्खनें सुवर्णको पीतल कह दीया तो क्या सुवर्ण पीतल हो जावेगा ? ऐसेंतो सर्व मतांवाले कह देवेंगे हमारे मतके शास्त्रकों जो न माने सो नास्तिक है, जैनी, करानी, मुसलमान ये सर्व कह देवेगे हमारे द्वादशांग, अंजील, कुरानको जो न माने वो नास्तिक है. तथा कुरानी, मुसलमान, यहुदी प्रमुख सर्व नास्तिक ठहरे क्योंकि वे वेदको नहीं मानते है. इस वास्ते न्यायसंपन्न पुरुषोंकों विचार करना चाहिये जो मांस मदिराके खाने पीने वाले और ठगबाजीसें लोगोंका उगने वाले. डुराचारी, ब्रह्मवर्जित, लोगोंका मरण चिंतनेवाले छल दंनसें लोगोंकी चडी दामीयोंके फोडने वाले, असत्यभाषी, व्रतप्रत्याख्यानसें रहित, महालोजी स्वार्थतत्पर, लोगोंकों भ्रम अंध कूपमें गेरनेवाले, दयादान परोपकारवर्जित, अभिमानी, सत्साधुयोंके द्वेषी मत्सरी, परगुण सहनशील, अज्ञान, मूढ पंथके चलाने वाला, परवस्तु के अभिलाषी, परस्त्रीगामी, दृढकदाग्रही, सत्शास्त्रके वैरी इत्यादि अनेक rayer करके संयुक्त जो है वे प्रत्यक्ष राक्षस और नास्तिक है और जो दयादानवान्, मद्य मांसके त्यागी, परमेश्वरकी भक्तिपूजा करनेवाले, करुणाईन्हदय, संसारके विषयभोगोंसें नदासीन अष्टादश दूवणकरी रहित ऐसे परम ईश्वरके नपासक इत्यादि अनेक शुनगुणालंकृत होवें वे प्रास्तिक है. अब बुद्धिमान आपदी विचार लेंगे आस्तिक कौन है और नास्तिक कौन है. अ पने बोर मि श्रौरोंके खट्टे यहतो सर्व मतांवाले कहते है. परंतु य " Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. थार्थ सच्चे मोदमार्गका निर्णय करना बहुत कठिन है. क्योंकि जो जो मतग्राही है वे सर्व अपने अपने ग्रहण करे मतोंकों सच्चे मानते है. उनको किसीमतके शास्त्रका स्वाद नही और जो प्रेक्षावान है और सत्यके ग्राहक है ननही वास्ते यह ग्रंथ है. क्योंकि पदपात करि रहितही पुरुषोको शुः धर्मकी प्राप्ति होती है. इस ग्रंथका इस ग्रंथके लिखनेकातो प्रयोजन इतनाही है कि प्रयोजन. वर्तमान समयमें इस आर्यखंममें हिंज्योंके जो मत चल रहे हैं तिनमेंसें जैन बौध वर्जके सर्व मतांवाले वेदोंकों सच्चा शास्त्र मानते है. परंतु वेदों में क्या लिखा है और किस किस प्रकारके कैसे कैसे देवतायोंकी नक्ति पूजा यज्ञादिक लिखे है और वेद किसके बनाये है और किस समयमें बने है यह बात बहुत लोक नही जानते तिनको पूर्वोक्त सर्व मालुम हो जावेगा और जैनीयोंका क्या मत है यहनी मालुम हो जावेगा. वेदके पुस्तक वर्त्तमान संस्कृत नाषासें कुक विलक्षण संस्कृतमें है. इस वास्ते पौराणिक पंडितोंसे वेदांका यथार्थ अर्थ नही होता है. सायनाचायदि जो नाष्यकार हो गये है तिनके करे नाष्य जब हाथमें लेकर बांचीएतो वेदांका अर्थ प्रतीत होते है. वेद विरुद्ध म. वेदके प्रत्येक वाक्यकी मंत्र ऐसी संज्ञा है. वेद ब प्रदान हुत कालके बने हुए है परंतु कपिल, गौतम, पतंजलि, कणादादिकोंने जो वेदांको गेमके नवीन सूत्र बनाये है तिसका कारणतो ऐसा मालुम होता है कि वेदकी प्रक्रिया अटी नहीं लगी होगी नहींतो वेदोंसे विरुद कथन वे अपने ग्रंथोमें क्यों लिखते. क्योंकि वेदोमंतो यज्ञादिक कर्मसें स्वर्गप्राप्ति लिखी है. और उपनिषद् नागमें अद्वैतब्रह्मके जाननेसे मुक्ति कही है, और प्रज्ञानानंदब्रह्मका स्वरूप लीखा है, और सांख्यमत वाले यज्ञादिकोंको नहीं मानते है. मानना तो उर रहा यज्ञमें पशुवधकों ब Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. दुत बुरा काम कहते है और प्रकृति पुरुषवादि होनेसे अद्वैतके विरोधी है. और गौतम अपने सूत्रोंमें मुक्तिका होना ऐसें लिखता है, तथाच गौतमका प्रश्रम सूत्र ॥ “प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टांतसिहांतावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वानासबलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञामानिःश्रे यसाधिगमः " ॥ १ ॥ “प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिहांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंमा, हेत्वान्नास, बल, जाति, निग्रह अने स्थान,-ए सोलापदार्थका तत्वज्ञानसे मोदकी प्राप्ति होती है." इस सूत्रका तात्पर्यार्थ यह है कि सोला पदार्थके जाननेसे मुक्ति होती है. मुक्तिमें आत्मा झानसे शून्य हो जाता है और दंतकथामें यह नी सुननेमें आया है की गौतमनें न्यायसूत्र वेदोंहिके खंडन करने वास्ते रचे है.. वेदमें गौतमाः और उपनिषदकी नाष्य टीकामें कपिल, गौतमादिमतोका खं डन. दिके मतोंका खंमनन्नी लिखा है. इससे यह सिद दुाकि कपिल, गौतमादिकोंकों वेदोंकी प्रक्रिया अगी नही लगी. तब ननोंने विलक्षण प्रक्रिया रची. वेद परत्व प्रा दाल जो ब्राह्मण वेदपाठ मुखसें पढते है वे वेदीह्मणोकी भिन्न भिनाजा. या कहे जाते है. और जो यज्ञादिक जानते है तिनको श्रोत्रिय कहते है. और जो गृहस्थके घरमें उपनयन, विवाह इत्यादि संस्कार करते है तिनको याझिक अथवा शुक्ल कहते है.जो श्रोताग्निकी सेवा करते हैं तिनको अग्निहोत्री कहते है. और जिनने यज्ञ करा होवे तिसको दीक्षित कहते है. एक शास्त्रके पढे शास्त्री और सर्व शास्त्रोंके पढेको पंमित कहते है, इत्यादि अनेक तरेंके ब्राह्मणोंके नाम है. वेदमें मुख्यधर्म यज्ञका करणां बतलाया Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ अज्ञानतिमिरनास्कर. है. वेद मंत्रका विनियोग यज्ञार्थ होता है. और प्राचिन कालमें ब्राह्मण और क्षत्रियोंने अनेक तरेके यज्ञ करेथे तब देव तुष्टमान होकर मनमाना वर देते थे. वेदमें देवताकी यह कथन गीतामें लिखा हैः॥“सह यज्ञाः प्रजाः साष्ट सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः अनेन प्रसविष्यध्वमेपवोस्लिष्टकामधुक् ॥ देवान्नावयतानेन ते देवा नावयंतु वः। परस्परं जावयंतः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ यज्ञानवति पर्जन्यो यशः कर्मसमुनवः कर्म ब्रह्मोनवं विहि ब्रह्माकरसमुन्नवं ॥ यज्ञाशिष्टाशिनः संतो मुच्यते सर्वकिल्विषैः” ॥ अर्थ-पूर्वे ब्रह्मानें यज्ञका अधिकारी ब्राह्मणादि प्रजाकुं यज्ञ करनेकी क्रिया बताई और कहाकी, यज्ञक्रिया तुम करो जो तुम वांगेगे सो तुमको मीलेगा, आ यशोवमे तुम देवोकी वृद्धि करो. यो यज्ञ करनेसे ओ देवताओ तुमारी वृद्धि करे. श्रो रीतिसे परस्पर वृद्धि करनेवाला तुमे ओर देवता नन्नय इष्ट वस्तु संपादन करों गा. यज्ञ करनेसे वर्षा होवे, कर्मोसे यज्ञ होवे वेदोसे कर्म होवे ओर वेद अदर ब्रह्म परमात्मासे नुत्पन्न नया है. इसतरें मनुष्यकों नपदेश कहा. इस कालमें अनेक स्वबंदाचारी स्वकपोलकल्पित पंथ चलाने वाले स्वकपोलकल्पित अर्थ बनाके वैदिकी हिंसा विपाने वास्ते मनमानी कल्पना करकेमू - र्ख जनोंकों ब्रम अंधकूपमें गेरते है, ननका जो यह कहते है कि वेदोंमें हिंसाका नपदेश नहीं, सो जूठ है. वेदमें हिंसाका क्योंकी नागवतमें लीखा है कि प्राचिनवर्दि राजाने उपदश है. बहुत यज्ञ करके बहुत जिवांकी हिंसा करी. पिब्ली वेर नारदजीने नपदेश देके हिंसकयज्ञ गेमवाया प्राचीन जरत राजाने ५५ पंचावन अश्वमेध यज्ञ करे. रामचंद पांमवाने अश्वमेध Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. करा, नारतादि ग्रंथोमें लिखा है. तथा जैपुरमें राजा सवाई जयसिंहने अश्वमेध करा, ए दंतकथा प्रसिइ है. तथा नरुचमें बलिराजाने दश अश्वमेध यज्ञ करे नस जगें अब लोग स्नान करते है तिसको दश अश्वमेध क्षेत्र कहते है. इसी तरें नत्कंठ महादेवके पास जाबालि ऋषिने यज्ञ कराया तिस जगाका नाम खैरनाथ कहते है, और तिस जगासें नस्म निकलती है. इसी तरें हिंऽस्तानमें हजारों जगें यज्ञ हुए है. ए वैदिकी हिंसा क्योंकर उिप शक्ति है ? वैदिक यझमें बहुत हिंसा करनी पमती है,इसवातमें कुबनीशंका नही, जैन धर्मकी प्र- जिस जिस कालमें जैन धर्मकी प्रबलता होती रही बलतासे वेद साठ है तिस तिस कालमें वैदिक हिंसा बंद होती गई गइ. है और जो जो स्मृति वगैरे शास्त्रोंमें जो कहीं कहीं दयाका विशेष कथन है सो सो दयाधर्मकी प्रबलतासे ऋ. षियोंनेनी जगतानुसार दयाधर्महीकी महिमा लिखी है. वास्तवमें तो ऋषियोंका यज्ञ याजन करना हि धर्मथा. इस कालसें २५० सो वर्ष पहिला जब जैन दयाधर्मीयोंका जोर बढा तब वै. दिकधर्म बहुत लुप्त हो गयाथा. केवल काशी, कनोज, कुरुक्षेत्र, काश्मिरादि स्थानोमें किंचित्मात्र वैदिकधर्म रह गयाथा बाकी सर्वजगें जैन जैन बौधधर्मही फैल रहाथा. पीठे फेर ब्राह्मणोंने कमर बांधके राजायोंकी मदतसे बौधोंको मारपीटके इस देशसें निकाल दिया परंतु जैन धर्मकों ब्राह्मण दूर न कर सके.और देशोंकी अपेक्षा मारवाम, गुजरात, मेवाम, मालवा, दिल्ली, जैपुरके जिल्लेमें अबनी जैनमतके माननेवाले लोग बहुत है. इसवास्ते इन देशोमें ब्राह्मणजी दयाधर्ममें चलतेहै. यानी नहीं करतेहै. और देशोमें अबन्नी यज्ञ होतेहै और श्रोत्रिय ब्राह्मणनी बहुत है. वेदोंका वि- वेद जम्मूलमें एक नहीया अनेक ऋषियो पास भाग. अनेक मंत्र थे. वे सर्व मंत्र व्यासजीने एकठे करे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर तिनोंके चार नाम रख्खे. जौनसे बंद रूप वाक्यथे तिनकों जुदे निकालके तिनमें अनेक देवतायोंकी प्रार्थना है. तिसका नाम ऋग्वेद रख्खा.इस वेदमें जिन देवताओं की प्रार्थना है वे देवता पुराणके रामकृष्णादि देवतायोंसे जुदे है. इस वेदमें अग्नि, वायु, सूर्य, रुक्ष, विष्णु, ६६, वरुण, सोम, नक्त, पुषा इत्यादि देवते गिरो है. वेदकी भिन्न इनकी प्रार्थना वेदमंत्रसे करीहै. जो गायन करनेभिन्न संज्ञा. के मंत्र थे तिसका नाम सामवेद रख्खा. और जिसमें यज्ञ क्रिया बतलाइ है तिसका नाम यजुर्वेद रख्खा, यजमान अर्थात् यज्ञ करनेवाला, पुरोहित अर्थात् मददगार, और चौथा वेद अथर्वण, इसमें अरिष्टशांति इत्यादि लिखाहै. चारवेद अर्थात् संहिता और ब्राह्मण ये वेदहै. वेदोकी उत्प- कोई इनकों अनादि कहता है. कोई कहताहै ब्रह्मात्तिका विविध । - के मुखसे प्रगट हुए अर्थात् ब्रह्मका मुख ब्राह्मण, ये वेद है तिनमें वेद निकलेहै. जिस जिस कालमें दयाधर्मीयोंका अधिक जोर होता रहा तिस तिस कालमें नपनिषद् नाग ऋषि बनाते रहे ननमें निर्वृत्ति मार्गकी प्रसंशा लिखी और वैदिक यझकी निंदा, तथाच मुंमकोपनीषत् “इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच् यो वेदयंते प्रमूढाः। नाकस्य पृष्टे सुकतेऽनुनूत्वेमं लोकं हीनतरं चाविशन्ति " ॥१०॥ उपनीषद्. नाष्यं ॥ इष्टा पूर्तम् इष्टं यागादि श्रौतं कर्म पूर्व वापीकूपतमागादि स्माः । इत्यादि । नावार्थः-" इष्टापूर्त ए शब्दका अर्थ असाहै. यागादि श्रौत कर्म कुं इष्ट कहेतेहै, वापी, कुआ ओर तलाव बनाना ओ पूर्त कहेतेहै. जो कोई मूढ लोको ए इष्टापूर्त-यज्ञादिक वैदिक कर्मकोही अन्ना जानता है, उसरा श्रेय-कल्याण नहीं जानता है, सो स्वर्गमें सुकृत कर्मका फल लोग के Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. अति हीन लोक अर्थात् नरक तिर्यंच गतिको प्राप्त होताहै ” १० ऋपियोंका मां प्राचीन कालमें जे ब्राह्मणथे तिनकों ऋषि कहते साहार. थे.कितनेकका नाममहर्षि,देवर्षि,राजर्षि, गंदर्षि ऐसे ऐसे जूदे जूदे नामथे, ये सर्व ऋषि अनेक प्रकारके जानवरोंकामांस खातेथे, ये बात इनके बनाये ग्रंथोसें मालुम होतीहै. वर्तमानमें म्लेच्छ यवन प्रमुख मांस खातेहै, परंतु पूर्वले ऋषि इनसेंनी अधिक मांसाहारी थे, क्योंकि इसकालमें हाल फ्रान्स देशमें घोमेके मांस खानेका प्रचार हो गयाहै परंतु अश्वमेध यज्ञकुं ऋषि हजारों वर्षसे करते आयेहै. वैदिक यज्ञक- इस्से यह मालुम होता है कि ऋषिमंगलमें घोमे का विच्छदः खानेका बहुत प्रचार था. जब श्रीमहावीरनगवंत दुआ और ननोंने गौतमादि अग्निहोत्रि दीक्षित याझिकादि ४४०० चौतालीसो ब्राह्मणोकों दीक्षा मध्यपापा नगरी में दीनी.पीठे गौतमादि मुनियोंने तथा बोझेने दयाधर्मका अधिक प्रचार करा और साविकमार्गकी वृद्धि नः, तब कर्मकांम अर्थात् वैदिक यज्ञधर्म विप गया. बहुत ब्राह्मण जैन वा बौक्षमा धारी होगये, तब कितनेक ब्राहाणोंने वैदिक हिंसाके छिपाने वास्ते कितनीक मिथ्या कल्पना बनाके खमी करी. कोश्क जगे लिख दीया “वैदिकी हिंसा हिंसा न नवति," अर्थ-वेदनें जो हिंसा कहीहै सो हिंसा नहींहै. नागवत स्कंध ११ अध्याय ५ श्लोक ११. “ यत्प्राणनदो विहितः सुरायास्तथा पशोरालननं न हिंसा.” टीका “ देवतोद्देशेन यत्पशुहननं तदान " नावार्थ-मदिराका आधाण करनां सो मदिशंका नकण है. देवताकुं नद्देशी जे पशुकी हिंसा वो आलनन बोललाहै. वेदकी हिंसा कोर कहते हैं पूर्वले ऋषि जानवरांकों मारके १५ मत फिर जीता कर देते). ननकों यह सामर्थ्यथा, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर इमकों नही, इस वास्ते हमकों जीवहिंसा न करनी चाहिये. कोई कहतेहै वेदमें हिंसा नहीं, जो हिंसाका अर्थ करतेहै तिनकी नूल है. कोई कहतेहैं मनुष्यकों मांस खानेकी इछा होवे तो यज्ञ करके खावे इस वास्ते ये विधि नहीं, संकोच है. कोई कहतेहै वैदिकी हिंसा पूर्वले जुगोंके वास्ते थी, कलिके वास्तें नहीं, अब शोच विचारके देखीये तो पूर्वोक्त सर्व कल्पनामेंसे एकत्नी सच्ची नहीं. क्योंकि पूर्वलें ऋषि जीव मारके फिर जीता कर देतेरे इस कहने में कोश्नी प्रमाण नहीं १. जोकहतेहै वेदमें हिंसा नहीं तिनोंने वेद पढेही नहीं है . वेदवचनमें जो संकोच कहतेहै सोनी जूठ है क्योंकि अनुस्तरणी इत्यादि अनुष्ठानों में मांसतो नहीं खातेहै तो फेर गौ प्रमुखकी हिंसा किस वास्ते लिखी है, जो काम्य कामके बारते हिंसा है सोनी ईश्वरोक्त बचन नहीं. पांचमा विकल्पनी मिथ्याहै क्योंकि जीस युगमें हिंसा होतीश्री तिसको कलि कहना चाहिये कि जिस युगमें महादयाका प्रकाश दुधा तिसका नाम कलि कहना चाहिये ? यह बमा आश्चर्य है. इस बाम्ने एोक सर्वकल्पना भिय्यादै सच्ची बातो रद है कि जबसें जैन बोनें हिंसाकी बहुत निंदा करी और जगतमें दयाधर्मकी प्रबलता हु तबसें ब्राह्मणों ने हिंसकशास्त्रोंके छिपाने वास्ते अनेक कल्पित युक्तियां लिखी. शाकर भाष्य- जब बौक्ष ब्राह्मणोंने कतल करवाए और जैनमत की रचनाका हेतु. थोमे देशोंमें रह गयाथा तब संवत् ६ वा ७०० के लगनग शंकरस्वामी हुए, तिनोंने विचारा कि जैनबौक्ष्मतमानके लोगोंको वैदिक धर्म अर्थात् यज्ञयागमें गौवध प्रमुख जीव हिंसा करनी वहुत मुशकिल है. वैदिक धर्म नपर निश्चय लाना कठिन है. इस लिये समयानुसार ऐसे नाप्य वनाए, और ग्रंथ रचे कि जिन पर सबका चित्त भाजावे. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tr. अज्ञानतिमिरनास्कर. दयाधर्मका म- और जैनबौक्ष्मतसें वैदिक होना बहुत बुरा न लगे. चारसें हिंसाका प्रतिबंध. तात्पर्य कि घोडे, आदमी, गौ, बलद, नैस, बकरी, नेडादिकके होमनेकी जगें घृत, दूध, पायस और पिष्टपशु चढाने लगे, और शंकर स्वामीके चेलोंने गवाही देदी, जो कुछ पहिले पुस्तकोंमें लिखाहै वे सत्ययुगादि युगांके बास्ते था. अब कलिकालके लीये नयाही धर्म रचा गयाहै.कुछ नवीनोमें पुराणे पुस्तक मिलाए गए. कुछक पुरानोमें नवीन सामिल कियेगये ग्रंथनी शंकरस्वामीके समयमें पुराणोंके नामसे बहुतरें नयेनये बनगये, परं शंकरस्वामी जवान ही मरगए, ३२ वर्ष जीवके. शंकरस्वामी आगमप्रकाश ग्रंथका करनेवाला लिखता है कि शंकशाक्त वाममा- 1 रस्वामी असलमें शाक्त अर्थात्वाममार्गी था.क्योंकि आनंदगिरिकृत शंकरदिग्विजयमें लिखाहै कि शंकरस्वामीने श्रीचककी स्थापना करी, और श्रीचक्र, वाममार्गीयांका मुख्यदेव है. शंकर विजयके ६५ में अध्यायमें श्रीचक्रकी बहुत तारीफ लिखीहै. और शंकरस्वामीने श्रीचक्रकी स्थापना करी. शृंगेरी, क्षारिका वगेरे ठिकाने इनके मठमें श्रीचक्रकी स्थापना है. पूर्वपद । शंकरस्वामीतो ब्रह्माद्वैत वादी थे ननको शाक्त लिखना ठीक नहीं. नत्तर–वामीनीतो अपनेकों ब्रह्म और शिवरुप मानते है, तथाच, रुश्यामले शांकरी पस्तौ । “ प्रज्ञानं ब्रह्म अहंब्रह्मास्मि तत्त्वमसि अयमात्मा ब्रह्म पंचमपात्रं पिबेत्.” । नावार्थ “प्रज्ञान ब्रह्म है, में ब्रह्म हूं, ते ब्रह्म तुम हो, आ आत्मा ब्रह्म है प्रेम बोलते पंचमपात्रका पान करना” तथा मनुटीकाकार, कुलकन तंत्रशास्त्रकोंन्नी श्रुतिरूप कहता है । “वैदिकी तांत्रिकीचैव विविधा श्रुतिः कीर्तिता” ॥ श्रुति दो प्रकारकी है, वैदिकी और तांत्रिकी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रज्ञानतिमिरन्नास्कर. १३ इस वास्ते वामी श्रद्वैत वादी है. तथा पद्मपुराण में पाखंडोत्पत्तिके दो अध्याय है तिनमें शिवजीने कहाहै यह वाममार्ग मैनें लोगांके ष्ट करने वास्ते बनाया है. माय. वाममार्गवास्ते कदापि यह बचन वैष्णव लोकोंने लिखा होगा: शिवका अभितोजी इस्में यह मालुम पड़ता है कि श्री महावीरजीसें पीछे यह मत चला होवेगा, नहीं तो इनके लाखों ग्रंथ कैसे बन जाते. वाममार्गके चलां पीछे फिर कुमारिलजहने पूर्व मीमांसा वैदिक यज्ञ करनेका मत चलाया, तिसमें कितनेक कर्म जिनमें बहुत हिंसाथी तिनकों काम्यकर्म ठहराके रख करा. कितनेक रख-लीये, लिख दिया कि इनके करनें सें मोक होती है. स्थापना. अद्वैतमत की यह पंथ कितनेक दिन चला पीछे शंकर स्वामीनें श्रतपंथ चलाया. वेदांत मत और कौलमत बहुत दिस्सों से मिल जाता है. क्योंकि कौलमतको राजयोग कहते है, पतंजलिके शास्त्रकों हठयोग कहते है, वेदांतको ज्ञानयोग कहते है, और गीताके मतकों कर्मयोग कहते है. इन चारो योगोमें अंतर इतना है कि राजयोगमें लोग जोगके मोह होनेकी इच्छा करते है. इग्योगमें देद दंड, समाधि वगैरेंसें मोक्षकी इच्छा और ज्ञानयोग में वैराग्य से मोक, कर्मयोगसें वर्णाश्रमके धर्म करणेंसें मोक्ष. पाखंडमत या पद्मपुराण में ऐसी कथा है कि पाखंरुमतकी वृद्धि स्ते शिवका अ करने वास्ते शिवजी अवतार लेंगें. इस कथासें कोई कहता है कि यह कथा वाममतसें संबंध रखती है. और कितनेक arra कहते है के शंकराचार्य से संबंध रखती है. क्योंकि शंकरस्वामीनें आत्मा ब्रह्म कहा यह बमा पाखंम करा. - बतार. शंकराचार्य वा ऐसें मध्व संप्रदायके वैष्णव कहते है, तथा कौल, स्ते मध्यमतका अभिप्राय. शाक्त, वाम, अघोरी, औघर और परमहंस संन्या Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ डाकावा .. . ..... .. ....... ____ अज्ञानतिमिरनास्कर सी ए सर्व एक मत वाले है. शंकरस्वामीके पीने संवत ११०५ में रामानुज नुत्पन्न हुए. ननोंने कहा कि शंकरका मत अयौक्तिक और बडा कठिन है. नूतनाथ महादेव और काली करालीकी पूजाका पीछे भिन्न भि म न मतोकी उ क्या यह दिन है ? सीतारामकों नजो और सहित्पत्ति. जसे तरो. रामानुजका मत लोगोंकों अग लगा. तब त्रिपुमकी जगें तिलक लगाना शरु कीया, लेकिन जलदही संवत १५३५ में वल्लनाचार्यनें जन्म लीया और राधा कृष्णका रास विलास ऐसा दिखलायाकि नसने बहुतोंका मन खुन्नाया. वल्लभाचार्यका विशेष करके स्त्रीयोंकी नक्ति इसपर अधिक नई. भक्तिमार्ग. इस कारण नसकी नन्नति बहुत जलद होगई. इनके विना एक नक्तिमार्ग निकला सो इसकालमें चलता है. ति-- नमें चार संप्रदायके गृहस्थ, त्यागी, वैरागी साधु इत्यादिकोंकों गिरातेहै. हरदास पुराणिक, रामदासि वारकरी ये सर्व नक्ति मार्गवाले जीवहिंसाको बहुत बुरा जानतेहै. दक्षिण देशमें कै स्थानोमें जीवहिंसा नक्तिमार्गवालोंके सबबसे दूर दुईहै.. वैदिकी हिंसा नधर संवत ६०० से नपरांत जैनमार्गकी वृद्धिा . का अस्वीकार - * मराजा ग्वालियरका, वनराज राजा पट्टनका, सिहराज कुमारपाल पट्टनके राजे इत्यादि राजायोंने तथा विमलचं, नदयन, वाग्नट, अंबम, बाहम, वस्तुपाल तेजपाल, साचासुलतान प्रमुख राजायोंके मंत्रीयोंने तथा आबु, झांझण, पेथम, नीम जगडु, धनादि शेगेने जैन मतकी वृद्धि बहुत करी, तथा और अनेक पंथ निकले परं वैदिकी हिंसा किसीनेनी कबुल नहीं करी. इन पूवोक्त जैन, वैष्णव, नक्तिवालोंने हिंसा बहुत जगासे हटादी तोन्नी कितनेक देशोंमें वैदिकी हिंसा चलती है, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. मांसाहारी वा सारस्वत, मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड, नत्कल ये पांच मण गौड ब्राह्मण है. इनकी बस्ती करांची, लाहोर पिशावरसें लेके कलकत्ते तक सर्व हिंदुस्तानमें ये सर्व मरमांसका आहार नित्य करतेहै. तिनमें दिल्यादिके आसपासके देशोमें जो गौड ब्राह्मण मांस नहीं खाते है तिसका कारण यहहै, दिल्लीके गिरदन वाहमें बहुतसी बस्ती अग्रवाल बनियोंकी है.अग्रवाल आधे जैनी और आधे वैष्णव है. गौम इनके पुरोहित है. जेकर गौड मांस खावेतो जैनी वैष्णव अग्रवाल ननको घरमें न चमने देवें. इस वास्ते इन देशोमें वैदिक यज्ञ नहीं होता है, यज्ञमें मांस अग्रवालोंके कुल में मांस मदिरेका निषेध है, और भक्षणः शविम,तैलिंग,कर्णाट, महाराष्ट्र इन चारों देशोमें यज्ञ करती वखत मांस खातेहै परंतु नित्य नहीं खाते है, और गुजरात मारवाडके ब्राह्मण किसी कारणसेंनी मांस नही खाते है. और दक्षिणमें जो वैभव संप्रदायके ब्राह्मण है वो आटेका बकरा बना करके यझमें होमके खातेहै. पशुहोमका प्र- इसीतरे बमोदरेमें करनाली क्षेत्रमें यज्ञ करा है.तथा चार: पूना, सतारा, काशी इत्यादि क्षेत्रो वहुत यज्ञ होते है, तिनमें कोरे यझमें चार कोश्में आठ कोइमें पच्चीस इतने पशु होमनेमें आतेहै. और इन जानवरोंको शस्त्रसे नहींमारतेहै क्योंकि तिनका रुधिर बाहिर नहीं गिरने देतेहै. इस बास्ते गला घोंटके मारते है. यह काम बहुत निर्दय क्रूर हृदयवालोंका है परंतु वेदाज्ञा समझते है इस्से करते है. जिस जगे जैनी गुजराती मारवामी गाममें होते है तिस गाममें अग्निहोत्रि यज्ञ करें तो कोई ननको सौदा माल देते नहीं, दामसेंनी उनको माल नही देते है. ऐसा नियम करते है. तिस्सें अग्निहोत्रियों को बहुत हरकत होती Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. है. तिस वास्ते अहमदनगर जील्लेमें बहुत गामोंमें जैनीयोंकी बहुत वस्ती है, इस वास्ते तिहां यह नहीं होते है. इसी तरे मुं. बईमें गुजराती, मारवामी जैनी और वैष्णवकी वस्ती बहुत है इसवास्ते आजतक मुंबई में यज्ञ नहीं हुआ और जिस जगें ब्राह्मणोंका बहुत जोर है तहां अबत्नी यज्ञ होतेहै. पुनामें वाजपे- सन १७७२ स्वीमें पुनामें वाजपेय यज्ञ हुवा था, य यज्ञ. तिसमें २४ चोवीस बकरे होमे थे. और बमे बसे नामावर गृहस्थ वेदिये, ब्राह्मण, शास्त्री पंमित एकठे हुए थे. ध. मशास्त्रमें लिखा है, यज्ञ करनेसे देश और नूमि पवित्र होते है. और कोनसे देशमें यज्ञ करना, किस देशमें न करना, तिसका विवरा लिखा है. तिनमें गंगा, यमुनाका कांग सबसे श्रेष्ट लिखा है. पूर्व कालमें तिस जगे बहुत यज्ञ दुवे है. तिस वास्ते तिन देशांको पुण्यनूमि कहते है. इस लिखनेसे यह सिद्ध हुआ कि वेदाहासे असंख्य पशु यझमें होमके ब्राह्मण खा गए. एकही शास्त्र फेर अपने आपकोंतो ईश्वरके आमतीये और जैनी सो आधा स - दयाधर्मीयोंकों नास्तिक कहते हुए लज्जा क्यों नहिं धा जूठा होही करते है ? तथा को कहते हैं वेदमें जो निहिलक नही सकताहै. कथन हम मान लेंगे और हिंसा प्रतिपादक श्रुतियोंको गेड देंगे यहनी कथन मिथ्या है. एकही शास्त्र सो आधा सच्चा और आधा जूग यह होही नहीं सकता है. ईश्वरके कहे शास्त्रमें यह क्योंकर हो सकता है कि अन्नप्राशन, मौजिबंधन, लग्न, अंत्येष्टि, श्राइतर्पण, श्रावणी इत्यादिक कर्म तो अचे, शेष सर्व यज्ञादिक जूठ है. यहतो सर्व सात्विक धर्मकाही प्रनाव है, जो कितनेक लोक जीवदयाधर्मकों जान गये है, अब वो समय फिर आता मालुम नहीं होता; जो सर्व लोग वैदिक हिंसा फिर करने लग जावे, ऐसातो मालुम होता है कि जेकर अंग्रेजोहिका Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. १७ राज रहा और सर्व लोग विद्या पढते रहे तो शेष रही सही वी वैदिक हिंसा बंद हो जावेगी. कर्मकांड ब्राह्म- जबसे कर्मकांम नक्त देशोंसें न गयाहै, तबसें णोकी आजीविका है. ब्राह्मण लोग बहुत दुःखी हो गये हैं; क्योंकि ब्राह्मण लोगों कि आजीविका विशेष करके कर्मकांडसेंडी होती थी. क्योंकि कोई पुरुष शांतिक पौष्टिक इष्टापूर्तादि करे तो ब्राह्मणको पैसा मिले सो कर्म लोगोंके जीसें नवता जाता है, क्योंकि बहुते अंग्रेजी फारसी पढने वालेतो ब्राह्मणोंका कहना जूठा मानते है और ब्रह्मसमाजी और दयानंदसरस्वती वगैरे तो ब्राह्मणोंके कर्मकांडकी आ जीविकाकी बेमी मोवनेकों फिरतेहै, क्योंकि ब्राह्मणोंने स्वार्थतत्पर होके लोगोंकों ऐसे मजाल में गेरा है कि लोगोंकों सच्च जूटकी कुछ खबर नहीं पकती है. जैनोकों जो ब्राह्मण नास्तिक कहते है तिसका सच्चा कारण तो यह है, जिस बखत जैन बौद्धोंके ध की प्रबलता नई तिस बखत ब्राह्मण जो इनके विरोधी थे सो इनके साथ लगनें और इनको नास्तिक कहने लगे, क्योंकि इनके कर्मaina नष्ट होनेसें इनकी आजीविका बंद हो गईथी. चाहो कोई पंथ निकले परंतु ब्राह्मणोकी आजीविका जंग न करे. तबतो ब्राह्मणस पंथ वाले कों कुछ नहीं कहते है और द्वेषनी नहीं करते है. संन्यासका प्र- प्राचिन कालमें जब अद्वैत मत अर्थात् ज्ञानपंथ निकला तब लोग संन्यासी होने लगे, तब ब्राह्मसोने तिनके साथ मिलके ऐसि मर्यादा बांधी कि प्रथम कर्म करके पीछे सर्व संन्यास लेवे, इस वास्ते अद्वैत वादीयोंके साथ ब्राह्मणोंका झगडा नहीं हुआ, जब भक्ति मार्ग निकला तिनोंने कaise निंदा करी तिनके साथ ब्राह्मणोंका वैर आज तक चला जाता है; परंतु जब ब्राह्मणोंका कर्मकांड ढीला पसा तब ब्राह्म चार. 3 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. गोंने एक और युक्ति आजीविकाकी निकाली सो यह है. तीर्थोका माहा नदी, गाम, तलाव, पर्वत, नूमि इत्यादिक जो वे. त्म्य सो टंकशाल है." दोंमें नहीं है तिनके माहात्म्य लिखने लगे, तिनको कथा जैसी जैसी पुरानी होती गई तैसी तैसी प्रमाणिक होती गई. और फलनी देने लगी. इसी तरें काशी, प्रयाग, गया, गोदावरी, पुष्कर, जगन्नाथ, श्रीनाथ इत्यादिक हजारों माहात्म्य लिखे, यह टंकशाल अवनी जारी है. पंझरी माहात्म्यकों बनायें लिखें साठ ६० वर्ष हुयेहै;माकोरकेमाहात्म्य लिखेको १४चौदह वर्ष हुयेहैं, पावकाचल पावागढका माहात्म्य, सिहपुरका माहात्म्य दोनों थोमेही वर्षोसें लिखे गयेहै. इसी तरें जाति जातिका माहात्म्य लिखाहै, जैसे नागरखंड, औदिच्य प्रकाश, रैवपुराण इत्यादि हजारों माहात्म्य प्रसिह है. इन ग्रंथोंके लिखनेवालोंने बहुत धूर्तता करी है सो धूर्तता यह है; अब कलियुग आय गया है, लोगोंकी श्रधा ब्राह्मगोंके लेख उपरसें न जायगी. इस बारते लोगोंकों गाफल न रहना चाहिये और अक्षा न गेडनी चाहिये. लोगोंगे तो नरकमें जावोंगे. कलि बुद्धि बिगाडता है. इत्यादि बहुत धमकीयां पत्रेप में लिखी है. इसी तरें कितनेक भास, तिथि, योग, बार इत्यादिकोंके माहात्म्य लिखे है. तिनको व्रत पर्वशी कहते है. व्यतिपात, सोमवार, पुरुषोत्तममास, कपिलषष्ठी, महोदय करवाचौथ संकटादिके माहात्म्य लिखे. जैसे जैसे पुराणे होते जाते है तैसें तैसें अधिक मानने योग्य होते जाते है. करोनों लाखों रुपए खरचके लोग काशी यात्रा करते है, पर्वणी और व्रत नपर दान पुण्य करते है, तिस्से माहात्म्य लिखनेवालोंका प्रयत्न करा व्यर्थ नहीं हुआ. जबतक लोगोंको अज्ञान दशाहै तबतक इस ब्रम जालसें कबी नहीं निकलेंगे. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. १॥ उसरी यह बात है कि ब्राह्मणोंकी शौकने बहुत होगई है. लोग अखाडेके बाबांको, मंदिरोकें साधु गुरुके शिख लाइ रामसिंहके कूके शिष्य नराईयोकों, और अनेक मत और वेषवालोंकों जिमाते है, परंतु ब्राह्मणोंकों नही. कितनेक ब्राह्मणोंका नाम पम्मे और पोप कहने लग गए है, यह ब्राह्मणोंकों बहुत सुखदायक है. इनकी इसमें बमी हानि है. ब्राह्मणोकी तथा ब्राह्मणोंकों ग्रहण गिननेकी रीती आती है, कुटिलता. तिसकों कालपर्व उदराके लाखों रुपक हजारों वघाँसें कमाते खाते है. ब्राह्मण लोग अपने काममें बसे दुश्यार है क्योंकि किसीका बाप मरजाता है, तब तिसका बेटा शय्या लोटादिक अनेक वस्तु ब्राह्मणोंकों देता है और ऐसे मनमें मानता है कि जो कुछ ब्राह्मणोंकों देनंगा सो सर्व स्वर्गमें मेरे पिताकों मिलता है. इधर दीया और नधर मरनेवालोंकों पहुंचा और तुरत जमा खरच हो जाता है. ए ग्रंथकादुस- इस लिखनेका यह प्रयोजन है कि जब बहुत धूर्त रा प्रयोजन. ज्ञानी और जबरदस्त होतेहै और प्रतिपक्षी असमर्थ कमसमजवाले होते है तब कोई अपने मतलबकों नूलता नहीं. कोई सत्यमार्गी परमेश्वरका जक्तही स्वार्थत्यागी परमार्थ संपादक होता है. पाखंडी बहुत होते है इस बास्ते अबनी पाखंमी लोगोंकों नचित है कि अपना लालच गेम देवें और लोगोंकों ब्रमजालमें न गेरे, सत्यविद्याका पठनपाठन करे, लोगोंकों अबी बुद्धि देवें, हिंसक और जूठे शास्त्रोंकों गेम देवें, कमा करके खावे, उल कपट न करें, सर्व जीवोंपर सामान्यबुदि रखे, दुःखीकों साहाज देवे, काली कंकाली, नैरव प्रमुख हिंसक और जूठे देवोंकों मानना गेम देवें, सत्य शील संतोषसें चले तो अवन्नी इस देशके लोगोंके बास्ते अच्छा है. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अज्ञानतिमिरनास्कर. श्री ऋषभदेव- श्रीऋषन्नदेवजीने प्रथम इस अवसप्पिणी कालमें का विद्यादान कर और भरतने न सर्व तरेकी विद्या प्रजाके हित वास्ते श्न नारतवजैन वेद बना- पीयोंकों सिखलाई और श्रीऋषन्नदेवके बड़े बेटे या. नरतने आदीश्वर ऋषन्नदेवकी स्तुतिगति और गृहस्थधर्मके निरूपक चार वेद बनाके बहुत सुशील, धार्मिक श्रावकोंकों सिखलाए और कहा कि तुम इन चारों वेदोंकों पढो और प्रजाकों गृहस्थाश्रम धर्मका उपदेश करो तब वो श्रावक पूर्वोक्त काम करणेसें ब्राह्मण नामसें प्रसिद हुए. आठमें तीर्थकर चंइप्रन तकतो सात्विक धर्मका नपदेश प्रजाको होता रहा, परंतु नवमें सुविधिनाथ पुष्पदंतहतके पीछे इस नरतखममें सात्विक धर्म लुप्त हो गयाथा; तब तिन ब्राह्मणोंने जगतमें अंधाधुंध मचाई, और वेदोंके नामसें नवीन हिंसक श्रुतियां बनाई अपनें आपको सर्वसें नत्तम और ईश्वरके पुत्र ठहराया. अपने स्वार्थके वास्ते अनेक पाखंम चलाये. जो को इनको पाखंमसें मने करतेथे ननहीको ब्राह्मण राक्षस और नास्तिक कहने लग गए, क्योंकि श्रीशषन्नदेव आदीश्वर नगवाननें ही प्रथम सात्विक और दयाधर्मका उपदेश करा, नागवतमें लिखा है नारदजोनें कै जगें हिंसकयज्ञ बुमवाये. तिसकानी यही तात्पर्य है कि जैनीयोंके शास्त्रमें नारदजीकों जैनधर्मी लिखा है. ननोंने जो हिंसक यज्ञ उपदेशसें बंद करे तो क्या आश्चर्य है ? और नागवतमेंनी ऋषनदेवजीकों विष्णुनगवानका अवतार लिखा है. पी ईश्वर जगत्कर्ता माननेवालोंका मत चला. जबसे दवा हिंसाका बहुत तकरार हुआ तिसके पीछेके बनें नारत, गीता, नागवतादि ग्रंथोका स्वरुपही औरतरेंका है. बहुत लोक मनमें ब्राह्मणोंकों शांतिरुप गरीब जानते है, परंतु जिस बखत बेगुनाह बौदोंके बाल बच्चोंकों हिमालयसें लेके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. सेतुबंध तक कतल करे और जैन मतके लाखों मंदिर तोड मूर्ति फोड अपनें देव पधराय दीयेथे, और लाखों अति नतम पुस्तकोंके नंमार जला दीयेथे; नस बखत इनकी शांति मुज्ञ देखतेतो पूर्वोक्त सर्व नूल जाते.और जैन मतमें श्रेणिक, अशोकचंद, चेटक, नदयन, वीतमय पाटनका उदयनवत्स, नदयन कोणिकका वेटा चंप्रद्योत,नव जैन राजाओ- मलिक, नवलेबिक, पालक, नंद, चंगुप्त, बिंदुसार, का समयमें भी जैनीयोंकी अशोक, संप्रति और वनराज कुमारपाल प्रमुख अशांति. नेक जैनराजे महावीरजीके समयमें और पीछे हुए तिनके राज्यमेंनी जैनीयोंने किति मत वालेके साथ जबरदस्ती नहीं करी. इस कालमेंनी सैकों जिन मंदिरोंमें जैपुर, गिरनार, आबु, करणाट प्रमुख देशोमं ब्राह्मणोंने अपने देव स्थापन कर गेमे है. थोमेंही वर्षोंकी बात है कि नज्जयनमें जैनीयोंने एक मंदिर नया बनवायाथा. जब तैयार हुआ तब ब्राह्मणोंने झटपट महादेवका लिंग पधराय दीया. इसीतरें संवत १९३१ में पालीमें जैनी-- योंकी धर्मशालामें महादेवका लिंग पधराय दीया क्योंकि ब्राह्मण मनमें जानते है ये राजे हमारे धर्ममैं है, इस बास्ते जैनी कहां पुकार करेंगे, इनकी कौन सुनेगा इत्यादि अनेक नपश्व ब्राह्मणोंने जैनीयोंकों करे परंतु जब जैनी अपनी पूरी औज पर थे इनोंने किसी अन्यमतवालेको मतकी बाबत जबरदस्ती नहीं करी, बलकि सरकारी पुस्तक इतिहासतिमिरनाशकके तीसरे खंडमें जहां राजा अशोकचंके चौदह हुकुम पाली हौंमे लिखे है तिनमेंसें सातवें हुकमकी नकल यहां दरज करते है. खुलासा सातमें आदेशका " चाहे जिस पाखंमका फकीर हो चाहें जहां रहे कोई नसे मे नहीं. सबकी कोशिश अखलाककी पुरस्तीमें है.” इस लिखनेसे यह सिह होता है कि जैन राजायोंने किसी मतवालेके साथ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अज्ञानतिमिरजास्कर. मतकी बाबत जबरदस्ती नहीं करी बलकि जैन राजायोंका राज्य प्रजाके बहुत सुधारेंमें था. इतिहास तिमिरनाशकके के स्थानों में इस बातका जिकर लिखा है. दूसरे मतवालोंकी जबरदस्ती कै जगों लिखी है. हाल दिल्ली में जो जैनीयोंकी रथयात्रा ब्राह्मण वगेरोंनें नहीं निकलने दीथी सो सरकार अंग्रेजीके दुकमसें संवत १९३५ में निकली, यह बात प्रसिद्ध है. तथा हथरस, रेवाडी, खुरजे प्रमुख शहरों में ब्राह्मण प्रमुख श्रन्यमतवालोंने जैनीयों उपर थोमी जुलमी करीथी ? यहतो अंग्रेजी राज्यकाही तेज है, जो जैनी अपने ध का त्सव करते है और सुखसें काल व्यतीत करते है. फेर ब्राह्मणों अपने आपकों श्रास्तिक और जैनीयोंकों नास्तिक कहते है यह बने आश्वर्यकी बात है. जैनोंके मतमें ब्राह्मणोंका पाखंम चलता नहीं इस बास्ते जैनोंकों नास्तिक कहते है .. पाराशर स्मृतिका अनादर. यद्यपि इस काल में जैनलोकोंमेंनी ब्राह्मणोंकी वासना सैं अनेक रूढीके पाखं चल रहे है परंतु जैनोंके शास्त्रोंमें बहुत जगतरूढीके पाखंड नहीं है. सिवाय अपने इष्ट अईतके और किसी मिथ्यादृष्टि देवकी भक्ति करनी नहीं लिखी है तथा अतीत कालमें पांचकर्म चलतेथे कलियुग में हिं- “ श्रग्निहोत्रं गवालंनं संन्यासं पलपैतृकं । देवराच्च साका निषेध. सुतोत्पत्तिं कलौ पंच विवर्जयेत् " ॥ १ ॥ यह कथन पाराशर ऋषिका है. अर्थ:- अग्रिहोत्र १ यज्ञादिकमें गायका वध २ संन्यास ३ श्रामें मांस क्षण ४ देवरसें पुत्र समुत्पन्न करना, अर्थात् देवरकों पति करना । यह पांचका कलियुग में त्याग करना. इस ऋषिने हिंसाका बहुत निषेध करा है तोजी प्रज्ञ जन हिंसा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, करते है. प्रथम अग्निहोत्र बंद करनेसे वेदोक्त यज्ञोंकी जम काट गेरी है तोनी ब्राह्मणादि अग्निहोत्र नहीं बोझते है. सांप्रत कालमें जैसे काशी में बालशास्त्रीजी अग्निहोत्री सुनने में अग्निहोत्री बहोत है." ' आते है. जूनागढका दिवान गोकुलजी काला सांख्यायनी ऋग्वेदी ब्राह्मण है, सो हाल में अग्निहोत्री हुआ है. अहमदावादका सदरअमीन नान मैरालनेंनी अग्निहोत्र लीना है. कुलाबाके बाबाजी दिवानजीका बेटा धुडीराजा विनायक नर्फे नान साहिब विवलकर ये बरसो बरस एक दो यज्ञ करके बहुत रुपये खरचते है. ये संप्रतिकालके प्राचीनबर्दिराजा है. इनके समजाने वास्ते नारद कौन मिलेगा सो कौन जाने. गोपालराव मैराल ये गृहस्थ बमोदरेमें प्रसिह थे तिनका नत्रीजा नारायणराव पांडुरंग इनोंने नर्मदा नदीके कांठे बेलु नाम गाममें सात यज्ञ करे, तिनमें लाखों रुपए खरच करे है. इसीतरे काशी प्रमुख बहुत जगें यज्ञ होते है. सिवाय गुजरात, मारवाम, दिल्ली, पंजाब के और देशोंमें यज्ञ करणेमें कोई रोकटोक नहीं है. जिस ब्राह्मण के कुल में तीन पुरुष तक यज्ञ न दुआ होवे तिसको दुर्ब्राह्मण कहते है. और तिसकों इस बाबत प्रायश्चित करणा पड़ता है. यह प्रथम पाराशरका कथन नहीं माना. १ दूसरा गवालंन्न. यझादिकमें गायका वध करणा यह रश्म मनु और याज्ञवल्क्य तक जारीश्री. पुराण और नाटक ग्रंथोनी यह विधि लिखी है तिस बास्तै गौहिंसाके निषेधकों बहुत काल नहीं दुआ. अनुमानसे ऐसा मालुम होता है तथा तैतीर्य ब्राह्मणमें और शतपथ ब्राह्मणमें नीचे लिखी श्रुति है. मधुपककाउत्प “गव्यान्यशनत्तमेहन्नालन्नते" ॥ इन ग्रंथोके पृष्ट त्ति. ।१६ । ३० । वेदाझासें मधुपर्क नत्पन्न हुआ. राजा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अज्ञानतिमिरनास्कर. घरमें आवे, वर घरमें आवे तो नत्तमही दिन गिना जाता है, तिस अवसरमें गोवध करना लिखा है. यहनी पाराशरने बंद किया तोन्नी गोदान नत्सर्ग विधि चलती है. आश्वलायन सूत्र में तथा और अन्यसूत्रामें जब मधुपर्ककी विधि बांचीए तो गवालंन अर्थात् गौवधके सिवाय और कोई विधि नहीं मालुम होती है. यह गौवधनी जैन, वौइमतवालोंकी तकरारसें बंद हुआ मालुम होता है. तीसरा कलिमें संन्यासी होना बंद करा, सोनी नहीं बद हुआ. यह पाराशरजीका नियमतो विशेष करके शंकरस्वामीने तोमा, क्योंकि शंकरस्वामीने चारोंही वरणको संन्यासी करा सो गोसांई आदिक है. और बहुत संन्यासी वाममार्गी है, मांस मदिरा खातेपीते है, बहुत पाखंड करते है, इस बास्ते बंधी करी होगी. ३ चौथा पलपैतृकं. अर्थात् श्राइमें पितृनिमित्त मांसका खाना; इस्से यह मालुम होता है कि आगे वैदिकमतवाले बहुत हिं सक थे, और शिकार मारके खातेथे. जिन जानवराकों मारके लातेथे, ननका मांस होमके बाकी खा जाते थे. यह रश्म वैदिक धर्मकी प्रबलतामें श्री. जब स्मृतियों बनाई गई तब पूर्वोक्त रश्म बंद कर दीनी, और विधि बांधी. विधिसे लोग मांस खाने लगे. ४ पुराणमेंभी मां जब पुराण बने तिनमेंनी विधिसे मांस खानेकी स खानेकी छुट है." बुट है. वैष्णवमतवाले ऐसे पुराणोंको तामसी पुराण मानते है. श्राइ विषयमें निर्णयसिंधुमें ऐसा लिखा है. “यत्र मातुलजोक्षही यत्र वै वृषलीपतिः। श्राई न गच्छेत्तप्रिकृतं यच्च निरामिषं ” अर्थ-“जहां मामांकी बेटी विवाही होवे तथा शुश्की कन्या विवाही होवे ऐसे आइमीके घरमें ब्राह्मणने श्राः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरास्कर. श्‍ जीमनेकों न जानां और जिस श्राद्ध में मांस नहीं होवे तहां किसी ब्राह्मणको श्राद्ध में जीमनेंको न जाना चाहिये. " अव बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये, ऐसे शास्त्रोंके बनाने और माननेवाले अपने आपकों श्रास्तिक और जैनीयोंकों नास्तिक कहते है. मय. वेद बनायेका तथा वेद मूल में एक वखतमें बने हुए मालुम नहीं हो भिन्न भिन्न स- ते है, किंतु जुदे जुड़े कालमें जुड़े जुड़े ऋषियो के जुदे जुदे बनाये हुए मंत्र है. वे सर्व एक संहितारूप देखने में आते है. और वेद यह जो शब्द है सो अन्यग्रंथ मेंजी लगानेकी रीतिहै. जैसे गांधर्व वेद, धनुर्वेद, श्रायुर्वेदः भारतकोंजी पांचमा वेद कहते है. वेद शब्द लगा वेदके अक्षरोंकों मंत्र कहते है, जिनमें परमेश्वरकी नाभी बने है. तथा और देवोंकी प्रार्थना है और कितनेक मंत्र विधि है, जिनमें वन याजनकी विधि है, जडमें जे ऋषि थे यकर अन्य कत्रियोंके घरमें यज्ञादिक कर्म करतेथे तिस वास्ते ये ऋषि ध माध्यक बन गये, तब तिन ऋषियोंने लोगों के मनमे यह बात दृढा देई कि वेदोंके सिवाय कुछभी न होगा, और सर्व देवते हमारे वेदमंत्रो ताबे है, देवविधिमें दे- और वेदमंत्र जिस देवताका श्रावादन करीये वो हाजर होता है, और जिसका विसर्जन करीये वो चला जाता है, और जो कुछ हम उनकों कहदेते है सो करदेते है, तिनके सिद्ध करने वास्ते हजारो ग्रंथ लिख गए है. सूर्य उगता है सो ब्राह्मणोंकी संध्याके प्रभावसें नगता है. यह कथन जारतमें लिखा है, जैसे जैसे लोगोंके दिल यह बात बैठती गई तैसें तैसें धर्माध्यक्ष ऋषियोंका अमल जबरदस्त होता गया. भागवतमें लिखा है “श्रीकृष्णजी कहते है, अत्रि, सूर्य, सोमादिकके कोप से मुजको इतना कर नहीं, जितना मुजको ब्राह्मणोंके कोपका मर है.” सो श्लोक यह है. - वताका गावा हन और सर्जन. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अज्ञानतिमिरत्नास्कर. णोसें डरता है. कृष्णभी ब्राह्म “ नाग्न्यर्कसोमा निल वित्तपास्त्रात्, शंके नृशं ब्रह्मकुलावमानात्' तब ऐसा लिख दिया, और भगवा "" "" नमी ब्राह्मणोंसें अति करते थे तो फेर ब्राह्मण अपने मनकी मानी क्यों न करे ? यही तो स्वच्छंदपणेंने हिंदुयोंका सच्चा धर्म रुबोया. अबी तक परमेश्वरजी निर्भय नहीं हुआ. " आंधे चूहे (नंदर ) थोथे धान जैसे तैसे यजमान गुरु यह कहना सत्य है. हमकों मा सोच है कि कबी हिंडुनी सूते जांगेंगे, बालावस्थाकों बोकेंगे, पक्षपातके अंधकूप निकलेंगे, निकलेंगे सही परंतु यह खबर नहीं, कूप सें निकलके पाखंडी योंके जाल में फरेंगे, सत् मार्ग में चलेंगे. ऋषि शब्दका ऋषि शब्दका अर्थ गाने और फिरनेवालेका होता है. परंतु रुढिसें ग्रथंकर्तायोंकों नाम ऋषि कहते है. अतीत काल में धर्माध्यक्ष बहुत पाखंमी और कपटी थे, राजायोंhi अपना गुलाम बना रखतेथे, और क्रिश्चियन् अर्थात् ईसाइ धर्मका धर्माध्यक्ष पोप करके प्रसिद्ध है, तिसकी फांसी सैं यूरोप खंके लोग अबतक नहीं बूटे है. यूरोपीयन लोगोंकों पोप पापकी माफी देता है, स्वर्ग चमनेका पत्ता देता है, और नरक जानेकानी पत्ता देता है, तिस वास्ते बहुत जोले लोग मरती बखत इन पोपोसें आशीर्वाद लेनें वास्ते हजारों रुपये देते है. अर्थ. पोपयोगका सर्व लोगोंकें पासतो पोप पहुंच नहीं सकता है. वर्त्तन. इसवास्ते कितनेक अपनी तर्फसें मुखत्यार बनाके देश में फिरने वास्ते भेजता है, जेकर पोप किसीकों न्यात बाहिर काढतो फिर किसीकी ताकात नहीं जो उसका संग्रह कर शके. चाहो लाख फौजका स्वामि बादशाह क्यों न होवे. पोपके आगे हाथ जोमेद छूटना होवे है, जैसा धर्माध्यक्षका जुलम अन्य देशो में है तैसा दांजी है. जब यूरोपीयन बडी अकलवालोंकों पोप Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरास्कर. २७ नहीं बोते है तो हिंदुस्तानी पशुयोंकों ब्राह्मण कैसें बोम देवे ? इस अन्यायका मूल कारण अज्ञान है. वेदविद्या गुप्त क्योंकि जब धर्माध्यक्षोंकां अधिकबल होजाता है तब रखते हैं. वे ऐसा बंदोबस्त करते है कि कोई अन्य जन विद्या पढे नहीं, जेकर पढेतो उसको रहस्य बताते नहीं. मन में यह समजते है कि पढ रहेंगेतो हमको फाईदा है, नहीं तो हमारे बिकाढेंगे. ऐसें जानके सर्व विद्या गुप्त रखने की तजवीज करते है. इसी तजवीजनें हिंदुस्तानीयोंका स्वतंत्रपणा नष्ट करा और सच्चे धर्मकी वासना नहीं लगने दीनी, और नयेनये मतोंके भ्रमजाल में गेरा और धर्मवालोंकों नास्तिक कवाया. " ८ जिन वेंदाका धर्म रखते है तिन वेदोदीनें महाहिंसक धर्म उत्पन्न करा. तथा वेदमें मदिरा पीनेकाजी मंत्र लिखा है. ऋग्वेदके ऐतरेय ब्राह्मणमें कत्री को राज्याभिषेक करनेकी विधि मी पंचिका वीसमें कांडमें लिखी है सोनीचे प्रमाणे मंत्र है. बदमें मदिरा “ इत्यथास्मै सुराकंसं दस्त श्रादधाति स्वादिष्टया पीने का मंत्र. - तां पिबेत् ” । २० । अर्थ- राजाके हाथमें मदिरेका लोटा देना और स्वादिष्ट यह मंत्र पढके पीवे. इसीतरें अनेक राजायांका राज्याभिषेक हुआ है तिनका नाम और तिनके गुरुयोंके नाम वेदमें लिखे है तिनमें परिक्षितकापुत्र जन्मेजयकों राज्यानिषेक हुआ सो श्रुति नीचे लिखी है । " तुरः कावेपयो जन्मेजयं पारिक्षितमनिषिषेच." रुग्वेद ब्राह्मण ८ । २१ । इस्सें ऐसा मालुम होता है जो रुग्वेद जनमेजय के पीछे बना है तथा जो मंत्र नीचे लिखे जाते है तिनलें ऐसा सिद्ध होता है कि वेद ईश्वरसे कहे हुए नहीं है ते मंत्र यथा । " ग्रहोंश्व सर्वा जंप्रयं सर्वाश्चयातुधान्यः " । यजुर्वेद रुी ॥ श्रर्थ - " हे रु, सर्प श्रौ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क 'अज्ञानतिमिरनास्कर. र पिशाच इनका नाश कर” ॥“हशेगं मम सूर्य हरिमाणं चनाशय" । झग्वेद । अर्थ-हे सूर्य मेरे हृदयके रोगका औ कमला को रोग नाशकर । “ नर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुदीयमामृतात्"। झग्वेद । अर्थ-हे यंबक मीटसे काकमीका फलकी माफक मुजको मृत्युसे बचाव । “मेधां मे वरुणो ददातु”। यजुर्वेद. अध्याय ३३ मंत्र में लिखा है “ मुजे वरुण देवता बहिदेवे" । तथा वेदकी श्रुतियां परस्पर विरुइती है. तिनमेंसे कुचक नीचे लिखी जाती है। गृत्समदशषिः ऋग्वेद संहिता, अष्टक २ अध्याय ६ वर्ग २५ रुचा ६-" दिवोदासाय नवति च नवेंः। पुरोव्यस्छंवरस्य "॥ गृत्समदशषि ऋग्वेद संहिता, अष्टक २ अध्याय ६ वर्ग १३ । “अध्वर्यवो यः शतं शंबरस्य पुरो विनेदाब्दश्मनेव पूर्वोः परिचपो" ॥ देवोदासी ऋषिः ऋग्वेद संहिता अष्टक २ अध्याय १ वर्ग १ए । “निनत्पुरो नवतिमिपूरवे दिवोदासाय महिदाशुषेनृतो वजेपदाशुषेनृतो अतिथिग्वायेशंबरं गिरेरुयो अवान्नरत्.” अर्थ- २६ नामा राजा था. तिसका मित्र दिवोदास नाम करके था, तिसकी तर्फसें शंबर नामा दैत्य था, तिसके साथ इंशबहुत वार लमया, तिस विषयकमें वेदमें कथा बहुत जगें आती है. श्रुतिओम पर- किसी जगें वेदमें इंऽ जो है सो पर्जन्याधिपति देव स्परविराधा है, ऐसेनी कहाहै. शंबरासुरदैत्यके निनानवे गाम इंश्ने नजम करे ऐसे एक मंत्रमें कहा है. फुसरे मंत्रमें सो १०० गाम नजम करेकी कथा है, और तिसरे मंत्रमें नब्वे ए गाम नजम करेकी कथा है, इंका पराक्रप नीचे लिखे हुए मंत्रमें बहुत बनन करा है. तिसका प्रथम बचन लिखा है. तिसमें ऐसा लिखाहै कि इंको मदिरा बहुत अच्छा लगता है इस बास्ते मदिरेको अग्निमें गेरदेवो । गृत्समदऋषि ऋग्वेद संहिताअष्टक २ अध्याय ६वर्ग१३॥ " अध्वर्यवो नरतेंशयसोममामत्रेन्निःसिंचतामघमंधः”॥तथाश्स Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. श‍ में मदिरा बहुत पिया तिसके मदसे सर्प मार ने त्रिकटुक मेरा ऐसें एक मंत्र में है सो निचे लिखा है. वेद में सर्प, विन्दु गृत्समदषिः अटक २ श्रध्याय २ वर्ष १५ ॥ मंत्र और कुत्ते के मा रने वाल- १ " त्रिकटुकेष्वपि वत्सुतस्यास्य मदे श्रदिमिंशे खा है. जघान " ॥ दुसरी जंगें सांप और विबुको पथ्थरोसे मार गेर विषे वेदमें लिखा है और इस मंत्र सांप और विका जहर उतारते है | अगस्तिषिः अष्टक २ अध्याय १ वर्ग १६ श्च १५ ।। " इतयकः कुकुंज कस्तकं निदश्मना" अश्विन देवकी प्रार्थना कुत्तेके मारने वास्ते वेदमें लिखी है सो नीचे प्रमाणे. अगस्तिकपिः रुग्वेद अष्टक १ अध्याय 8 वर्ग १० मंत्र २४ " जंजयतमनितोरायतः शुनो हतं मृधो विदधुस्तान्यश्विना " ॥ इत्यादि श्रुतियोंके लेखसे वेद ईश्वरके कहे हुए नहीं. क्योंकि ऐसी प्रनुचित प्रमाणिक और बेहूदी बातां ईश्वरके कथनमें कदापि नहीं हो सक्ती है. क्या ईश्वर रूप और सूर्य और त्र्यंबक वरुण प्रमुख विनति करता है कि मेरा यह काम तुम कर देवो ? तथा वेदूमें पुरुष स्त्री वेद में पुरुष स्त्री कुमारी कन्याकाजी होम करना करनेका लिखा है । तैत्तरीय वाह्मणे ३ कांडे ४ प्रपाठके १२५ पदेश है. अनुवाक " प्रशायैजामिम् प्रतीक्षायै कुमारीम् प्रमुदे कुमारीपुत्रम् श्राराध्यै दिधिषूपतिं " ॥ जाप्य - " आशायै जामिं निवृत्तरजस्कां जोगायोग्यां स्त्रियं प्रतीक्षायै कुमारी अनृढाम् कन्यामाते प्रमुदे दुहितुः पुत्रं प्राराध्यै दिधिषूपतिं छिविवादं कृतवती स्त्री दिधीपुः तस्याः पतिं " ॥ अर्थ - आशाके वास्ते जिस स्त्रीका ऋतु धर्म जाता रहा होवे, जोग करनेके योग्य नहीं रही होवे freet वध करना चाहिये, और प्रतीक्षाके वास्ते कुमारी कन्याका वध करना चाहिये, प्रमुदके वास्ते बेटीके बेटेको वध करना चाहिये, आराध्य के वास्ते जिस स्त्रीने दो वार विवाह और कन्याका Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. करा होवे तिसके पति अर्थात् खसमका वध करना चाहिये. यज्ञमें ऐसे शास्त्रका नपदेशक और ऐसें यझोंका कराने वाला और करनेवाला जेकर अंग्रेजी राज वर्तमानमें होवेतो कवी सरकार फांसी दीया बिना न गेमे. परम कृपालु ईश्वरके मुखसे ऐसा हिंसक शब्द कदिनी न निकले. यह महाकालासुरकी ही महिमा है जो ऐसे हिंसक शास्त्र परमेश्वरके बनाये प्रसिह होजावे और मनुष्योंकी बलि देई जावे. राजे राजके और अन्यायके अंधकार कूपमें डुब जावे, किसीकी खबर न लेवे. मुंबई सरकारे बुकनंबर ३ए नाग २ जिसमें मनुष्यवध और बालहत्या विषयक सरकारमें मुकदमा पेश हुआ था, तिसके संबंधवाले कागजपत्र उप्पे हैं. तिनमें मुंबईके गवरनर साहेब ऑनरेबल मंकनको कर्नल वाकर वडोदराके रेसीमंट साहिबने ताण १६ मार्च १ का रिपोर्ट करा है तिसमें कलम ० है तिसकी ताजीकलममें पत्रे ३६ में करामा ब्राह्मणोकी मनुष्य बलि करनेकी चाल विस्तारसें लिखी है. ऐसी रीत बहुत ठिकाने हिंऽस्तानमें थी तिसके बंद करनेकों सरकारने बहुत प्रयत्न करा है. नागपुर, जबलपुर, गुमसूर परगणेमें खोम लोक है वो मनुष्यबलि करते है. ते ऐसे समजते हैकि ऐसी बलि करा बिना वर्षा नहीं होवेगी, खेती नहीं पक्केगी. आदमीकों बांधके तिसके गिरदनवाह हजारों आदमी शस्त्र लेके तिसके अंगके टुकडे काढ लेते है. इसको मेरियां पूजा कहते है. सती होनेका सती होनाली ब्राह्मणोंनेही चलाया है. तिसका चाल ब्राह्मणो में उप्तन्न भया दाखला-१७१६ से १श्व तक तिन नव वर्षोमें है. ६६३२ विधवा बल मरी. बझी बमी इमारते बनाते हुए कितनेही मनुष्य ब्राह्मणोंके बताने मुझब जीते गाड देतेथे. वास्तुशास्त्रमेंनी बलि करनी लिखी है. केई पर्वतोंसे गिरके मरतेथे, हिमालयसें गलतेथे, काशी करवत लेतेथे, जलमें मूबके मर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरभास्कर. ३१ तेथे इत्यादि सर्व हिंसक काम ब्राह्मणोंके चलाए हुए है. नोले जीवांको बेका, उनका घरवार सर्व पुण्य करके, उनकों मरकी तरकीब बता देते थे. दान करनेका प्रचार. देवताकुं बुलि - तथा दशहरे में ( दशरा), नवरात्रों में जैसें, बकरे मारे जाते है, अनेक देवी देवता भैरव आगे अनेक जैसें, बकरे मारे जाते है. तथा वामीयोके मतमें काली पुराणके रुधिराध्यायमें अनेक जीवांका मस्तक, मांस, रुधिर, प्रमुखकी बलि लिखी है तथा पुराण ज्योतिःशास्त्रमंत्री हिंसा लिखी है. इन सर्व हिंसा के चलाने वाले और हिंसक शास्त्रोंके बनाने वाले ब्राह्मणही है. और वामीयोंकेनी शास्त्र ब्राह्मण, संन्यासी, परमइंस नाथोंके रचे हुए है. देवीभागवत वामीयोंके मतका है, तिसकी टीका नीलकंठशास्त्री काशी के रहनेवालेनें बनाई है, तिसमें देवी की उपासनाकी की प्रशंसा लिखी है. इस बास्ते सर्व हिंसक शास्त्र और मंत्र ब्राह्मणोनेंदी रचे है. वेदो में भी मंत्र है तंत्र और पुराण प्रमुखोंमें जैसें मंत्र है तैसें वेदोजी है, तिनका नमूना थोमासा नीचे लिखते है । रुग्वेदका ऐत्तरेय ब्राह्मण अष्टम पंचिका खंम २८ “अथातो ब्राह्मणः परिमरो यो दवै ब्रह्मणः परिमरं वेद पर्येनं द्वितो ब्रातृव्याः परिसपत्ना त्रियंते-ययस्याश्ममूर्धा पिन जवति किमं देवैनं स्तृणुते स्तृणुते इत्यैत्तरेय ब्राह्मणेष्ठमपंचिकायाः पंचमोध्यायः । खंम १० पंचिका" । "जयति दतां सेनां यद्युवा एनमुपधावेत् संग्रामं ॥ तैत्तरीये श्रारण्यक ४ प्रपाठक ३७ अनुवाके । वेदमें पारण- तत्सत्यं यदमुं यमस्य जंनयोः श्रादधामि तथाहि का प्रयोग हे. तत् खण्फण्मसि ३५ अनुवाके ॥ नत्तुदशि मिजावरी तख्यजे तख्यनतुद गिरीङरनुप्रवेशय ॥ मरीचोरुपसन्तु Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ . अज्ञानतिमिरनास्कर. दयावदितः पुरस्तात्रुदयाति सूर्यः । तावदितोऽमुन्नाशय । योऽस्मा न्छेष्ठि यञ्च वयं विष्मः"॥ अर्थ । ब्रह्मण परिमर इस अनुष्ठानसे राजाके सर्व शत्रु मरण पाते है. इनके अंग उपर पाषाणका बखंतर होवे तोनी सो रहनेका नहीं. इस मंत्रको जपेतो शत्रु सैन्य नागे और फत्ते मिले. महावीर नामक यज्ञ करके शत्रुके नाशनार्थ मंत्र पढना कि मेरा शत्रु यमकी दाढामें जाय. शमि खेजडीका झाम शत्रुके बिगेने तले गाडना तिस्से शत्रु तुरत मर जाता है. इसी तरे ऋग्वेदके आश्वलायन सूत्रमें श्येन अर्थात् बाजपदीका होम विधान अर्थात् शत्रुके मारनेवास्ते अनुष्ठान है लिनको अनिचार कर्म कहते है. सो सूत्र यह है. श्रौत सूत्र, आश्वलायन अध्याय ए कांड ७ । “श्येनाजिरान्यामनिचरन् १ विघनेनान्निचरन्” ॥३॥ ऐसे हिंसक शास्त्रोंकों परमेश्वर कथन करे कहने इस्से अधिक अज्ञानी दूसरा कौन है ? श्नही हिंसक शास्त्रोंने सर्व जगतमें हिंसाकी प्रवृत्ति करी है. जब कोई इनशास्त्रोंको बुरा कहता है उसीको ब्राह्मण नास्तिक कहते है. कितनेक कहते है, ईश्वर मन्युष्योंकों कहता तुम इस रीतिसें मेरी प्रार्थना करो. यह कहना जूठ है. क्योंकि वेदों में किसी जगेनी नहीं लिखा है कि ईश्वर मनुष्योंकों कहता है कि तुम ऐसें प्रार्थना करो. और न किसी प्राचीन नाप्यकारने ऐसा अर्थ लिखा है. और जो व्यानंदसरस्वतीने नवीन नाष्य बनाया है नसमें जो ऐसा अर्थ लिखा है कि ईश्वर मनुष्योकों कहता है कि तुम ऐसे कहो यह कहना दयानंदसरस्वतीका अप्रमाणिक है, स्वकपोलकल्पित होनेसें. क्योंकि दयानंदसरस्वती हमारे समयमें विद्यमान है* दयानंदका और उनके बनाए नाष्यकों काशी वगैरेके पंमित प्रमाणिक नहीं कहते है. बलिके दयानंदके लेखकों * यह ग्रंथ लिखनेके समयमें दयानंदसरस्वती विद्यमान थे, पाखंड. - - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. अर्थानास कहते है. हां जो कितनेक लोग अंग्रेजी फारसी कीताब पढे है वे तो प्रमाणिक मानते है क्योंकी ननके मनमानी बात जो दयानंद कहते है तब वे बमे आनंदित हो जाते है. जबसें वे मझेशामें और मिशनस्कूलोंमें विद्या पढने लगते है तबहीसे शनैः शनैः हिंऽधर्मसे घृणा करने लग जाते है. क्योंकि जब हिंज्योंके देवतायोंका हाल सुनते है और उनकी मूर्तियोंकों देखते है तब मनमें बहुत लज्जायमान होते है, कितनेक तो इसार, मुसलमानादिकोंके मतको मानने लग जाते हैं. और कितनेक बामजव अर्थात् किसीकोनी सच्चा नही मानते है. और कितनेक अपनी चतुराईके घमंमसे वेदादि शास्त्रोंको गटने लग जाते है, यथा संहिता ईश्वरोक्त है इसवास्ते प्रमाणिक है. ब्राह्मण और उपनिषद् जीवोक्त है इसवास्ते अप्रमाणिक है. को वेदोंके पुराणे नाष्यादिकोंकों जूठे जानकर स्वकपोलकल्पित नाष्यादि बनाते है. कितनेक कहते है वेदादि सर्व शास्त्रों में जो कहना हमारे मनको अच्चा लगेगा सो मान लेवेंगे, शेष बोम देवेंगे. तब तो वेदादि शास्त्र क्या हुये. क्रूजमोंकी तरकारी हुई, जो अच्छी लगी सो खरीद करती और जो मनमें माना तो अर्थ बना लिया. यह शास्त्र वेदादि परमेश्वरके बनाए क्यों कर माने जा सकते है? जिनके कितनेक हिस्से जूठे और कितनेक हिस्से सच्चे और मनकल्पित अर्थ सच्चे. क्या मनकल्पित अर्थ बनाने वालोंके किसी वख्तनी न्याय बुद्धि नहीं आती जो अपनी कल्पनासें जूठे शास्त्रोंकों सच्चा करके दिखाते है? इसबातमें ननोने अपने वास्ते क्या कल्याण समजा है? ऐसेतो हरेक जूठे मतवाले अपने मतके जूठे शास्त्रोंकों मनकल्पित अर्थ बनाके सच्चे कर सक्ते है. हे परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ ! ऐसी मिथ्याबुद्धिवालोंका दमकोतो स्वप्नेमेंनी दर्शन न होवे, मन कल्पित अर्थोमें जो शतपथादि ब्राह्मण और निरुक्त प्रमुखके प्रमाण दीये है लो. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अज्ञानतिमिरजास्कर. जी जूठ है, क्योंकि जब शतपथादि ईश्वरोक्तही नहीं है तो तिनका प्रमाण जूठा है. और शतपथ शब्दका जे कर सूवा अक्षरार्थ करी तो सौ रस्ते ऐसा होता है. जेकर इस अर्थानुसार समजीए तो किसी धूर्तने अपने शास्त्रकी रक्षा वास्ते सौ रस्ते पर अर्थ हो सके ऐसा ग्रंथ रचा है. शुक्ल यजुर्वेद शतपथ शुक्ल यजुर्वेदका चौदह प्रध्यायरूप ब्राह्मण कोने बनाया है है और शुक्ल यजुर्वेद याज्ञवल्क्यने बनाया है. जब वेद ईश्वरोक्त नही तो शतपथ ब्राह्मणका प्रमाण क्योंकर मान्य होवे तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसा नही लिखा है कि ऋग्वेदादिककी अमुक अमुक श्रुतियोंमें जो प्रग्नि, वायु, इंशदि शब्द है तिनका वाच्यार्थ ईश्वर है. इन शब्दांका पूर्व जाप्यकारीने तो वाव्यार्थ जौतिक अनिवाय्वादिक कहे है ऐसी जूठी कल्पनाके अर्थ आजही नवे नही कल्पन करने लगे है. किंतु प्रतीतकाल में जब मीमांसाके वार्तिककार जट्टपाद कुमारिलको वादियोंने सताया कि तेरे देवता बडे कुकर्मी है, उसने यह जवाब दिया कि लोगों ने जो पोथीयोंमें लिख लिया है कि प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा अपनी बेटी फसा अर्थात् विषय जोग करता जया, खराब हुत्रा, और इंयाके साथ कुकर्म करा; यह कहना बिलकुल जून है, क्योंकि प्रजापति नाम सूर्यका है, और उसकी बेटी नवा है, वेदों में जहां कहा है कि प्रजापति अपनी बेटी मैथुन सेवन करता नया तहां जावार्थ ऐसा है कि सूर्य उपाके पीछे चलता है. इसीतरें इंश्नाम सूर्यका है, और ग्रहल्या रात्रिका नाम है. जहां कही aria कहा है कि ने अहल्याकों खराब करा, मतलब इतनाही है कि सूर्यनें रात्रिकों खराब करा, सूर्यके नगनेंसें रात्रिकी खराबी होती है. तथा कुमारिलः " प्रजापतिस्तावन्प्रजापालनाधिकारात् श्रादित्य एवोच्यते स चारुणोदयवेलायामुपसमुद्यन्नन्येति सा तदाग Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. ३५ मनादेवोपजायतइति तदुहितृत्वेन व्यपदिश्यते तस्यां चारुण किरणा बीज निपात् स्त्रीपुरुषसंयोगवदुपचारः एवं समस्ततेजाः परमेश्वरत्वनिमित्तेन्दशब्दवाच्यः सवितेवाहर्निलीयमानतया रात्रे - रहल्याशडवाच्यायाः क्षयात्मकजरणहेतुत्वात् जीर्यत्यस्मादनेन वोदितेन वेत्यहल्याजार इत्युच्यते । न परस्त्रीव्यभिचारात् " ॥ अर्थ- प्रजापालने का अधिकारसें प्रजापतिका अर्थ सूर्य होता है. ते सूर्य प्ररुणना नदयमें नबाकी पीछे चलता है. नपा सूर्यका श्रागमनसें होती है ते वास्ते उसकी बेटी रूपे व्यपदेश होता है. तीसमें अरुका किरrरुप बीजका निक्षेप होनेसें स्त्रीपुरुषका संयोगका उपचार होते है. समस्त तेजवाला परमेश्वरत्व निमित्तरूप ईइ शब्द सूर्य में लीन होनेसें रात्रिका अर्थ अहल्या होता है. सूर्यका उदय होनेसें रात्रिरूप अहल्याका कय हेतु है. तेम जीर्ण होनेसें जार शब्दका अर्थ है तिन वास्ते ग्रहब्याजार ऐसा अर्थ होते है. इहां परस्त्रीका व्यभिचार न लेना, दयानंदसर इसी तरेका अर्थ दयानंदसरस्वतीजीनेजी वेदनास्वतीका क पोलकल्पित प्यभूमिकामें करा है, सो दो तीन पत्रे लिख मारे अर्थ. है. उनमें लिखा है कि यह रूपकालंकार है. ऐसे ऐसे प्रांतिजनक रूपकालंकार कहे विना यहां क्या काम अटक रहाया ? और ब्रह्मवैवर्त्त जागवतके बनानेवालोंकों रूपकालंकार नही सूझा ? कुमारिलजी दयानंदसरस्वतीने विशेषार्थ करा है, लिखा हैकि गौतम नाम माका है, और कहीं सूर्य, प्रजापति, वरुण, अनि, पवनादि शब्दका वाच्यार्थ परमेश्वर और कहीं सूर्य, कहीं और कुछ, इस स्वकपोलकल्पनाके यह फल है कि जूठी बात को सच्ची करनी, घोर वादीयोंका तर्कतापसें बच जाना इसी वास्ते तो दयानंदसरस्वतीजीने सर्व पुस्तक बोमके संहिता प्रमाकि मानी है, क्योंकि संहितामें अन्य पुस्तकोंकी तरे विदुंदी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. बातां बहुत नही है. जो है बी तो तिनके अर्थ बदल झाले है. क्या ऐसे कल्पनाको विधान सच्ची मान लेगे, और इस कल्पनासें वेद सच्चे हो जावेगे ? इस कल्पनासे तो वेदार्थ संशयका कारण हो गया. संशय यह हुआ कि पूर्वले मुनि ऋषि, रावण, नव्हट, महीधरादि मूर्ख अज्ञानी थे कि जिनकों सच्चा वेदार्थ नही पाया वा दयानंदसरस्वती मूर्ख अज्ञानी है जिसने पूर्व विधानोंके अ. र्थकों बोमके नवीन स्वकपोलकल्पित अर्थानास रचा है ? दयानंदसर- दयानंदजीका यहनी कहना मिथ्या है कि हम इ. स्वतीकुं उपनीषद प्रमुख शावास्य नपनीषद् और संहिताके सिवाय और पुमेंभी शंका है. स्तकोंको नही मानते है क्योंकि शतपथ ऐतरेय प्रमुख ब्राह्मण, निरुक्त, नपनीषद् आरण्यक प्रमुखका प्रमाण जो जगे जगें अपनी कल्पनाके लि६ करने वास्ते दीए है वे उपहास्यके कारण है, क्योंकि जे कर तो अन्यमत वालोंके लीये प्रमाण दीये है तो अन्यमत वालेतो प्रथम वेदोहींको सच्चे शास्त्र ईश्वरप्रगीत नही मानते है, तो प्रमाणोंकों सच्चे क्योंकर मानेगे ? जेकर प्राचीन वेदमतवालोंके बास्ते प्रमाण दीये है तबतो ननकोनी अकिंचित्कर है, वे तो ब्राह्मणनाग उपनीषद् प्राचीन भाष्यादि पुराणादिकोंको प्रमाणिक मानते है, वे दयानंदसरस्वतीके लेखकों क्यों कर सत्य मानेगे ? जेकर अपने शिष्योंके वास्ते प्रमाण दीए है सो तो पीसेका पीसणा है, वैतो आगेही स्वामीजीके लेखकों विधाताके लेख समान समजते है. प्रमाणतो प्रेक्षावानोके वास्ते दीये जाते है. प्रेक्षावानतो दयानंदसरस्वतीके लेखसे जान लेवेंगे कि स्वामीजीके दीए प्रमाण उलरुप है. क्योंकि राजा शिवप्रसादके गपे निवेदनपत्रमें तो दयानंदजी लिखते है कि में संहितायोंको वेद मानता हूं. एक श्शावास्यकों गेमके अन्य नपनीषदोंकों नहीं मानता, किंतु अन्य सब उपनीषद् ब्राह्मण ग्रंथोमें है, वे ईश्व: Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर, रोक्त नहीं है. ब्राह्मण पुस्तक वेद नही. जब दयानंदसरस्वतीजी ऐसें मानते है तो फेर ब्राह्मण शतपथादिकोंका क्यों प्रमाण देते है. और अपनी बनाई वेद जाण्यभूमिकाके ३४१ पृष्टमें लिखते है कि । इस वेदनाष्य में शब्द और उनके अर्थद्वारा कर्मainer aन करेंगे परंतु लोगों के कर्मकां में लगाये हुए वेदमंत्रो मेंसें जहां जहां जो जो कर्म प्रमिदोत्र लेके अश्वमेधके अंत पर्यन्त करने चाहिये, उनका वर्णन यहां नही किया जायगा, क्योंकि उनके अनुष्ठानका यथार्थ विनियोग ऐतरेय शतपद्यादि ब्राह्मण पूर्वमीमांसा श्रौत और गृह्यसूत्रादिकोंमें कहा हुआ है, उसीको फिर कदनेसें पीसेकों पीसने के समतुल्य अल्प पुरुषोंके लेखके समान दोष इस नाप्यजी सकता है. इस लिखनेसेंतो ऐसा मालुम होता है कि स्वामिजी ब्राह्मण और श्रौत गृह्यसूत्र सूत्रांके करे विभागश्री मानते है. श्रौत गृह्यसूत्रांकानी स्वरुप आगे चलकर लिखेंगे. इस वास्ते दयानंदसरस्वतीजीका कहना एक सरीखा नही. इसका यही ताप्तर्य है कि ब्राह्मण पुराणादिकोंमें अनुचित लेख देखके प्रतिवादियोंके जयसें दयानंदजीने अन्य पुस्तक सर्वे वेद संहिताके सिवाय मानने बोम दीये है, और पूर्वलें असें लज्जायमन होकर स्वकपोलकल्पित नवीन अर्थ बनाए है सो जिसकों अच्छे लगेंगे सो मानेगा. दयानंदसरस्वतीका जैनमत विषे जूट और दमतो दयानंदसरस्वतीके बनाए श्रर्थीको कदापि सत्य नदी मानेंगे, क्योंकि दयानंदसरस्वतीने विचार. अपनें बनाये सत्यार्थ प्रकाशके बारवें समुल्लास में जैनमतकी बाबत बहुत जूठी बात लिखी है. ऐसाही उनका बनाया वेदना होवेगा. दयानंदसरस्वतीने जो मत निकाला है सो इसाइयांके चाल चलन और मतके साथ बहुत मिलता है. परंतु चार वेद ईश्वरके कहे हुए है, और अमि, सूर्य, पवनरूप ऋषियों ३७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरक्षास्कर. को प्रेरके ईश्वरने वेदमंत्र कहा है और मुक्ति हुआ पीले फेर ज. गतमें आकर नत्पन्न होता है. वेदमें यज्ञका और मुक्तिबाला जहां चाहता है वहां नमके चला प्रयाजना जाता है, और ईश्वर सर्वव्यापी है, जीव और परमाणु अनादि है, घी सुगंधीके होमनेसें वर्षा होतीहै, हवा सुधरती है, मुक्ति वा स्वर्ग ऐसी कोई स्थान नहीं, इत्यादि वातें तो इसार मतसें नहीं मिलती है. शेष वात प्रायः तुल्यही है.बमे आश्चर्यकी बाततो यह है, प्राचीन ब्राह्मणोंके मतकों गेडके अन्यमतवालोंके शरणागत होना और जो कुछ अंग्रेजोंने बुहिके बलसें तार, रेल, धूर्यके जहाज आदि कला निकाली है, ननही कलाकों मूो आगे कहना कि हमारे वेदोमेंनी इन कलाका कथन है. सूय और पृ. दयानंदसरस्वती इस यजुर्वेदके मंत्रसे सूर्य स्थिर थ्वी विषे दयानंदका वि और पृथ्वी ब्रमण करती सिह करता है."आयंगौः चार. पृभीरक्रमीदसदन्मातरं पुरःपितरं च प्रयत्स्व॥” यजुर्वेद अध्याय ३ मंत्र ए तथा इस मंत्रसे तार ( टेलीग्राफ) की विद्या कहता है. "युवं पेदवे पुरुवारमश्विना स्पृधां श्वेतं तरुतारज्वस्पथःशर्यैरनियं पृतनासुजुष्टरं चर्कत्यमिमिवचर्षणीसहम्॥"ऋग्वे. द अष्ठक ? अध्याय ७ वर्ग २१ मंत्र १० जेकर तो पूर्व नाष्यकारोंने इनमंत्रोका इसीतरें अर्थ करा होगा तब तो दयानंदका कहना ठीक है. नहीं तो स्वकपोलकल्पनालें क्या होता है ? वेद विषे पांड- तथा दयानंदसरस्वतीजी जो वेदोंका घमंम करता त मोक्षमूलरका अभिप्राय है कि वेद ईश्वरके रचे हुए है, अति उनम पुस्तक है, तिनकी परीक्षा करने वाला विचक्षण पंमित मोकमूलर अपने बनाये संस्कृत साहित्य ग्रंयमें लिखता है कि वेदोंका बंदोनाग ऐसा है कि जैसें अज्ञानीके मुखलें अकस्मात् बचन निकला Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. ३७ होवे ऐसा कहना बुद्धिमान मध्यस्थोंका जूट नहीं हो सकता है, क्योंकि मोकमूलरने बौद्धमतकी स्तुति सर्व मतों अधिक लिखी है, इस वास्ते उनकों किसी मतका पक्षपात नही था, हकीकत में वेदोके मंत्र संबध और पुनरुक्त अनर्थक हिंसकतो हमकोंजी मालुम होते हैं क्योंकि वेद एक जनके बनाये हूये नहीं. व्यासजीनें इधर उधर रुपियों श्रुतियां लेकर अपनी मति अनुसार बनाये है. इनकी पत्नि आगे चलकर लिखेंगे. वेदमें कितनेक मंत्रो कृषि क्षत्रिय है, कितनेक नूनी थे, कवितू और विश्वामित्र ये क्षत्रि थे और कवप, एलुप ये शू दासीपुत्र थे, इनकी कथा ऐतरेय ब्राह्मण में है. तथा कितनेक प्राचीन प्राचार नरमेव १ गोमेव २ अश्वमेव ३ अनुस्तरणो ४ नियोग ए शूलगव ६ श् देवरके साथ विवाह द्वादश पुत्र पपैतृक ए महाव्रत १० म धुपर्क ११ इत्यादि जैन वैष्णवमतको प्रबलता वंदनी हो गये है, तो इन अनुष्ठानोंके मंत्र ब्राह्मण लोग पुण्य जानके पठन पाठन स्वाध्याय करते है. और यज्ञ में पशुकों बहुत क्रूरपरोसें मारके तिसके मांसका होम करके जहण करते है. यह बात बहुत लोगों कों ही नही लगती है के इसी तरें गोमूत्र, गौका गोवर, दूध, घी, दहीं एकटे करके शुके वास्ते पीते है परंतु यहबात जूठी है. लोगोंको इसपर श्रद्धा नही प्राती है. वेदका नाममा- इसीतरें नप काशी यदि शरोमं ब्राह्मण र्ग. प्रमुख बहुत लोग वामी बन रहे है. अनेक जीवांकी हिंसा करते है. मांस खाते है, मदिरा पीते है. परंतु वामीयोंके शास्त्र में गौकी बलि नहीं लिखी. गोमांसनकलनी नही लिखा. इस वास्ते वामीयोंका मत गोवधनिषेधके पीछे चला है. वाम मार्गी जो कुकर्म नहीं करता सो करते है, मांस मदिरा, परस्त्री, माता, बहीन, बेटीसें, लोग मैथुन सेवके मोह मानते है. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ज्ञानतिमिरजास्कर. देव रहस्यमें लिखा है जंगिन, चमारी, ढेढनी, कसायन, क सालनी, घोबन, नायन, सादुकारकी स्त्री, इन श्रागेको कुलयोगिनी कहते है. इनकी योनिकुं पूजा करते है.. इनकी योनिको चुंबते है, योनिको जिव्हा लगाके मंत्र पढते है, इनसे जोग करते है, इन योनिके कालनजलको तीर्थोदक समजते है, तथा रुश्यामल में लिखा है. । वेश्याकों प्रयाग तीर्थ समान समजला, और धोबनकों पुष्कर तीर्थ समान समजला, और चमारी काशी तीर्थ समान जाननी और रजस्वला श्रर्थात् ऋतुधर्मवाली स्त्रीकों सर्व तीर्थ समान समजनी; अर्थात् इनसें जोकरनें से तीर्थ स्नान जैसा फल है इत्यादि विशेष वाममार्गका स्वरुप देखना होवेतो अहमदावादके ठापाको बपा आगम प्रकाश ग्रंथ देख लेना. इस वाममार्गके सर्व ग्रंथ ब्राह्मण और सन्यासी, परमहंस परिव्राजक, और नाथोंके बनाए हुए है. इनकी ब्राह्मण निंदा नहीं करते है. बलकि हजारों ब्राह्मण इस मतकों मानते है.. इस प्रस्तावना के लिखनेका तो यह प्रयोजन है कि नास्तिक कौन है और आस्तिक कौन है तथा जो कहते है जो वेदांको न माने वे नास्तिक है तो हम नव्य जीवांके जानने वास्ते वेदोंका दाल लिखते है, क्योंकि बहुत लोक नहीं जानते है कि वेदों में क्या लिखा है और जैनी वेदोंकों किस कारणसें नही मानते है. सो सर्व इस ग्रंथ के बांचनेसें मालुम हो जावेगा. इति तपगच्छीय श्रीमन्मणिविजयगणितच्छिष्यमुनि बुद्धिविजयशिष्यमुनि आत्माराम (आनंदविजय ) विरचिते अज्ञानतिमिरभास्करे प्रथमखंडस्य प्रवेशिका संपूर्णा. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अज्ञानतिमिरभास्कर. प्रथम खंड. इस प्रथम की प्रवेशिकामें इस प्रथम खंममें प्रवेश करनेके वास्ते जो जो विषयकी आवश्यकता थी सो सो विषय लिख दिया है. अब वेदमें क्या लिखा है आदि सर्व दकीकत उक्त वेदांकी श्रुतियों का प्रमाण सहित लिखा जायगा. डाक्तर दोग साहेबने ऐतरेय ब्राह्मण शुद्धि करके गप्पा है तिसमें अग्रिका स्थापन, ऋत्विजका वर्णन सो सर्व इस तरें जानना. १ श्राहवनीय ४ शामित्रामि १ श्रध्वर्यु a नन्नेत्ता ७ ब्राह्मणासी १० प्रष्टावाक १३ प्रति १६ ब्रह्मा १७ सोमक्रयी 6 अनिका नाम. २ गाईपत्य पुरोदितनेद. २ प्रतिप्रस्थाता ५ होता ८ नेष्टा ११ नगाता १४ सुब्रह्मण्य १७ सदस्य ३ दक्षिणामि ३ अग्नीध ६ चैत्रावरुण पोता १२ प्रस्तोता १५ ग्रावस्तोता १८ शमिता Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D १ इध्मा ४ स्रुचा उ स्वरु १० वायव्य कलश १३ स्वधीत १ यज्ञशाला ४ बहिर्वेदी ७ संचार १० मार्जालिया १३ द्वार १६ दविर्धान १ दीक्षणीय ईष्टि ध धर्म ७ सूत्या १० तृतीय सवन १३ ऐन पशु १६ वपायाग अज्ञानतिमिरजास्कर. पात्रे व स्थाने. २ बर्दि ५ चमस ० उपवर ११ ग्रह १४ पुरोमाश यज्ञशालाके भेद. २ महावेदी ५ शमित्रशाला ८ प्राग्वंश ११ मिश्रीयागार १४ प्रतिवर १७ शालामुखी अनुष्ठान विषे नाम. २ प्रायणीय ईष्टि ५ अमिषोमीया क्त प्रमाण पंचिकाके आरंभ में ऐसा लिखा हे ! ३ धृष्णी ६ ग्रावण ९ शेणकलश १२ इडासुनु १५ पुत नृता ३ आतिथ्य ईष्टि ६ पशु ८ प्रातः सवन १२ सोमपान एए माध्यानसवन १२ श्राश्वीन पशु १५ वरुणेष्टि १४ अवनृत १७ पशु नपाकरण १८ पश्वालंजनं की क्रिया ओर सामग्री बताई है, दूसरी ३ अंतर्वेदी ६ चत्वाल ‍सद १२ पत्नीशाला १५ यूप १० धर्म १ यज्ञेन वै देवा ऊर्ध्वाः स्वर्ग लोकमायंस्ते बिभयुरिमन् नो दृष्ट्वा मनुष्याश्च ऋषयश्चानुप्रज्ञास्यतीति ॥ द्वितीय पंचिका प्रथम खंड ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. ३ भावार्थ:-देव यज्ञ करके स्वर्गमें गये तिस वास्ते मनुष्य और ऋषीयोंने यज्ञ करणा और यूप स्थापन करणा यूप अर्थात् यज्ञार्थ जो पशु ख्याते है तिसके बांधनेका स्तंभ, पीछे तिस प शुके शमन अर्थात् मारकी प्रज्ञा लिखी है. २. दैव्याः शमितार आरभध्वमुत मनुष्या इत्याह ० अन्वेनं माता मन्यतामनु पितानुभ्राता सगर्योऽनुसखा सयूथ्य इति जनित्रैरेवैनं तत्समनुमतमालभंत उदीचीनां अस्य पदो निधत्तात्सूर्य चक्षुर्गमयताद्वांत प्राणमन्ववसृज तादंतरीक्षमसुं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं शरीरं० ऐतरेय ब्राह्म ण २ पंचिका ६ खंड ॥ इसतरे इस वेदमंत्र में पशुके मातापितासें प्रार्थना करते है यह पशु हमको देन तद पीछे अध्यर्यु अर्थात् मुख्य पुरोहित तिसकी आज्ञा पशुको शमित्रशाला अर्थात् वध करनेकी शाला में ले जा करके उत्तरकी तर्फ इसके पग राखके शमिता अर्थात् वघ करनेवाला पुरोहित तिस पशुको मुष्टीसें गला घोंटके मारता है. तद पीछे स्वधीत अर्थात् सुरा और इमासुनु अर्थात् लकमीका ढीमा पर तिस पशुकों डालके तिसको फामके तिसका मांस काढते है. तिसका होम करके जो मांस बाकी रहिता है तिसकों सर्व पुरोहितमें बांटा करते है अर्थात् तिस मांस दिस्से करके सर्व ब्राह्मण बांट लेते है सो नीचे प्रमाणे श्रुतिसें जानना ॥ ३ अथातः पशोर्विभक्तिस्तस्य विभागं वक्ष्यामो हनु सजिव्हे प्रस्तोतुः । इत्यादि ७ पंचिका १ खंड ऐतरेय अर्थ-मांस काढके देना इनु जिव्हा सहित प्रस्तोताका हिस्सा है प्रस्तोता नपर लिखे पुरोहितो में १२ बारवां । कंठ ककुद संयु ० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्रज्ञानतिमिरजास्कर. क्त प्रतिदर्ता १३ को || श्येन वक्ष नाता ११ को पुरोहित को पासा सांस अध्वर्यु १ को दाहिना उपगाताकों । दाहिना प्रंस अर्थात् खन्ना प्रतिप्रस्थाताको दाहिना कटिका विभाग रथ्या स्त्री ब्राह्मणो वरसक्थं ब्राह्मण वंसिकों. नरु पोताको दाहिनी श्रोणी होताकों प्रवर सकू मैत्रावरुणकों नरु प्रष्टावाकको दक्षिण वाद नेष्टाकों इत्यादि पशुके अंग मांसका विभाग करके बांटना, ऐतरेय गोपथानुसार ॥ यज्ञपशुकों देवता स्वर्गमें ले जाते है तिस कदनेकी यह श्रुति नीचे लिखी है । ४ पशुर्वे नीयमानः समृत्युं प्रापश्यत् स देवान्नान्वकाम यतैतुं तं देवा अब्रुवन्नेहि स्वर्ग वै त्वा लोकं गमयि प्याम इति ॥ ऐतरेय ब्राह्मण पंचिका २ खंड ६ छछेमें नावार्थ - यज्ञ में आल पशु मृत्यु देखता है. मृत्युसें देताकुं देखता है देवता पशुसें कहता है कि, श्रम तुजकुं स्वर्गमें ले जाएँगी. पशुको फामके तिसके अंग काढनें तिसके कथन करमेवाली श्रुति नीचे लिखी जाती है: ५ अंतरेवोष्माणं वारयध्वादिति पशुष्वेव तत्प्राणान्दधाति श्येनमस्य वक्षः कृणुतात् प्रशसा बाहू शला दोषणी कश्यपेवांसाऽछिद्रे श्रोणी कवषोरू, स्त्रेकपर्णाऽष्टीवंता, षड् विंशतिरस्य वक्रयस्ता अनुष्ठयोच्यावयताद्, गात्रं गात्रम स्यानूनं ॥ ऐतरेय ब्राह्मण पंचिका २ खंड ६ ॥ अर्थ-वाती मेंसे इन सरीखा मांसखंग काढना और कोदोवा की सरीखा पीवले दोनों पगोमें दोटुकमे मांस के काढने और प्रागेके दोनो पग में तीर सरीखे दोटुकमे मांस के काढने ओर ख Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. बामेंसे कबु समान दोटुको मांसके काढने पीने संपूर्ण काढनी और जानुसे ढाल समान दो टुकमे मांसके काढने और इन पांगुलीयोमेंसें अनुक्रमसें २६ ग्वीस टुको मांसके काढनें और वे सर्व संपू. र्ण होने चाहिये. और जो कुछ मल मूत्र इत्यादि पदार्थ निकलेंगे वे सर्व जमीनमें गामदेने चाहिये सो श्रुति कहनेवाली नीचे लिखते है. ६ ऊवध्यगोहं पार्थिव नावार्थ-नसका सब अंग पृथ्वीमें गाम देना. पंचिका २ खंड ६॥ होतार पुरोहित नीचे लिखे प्रमाणे बोलता है. ७ अध्रिगो शमीध्वं, सुशमी शमिध्वं शमीध्वमध्रिगा ३ उति त्रि—यात् खंड ७ में. अर्थ-अजीतरें मारो मारणेमें कसर मत रखनी । रक्तलहु राक्षसकों दे देना कहा है । सो आगे श्रुति लिखी जाती है. ॥ ८ अस्ना रक्षः संसृजतादित्याह । अर्थ-रक्तसें राक्षसकुं देना. खंड ७ पीछे कलेजेका होम वपाहोम जिसको कहते है सो ईसरीतीसें लिखा है सो श्रुति. ९ तस्य वपामुखिद्याहरंति तामध्वर्युः त्रुवेणाभिधार यन्नाह। अर्थ-तिसकी चरबी लेकर तिसमें अध्वर्यु स्रुवमे रखते है. खंग १२ १० सर्वमायुरेति य एवं वेद । अर्थ-ए आख्यान जे जानता है सो आयुष्य प्राप्त करते है. इस आख्यानके जाननेका फल यही है कि आयुष्य वृद्धि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. होती है तिसके कथन करनेवाली श्रुति नीचे लिखी जाती है. वपायाग अर्थात् कलेजाका होम करेतो ऐसा फल श्रुतिमें नीचे लिखे प्रमाणे कहा है. ११ वपायामे हुतायां स्वों लोकः प्राख्यायत । अर्थ-च रबीका होमसे स्वर्ग लोक मिलते है. १२ सोऽग्नेर्देवयोन्यां आहुतिभ्यः संभूय हिरण्यशरीर ऊर्ध्वः स्वर्ग लोकमेति । अर्थ-अनिसें देवयोनिमें आहुति डारनेसे हिरण्य शरीर प्राप्त करके कवं स्वर्ग लोकमें जाता है.पंचिका १४ खंग ॥ पशुका विन्नाग करना सो लिखा प्रमाणे ३६ रत्तीप्त विनाग करने चाहिये और ऐसें करें तो स्वर्गलोकमें जाते है और उक्त प्रमाण विन्नाग करनेकी रीति देवनाग ऋषीयाने ठहराई. जब वे मरगये पीछे कोई देव गिरजा ऋषीकों बताई तिसका अन्यास करना तिस विषयक ऐसा नीचे प्रमाणे लिखा है ॥ १३ तत् स्वर्गाश्च लोकानाप्नुवति प्राणेषु चैवतत्स्वर्गेषु प्रातितिष्ठं तो यीत एतां पशो विभक्तिं श्रौत ऋषिदेवभागो विदांचकार गिरिजाय बाभ्रव्यायऽमनुष्यः प्रोवाच ७ पंचिका १ खंड ॥ स्वर्ग लोकोकुं प्राप्त होता है. प्राण स्वर्गमें चाल्यागया पीले ए पशु होमका विन्नाग और देवन्नाग गिरिजा शषिकुं बतलाया ओ अमनुष्य (देव) हो कर ते कहेता है. हरिचंड नाम एक राजा था तिसके पुत्र नहीं था इस वास्ते वरुण देवकी आज्ञासें अजीगत ऋषिका पुत्र शुनःशेफ विक्ता दूआ मोल लेके तिसको मारके यज्ञ करनेका विचार कराया, यह Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम, कथा विस्तार सहित रुग्वेदमें लिखी है वे श्रुतियां नीचे लिख । है. १४ हरिश्चंद्रो वैधस ऐक्ष्वाको राजाऽपुत्र आस० ७ पं० खं० १३-१४-१५-१६ ॥ सर्व ग्रंथो में जितने यज्ञ लिखे है तिन सर्वमें हिंसा है सोई म पुराण में कहा है || हिंसा स्वभावो यज्ञस्य । अर्थ-हिंसा एज यज्ञका स्वाव है. इसतरें चारों वेदोमें श्रेष्ठ जो रुग्वेद है तिसको स्वरूप वर्णन लिखा. पीछे कृष्ण यजुर्वेद जिसकों तैतरीय कहते है और शुक्ल यजुर्वेद जिसकों वाजसनीय कहते है तिनका स्वरूप लिखूंगा. कृष्णका यजुर्वे प्रथम तैतरीय ब्राह्मण बांचता ऐसा मालुम होता दका विचार है कि इसवेद में यज्ञ यजनकी क्रिया बहुत बढाई है और यज्ञ अनुष्ठानमें चारों वेदका काम पकता है तिनमें यजुर्वेदका बहुत काम पता और यजुर्वेद पढा हुआ होवे तिसकों ही अध्वर्यु करने में आता है. तैतरीय यजुर्वेदके ब्राह्मण में नीचे लिखी श्रुतियां है. १ दैव्याः शमितार उत मनुष्या आरभध्वं ३ कांड ६ अध्याय ६ अनुवाक. २. अध्रिगो शमीध्वम् सुशमीशमीत्वम् शमिध्वमधि गो ३ कां ६ अ. ६ अनु. ३. सायनाचार्यज्ञाप्ये क्रूरकर्मेति मत्वा तडुपेक्षणं मानू दितिपुनः पुनश्वचनं. जिसतरें ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में पशु मारनेके वास्ते आज्ञा लिखी है तिसरें इस वेद में वचन लिखें है । सायन नायार्थ, यद्यपि यह निर्दयपणाका काम है तोनी इसकी उपेक्षा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, न करनी ? अवश्यमेव करना इस वास्ते श्रुतिमें तीनवार उच्चारण करा है इस वेदके शेष वचन नीचे लिखते है ४. द्यावाप्याथ्विव्यां धेनुमालभन्ते वायव्यं वत्समाल भन्तो कां १ अध्याय ३ अनु ५ ५. एष गोसवः कांड २ अध्याय ७ अनुवाक ५ ६ प्रजापति पशूनसृजत एतेन वै देवाजत्वानिजित्वा यं काममकामयन्तमाप्नुवन् कां. २ अध्याय ७ अन १४ ७प्राजापत्योवाअश्वः ॥ यस्या एव देवतागाः आलभ्यते॥तयैवेन १ समर्धयति कांड ३ अध्याय ८ अनुवाक३ ८ यदेत एकादशिनाः पशवा आलभ्यते ३-९-२ ९ नानादेवत्याः पशवो भवंति आरण्यान् लोकादशीन आलभ्यते अस्मैवै लोकाय ग्राम्यपशव आलभ्यते ३-९-३ १० ग्राम्या १ श्चारण्या १ श्च उभयान्पशनालभते ३९-३ ११ तेजसा वा एव ब्रह्मवर्चसे व्युध्यते॥ यो अश्वमेधेन न यजते. १२ यदजावयश्चारण्याश्च ते वै सर्व पशवः यद्रव्याइति गव्यान्पशूनुत्तमेहन्नाभते ॥ कांड ३ अध्याय ९ अनुवाक ९ १३ शुनःश्चतुरक्षस्यप्रहीन्त सध्रक मुसलभवति३-८-४ १४ पशुभिर्वाएष व्युध्यते । यो अश्वमेधेन यजते ॥ छगलंकल्मापंकिकिदिवविदिगयामिति । त्वाप्द्रान्पशूनालभ ते ३-९-९॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. १५ तानैवोभयान् प्रीणाति ३-९-१० १६ ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभते ३-४-१ ॥ १७ यदष्टादशीन आलभ्यते ३-९-१ अर्थ - चौथी श्रुतिसें १७ श्रुति तक. ४. द्यावा पृथ्वी देवताके वास्ते धेनु अर्थात् गोवध करके यज्ञ होता है. वायु देवताके वास्ते बनेका वध करणा. ५. यह इस प्रकार गाय यज्ञ होता है सो गोसव नाम यज्ञ है. ६. प्रजापति देवें पशुकों उप्तन्न करा है तिस पशुकों लेके अन्य देवताओ ने यज्ञ करा तिस्से तिनकी मनोकामना पूरी दूई है. ७. प्रजापति देवताकों घोमा योग्य पशु है तिसवास्ते प्रजाप ति देवताके ताई घोगेका वध होता है ऐसें करनेसें समृद्धि मिलती है. ८. एकादश अर्थात् ग्यारा पशुकाजी यज्ञ होता है. ए. अनेक प्रकारके देवते है तिनकों अनेक प्रकारके पशु यज्ञ में वध करके दीये जाते है. श्रारण्य जंगली पशु दशनी होते है. ग्राम्य पशुजी यज्ञमें वध करके दीये जाते है. १०. गामके तथा जंगलके दोनो ठिकानेके रहनेवाले पशु यज्ञके वास्ते वध करनें योग्य है. ११. अश्वमेध यज्ञ जो करता है तिसका तेज वधता है. १२. जंगलके पशु लेकर यज्ञ करना तिस्सें गाय विशेष करके यज्ञके योग्य है. तिसवास्ते जेकर अच्छा दिन होवे तो गायकाही वध करना. १३. कुत्तेकों लाठीसें मारके घोडेके पगतले गेरना जो श्रश्वमेघ यज्ञ करता है तिसके घरमें पशुयोंकी वृद्धि होती है. १४. बकरेका बच्चा, तीतर पक्षी, सुफेद बगला और काला Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ, १० अज्ञानतिमिरनास्कर. टपकावाला मींढा ये सर्व त्वाष्टा देवताके वास्ते यज्ञमें वध करे जाते है. १५. इस यझके करने से यह लोकमें तथा परलोकमें सुखमिलता है. १६. ब्रह्म देवताके वास्ते ब्राह्मणकानी यज्ञ होता है. १७. अगरह पशुकानी यज्ञ होता है. यजुर्वेदके ब्राह्मणकी अनुक्रमणिका देखीये तो नाना प्रकारके यझोंकी विधि मालुम होती है. तिसमेंसें कितनेक प्रकरण नीचे लिखे जाते है। संस्कृत नाम, १ सौत्रामणी १ मदिरका यज्ञ २ सुराग्रह मंत्र २ मदिरे पीरोका मंत्र ३ ऐ३ पशु ३ इंश देवताके वास्ते बकरेका वध करणा ४ गोसव ४ गायका यज्ञ ५ अत्युर्याम ५ एक किसमके यज्ञका नाम ६ वायवीय श्वेत पशु ६ वायुदेवताके वास्ते बकरेका वध ७ काम्य पश म नोरथ पूरण करने वास्ते पशु यज्ञ G वत्सोपाकरणं G वमेका वध करणा यज्ञ ए पौर्णमासेष्टि ए पूनिमके दिनमें करनेका यज्ञ १० नक्षत्रेष्टि १७ नक्षत्रदेवताके वास्ते बकरेका यज्ञ ११ पुरष यज्ञ ११ मनुष्यका यज्ञ १२ वैष्णव पशु १२ विष्णुदेवताके वास्ते बकरेका यज्ञ १३ ऐंशन पशु १३ ६६ अनि देवताके वास्ते बकरेका यज्ञ १४ सावित्र पशु १४ सूर्यदेवताके वास्ते बकरेका वध Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १५ अश्वमेध १५ घोमेका यज्ञ १६ रोहितादिपश्वालं ननं १६ लाल बकरा वगैरे पशुयोंका या १७ अष्टादश पशुवि- १७ अगरह पशुका यज्ञ धान १७ चातुर्मास पशु १७ चातुर्मासनामा यज्ञमें बकरेका वध १ए एकादशीन १ए इग्यारे पशुका यज्ञ पशुविधान २० ग्रामारण्य २० गाम तथा जंगलके पशुप्रशंसा पशुयोंका यज्ञ २१ नपाकरण मंत्र १ पशुका संस्कार मंत्र २२ गव्यपशुविधान २२ गायका यज्ञ २३ सत्र २३ बहुत दिनतक चले सो यज्ञ शव ऋषन्नालंनन श्व बलद मारनेको विधि विधान २५ अश्वालंन मंत्र २५ घोमे मारनेका मंत्र २६ अश्वसंझपनं ६ घोमेके मारनेकी विधि २७ अश्व मनुष्य ७ घोमा, मनुष्य, बकरा, गौ इन सर्वके जागो पशु प्रशंसा यज्ञकी विधि श् आदित्यदेवताक २० सूर्यदेवताके वास्ते पशु यज्ञ पशु श्ए सामसव श्ए सोमदेवताके वास्ते यज्ञ ३० बृहस्पतिसव ३० बृहस्पति देवताका यज्ञ नपर प्रमाणे अनेक यज्ञ याग इष्टि मख क्रतु उत्तरक्रतु सव इत्यादि अनेक प्रकारके याग वेदमें बतलाये है. तिन सर्वमें हिंसा पशुवध और मांसन्नकण प्राप्त होता है. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अज्ञानतिमिरास्कर. दयालु ईश्वर- इस वास्ते वेद ईश्वर दयालुके बनाये कथन करे के बनाये वेद नहीं है. दूये नहीं है. इन पूर्वोक्त कथनोंसें तो ऐसा सिद्ध होता है कि वेद नदी मांसाहारी और निर्दय पुरुषोंके कथन करे ये है, जेकर कोई कहें कि हम हिंसाका नाग टोम देवेंगे और अहिंसादि नाग अलग काढ लेंवेंगे फेर तो हमारे वेद खरे रहे जायेंगे इनको हम कहते है वि० उत्तर - जब तुम वेदोंमेंसे हिंसा के जाग काढ गेरोंगे तब तो पीछे कुबजी रहनेका नही क्योंकि जिसमें हिंसा न होवे ऐसा तो वेदका कोनी नाग नही है. तथा पशुके मारणेके वास्ते वेदमें पांच शब्द कहे है. आलजन १ करण २ नपाकरण ३ शमन ४ संज्ञपन ५ सूरतका यज्ञेश्वरशास्त्रीनें आर्यविद्यासुधाकर नामक ग्रंथ गप्पी धोके दिनों प्रसिद्ध करा है. तिसमें अनेक प्रकारके यांकी विधि है. पशुयाग अंग बेदन इत्यादिक वेदमें लिखे मृजब विधि बताई है. तिसमें बालजन शब्दका अर्थ लिखा है. सो नीचे लिखेसें जानना. नपाकरणं नाम देवकर्मोपयोगित्वसंपादकः पशोः संस्कार विशेषः एतदादिसंज्ञपन पर्यंतः क्रियाकलाप श्राननशब्देनानिधीयते । प्रकाश र पृष्ठ १ ॥ अर्थ- देवताके अर्थे पशुकों संस्कार करके वध करे तदां तक जो जो क्रिया होती है तिन सर्वकों आलमन कहते है. नरमेधक कर्म जहां वेद में लिखा है तिसमें अनेक प्रकार की जाति अनेक स्वरूपके अनेक धंधेके दोसौ दस आदमी २१० लिखे है. वे सर्व यूप अर्थात् यज्ञस्तंनसें बांधे जाते है और तिनका प्रोक्षण पुरुषसूक्त मंत्र करणा लिखा है. कितनीक जगें पशुकों बांधके बोड देना जिसको उत्सर्ग कहते है लिखा है परंतु Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १३ यह गौण पद है, मुख्य पद नहीं. कितनीक जगें विकल्प करके लिखा है परं मूल वेदके मंत्रमें पालनन इसी शब्दका प्रयोग है; तिस वास्ते मुख्य पद हिंसाहीका मालुम होता है. इसीतरें यजुर्वेदांतरगत तैतरेय शाखाका ब्राह्मण जिसमें संहिताके मंत्रोंका विनियोग लिखा है तिसकों निश्चय करता सर्व यथार्थ मालुम पड़ता है.। इसी शाखाका आरण्यक दस अध्यायरूप है. तिन दसोंके अलग अलग नाम है. पांच नपनीषद् गिणनेमें आते है और पांच कर्मोपनीषद् गिणते है. तिनमें उग ६ अध्याय पितृमेध विषे है. तिसमें ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य मर जावे तब किप्त रीतीसे बालना तिसकी विधि लिखी है. तिस उपर नाराज तथा बौधायन सूत्र है तिसमें इस अध्यायमें जो जो मंत्र है तिनका नपयोग बतलाया है. तिसमें ऐसा लिखा है कि मुरदेके साथ एक गाय मारके तिसके अंग प्रेत अर्थात् मुरदेके अंगो नपर गेरणे. और पीछेचिताको अाग लगानी.और प्रेतकों गामे में घालके अथवा शूके स्कंधे उपर उठवाके ले जाना और इस मररोवाले पुरुषकी स्त्रीकोनी स्मशान तक साथ ले जाना और तिसकों ऐसा कहनाकि तेरा पति मर गया है इस वास्ते जेकर तूनें पुनर्विवाह करना होवेतो सुखसे करले, इसतरेंसें उपदेश करां पीछे पानी ले आवनी ऐसे लिखा है. इस ग्रंथ नपर सायनाचार्यने नाष्य करा है. तिसमें तपशीलवार अर्थात् विवरणसहित वेदके सूत्र मेलके अर्थ व्याख्यान करा दूवा है. पुरुषके मरा पीने तिसके बारवें दिनमें जव तथा बकरके मांसका लक्षण मरणेवालेके संबंधियोंको कराना लिखा है. यह पुस्तक वेदके सर्व पुस्तकोंसें अधिक पवित्र गिण में आता है. वैयरी अर्थात् जैन बौक्षदि मतवाले शत्रुयोंके कानमें इसका एकनी शब्द पाने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अज्ञानतिमिरनास्कर. नही देते है. और किसी एकांत स्थल जंगल में पढनेमें आता है. वैयरी शत्रु और शके कानमेंनी नही पड़ने देते है. सन्नामें जब ब्राह्मण एकठे होते है तब संहितातो पढते है परंतु आरण्यक नही पढते है. पितृमेधके अध्यायमें जो गाय बालनी मुरदेके साथ लिखी है तिसके नाम नीचे मूजब समजणाः १ राजगवी. २ अनुस्तरणी. ३ सयावरी. इस अध्यायमें कितनेक मंत्र नाष्य सहित नीचे लिखनेमें आते है. १ परेयुवा १ संप्रक्तो। तैत्तरेय आरण्यक अध्याय ६ ॥नाष्य ॥ पितृमेधस्य मंत्रास्तु दृश्यतेऽस्मिन् प्रपाठके पितृमेधमंत्राविनि योगो नरबाजकल्पे बौधायनकल्पे चान्निहितः । अर्थ-पितृमेधके मंत्र इस प्रपाठकमें दिखते है. और पितृमेध मंत्रोंका विनियोग नाराज और बौधायन सूत्रोंमें कहा है, २ अपैत दूहय दिहाविभः पुरा तै० आर ०अ०६ कल्प । दासाः प्रवयसो वहेयुः अयैनं अनसा वहंतीत्येकेषां अर्थ-मुरदेको शूवहे कितनेक कहते है गामें घालके लेजाना ३.इमौ युनज्मि ते वन्हि असुनी थाय वाढेवे ॥ नाष्य ॥ श्मौ बलीवौ शकटे योजयामि । यह दो बैल गामेमें जोतताटुं. ४ पुरुषस्या सयावरी विते प्राणमसिनसां आरण्यके कल्प। अथास्याः। प्राणान्वित्रंसमाना ननु मंत्रयते हे पुरुषस्य सयावरी-राजगवी तब प्राणं शिथिलं कृतवानस्मि-पितन् उपेदि अस्मिन लोके प्रजया पुत्रादिकया सह कम प्रापय ॥ अर्थ-अथ इस गायके प्राणाको विनाश अर्थात् हनते हुये Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंरु. १५ को अनुमंत्र है अर्थात् मंत्रों संस्कार करते है. हे पुरुषकी स. यावरी अर्थात् राजगौ मैं तेरे प्राणांकों शिथिल अर्थात् दाता हूं तूं पितरांको प्राप्त हो और इस लोक में अपने संतान करके देम - को प्राप्त कर ॥ कल्प - अत्र राजगवी उपाकरोति जुवनस्य पते इति जरवीं मुख्यां तज्जघन्यां कृष्णां कृष्णाकीं कृष्णवालां कृष्णखुरामपि वा प्रजां वालखुरमेव कृष्णं एवं स्यादिति पाठस्तु तस्यां निहन्यमानायां सव्यानि जानून्यनुनिघ्नतः ॥ अर्थ - भुवनपति कुं राजगवी देना. श्रो राजगवी मुख्य है काले नेत्रवाली और काले खरी और बालवाली गाय अथवा एसी arial लेना एसा पाठ है. इसका जानु में मारना. ५ उदीनार्यभिजीवलोकं ॥ जाप्य ॥ देनारित्वं न तिष्ट त्वं दिधिषो. पुनर्विवाहेच्छो पत्युः जनित्वं जायात्वं सम्यक् प्राप्नुहि ॥ अर्थ- हे स्त्री, तुम नगे. तेरी पुनर्विबाहकी इच्छा है वास्ते पुनःपतिका स्त्रीपणां अच्छीतरे प्राप्त करो. ६ अपश्याम युवतिमाचारंती ॥ ६ प्रपा० १२ अनु. राजगव्या हननमुत्सर्गश्चेति हौ पकौ - तंत्र इननपक्षे मंत्राः पूर्वमेवोक्ताः श्रथोत्सर्गपके मंत्रा नृव्यंते ॥ अर्थ - राजगवीका दाना और बोमना ऐसा दो पक्ष है तिनमें euter मंत्र आगे कहा है, छोडनेका मंत्र कहते है. ७ अजोसि० द्वेषा 9 सी ८ यवोसि० द्वेषांसी सर्व पुस्तक देखां पीछे माध्यंदिनी शाखाकी संदिता चा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रज्ञानतिमिरनास्कर. लीस अध्यायकी है तिसके साथ चौदह अध्यायका शतपथ ब्राह्म ण है तिसको देखते है. तिसमें क्या लिखा और जो दयानंद सरस्वती स्वकपोलकल्पित वेदनाष्यनूमिकादिमें जगै जगें शत पथ ब्राह्यणकी साखी देते है सोन्नी मालुम पम जायगा कि शत पथ ब्राह्मणनी ऐसा हिंसक यजुर्वेदका हिस्सा है. ऐसा सुनने में आता है कि व्यासजीने ऋषियोंसे लेके सर्व कमी वेद मंत्राको एकछे करके तिनके तिन ग्रंथ बनाये. भाग व्यासजी एकका नाम ऋग्वेद रख्खा सौ पैल ऋषिको दीना. ने बनाया है. दूसरेका नाम यजुर्वेद रख्खा सो वैशंपायन ऋषिकों दीना-तिनके पास एक याज्ञवल्क्य नामका शिष्य था ते यादवल्क्य तथा सर्व ऋषि आपसमें बहुत लडे तब याझवस्क्यने वेदविद्या वम दीनी तिस विद्याको तीतरोंने चुगके गायन करी तिस्सेतो तैतरेय कृष्ण यजुर्वेद तैतरेय ब्राह्मणादि बनाये गये. और याज्ञवल्क्यने सूर्यकी नपासना करके नवां वेद रचा तिसका नाम शुक्ल यजुर्वेद रख्खा. शतपथ ब्राह्मणमें सर्वसें पीछेका यह वाक्य है सो नीचे लिखे जाता है. १ आदित्यानमिानि शुक्लानि यजुषी वाजसनेयेन याज्ञवल्कीयेनाख्यायंते । शतपथ०१४ अध्या० इस वेदकी संहितामें चालीस अध्याय है तिनकी अनुक्रमणिका. दर्शपौर्णमास १-२ आधान ३ अग्नीष्टोम ४ आतिथ्येष्टि ५-६ नपांशुग्रहमंत्र ७ आदित्यग्रहमंत्र राजसूयसौत्रामणि यज्ञ १० चयन ११ चिति १२-१३--१४०-१५ शतरूड़ीयंमत्र १६ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रथमखम. चितिवसोर्धारा १७--१७ सौत्रामणी १ए----१ अश्वमेध ३२ अश्लीलनाषण ३३ पशुप्रकरण २५ अश्वमेध २५--२६-२७---- पुरुषमेध ३०-३१ सर्वमेध ३२--३३ पितृमेध ३४--३५ शांतिपाठ ३६ प्रायश्चित्त ३७--३०--३॥ ज्ञानकांम ४० इस वेद नपर नाष्य है. एक महिधरका, दूसरा मम्हटका तिसरा सायन, चौथा कर्क, इनके विना वेिदांग और देवयाझिक ये दो दूसरे है, ऐसे कहनेमें आता है, इस वेदमेसे कितनेक वाक्य. नीचे लिखे जाते है. १ ऋतस्य वा देवहविः पाशेन प्रतिमुंचामिधर्षा मानुषः ६ अध्या० हे देव दविः देवानां हविरूपयज्ञस्य पाशेन त्वां प्रतिमुंचामि। एवं पशुं संबोध्य मित्रे समर्पयति । व्यामध्यपरिमितया कुशक तया रज्या नागपाशं कृत्वा श्रृंगयोरंतराले पशुं गगं बध्नाति पाशं प्रतिमुंचेदिति । सूत्रार्थः महीधर वेददीपे ६ षष्टे अध्याये ॥ नावार्थ-पशुकों मानकी रस्सीसे यूपके बांधणा और पीले शामित्र अर्थात् मारणेवाले पुरोहितको सौंप देना ॥ और पशुकों कहना तूं देवका नद है. ऐसें संबोधन करणा.. २ देवस्य वा सवितुः ०६ अध्यायमे यूपे पशुं बधाति इति सूत्रार्थः यूपमें पशुबांधे यह सूत्रार्थहै. ३ अग्नीषोमाभ्यां जुष्टं नियुनज्मि ६ अध्याये अनिषोमदेवताभ्यां जुष्ठमनिरुचितं पशुं नियुनज्मि बनामि। अर्थ-अमि पोम देवतांकों जिसकी रुचि है ऐसे पशुकों बांधताहुं. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, ४ अदभ्यो स्वौषधीभ्यो अनुवामाता० पशुं प्रोक्षणीनिः प्रोक्तीति मेध्यं करोति । पशुनपर पाणी गंटी पोक्षण करना लिखा है. ५वाचं ते शुंधामि। प्राणं ते शुंधामि० पन्ति मृतस्य पशोः प्राणान्मुखादीन्यष्टौ प्राणा यतनानि प्रति मंत्रं शुभ्राति अनिः स्पृशति अर्थ-पशु मर गया पीठे यज्ञ करने वालेकी स्त्रीके हाथसे मार्जन करावना. ६ घृतेन द्यावाप्रथिवी० नाष्य ॥ वपामुखिद्य-द्यावा पृथिवी इति । पशूदरात वपां निष्काश्य आबादयेत् ॥ अर्थ-पशुकी वपा अर्थात् कलेजा काढके तिसके उपर घी गेरके तिसका होम करना. ७ अश्वस्तुपरोगो मृगस्ते प्राजापत्याः। २४ अध्याय अश्वमेधिकानां पशूनां देवतासम्बन्धविधायिनोऽध्यायेनोच्य न्ते । तत्राश्वमेधएकविंशति!पाःसन्ति तत्रमध्यमे यूपे सप्तदशपशवोनियोजनीयाः । शतत्रयसंख्याकानां पशूनांमध्ये पंचदश पंचदश पशुनेकैकस्मिन्यूपे युनक्ति. ८ रोहितो धूघरोहितः कर्कन्धुरोहितस्ते रोहितः सर्वरक्तः ॥ धूम्रवर्णः इत्यादि पशुवर्णनं. ९ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो० इत्यादि शुनवालः मणिवर्णकेशः इत्यादि ।। - १० प्रनिस्तिरश्वनिक विचित्रवर्णा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. ११ कृष्णग्रीवा आग्नेयाः॥ ___ कृष्णाग्रीवाः इत्यादि आग्नेयाः १२ उन्नत ऋषभो वामनस्त० ॥ उच्च ऋषभः त्रय ऐन्द्रा वैष्णवाः १३ कृष्ण भौमा० १४ धूघान्वसंतायालभते. १५ अग्नयेऽनिकवते प्रथमजालभते. १६ धूम्घा बभ्रनिकाशाः पितॄणां० । इत्यादि पशवः॥ १७ वसंताय कपिलानालभते. __ अवारण्याः पशव नच्यन्ते कपिंजलादिस्त्रयोदश १८ सोमायह सानालभते १९ अग्नये कुर्कुटानालभते २० सोमायलबानालभते. २१ भूम्या आखूनालभते. २२ वसुभ्य ऋश्यानालभते. २३ ईशानाय परस्वत आलभते. २४ प्रजापतये पुरुषान्हस्तिनालभते २५ ऐण्यन्हो मण्डुको २६ श्वित्र आदित्या मुष्ट्रो २७ खड्गो वैश्वदेव ___ एवंषष्ट्रयधिकं शतक्ष्यमारण्याः सर्वे मिलित्वा षष्ट्र शतानि नवाधिकानि पशवो जवन्ति तेष्वारण्याः सर्वे नत्स्रष्टव्या नतु हिंस्याः Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अज्ञानतिमिरनास्कर. २८ देवः सवितः प्रसुवः । यजुर्वेद अध्याय ३० इत नत्तरं पुरुषमेधः चैत्रशुक्लदशम्यारंनः अत्र यूपैकादशिनि नवन्ति एकादशानिषोमियाः पशवो नवन्ति तानियुक्तां पुरुषां सहस्रशीर्षा पुरुष इति आलंननक्रमेण ययादेवंत प्रोक्षणादिपर्यग्निकरणानन्तर इदं ब्रह्मणे इत्येवं सर्वेषां यथा स्वस्वदेवतोद्देशेन त्यागः ततः सर्वान्यूपेन्यो विमुच्योत्सृजति ततः एकादाशनैः पशुनिः संझपनादि प्रधानयागांतं कृत्वा संन्यसेत् अथवा गृहं व्रजेत् इति महीधरनाष्यं. २९ वह वपा जातवेदः यजु० अध्याय ३५ मंत्र २० मध्यमाष्टका गोपशुना कार्या तस्या धेनोर्वपां जुहोति वदं वपामंत्रेण ॥ सातवे मंत्रसे लेकर एकुनतीसवे मंत्र तकका लावार्थ लि. खते है. ६ए छसो नव अश्वमेधमें अन्य पशु चाहिये तिनके नाम लिखे है तिनमें अनेक रंगके बकरे और बलद तरह तरेहके पदी तथा अनेरे बोटे जानवर मूसे तथा मेंमक, नंट तथा गैंमा इत्यादि सर्व जातके पशुयोंका वध करणा लिखा है. वे सर्व २७ जंगलके जीव है वे गमेदेने, एसेनाध्यकार महीधर पंमितने लिखाहै और अठ्ठावीसमे मंत्रमें नरमेध चैत्र शुदि १० मी के दिनसें कर ना लिखा है. तिसमें पशुयोंकों वांधनेके इग्यारह ११ यूप स्तंन करणे और तिनसे ग्यारा बकरे तथा २०० दोसो माणस बांधके तिनका प्रोक्षण त्याग निवेदन करके जितने माणस बांधे होवे तिनकों बोम देना और इग्यारह ११ बकरे जो शेष रहे है तिनका वध करके होम करणा ऐसें महीधर नाष्यकार लिखता है. और शए एकुनतीसवे मंत्रमें माणसके दाह करनेके वखतमें गायकी वपा अर्थात् गायका कलेजा काढके होम करना लिखा है. इस Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. पूर्वोक्त अनुष्ठानका नाम पितृमेध है. जिस ठिकाने पशु शब्द आवे है तिस ठिकाने तिसका अर्थ बकरा करणा ऐसा जज्ञेश्वर शास्त्री आर्य विद्यासुधारक ग्रंथमें लिखता है ॥ यत्र पशुसामान्योक्तिस्तत्र छागः पशाह्यो भवति ॥ पृष्ट १ अर्थ-जिसमें सामान्य पशु एसा कहा है तिसमें मेंढा लेना. __ यह यजुर्वेदमें कै कै जग्गे पर ऐसी बीनत्स श्रुतियां है कि अझजनकोनी वांचनेसे बहुत लज्जा आवे. मर्यादासे अतिरिक्त कैसा कैसा बीनत्स वाक्य है सो पंडितजनको इस यजुर्वेदका तेश्सवा अध्याय चांचनेसे मालुम हो जावेगा. इस अध्यायका इस जग्गे पर नतारा करनेकों हमकों बहुत लज्जा आती है. ___ यज्ञ करनेसें बमा पुण्य होता है ऐसा धर्मशास्त्र तथा पुराणों में लिखा है जहां कही बड़े नारी पुण्यका वर्णन करा है तिस ठिकाने यज्ञकी तुलना करी है. और यज्ञ करनेसे इंपदवी मिल ती है तिस वास्ते इंका नाम शतक्रतु अर्थात् सौ यज्ञ करनेवाला ऐसा अर्थ ब्राह्मण करते है, सर्व यझोंमेंसे अश्वमेध यज्ञका फल बहुत बमा लिखा है. गंगाकी यात्रा करने जावे तो तिसको मिंगमिंगमें अश्वमेध यज्ञका फल लिखा है. “पदेपदे यज्ञफलमानुपूा लन्नंति ते"। पाराशर अध्याय ३ श्लोक 10 तिस अश्वमेधका वर्णन ऋग्वेद संहिता अष्टक २ अध्याय ३ वर्ग ७, , ए, १०, ११, १२, १३ में है सो नीचे लिखा जाता है. अश्वमेध दीर्घतमा औचथ्यः त्रिष्टुप् ॥ एष छागपुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः । यदश्वस्य ऋविषो मक्षिका शयद्वास्वरौ स्वविधौ रिप्तमस्ति । य. दस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वाता ते अपि देवेष्वस्तु। यदू Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अज्ञानतिमिरज्ञास्कर. वध्यमुदरस्या पवातिय आमस्य क्रविपो गंधो अस्ति ॥ सुकृता तच्छमितारः कृण्वंतूत मेधं शृतपाकं पचंतु । चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवधर्वकीरश्वस्य स्वधितिः समेति ॥ अछिद्रा गात्रावयुना कृणोत्परुष्यरुरनुघुप्या विशस्त । सुंगव्यं नो वाजी स्वश्व्यं पुंसः पुत्रां उत विश्वा पुषंरयि ॥ अनागास्वं नो अदितिः कृणोतु क्षत्रं नो अश्वो वनतां हविष्मान् । अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यंतिरेभाः ॥ उपप्रागात्परमं यत्सधस्थमव अच्छा पितरं मातरं च । आद्या देवाज्जुष्टतमाहिगम्या अथाशास्ते दाशुषे वीर्याणि ॥ अर्थ - धोके आगे यह बकरा पूषा और अन्यदेवतायोंको वास्ते ज्याये है. इस घोका जो कुछ मांस महीया खायेंगी और जो कुछ बुरेका लगा रहेगा और जो कुछ अश्व के मारने वाले के नखो में रहेगा सो घोके हाथ स्वर्ग में जावेंगा, इस घोमेके पेटमेंसे जो कुछ कच्चा घास निकलेगा और जो कुछ काचा मांस निकलेगा सो स्वच्छ करके अच्छी तरें रांधना घोमेके शरीर में ३४ पांसलीयां है तिनमें बुरा अबी तेरेंसे फेर फेरके कोई हिस्सा बिगामना नही. अंग अलग अलग काढने. इस अश्वमेध - के करने से हमको बहुत दौलत मिलेगी और गाय और घोमें और आरोग्य और सन्तान इसको प्राप्त होवेगे. घोडेके आगे बकरा बांधना और तिसके पीछे मंत्र पढनेवाला ब्राह्मण खडा रहे. इस घोके मारनेसे जहां इस घोमके मातापिता है ऐसा जो देवतायों का स्थानक तहां यह घोमा जावेगा, और होम करनेवालेकों लाभ देवेगा. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. २३ अतीत कालमें भरत राजानें जिसके नामसें इस खंगको जरतखं कहते है तिसने ५५ अश्वमेध यज्ञ करे, यह कथन ऋग्वेदके ऐतरेय ब्राह्मणमें है. भरतो दौष्यंतयमुनामनु । गंगायां वृत्रध्ने बनात्पंचपं चाशतं हयान् -- महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः ॥ ८ पांचिका, खंड २३. अर्थ- दुष्यंतका लमका भरते गंगाका तीरपर पंचावन अ श्वमेध कीया है. ए जरतका महा कर्म दुसरा किनेबी नहीं कीया है.. तथा रामचंद और पांवोने अपनी हत्या नतारनेकों प्रश्वमेघ यज्ञ करा ऐसे कथानक पुराणोमें अनेक जंगें लिखे है. यजुर्वेदका शतपथ ब्राह्मण है और तिसके उपर कात्याय नी सूत्र है. ये दोनो ग्रंथ बने महाजारत समान है. तिनमें तमाम यज्ञकी क्रिया बतलाई है. तिनकी हिंसक श्रुतियां सर्व लिखीये तो थक जाईये परंतु पूरी नहीं होवे. इस वास्ते पांच वाक्य: लिखताडुं १ पंचचित्तयः स्तद्य पशुशीर्षाण्युपधायः ॥ २ ॥ श्चितिःश्चिनोत्येतैरेव तच्छीर्पभिरेताकुसिंधानि संदधाति. अध्याय ६ ॥ १-१-११. ३ यदैकादशिनान्पशूनालभते - १३ अ १-१४-२ ॥ ४ शतमालभत ॥ १३ अ० १-१४-४॥५ गव्या उत्तमेहन्नलभत १३ अ २-७-३ इति यजुर्वेदः अथ सामवेदका वर्णन.. ताक महाब्राह्मण | यह ग्रंथ सामवेदके अंतर्गत है. तिसके उपर सायनाचार्यका करा जाप्य है. यह सायनाचार्य ५०० वर्ष Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अज्ञानतिमिरनास्कर. पहिला कर्णाटप्रांतमें विजयनगरमें बुक्क राजाका आश्रित था इसको माधवत्नी कहते है. और सन्यासी दुवा पीछे विद्यारण्य स्वामीजी कहते है. इस ग्रंथमें अनेक ऋतुके. नेद् लिखे है तिनका नाम. १ अग्निष्ठोमादि सप्तक्रतु. १ औपसदकतु, १ चतुष्टोमक्रतु, १ ननाइलनितक्रतु, १ इंस्तोसक्रतु, १ निधनक्रतु, १ वशिष्टक्रतुचतुरात्र, १ विश्वामित्र संजय चतुरात्र, १ पंचशारदीय पंचरात्र, १ विश्वजित् एकादश रात्र, १ प्रक्ष्याख्यऋतु १ चैत्ररथक्रतु, १ गर्गक्रतु, १ अंगिरसामयनक्रतु, शतरात्रक्रतु, हादशसंवत्सरसत्र, षटत्रिंसत्संवत्सरसत्र, सारस्वतसत्र, १ राटक्रतु, १ ज्योतिक्रतुः १ ऋषनाख्यक्रतु १ कुलायाख्यक्रतु, १ त्रिककषट्रात्र, १ प्रजाप तिसप्तरात्र, १ ऐसप्तरात्र, १ जनकसप्तरात्र, १ देवनवरात्र, १ विंशतिरात्र, १ त्रयस्त्रिंशतिरात्र, १ चत्वारिंशशत्र, १ एकषष्टिराप्रऋतु, १ सहस्रसंवत्सरसत्र, सर्पसत्र, विश्वसृजमयनक्रतु, आदि त्यपृष्टयमयनक्रतु, संवत्सरसत्र. सर्व सूत्रोंमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन त्रिवर्गका कर्म नपनयन विवाह अंत्येष्टि इत्यादि थोमासा फरकसें बताई है. यज्ञ करनेकानी इन तीनो वर्गको अधिकार है. तांड ब्राह्मणके वचन नीचे लिखे है. १ परिश्वौ पशूनियुंजन्ति । अध्या. १७ खंड १३ मंत्र४ २ वैश्यं याजयेत १८-४-५ ३ एतदै वैशस्य समृदं यत्पशवः पशुभिरेवैन समेधयति १८-४-६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. श्५ ४ ज्योतिर्वा एषोऽग्निष्टोमो ज्योतिष्मंतं पुण्यलोकं जयति एवं विद्वानेतेन यजते १९-११-११ ५ स्वाराज्यं गच्छति य एवं वेद १९-१३-२ ६ परमेष्टितां गच्छति य एवं वेद १९-१३-४ ७ अथैष विघनः १९-१८-१ ८ इंद्रोऽकामयत पाप्मानं भ्रातृव्यं विहन्यामिति स एतं विघनमपश्यत् १९-१८-२ ९ एकादशना एकादश पशवः एकादश युपा भवन्ति २०-२-४ १० तया समुद्यतया रात्र्या यं यं कामं कामयते तं तमभ्यश्नुते य एवं वेद २०-२-५ ११ अजोग्निषोमीय २१-१४-११ १२ ऐंद्रा मारुता उक्षणी मारुत्यो वत्सतर्यः २२-१४ ११ १३ पशुकामो यजेत् २२-६-२ १४ सोमपोषं पशुमुपालभ्यमालभेरन् २३ - १६-४ एक एक ऋतु करनेमें फल लिखा है. किसीसे इंपद, किसी से ब्रह्माका पद, किसीसे प्रजा, पशु. अन्न, राज्य, अधिकार इत्यादि प्राप्त होते है. सो विषेश करके अर्थवादरूपसें प्राचीन इतिहास afer लिखे है कि प्रजापतिने वर्षा रोकी तब अमुक यज्ञ करा तो वर्षा दूई. जानवरमरी में जानवरोंका रुइदेवता पशुपति तिसके वास्ते यज्ञ करा तब जानवर मरते रह गये, और वृद्धि हुई. ऐसी 9 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. ऐसी कथानी लिख गेमी है. तिससे कर्मका प्रयोजन बांधा है. विधान और मंत्र विनियोग लिखा है. इसीतर अनेक प्रकारके ऋतु चारो वेद और सूत्रों में लिखे है. वेद और सूत्रोंमें यही विषय सर्व ठिकाने है. उपर लिखी १४ श्रतियांका अर्थः१ यूप न होवे तो परिधिक जानवर बांधना. १७-१३-४ २ वाणियेनेंनी यज्ञ करना. १७-४-५ ३ तिससे वाणीयेकी लक्ष्मीकी वृद्धि होती है. १७-४-६ ४ अग्निष्टोम यज्ञ करनेसे मनुष्य पुण्यलोकमें जाता है १५-११-११ ५ यह वात जो जानता है सो स्वर्गमें जाता है.१५-१३-२ ६ ब्रह्मदेवके स्थानमें जाता है. १५-१३-४ ७ विघन यज्ञ बताता हूं. १५-१७-१ पूर्वे इंश देवें श्चा करी कि अपना शत्रु किस रीतिसें मरेगा .. तब तिस इंने यह यज्ञ विधिसे करा. १०-१७-१ ए इग्यारे रस्सोंसे ग्यारे पशु ग्यारे यूपसें बांधने २०-३-४ १० यह यज्ञ करें मनोकामना सिह होती है. २०-३-५ ११ अग्निषोम देवनें बकरा देना. १-१४-११ १२ इं और मरुत देवको गाय देनी और मरत देवको वबमा देना. २२-२४-११. १३ जिसको पशुयोंकी वृद्धिकी श्वा है तिसने यज्ञ करणा १२-६-२ १५ सोम अने पूषा देवतायोंके अर्थे पशु मारणा. २३-१६-४ इसी तरह सामवेदकी संहिता और तिसके अंतर्गत आठ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंग. ब्राह्मणोमें यज्ञक्रिया लिखी दूई है. इस वास्ते अधिक लिखनेसे कुठ प्रयोजन नही. चौया वेद अथर्वण और तिसके अंतर्गत गोपथ ब्राह्मण इन दोनो ग्रंथो में ऐसा हि विषय है, और बहुलता करके एक वेदके मंत्र दूसरे वेदमें इसी मूजब नेल संजेल दूआ होया है. तिसके जनावने वास्ते गोपय बाह्यरमेंसे तीन वाक्य नीचे लिख दिखा ते है. १ ॐ मा ५ सीयंन्ति वा आहिताग्नेरग्नयः त एनमेवाग्नेऽभिध्यायन्ति यजमानं य एतमैद्राग्नं पशु षष्टे षष्टे मासे आलभते ॥ गोपथ ब्राह्मण छित्तीय प्रपाठक ॥ २ ॥ नावाधः-प्रत्येक उ उ मासमें ऐज्ञाग्नि देवताकी प्रीति वास्ते पशु बकरेका वध करके यज्ञ करणा. गोपथ ब्राह्मणके २ प्रपाठकमें कहा है. २ अथातः सवनीयस्य पशोर्विभागं वक्ष्यामः। उद्धृत्यावदानानि ॥ हनू सजिव्हे प्रस्तोतुः कण्ठः सकाकुदः प्रतिहर्तुः श्येनं वक्ष उद्गातुर्दक्षिणं पार्थं सांसमध्वर्योः सव्यमुपगातृणांसव्योऽसः प्रतिप्रस्थातुर्दक्षिणा श्रोणि रथ्या स्त्री ब्रह्मणो वरसक्थं ब्राह्मणाछंसिनः उरुः पोतुः सव्याश्रोणि होतुरवसक्थं मैत्रावरुण्यो रुरछावकस्य दक्षिणा दोर्नेष्ठुः सव्या सदस्यस्य सदञ्चानूकञ्च गृहपते जधिनी पल्यास्तांसा ब्राह्मणेन प्रतिग्राहयति वनिष्टुर्हृदयं सृकौचाङ्गल्यानि दक्षिणो बाद्दुराग्नीध्रस्य सव्य आत्रेयस्य दक्षिणौ पादौ गृहपते व्रतप्रदस्य सव्यौपादौ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श् अज्ञानतिमिरनास्कर. गृहपत्न्या व्रतप्रदायाः सहैवैनयोरोष्ठस्तं गृहपतिरेवानु शास्ति मणिर्जाश्च स्कन्धास्तिस्त्रश्च ग्रावस्तुतस्तित्रश्चैकीकसा अईञ्चापानश्चोन्नेतुरत उर्दू चमसाध्वषूणां क्लोमाः शमयितुः शिरः सुब्रह्मण्यस्य यश्चसुत्यामाहूयते तस्य चर्म इत्यादि। गोपथ ब्रा० ३ प्रपाठ खंफ १७ इसका नावार्थः-प्रस्तोता प्रतिहर्ता नजाता अध्वर्यु नपगाता प्रतिप्रस्थाता ब्रह्मा ब्राह्मणासीहोता मैत्रावरुण अगवक नेष्टा सदस्य आनीध्र ग्रावस्तोता नन्नेता अध्वर्यु शमिता सुब्रह्मण्य गृहप ते व्रतपद प्रमुख यज्ञ करने में मदतगार जो पुरोहित नपर लिखे है वे सर्व जिसतरें यज्ञमें वधकरे पशुके अंग आपसमें बुरयोंसें काट काटके वांटा करते है जो जो अंग हनु सजिव्हा प्रमुख जिसजिसके वांटेमें आता है तिन पुरोहिताका और तिन अंगाका नाम लिखा है, और यज्ञ करने वालेकी प्रशंसा लिखी है. ३ अथातो यज्ञक्रमा अग्न्याधियमग्ना धीयात्पूर्णाहुति। पूर्णाहुतग्निहोत्रमग्निहोत्रादर्शपौर्णमासौ दर्शपौर्णमासाश्या माग्रयणं आग्रयणाचातुर्मास्यानि। चातुर्मास्येभ्यःपशुबन्धः पशुबंधादग्निष्टोमो अग्निष्टोमाद्राजसूयो राजसूयाद्वाजपेयः। वाजपेयादश्वमेधः । अश्वमेधात्पुरुषमेधः । पुरुषमेधात्सर्वमेधः। सर्वमेधादक्षिणावन्तो। दक्षिणावद्भ्यो दक्षिणाअदक्षिणा सहस्रदशिणे प्रत्यतिष्टंस्ते वा एते यज्ञक्रमः ॥ ५ प्रपाठक ७ खंग ॥ इनका अर्थ सुगमही है इसवास्ते नही लिखा है. उपर लिखे प्रमाणे यझका विस्तार बताया है. सो चारों वेदोंमें एक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शण प्रथमखं. सरीखा है. शाखानेद वा वेदके नेदसे कर्मकांममें थोडासा परचूरण वातोंमें फर्क है. कोई कहता है, घीका वासन वामें पासे रखना कोई दाहने पासे रखना कहता है. कोर खडा होके मंत्र पढना कहता है. कोई बैठके पढना कहता है. ऐसी ऐसी वातोंमें फेर है. इसीका ब्राह्मणोंको आग्रह है. बाह्मण विना औरोकों वेद पढनेकी आज्ञा नही । इति अथर्वण वेदः ॥ अथ वेदोत्पत्ति. मूलमें वेदके मंत्र एकके बनाये नही है. अनेक ऋषियोंने वेद मंत्र बनाये है. अनेक ऋषियोंके पास थे, वेद परमेश्वरके बनाये हुये नही किंतु अनेक ऋषियोंके बनाये दूये है. पूर्वमीमांसा के कर्ता वेदोंकों ईश्वरके कहे मानते है, परंतु यह मत बहुत पुराणा नही और बनानेवाले ज्ञानीजी नही थे किंतु अज्ञानीयो समान थे, ऐसा मोदमुलर पंमित अपनें बनाये संस्कृत साहित्य ग्रंथमें लिखता है. अथाग्रे वेदके कर्ता ऋषि है. ऐसे बहुत जगें वेदोंमें लिखा है. शौनकोक्त सर्वानुक्रमपरिशिष्ट परिनाषा खंझमें लिखा है यस्य वाक्यं स ऋषि: या तेनोच्यते सा देवता यदक्षर परिमाणं तच्छंदः तथा नमो वाचस्पतये नम ऋषियो मंकृद्भ्यो मंत्रपतिभ्यो मामामृषयो मंत्रकृतो मंत्रपतयः परादुर्मा । तैतरेय आरण्यके ४ प्रपाठक १ अनुवाक १. __ ऋग्वेदसंहितामें बहुत जगे ऐसें लिखा है कि वेदमंत्र - षियोंने नत्पन्न करे हैं. तिनमेंसे एक वचन नीचे लिखा जाता है, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. ऋपेमंत्रकृतास्तोमैः कश्यपोदर्धयन् गिरः॥ जो करते है वेद ब्रह्माके मुखसे नुत्पन्न हूये है तिसका तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण जो है वे ब्रह्माका मुख है इसवास्ते जो कुब ब्राह्मणोंने कहा सो ब्रह्माके मुखनें कहा. शौनक ऋषिनें जब वेदांका अनुक्रम लिखा तब उसने ऐसा ठहराद करा वेद मंत्रमें जिस पदार्थका नाम आवे सो तिस मंत्रका देवता इस वास्ते कितनेक मंत्रोका घास देवता ठहराया. कितनेक मंत्रोका मेंमक देवता हुआ. इसी तरें अग्नि, मरुत, इं, वरुपा, सूर्य, प्रजापति धुरीलोचन, धनुर्धर नान्दीमुख, पुरुर्वाश्व इत्यादिक अनेक देवते ठहराये तिनकी नक्ति, यज्ञ और होमहारा करनी ठहराई है. जिस ऋपिने जो मंत्र बनाया सोइ तिस मंत्रका ऋषि ठहराया. और जैनमतवाले जिस तरें वेदोंकी नुत्पत्ति मानते है सो जैनतत्वादर्श नाम पुस्तकमें लिखी है. परंतु यहांतो जिस तरेंसें ब्राह्मण लोक वेदोकी नत्पत्ति मानते है और जैसा हमने निगमप्रकाशादि पुस्तकों में लिखा देखा है तैसें ही लिखेगे. जैसे गीतामें लिखा है. ___“ऋषिनिर्बदुधा गीतं ठंदोन्निर्विविधैः पृथक” । अनेक उदसें ऋषियोंने गायन करा और ऋषि ईश्वर के मुख है सो नारतमें लिखा है. “ब्रह्म वक्त्रं नुजौ कत्रं कृत्स्नमुरूदरं विशः पादौ यस्याश्रिताः शूशस्तस्मै वर्णात्मने नमः " अर्थ-ब्राह्मण जिसका मुख है. क्षत्रिय तुजा है. वैश्य उरुहै और जिसका पांलं शाश् है एसा चार वर्णरूप विष्णुसे नमस्कार है. भीष्मस्तवराज ६८ इस वास्ते वेदमंत्रोके कर्ता झषि है वे सर्व मंत्र व्यासजीने एकत्र करके चार वेदकी संहिता बांधी और अपने जो शिष्य थे तिनमेंसें चार जणांको एकैक संहिता वाट दिनी तिनके नाम. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. पैलज्ञपिकों झग्वेद दीना १ ऐतरेय नेद ॥ वैशंपायनकों यजुर्वेद १ तैतरेय नेद ७६ जैमिनिकों सामवेद १ ताणु नेद १००० सुमंतुकों अथर्व वेद १ गोपथ ब्राह्मण २ नेद एए । सो एकैक आचार्यके पेटमें अनेक नेद नपर लिखे प्रमाणे शाखाके दूये है तिनकी संख्या प्राचीन ग्रंथोमें लिखी है. जिस प्रमाणे शाखा लिखी है तैसी अब देखने में नही आती है. परंतु वर्तमानमें जो शाखा मिलती है तिनके नाम आगे लिखे जाते है. ग्वेद-सांख्यायनी ? शाकल २ वाष्कल ३ आश्वलायनी । मांडुक ए. यह पांच शाखा झग्वेदको इस कालमें मालुम होती है. यजुर्वेद कृष्ण तैतरेय । आपस्तंब ? हिरण्यकेशी २ मैत्राणी ३ सत्याषाम ४ बौक्षयनी ए ये पांच कृष्णयजुर्वेदकी शाखा है. यजुर्वेद शुक्लवाजसनेयी याज्ञवल्क्यने करा तिसकी शाखा कएव १माध्यंदिनी २ कात्यायनी ३ सर्व यजुर्वेदकी शाखा ॥ सामवेद-कौथुमी १ राणायणी ३ गोनिल ३। चौथा अथर्व वेद-तिसकी शाखा दो पिपलाद ' शौनकी शा एकैक शाखाके जो प्राचार्य हो गये है तिनोने अपनी अपनी शाखाके वास्ते एकैक सूत्र बनाया है तिसके अनुसार ब्राह्मण लोग यज्ञादि कर्म करते है। तिससे हरेक ब्राह्मणका नाम होता है तिसका वेरवा तपसीलवार नीचे लिखा जाता है. नाम १ नपनाम २ गोत्र ३ प्रवर ४ सूत्र ५ दामोदर पंड्या कपिअंगीरस आमहियवदयस सांख्यायन वेद ६ शाखा ७ मत 6 कुलदेव ए जाति १० झग सांख्यायन स्मार्त शिव नागर वैशंपायन ऋषि और याज्ञवल्क्य ऋषि आपसमें लगे तिससे यजुर्वेदमें शुक्ल यजुर्वेद नत्पन हुआ. तिसमें १७ शाखा है. तिनका नाम वाजसनेय पमा तिनसे पंदरांका तो ठिकाना Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, नही है और दो हाल चलती है. तिनका नाम कएव और माध्यंदिनी. वेदके हिस्से हेठ लिखे जाते है. संहिता १ ब्राह्मण २ आरण्य ३ नपनीषद् ४ परिशिष्ट ५ इनमें चौथे और पांचमें नागमें सेलनेल बहुत दूधा है. जिसकों वेदका आश्रय चाहियेथा तिसने यह ग्रंथ नवीन रच लीया इस बातमें प्रमाण अल्लोपनिषदका. यह नपनिषद अकबर बादशाहे बनवाई है. तथा ॥त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति मंत्रब्राह्मणकल्पैश्व ॥ वेदतुल्य इति यास्काचार्येणोक्तः॥ अर्थः-यज्ञरुपी धर्म, मंत्र ब्राह्मण और कल्प ये तीन पुस्तकसे होता है. इस वास्ते कटप अर्थात् सूत्र जे है वे वेद तुल्य है. ऐसें यास्काचार्यने लिखा है. इस वास्ते प्रथम ऋग्वेदका सूत्र आश्वलायन तिसके नदाहरण लिखते है. हरएक शाखाका सूत्र है तिसमें दो नाग होते है. एक श्रौत १ दूसरा गृह्य २. तिनमें श्रौतमें तो यज्ञक्रिया लिखी हुई होती है, और गृह्यमें गृहस्थका धर्म लिखा हुआ होता है. इस ग्रंथकों स्मृति में गिणते है. परंतु अन्य ग्रंथोंसे सूत्रकी बझी योग्यता है. सूत्र वेदतुल्य गिना जाता है. अनेक शाखाके अनेक सूत्र है. तिन सर्वका विषय एक तरेंका है. तिस वास्ते इन सूत्रोमंसें प्रथम आश्वलायन शाखाका श्रौतसूत्र तिसके वाक्य लिखते है. इसमें यहनी मालुम पड जा येगाकी जो दयानंद सरस्वतीजीनें अपने बनाये वेदनाष्यनूमिकामें लिखा है कि अग्निहोत्रसे लेके अश्वमेधके अंत पर्यंत जोजो कर्म करणे है वे सर्व श्रौत गृह्य सूत्रोंसे करणे. यहनी मा. लुम हो जावेगा कि श्रोत गृह्य सूत्र ऐसे दयाधर्मीके बनाये हुये Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ प्रश्रमखम. है. स्वामि दयानंदने जब वेदोंके मंत्रोंके अर्थ स्वकल्पनासें बदल माले तो सूत्रोकी क्या गिनती है. यहतो सत्य है परंतु जो निःपकपाती है वे तो विचार करेंगे कि यह सूत्र दयाधर्मी आस्तिकोंके बनाये है, वा निर्दयोंके बनाये है. प्रथम आश्वलायनश्रौत सूत्रम् १ दैव्या शमितार आरभत्वं० ३ अध्याय ३ कं. २ दैवतेन पशुनात्वं, ३ अध्याय ७ कं. ३ पाण्मास्यः सांवत्सरोव ३-८ सोऽयं निरूढपशुः षट्सु षट्सु मासेषु कर्तव्यः । संवत्सरे संवत्सरे वा । नारायणवृत्तिः ॥ ४ सौत्रामण्यां ३-९ ५ आश्विनसारस्वतेंद्राः पशवः वार्हस्पत्यो वा चतुर्थ. ऐंद्र सावित्रवारुणाः पशुपुरोडाशाः ३-९ ६ दर्शपोर्णमासाभ्यामि वेष्ठि पशु चातुर्मास्यैरथ सोमे न४-१ ७ अथ सवनीयेन पशुनाचरंति ५-३ ८ अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थः षोडशी वाजपेयो अतिरात्रोऽप्तोर्याम इति संस्थाः ६-११ ९ आग्नेयेंद्राग्नेकादशिना पशवः उत्तरपड्क ३-२ १० वायव्यपशुः उत्तरपड्क ३-२ ११ सज्ञप्तमश्वं पन्यो धून्वंति उत्त०४-८ १२ तस्य विभागं वक्ष्यामः उत्त० ६-९, अर्थ- पशुको मारो. २ देवतायोंको अलग अलग तरके पशु चाहिये. ३ महिने कि वरसोवरसें निरूढ पशु करणा. 10 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अज्ञानतिमिरजास्कर. ४ सौत्रामणी अर्थात् मदिरे पोनेके यज्ञका विधान ए आश्वीन, सारस्वत, इं इन तीनों देवतायोंके वास्ते पशुका बलिदान देना. और बृहस्पतिको चौथा पशु देना इंड, सविता तथा वरुण इन देवतायोंकोजी पशु देना चाहिये. ७ ६ पूनम तथा अमावासके दिनमें और चातुर्मास अनुष्ठान में पशु मारला. सवनी अनुष्टान में पशुवध करणा. सात यज्ञांको संस्था कहते है. तिनके नाम अनिष्टोम १ प्रत्यमिष्टोम र नक्थ ३, षोमशी ४, वाजपेय ५, प्रतिरात्र ६, तोर्याम, अग्नि तथा शनि इन देवतांको इग्यारा पशु चाहिये. १० वायु देवतांको एक पशु चाहिये, ११ मरा हुआ घोमा और यज्ञ करनेवालेकी स्त्री दोनोंको वस्त्र नींचे ढांकना. १२ वध करे हूए पशुके टुकमे करके यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण आपस में की रीतिसें वांटा करणा तिसका प्रकार कहा है. श्राश्वलायन श्रौतसूत्र के बारां अध्याय है तिनमें बमें पूर्वक्रतुका स्वरूप लिखा है, और अन्य बनें उत्तरऋतु लिखे है तिनके नाम ―――――――――― १ राजसूय, २ गवामयन, ३ गोसह, ४ अश्वमेध, ५ - गिरसऋतु, ६ शाकप्रेध, ७ पंचशारदीय विश्वजित्, ए पौंरिक, १० भरतद्वादशाह, ११ संवत्सरसत्र, १२ महाव्रत, १३ रात्रिसत्र, १४ शतरात्र, १५ स्तोम, १६ द्वादशसंवत्सर, १७ सदस्र - संवत्सर. " Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. ३५ आश्वलायन श्रौतसूत्र उत्तरषट्क ६ अध्यायें सप्तीकंडिका, १३ वैश्वकर्मणम्पमं महाव्रते ॥ नारायण वृत्ति । ए ते सर्वे गोपशवः ८ अन्वहं वैकैकश एकादशिनाम् ॥ नारा यण वृत्ति । एकादशिनामेव एकैकमादित आरश्य अहन्यहनी क्रमेणालमेरन्. ___ उत्तरपट्क ३ अध्यायमें। सूर्यस्तुतायशस्काम.-गोसव विवधौ पशुकामः वाजपेयेनाधिपत्यकामः-अध्याय ४ में ज्योतिदिकामस्य नवसप्तदशः प्रजापतिकामस्य । पंचमें अध्याये । आङ्गिरसं स्वर्गकामः-चैत्ररथमन्नाद्यकामः-अत्रेश्वतुर्वीरं वीरकामः-जामद पुष्टिकामः ऋतूनां पडहं प्रतिष्टाकामः-संभार्यमायुष्कामः-संवत्सरप्रवल्हं श्रीकामः अथ गवामयनं सर्वकामः-- अर्थ-महाव्रत यझमें ऋषन्न अर्थात् बलद देना चाहिये । आश्वलायन. पशु एकादशीमें नित्य एक एक पशु मारणा. आण सूर्यस्तुता यज्ञ करे यश मिलता है. आण गोसव यज्ञ करनेसे पशु प्राप्ति होते है. आप वाजपेय यज्ञ करनेसै अधिकार मिलता है. आण ज्योति यज्ञ करनेसे समृधि होति है. आण नवसप्त दश यज्ञ करनेसे प्रजा होती है. आण आरिस यज्ञ करनेसें स्वर्ग प्राप्त होता है. आण चैत्ररथ यज्ञ करनेसे धान्यवृद्धि होती है. आण अत्रेश्चतुर्वीर यज्ञ करनेसें धैर्यवृद्धि होती है आप Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, जामदग्नसें प्रकृति अटी होती है. आप षडहयज्ञ करनेसे प्रतिष्टा मिलती है, आण संनार्य यज्ञ करनेसे आयुष्य प्राप्ति होती है. आo संवत्सर प्रवल्ह करनेसे लक्ष्मी मिलती है. आप गवामयन यज्ञ करनेसे सर्व कामना सिह होती है. आप इसके विना चार अध्याय गृहसूत्रके है. तिनमें गृहस्थ का धर्म लिखा है. गृह्यम और श्रौतमें इतनाही फरक है कि जो ब्राह्मण एक अग्निको कुंम जिसका नाम स्मार्ताग्नि जिसमें रखते है तिसका नाम गृहस्थ । यह अग्नि लग्न विवाहके दिनमें नत्पन्न होती है. और जो गृहस्थ तीन अग्नि नुत्पन्न करके अग्निहोत्र लेता है, तिसकों श्रोताग्नि कहते है. तिनका नाम. दक्षिणाग्नि--गार्हस्पत्य-आहवनीय. ऐसे अग्निहोत्रीकों यज्ञ करनेका अधिकार है। तिस अग्नि. होत्रीके कर्म श्रौतसूत्रमें वर्णन करे है. और गृहस्थाश्रमीका ध. र्म गृह्यसूत्रमें है। बहुते गृहस्थ हालमें अग्नि नपासना करने वास्ते राखते नही है । तिस बावतका प्रायश्चित करते है । तिन दिन तक जो गृहस्थ अग्नि न राखे सो शूर हो जाता है ऐसें धर्मशास्त्रमें कहा है. गृहस्थाश्रम विवाहदिनमें शुरु होता है. और लाम दुवा पीछे प्रजा नत्पन्न होती है तिस प्रजाके ब्राह्मण बनाने वास्ते सोलों संस्कार लिखे है. गृह्यसूत्रमें येह संस्कार लिखे हुए है, तिनका नाम ॥ गन्नाधान-पुंसवन-जातकर्म-अन्नप्राशन-चूमा-नपनयन -विवाह-अंत्येष्टि-इत्यादि लिखे है॥ आश्वलायन आचार्यका सूत्र केवल ऋग्वेदका सार है, ऐसा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. कहा जाता है. तिसका श्रौत नागका स्वरूप नपर लिखा है, और अग्निहोत्रिके विना गृहस्थका धर्म गृह्यसूत्र में किस रीतीका वर्णन करा दूआ है, तिसका स्वरूप नीचे लिखा जाता है. १ अथ पशुकल्पः १अ-११-१. २ उत्तरतो अग्नेः शामित्रस्यायतनं कृत्वा । पशुमाल्याव्य ३ सपलाशयाशाखया पश्चादुपस्पृशेत् । त्वाजुष्टं उपाकरोमीति । १-११-१ ३ बिहीयवमतिभिरद्भिः पुरस्तात् प्रोक्षात अमुष्मै त्वाजुष्टं प्रौक्षामि १-११-१ ४ अतैव पर्यग्नि कृत्योदश्चं नयंति १-११-५. ५ तस्य पुरस्तादुल्मुकं हरन्ति ॥ १-२१-६. ६ शामित्रएप भवति. ७ वपाश्रपणीभ्यां कर्ता पशुमन्वालभते ॥ १-११-८ ८पश्चाच्छामित्रस्य प्राशिरसंप्रत्यशिरसं वोदक पाद संज्ञप्य पुरानाभेस्तृणमंतर्धाय वपामुत्खिद्य १-११ नारायणवृत्ति ॥ शामित्रस्य पश्चिमे देशे बहिरूपस्तृणतिकर्ता ॥ तं यत्र निहनिष्यन्तो भवति तदध्वर्युबहिरधः स्तातुपास्यनि इति श्रुतेः॥ ततस्तस्मिन् वर्हिषि प्राशिर. संवोदक पादं समयति शमिता वपास्थानंज्ञाला तिर्यक् छिसावपाउपशानिने प्रताप्यतां वपामभिधार्यजुहुयात्।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. १. अर्थ-गृह्यसूत्रके प्रथमाध्यायकी ग्यारमी कामिकाके प्रथम सूत्रमें पशुके यझकी विधि विधान लिखा है. अनिके नत्तर पासे पशु वध करनेकी जगा बनानी औ. र पशुको स्नान कराणा और पलाशकी गीली मालीसें तिसका स्पर्श करणा और कहना कि तूं देवका नद है. इस वास्ते तुज को नक्षण योग्य करता हूं. ३ सट्ठी तथा जव पाणीमें गेरके सो पाणी पशु नपर गंटना. ४ जलती मान लेके पशुकी प्रदक्षिणा करणी. ५ वोही जलता मान लेके पशुके आगे चलणा. ६ पशुको वध करणेके ठिकाने ले जाना, ७ वपा कलेजा यज्ञका मंत्र पढना. ७ वध करके पशुकी नानिके ठिकानें वपा कलेजा होता है सो ठिकाना छेदके वपा काढनी. नारायण वृत्तिका अर्थ-वधस्थलमें मान्न बिगनी. तिसके उपर पशुको मारणा एसी वेदकी आज्ञा है. तिस वास्ते तिस मु जब करके पीछे पेट छेदन करके वपा अर्थात् कलेजा काढना और वधस्थलके नजीक अनि नपर तपाके तद पीछे तिसके उपर घृत गेरके अग्निमें होम करणा. दूसरे अध्यायमें मेकरके अन्न प्राशन संस्कार लिखा है तिसके सूत्र नीचे लिखे जाते है. १ पष्ठेमास्यन्नप्राशनं ॥ १ अ० १६ क सू. २ आजमनाद्यकामः ॥ १-१६-२. ३ तैत्तिरं ब्रह्मवर्चसकामः १-१६-३. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. अर्थ- जन्मसे उके मासमें अन्न प्राशन संस्कार करणा. २ बकरका मांस इस संस्कारमें खवरादें तो धन धान्यकी वृद्धि करे है. ३ तीतर पक्षीका मांस खानेको देवेतो ब्राह्मणमें ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है. गृह्यसूत्र के प्रथमाध्यायकी चौवीसम। कंमिकामें मधुपर्क विधि लिखी है तिसके सूत्र नीचे लिखे प्रमाण है. १ ऋत्विजो त्वा मधुपर्कमाहरेत् १,२४, १, २ स्नातकायोपस्थिताय ॥ १-२४-१ ३ राज्ञेच १-३ ४ आचार्यश्वशुरपितृव्यमातुलानां च ४ ५ आचान्तोदकाय गां वेदयन्ते २३ ६ हतो मे पाप्मा पाप्मा मेहत ॥ इति जपित्वोंकुरुते तिकारयिष्यन् २४ ___ नारायणवृत्ति-श्मं मंत्रं जपित्वा ओमकुरुतेति ब्रूयात् यदि कारयिष्यन् मारयिष्यन् नवति तदा च दाता आलनेत. ७ नामांसो मधुपर्को भवति ॥ २६ नारायणवृत्ति-मधुपर्काङ्गनोजनं अमांसं न नवतीत्यर्थः पशु करणपके तन्मांसेन नोजनं नत्सर्जनपके मांसान्तरेण ।। अर्थ-१ यज्ञ करने वास्ते ऋत्विज खमा करते वखत तिसकों मधुपर्क देना चाहिये. इसी तरें विवाह वास्ते जो वर घरमें आवे तिसको मधुपर्क और राजा घरमें आवे तिसको देना चाहियें. ४ आचार्य गुरु घरमें आवे अथवा श्वसुर घरमें आवे अ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. अज्ञानतिमिरजास्कर.. थवा काका मामा घरमें आवे तो तिनकों मधुपर्क देना चाहिये. ५ मुख साफ करने वास्ते पाणी देकर तिसके आगे गाय खमी रखनी चाहिये. ६ सूत्र में लिखा मंत्र पढके प्रोम् कहके घरके स्वामीनें गायका वध करणा. मधुपर्कके अंग में जो जीमणवार होती है ते मांस विना नही होती. इस वास्ते पशुके वधपूर्वक मधुपर्क करा होवे तो तिसही पशुका मांस जिमावारके काम में और पशुको बोकी दिया होवतो अन्य रीतीनें मांस लाके जोजन कराना चाहिये. दुसरे अध्यायकी चौथी कंडीकामें अष्टका विधान लिखा है. तिसमें पशुका वध करणा लिखा है तिसका सूत्र नीचे मु जब जानना, पशुकल्पेन पशुं संज्ञप्य प्रोक्षणोपाकरणवर्जं वपामुखिद्य जुहुयात् ॥ २-४-१३ अर्थ -- पिछले अध्याय में पशुवधका विधान बताया है. तिसी तरें पशु अर्थात् बकरा मारके तिसका कलेजा काढके तिसका होम करणा. फिर दूसरे अध्यायकी पांचमी कंमीका प्रथम सूत्रमें अन्वष्टका अनुष्टान लिखा है. जिसमें नीचे प्रमाणे लिखा हुआ है. १ अपरेद्युरन्वष्टक्यं ॥ २.५-१ २ तस्यैव मांसस्य प्रकल्पः २-५-२ नारायणवृत्ति - अपरस्मिन्नहनि नवम्यामन्वष्टक्यं नाम कर्म कार्यमित्यर्थः ॥ योऽष्टम्यां पशुः कृतः तस्यैव मांसं ब्राह्मणभोजना. थे प्रकल्पः संकल्पोत्यर्थं ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंरु. अर्थ - २ नवमी के दिन में अन्वष्टका कर्म करणा. २ जिस पशुका वध करा होवे तिसका मांस ब्राह्मणाको जिमावना. फिर चौथे अध्यायकी प्रथम कंडिकामें अग्रिहोती ब्राह्मण मरे तो तिसके जालनेकी विधि लिखि है. सो नीचे प्रमाणे मूल है. १ आहिताग्निश्चेदुपतपेत् प्राच्यामूदीच्यामपराजितायां वादिश्युदवस्येत् । अ० १-१ २ अगदः सोमेन पशुनेट्येष्ट्वास्येत् ॥ ४-१-४ ३ अनिष्ट्वा, ४-१-५ ४ पिंठचक्रेण गोयुक्तेनेत्येके, -४-२-३ ५ अनुस्तरणीं ४ ६ गां ५ ७ अजां वैकवर्णाम् ६ ८ कृष्णामेके ७ ४१ ९ सव्ये बाहुबध्वानुसंङ्गालयन्ति ८ १० अनुस्तरण्यां वपामुत्खिद्य शिरोमुखं प्रछादयेत ४-३-१९ ११ टक्का उधृत्य पाण्योरादध्यात् २० १२ हृदये हृदयं २१ १३ सर्वयथाङ्गं विनिक्षिप्यचर्मणाप्रछाद्ये २४ १४ ताउत्थापयेद्देवर ॥ उंदीर्षनार्यभि० ४-२-१८० 11 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४‍ अज्ञानतिमिरज्ञास्कर. १५ स एवं विदादह्यमानः सहैव धूमेन स्वर्गलोक मेतीतिहविज्ञायते ४-४-७ अर्थ - १ श्रोती ब्राह्मण रोगी होवे तो तिसको निसहित गाम बाहिर कोई ठिकानें लेजाके रख देना. २ जेकर निरोग दो जावेतो एक पशुकी इष्टि करके घरमें ले याना. ३ कदापि मर जावे तो ४ गाम में फालके स्मशान में ले जाना. ५ श्रनुस्तरणी अर्थात् एक जानवर साथ में ले जाना. ६ यह जानवर गाय चाहिये. ७ अथवा एक रंगकी बकरी चाहिये. ८ और सो बकरी काली चाहिये. TU तिस जानवरके गलेमें दोरी बांधके मृतकके दाहिनें दाबांधनी तिसको मुरदेके साथ चलावना. १० अनुस्तरणीका वध करके तिसका कलेजा काढना, तिस सें मुरदेको माथा ढांकनां. ११ तिसका यकृत काढके मुरदेके हाथमें देमा. १२ हृदय मुरदेके हृदय उपर देना. १३ इसी तरें सर्व अंग मुरदेके अंगो उपर गेरने, अनुस्तरणी का चर्म तिससे मुरदेका सर्व अंग ढक देना. १४ मुरदेकी स्त्रीकों पुनर्विवाह करणेका उपदेश करके काढनी. १५ इस तरें जिसका सुरदा बाला जावे सो मनुष्य स्वर्ग में जाता है. गृह्यसूत्र के चौथे अध्यापकी नवमी कैमीकामें शूलगव नामक यज्ञ लिखा है, तिसके सूल नीचे लिखे प्रमाणे है. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. १ अथ शूलगवः ४-९-१ २ शरदि वसन्ते वाईया २ ३ श्रेष्टं स्वस्य यूथस्य. ३ ४ अकुष्टि टपत् ४ ५ कल्मापमित्येके ५ ६ कामं कृष्णमा लोहनांचेत् ६ ७ व्रीहियवमतीभिरद्भिरभिषिच्य ७ ८ शिरस्त आभसत्त ८ ९ रुद्राय महादेवाय जुष्टो वर्धस्वेति ९ १० प्रोक्षणादि समानं पशुना विशेन्वक्ष्यामः १५ ११ पात्र्या पालाशेन वा वपां जुहुयात् इति विज्ञायते १६ १२ हराय मृडाय सर्वाय शिवाय भवाय महादेवायो ग्राय भीमाय पशुपतये रुद्राय शंकराये शानाय स्वाहे ति १७ १३ सएषशूलगः बोधन्यो लोक्यः पुण्यः पुत्र्यः पशव्य आयुष्य यशस्यः ३६ १४ इष्ट्वान्यमुत्सृजेत् ३७ ४३ अर्थ - १ शूलगवान इस रीतीसें करना. २ शरद ऋतु अर्थात् श्रासोन कार्तिक तथा वसंत अर्थात् चैत्र वैशाख मासमें अथवा जिसदिन प्राज्ञ नक्षत्र होवे तिस दिनमें शुलगव यज्ञ करणा. ३ जोरावर बलवान सांढ होवे सो लेना. a सो सांढ रोगी न होना चाहिये. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ЯЯ अज्ञानतिमिरनास्कर. ५ फेर वो सांढ कबरे रंगका चाहिये. ६ काला जामनके रंग समान होवे तोनी ठीक है. ७ सही तथा जवका पाणीसें सांढ नपर अनिषेक करणा. मस्तकसें पूंजतक. ए महादेवके ग्रहण करणे योग्य हो यह मंत्र पढना. १० अन्य पशुका प्रोक्षण तथा वध अन्य ठिकाणे कहा है तिस मुजब करना. ११ पलासकी लकमीके वासणमें तिसका कालेजा रखके होम करना. १५ होम करना सो शिवके बारां नाम लेके करना. १३ इस रीतीसें शुलगव नामक यज्ञ करे तिसको धान्य, कीर्ति, पुण्य, पुत्र, पशु, समृद्धि, आयुष्य, वृद्धि तथा यश प्राप्त होता है. १४ उक्त प्रमाणे यज्ञ करके फिरसे यज्ञ करने वास्ते दूजा सांढ अर्चके गेम देना. ऋग्वेदकी दो ऋचा निचे लिखी है । सो आश्वलायन गृह्यसूत्रके प्रथमाध्यायके प्रथम कांडिकाके पांचमें सूत्रमें दाखल करा दूा है सो आगे लिखा जाता है. विश्वमना ऋषिः इंद्रोदेवता ॥ अगोरुधाय गविषेद्युक्षायदस्म्यं वचः घृतात्स्वादियो मधुनश्च वोचते ॥ ऋग्वेद अष्टक ६ अध्याय २ वर्ग २० ॥ भारद्वाज ऋषिः अग्नि देवता॥ आते अग्नऋचाह विद्वदातष्टंभरामसी ॥ ते ते भवंतक्षण ऋषभा सोवशाउत ।। ऋग्वेद । अष्टक ४ अध्याय ५ वर्ग १० ऋच ७ आश्वलायन ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. ४५ नारायण वृत्ति । श्रस्य मंत्रस्य तात्पर्य नादिमांसेन तव यावती प्रीतिस्तावती तव विद्यापी जवतीत्यर्थः ॥ अर्थ - हे ! हे नि ! तुमारी बलद और गायके मांस उपर प्रीति है. तिसी तरें हमारी विद्या उपर प्रीति होवे, यज्ञको देव कहते है. गृहस्थ लोक राजा श्रोत्रिय ब्राह्मणकों धन देके यज्ञ करवाते है, वाम मार्गीयोंसे पूजन करवाते है. तिससे अपया कल्याण समजते है. श्राद्ध अर्थात् पितृयज्ञ इसमेंजी अनु स्तरणी इत्यादिकमें मांस खाते है, इसको पितृमेधजी कहते है. सर्व पूर्वोक्त ऋग्वेदी आश्वलायन ब्राह्मणका धर्मसूत्रका अर्थ नपर लिखा है. पुराणो में बहुत ठिकाने ऋषि राजा वगैरे घरमें आयें मधुपर्क सहित पूजा करके सत्कार करा ऐसा लिखा है. इस वास्ते आगे मधुपर्क करणेकी रीती बहुत थी ऐसा मालुम होता है. कितने ब्राह्मण आपस्तंव शाखाके कहाते है. तेलंग और महाराष्ट्र देशमें इस शाखा के ब्राह्मण बहुत है, तिनका आपस्तंबीय धर्मसूत्र नामक शास्त्र है. तिस उपर हरदत्त नामक टीका है, सो सूत्र सरकारी तर्फसें मुंबई में बपा है, तिसमेंसें थोडेक सूत्र नीचे लिखते है. १ धेन्वनडुहौ भक्ष्यम् प्रश्न १ पटल ५ सूत्र ३०. २ क्याक्यभोज्यमिति हि ब्राह्मणम् २८ ३ मेध्यमानडूहमिति वाजसनेयकम् ३१ ४ गोमधुपर्कार्हो वेदाध्यायः २-४-१ ५ आचार्य ऋत्विक् स्नातको राजा वा धर्मयुक्तः २-४-६ ६ आचार्यायविजेच शूराय राज्ञ इति परिसंवत्सरादुपतिष्ठद्भवो गौर्मधुपर्कश्व २-४-७ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अज्ञानतिमिरजास्कर. ७ धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाच १-२-२ अर्थ - १ गाय तथा बलद जक्षण करणे योग्य है. २ पक्षी क्षण योग्य है ऐस ब्राह्मणग्रंथ में है. ३ बलद यज्ञपशु है ऐसें वाजसनीय कहे है. रखना. ४ गावका वध करके मधुपर्क करणा यह वेदाज्ञा है. ए आचार्य, ऋत्विज, वर, तथा राजा इनकों मधुपर्क देना चाहिये. ६ श्वशुर इत्यादि एकैक वर्षीतरे घरमें थावे तो मधुपर्क करना. ७ धर्म जानने की जिसको इवा होवे तिसने वेदका प्रमाण कात्यायन कल्पसूत्रम् जयंति आचार्य शत्विग्वैवाद्यो राजा प्रियस्नातक पेरु इति गौरिति त्रिः प्राह बालनेत् । अन्नप्राशन. नारद्वाजमांसेन वाक्यं सारिकामान्चकपिंजल मांसेनान्नाद्यकामस्य मत्स्यैर्जवनकामस्य कृकरवैराऽयुः कामस्य शूलगवः स्वर्गपशव्यः रौई पशुमालनेतृ. नवकंडिका श्राद्धसूत्रं ॥ अथ तृप्तिः बागो मेषानालस्य न स्वयमृतानादृत्य पचेन्मासद्वयं तु मत्स्यैर्मासत्रयंहारिणेनचतुरः प्ररत्रेण पंच शाकुनेनपटू are सप्त कोर्मेट वाराहेण नव मेषमांसेन दश माहिषेौका१ आचार्य ऋत्विक् विवाह के योग्ग पुरुष, राजा, प्रियमत्र, और स्नातक - ए छ अर्धं देने के लायक है, तिनकुं गाय धरना चाहीये - सारिक, मत्स्य, कपिंजलका मांस से अन्नादि मीलते है. मत्स्यसें वेग मीलते हैं. कृकवाकुना मांससें आयुष्य वचते है. शूलगवलें स्वर्ग मिलते है, रुद्रके वास्ते पशुमारना Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४3 प्रश्रमखम. दश पार्षतेन संवत्सरं तु वाधीनमांसेन द्वादश वर्षाणि खड्गमांसं कालशाकंलोहडागमांसमधुमहाशडकोऽक्षयतृप्तिः ॥ इति सूत्रम् ॥ अर्थ-मरनारकुं बकरेसें तृप्ति होती है. मरेलाको निमित्त दो मास मनुष्यका मांस, तीनमास हरिणकामांस, चारमास नोलकामांस पांचमास पतीकामांस, रठे बकरेकामांस, सातमे कूर्मकामांस आग्में वराहकामांस, नवमें मेंढाकामांस, दशमे पाडाकामांस अगीयारमें पर्षतकामांस और बारमें सवत्सरीमें वार्धीनकामांस ए बारमासे मांस देनेसे अक्षय तृप्ति होती है. माध्यंदिनी शाखाके जो ब्राह्मण है, वे कात्यायन सूत्रका उपयोग करते है. तिनमें मधुपर्क अन्नप्राशन शूलगव श्राद यद चारों अनुष्टानमें हिंसाका प्रतिपादन करा है. सो आश्वलायन सूत्र समान जान लेना, इस वास्ते विस्तार नही लिखा है. तथा संस्कृत शब्दोहीसें जान लेना. कात्यायन यजुर्वेदका सार सूत्र है. __ अथ सामवेदका लाट्यायन ऋषिका करा लाट्यायन सूत्र है तिसकानी किंचित्मात्र स्वरूप नीचे लिखते है, लाटयायनीय श्रौतसूत्रम् १ उक्षा चेदनूवंध्य औक्ष्णोरन्ध्रे १-६-४२ २ ऋषभ आर्षभं १-६-४३ ३ अज आजिगं १-५-४६ ४ मेष और्णावयं १-६-४७ ५वपायां हुतायां धीष्णपानुपतिष्टेरन् २-२-१० ६ न शूद्रेण संभाषेरन् २-२-१६ ७ गोष्टे पशुकामः ३-५-२१ ८ स्मशानेऽभिचरन् ३-६-२३ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत अज्ञानतिमिरनास्कर. ९ अनुबंध्य वपायां हतायां दक्षिणे वेद्यतेके श्मश्रू णि वापयेरन् ४-४-१८ १० प्रथमश्चाभिप्लवं पंचाक्षं कृत्वा मासान्ते सवनवि धः पशुः४-८-१४ ११ यथा चात्वाले तथा यूपे शामित्रे च पशौ ५-१-९ १२ वपायां हुतायामिदमाप इति चत्वाले मार्जयित्वा सर्वपशूनां यथार्थःस्यात् ५-३-१७ १३ अग्निषोमीयवपायां हुतायां यशेतमुदङ् अतिक्रम्य चावाले मार्जयेत् ५-९-१४ १४ जनतिस्रो वसतीति राजन्यबंधुर्जनो ब्राह्मणः समा न जन इति शाण्डिल्यः ८-२-१० १५ विवाह्यो जनः सगोत्रः समानजन इति धानंजप्यः ८-२-११ १६ प्रतिवेशो जनपदो जनो यत्र वसेत् स समानजन इति शाण्डिल्यायनः ८-२-१२ १७ एतं मृतं यजमानं हविर्भिः सह जीषे यज्ञपात्रेश्चाहवनीये प्रहृत्य प्रव्रजेयुरिति शाण्डिल्यः ८-८-६ १८ आस्ये हिरण्यमवधायानुस्तरणिक्या गौर्मुखं वपया प्रच्छाद्य तत्राग्निहोत्रहवनी तिरश्चीम् ८-८-२२ १९ वैश्यं यं विशः स्वराजानः पुरस्कुर्वीरन् स गोसवेन यजेत ९-४-२२ २० विघ्नाभ्यां पशुकामे यजेताभिचरन्वा ९-४-३३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. २१ राजाश्वमेधेन यजेत ९-९-१ २२ पंचशारदीये पशुबन्धयजेत ९-१२-१० ॥ लाट्यायन सूत्रका अर्थ ॥ १ बलदका यज्ञ करतां बलदका मंत्र पढना. २ सांडका यज्ञ करतां सांडका मंत्र पढना. ३ बकरेका यज्ञ करतां बकरेका मंत्र पडना. ४ नेडका यज्ञ करतां रुका मंत्र पढना. ५ कलजेका होम करतां नपस्थान मंत्र पढना. ६' यज्ञ दीक्षा लियां पीछे शूइसें न बोलना. ७ गाय बांधने की जगें यज्ञ करे पशु वृद्धि होती है. ८ स्मशानमें करनेसें शत्रुका नाश होता है.. ru पशुका कालेजा होमें पीछे वतु कराना.. १० एक मास पीछे पशु करना. ११ पशु उपर पाणी बांटना. १२ अमिषोम देवकों कलेजेका होम करतां पाणी बांटना. १३ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ये तीनो समान है ऐसा शांमिय श्राचार्यनें कहा है. YU १४ सगा मित्र येनि समान है ऐसा धानंजप्य आचार्यने कहा है. १५ स्वदेशीजन समान है ऐसा शांमिष्य श्राचार्यनें कहा है. १६ यज्ञ करतां यजमान मरे जाये तो तिसके उपर यज्ञके यत्र गेर देनो.. १७ तिसके सुखमें मुवर्ण डालके गायका कलेजा काढके ति सके मुख पर गेरणा. इस गायका नाम अनुस्तरणी है. १० वाणीयाने गोसव करणा. 12 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अज्ञानतिमिरनास्कर. १ए विघन यझसे पशु वृद्धि होती है. २० राजा अश्वमेध करे. १ पंचशारदीय यज्ञमें पशु मारणा. इति लाट्यायनः ।। ब्राह्मणोंकी जितनी शाखा है तितनेही तिनके सूत्र है लिन सर्वका हाल लिखा नही जाता है इस वास्ते इनको गेमके स्मृतियोका हाल देखते है. स्मृति नामके ग्रंथ पचास वा साठ है हरेक ऋषिके नामसे पिगना जाता है. परंतु तिनमें मनु और याज्ञवल्क्य ये दो श्रेष्ट गिने जाते है. वेदोमेंन्नी लिखा है कि जो मनुने कहा है, सो ठीक है इस वास्ते प्रथम मनुकेही थोमेसे श्लोक लिखते है. १ तैलै/हियवैर्मासन्निर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं तृप्यंति विधिवत्पितरो नृणां । अण् ३-२६७ २ छौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन हारिणेन तु ३-२६७ ३ षण्मासांचागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै ३-२६ए ४ दश मासान्तु तृप्यंति वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु ॥ ३-७० ५ वर्धिणशस्यमांसेन तृप्ति दशवार्षिकी ३-२७१ ६ कालशाकं महाशकाः खालोहामिषं मधु । आनत्यायैव करप्यंते समुत्पन्नानि च सर्वशः ॥ ३-२७२ अर्थ--तिल, सही, जव, नमद वा मूलफल श्नमेंसे हरेक वस्तु शास्त्र रीतीसे देवेतो पितर एक मास तक तृप्त रहतें है. १ सरके मांससे दो भास, हिरण्यके मांसके तिन मास, ३ डाग मांसले उ मास और चित्र मृगके मांससे सात मास, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखमः ५१ ४ सूयर तथा नैंसके मांससे दश मास तृप्त रहते हैं और ससे तथा कछुके मांससे ग्यार मास तृप्त रहते है. ५ लांबे कानवाले धवले बकरेके मांससे बारा वर्ष तृप्त रहते है. ६ कालशाक महाशटकनामा मत्स्य अथवा गैंमा, लाल बकरा इनभेसे हरेकका मांस देवे मद्यसें और सर्व प्रकारका ऋषिधान्य और वनस्पति रूप जो जंगल में स्वयमेव होता है सो दे. वेतो अनंत वर्ष तक पितर तृप्त रहते है. इसी तरें मनुस्मृतिमें अनेक जगें जीव मारने और मांस खानेकी विधि लिखी है, सो जान लेनी. अथ याज्ञवल्क्य स्मृतिमें आचार अध्याय है, तिसके वचन नीचे लिखे जाते है. गृहस्थ धर्म प्रकरणः महोदं वा महाजं वा श्रीतियायोपकल्पयेत् ॥ १०८ यज्ञेश्वर शास्त्री पत्रे ७५. प्रतिसंवत्सरं त्वया॑स्नातकाचार्यपार्थिवाः । प्रियो विवाहश्च तथा यज्ञे प्रत्यत्विजः पुनः ॥ १॥ अर्थ--श्रौतिय अर्थात् अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने घरमें आवे तो बडा बलद अथवा बकरा मोटा तितके नकण वास्ते देना. इस उपर टीकाकार ऐसा लिखता है "अस्वयं लोकविधिष्टं धर्ममध्याचरेनविति" निषेधाच. स्नातक, आचार्य, राजा, मित्र, जमाइ इनको मधुपर्क जा प्रतिवर्ष करणी तथा ऋत्विजकी प्रत्येक यझमें करणी ऐले लिखके आश्वलायन सूत्रका वचन दाखल करा है, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. अथ नक्ष्यान्नक्ष्य प्रकरणमें याज्ञवल्क्य स्मृतिके श्लोक लिखते है. नदयाः पंचनखा सेधागोधाकछपशल्लकाः । शशश्च मत्स्येष्वपिहि सिंहतुंमकरोहिताः १७६ तथा पाठीनराजीवसशल्काश्च द्विजातितिः । अतः शृणुध्वं मांसस्य विधिं नक्षणवर्जने ॥ १७७ प्राणात्यये तथा आहे प्रोदितं द्विजकाम्यया । देवान् पितृन समान्यर्च्य खादन्मांसं न दोषनाक् ॥ १७० वसेत्स नरके घोरे दिनानि पशुरोमन्तिः। समितानि दुराचार यो हंत्यविधिना पशून् ॥ १७॥ सर्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा । गृझेपि निवसन् विप्रो मुनिर्मास विवर्जनात् ॥ १७० अर्थ- पांच नखवाला जीवमें सेह, गोह, कलु, शटक, ससा, गेंमी ये प्राणी नक्षण करणे योग्य है. और पाठीन और राजीव ये दोनो जातके मठ ब्राह्मणोंने लक्ष्य है. २ मासके नक्षणकी तथा परित्यागकी विधि सुण लो. ३ माणकटमें तथा श्राइमें मांस नक्षण करना. पोक्षित मांस तथा ब्राह्मण नोजन वास्ते अथवा देवपितृकार्यके वास्ते सिह करा मांस देवपितरकी पूजा करा पीछे बाकी रहा होवे सो लक्षण करे तो दोष नहीं. प्रोदितं अर्थात् पोक्षण नामक संस्कार करके यझकार्य करा पोडे बाकी रहे सो प्रोदित मांस कहा जाता है. तिसका अवश्य नक्षण करना, कारण न करे तो यझकी समाप्ति न होवे. ४ जो आदमी विधि विना पशु मारता है सो नरकमें जाता है. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. ५ जो मांसका त्यागी है, तिसकों अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है. और सो गृहस्थही थकां मुनि जानना. यह वचन टीकाकार लिखता है कि अवश्य नकण करना चाहिये, मोदितादि मांसका त्याग नही. हविष्यानेन वै मासं पायसेन तु वत्सरम् । मात्स्यहारिणकौरनशाकुनगगपार्षतैः ॥ २५७ २ ऐगरोरववाराहशाशैमासैर्यथाक्रमम् । मासवृक्ष्यान्नितृप्यंति दत्तैरिद पितामहाः॥॥ ३ खम्गामिषं महाशल्कं मधुवन्यानमेवच । लोहामिषं महाशाकं मांसं वाणिसस्य च ॥ २ ॥ अर्थ-१-२ अन्नसें एक मास, दीरसें एक वर्ष, मत्स्य, ह. रिण, मीढा पदी, बकरा, काला हरिण, सांबर, सूयर ससा, इन जीवांको मांस पितरांको देवे तो मास अधिकअधिक वृश्केि हिसा बसें पितर तृप्त रहते है. ३ गैंडेका मांस, महाशक मत्स्यकी जाति है तिसका मांस मध, और वनमें नुत्पन्न हुआ अन्न, लाल रंगके बकरेका मांस, कालशाक और वार्धीण अर्थात् धौले बकरेका मांस देवे तो अनंत फलदायक है. विनायकशांतिका पाठ नीचे लिखते है, मत्स्यान्पक्कांस्तथैवामान्मांसमेतावदेव तु ॥ ६ ॥ पुष्पांश्च सुगंधं च सुरां च त्रिविधामपि ॥ श्ए । अर्थ-कच्चा पक्का मठ, और तैसाही मांस, पुष्प, सुगंधी पदार्थ, और तीन प्रकारको मदिरा अर्थात् गुम, महूआ, आटा श्न तीनोंका निकला मदिरा इनको विनायक और तिसकी माता अंबिकाकों चढाना, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अज्ञानतिमिरजास्कर. ग्रह करनेकी विधिमें लिखा है कि गुमौदनं पायसं च हविष्यं क्षीरपाष्टिकं । दध्योदन विश्वूर्ण मांस चित्रान्नमेव च ॥ ३०३ ॥ दद्याद् ग्ररक्रमादेव द्विजेभ्यो नोजनं द्विजः । शक्तितों वा यथासानं सत्कृत्य विधिपूर्वक म् ॥ ३०४ अर्थ- गुरु, कीर, ऋषिधान्य, दूध, दही जात, घी जात, चटनी, मांस, केशरीजात इत्यादि ग्रहतृप्ति करणे वास्ते त्राको पूर्वोक्त पदार्थो जिम्मावना. इति याइवल्य स्मृतिमें है. व स्मृतियां पीछे पुराणोंका पाठ कुटक लिखते है. प्रथम मत्स्यपुराणके १७ में अध्यायमें श्राकल्प लिखा है। सिके श्लोक नीचे लिखे है. अनं तुदधि क्षीरं गोघृतं शर्करान्वितं ॥ मांसं प्रीणाति वै सर्वान् पितॄनित्याह केशवः ॥ प्र० ७. श्लोक० ३० मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु । औरवेशाय चतुरः शाकुनेनाथ पंच वै ॥ ३१ ॥ परमासं बागमांसेन तृप्यन्ति पितरस्तथा । सप्त पार्षतमांसेन तथाष्टावेराजेन तु ॥ ३२ ॥ दश मासांस्तु तृप्यंति वराहमदियामिषैः । शशकूर्म जमांसेन मासानेकादशैव तु ॥ ३३ ॥ संवत्सरंतु गव्येन पायसा पायसेन तु । व्याघ्रयाः सिंहस्य मांसेन तृतिद्वादशवार्षिकी ॥ ३४ ॥ कालशाखेन चानता खगमांसेन चैव हि । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. यत्किंचन्मधुसंमिश्रं गोदीरं घृतपायसं ॥ ३५ ॥ दत्तमचयमित्याहुः पितरः पूर्वदेवताः ॥ ३६ ॥ इन श्लोकोंका अर्थ नपर स्मृतिश्लोकवत् जान लेना. अथ मारकंम ऋषिका पुराण है तिसके १३ में अध्यायमें देवीका महात्म्य है तिसको चंडिपाठ कहते है, सो लोक बहुत बांचते है. और तिस नपरसें जप होम पूजा आदि अनुटान करते है. तिसमें नीचे लिखे हुये श्लोक है. बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे । अ, १२ श्लो. १० पशुपुष्पार्घधूपैश्च गंधदीपैस्तथोत्तमैः ॥ १२-१० रुधिरोक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप । १५-१७ अर्थ-देवीकी पूजामें बलिप्ररान करणा और गंध पुष्प तथा जानवरजी देने और लोहयुक्त मांस और मदिरा देवीको अर्पण करणा. भारत यह वमा इतिहासका ग्रंथ है. तिसमेनी जो जो राजे बहुत शिकार करते थे और बहुत जानवर मारते थे तिनकी कीर्ति व्यासजीने बहुतवर्णन करी है.तिसके योमेसे वचन लिखते है. १ ततस्ते योगपधेन ययुः सर्वे चतुर्दिशं । मृगयां पुरुषव्याघ्रा ब्राह्मणार्थे परंतपाः॥४॥ धारते द्रौप दीप्रमाथे ? सर्गे. १ ततो दिशः संप्रविहृत्य पार्था, मृगान्वराहान्महिषांश्च हत्वा । धनुर्धराः श्रेष्टतमाःपृथिव्यां, पृथक् चरन्तः सहिता बन्नूवुः॥१॥ द्रौपदी प्रमाथे षष्ठमसर्गे ३ ततो मृगसहस्राणि हत्वा स बलवाहनः । राजा मृगप्रसडेन बनमन्याधिवेश द ॥१॥ शकुन्ततृतीय सर्गः प्रथम श्लोकः अर्थ- ब्राह्मणोंके वास्ते बहुत हरिण मारके ल्याये. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अज्ञानतिमिरजास्कर. २ धनुर्धर श्रेष्ट राजायोनें बहुत हरिण तथा सूयर तथा जंगली भैंसो मारके ब्यानी ॥ ३ इन बलवान राजायोंनें हजारों मृग मारके अन्योंके मारने वास्ते वनमें चले है. तथा इसी भारतके जीष्म पर्व में जगवङ्गीता नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है. सो वेदांति तथा जक्तिमार्गवाले दोनो मानते है. तिसमें निचे प्रमाणे लिखा है. सहयज्ञा प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः । श्रनेन प्रसवियध्वमेवोस्तिष्ठ कामधुक् ॥ १० - ० ३ ॥ यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यते सर्वकिल्विषैः ॥ यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥ यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् यज्ञो दानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ॥ श्रध्याय १८ श्लोक ५ ॥ अर्थ - १ ब्रह्माने सृष्टि उत्पन्न करी तिसी वखत यज्ञ करनेकी प्राज्ञा करी कि यज्ञ करो, तिससे देवता प्रसन्न होके तुमारी मनोकामना पूरी करेंगे.. २ यज्ञ करके बाकी जो रहे सो खावे तिसका सर्व पाप कय हो जाता है. यज्ञ करनेसेंही वर्षा होती है और यज्ञ ब्रह्मदेवकी श्राज्ञा मूजब है. ३ यज्ञदान तथा तप मनुष्यकों पवित्र करते है. तिस वास्ते पूर्वोक्त कर्मका त्याग कदापि न करना. कर्म श्रवश्यमेव करना. इति गीता.. भारते । युधिष्ठिर उवाच ॥ गार्हस्थ्र्यस्य च धर्मस्य योगधर्मस्य चोजयोः | अदूरसंप्रस्थितयोः किंस्वित् श्रेयः पितामह ॥ १ ॥ भीष्म उवाच धर्मै महानागावुनौ परमश्वरौ ॥ ननौ मदाफलौ तो तु सङ्गिराचारितावुभौ । कपिल नवाच । नाहं वेदान्वि Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. Այ निंदामि नः विवकामि कर्हिचित् । प्रथगाश्रमिणां कर्माएयेकार्थानी ति न श्रुतं ॥ स्यूमरश्मिरुवाच । स्वर्गकामो यजेतेति सततं श्रूयते श्रुतिः । फलं प्रकल्प्य पूर्वं हि ततो यज्ञः प्रतायते ॥ ॥ अश्वाश्वश्वौषधयः प्राणस्यान्नमिति श्रुतिः । तथैवान्नं ह्यहरहः सायं प्रातर्निरूप्यते ॥ पशवश्चार्धधान्यं च यज्ञस्यांग मिति श्रुतिः । एतानि सह यज्ञेन प्रजापतिरकल्पयत् ॥ तेन प्रजापतिर्देवान् यज्ञेनायजत प्रभुः । तदन्योन्यवराः सर्वे प्राणिनः सप्त सप्तधा ॥ यज्ञेषु प्राकृतं विश्वं प्रादुरुत्तमसंज्ञितं । एतच्चैवान्यनुज्ञातं पूर्वैः पूर्वतरैस्तथा ॥ को जातु न विचिन्वीत विद्यात्स्वां शक्तिमात्मनः । पशवश्च मनुष्याच कुमाश्रौषधीभिः सह || स्वर्गमेवानिकांते न च स्वर्गस्ततो मखात् । औषध्यः पशवो वृक्षा वीरुदाज्यं पयोदधि ॥ हवि मूर्भिर्दिशः श्रश कालश्चैतानि द्वादश । ऋचो यजूंषि सामानि यजमानश्च पोमश || मिर्ज्ञेयो गृहपतिः स सप्तदश उच्यते । अंगान्येतानि यज्ञस्य यज्ञो मूलमिति श्रुतिः ॥ यज्ञार्थानि हि सृष्टानि यथार्थ श्रूयते श्रुतिः । एवं पूर्वतराः सर्वे प्रवृत्ताश्चैव मानवाः ॥ यज्ञांगान्यपि चैतानि यज्ञोक्तान्यनुपूर्वशः । विधिना विधियुक्तानि धारयंति परस्परं । न तस्य त्रिषु लोकेषु परलोकजर्यं विदुः । इति वेदा वदंतीह सिद्धाश्च परमर्षयः । इति श्री महाभारते शांति पर्वणि मोकधर्मे गोकपिलीये श्रष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६८ ॥ स्यूमरश्मिरुवाच - यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवंति जंतवः । एवं गार्हस्थ्यमाश्रित्य वर्तत इतराश्रमाः ॥ गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः गार्हस्थ्यमस्य धर्मस्य मूलं यत्किंचिदेजते ॥ सर्वमेतन्मया ब्रह्मन् शास्त्रतः परिकीर्तितं । न ह्यविज्ञाय शास्त्रार्थं प्रवर्तते प्रवृत्तयः ॥ युधिष्ठिर नवाच - अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं वदुशस्त्व या । श्रादेषु च जवानाह पित्टनामिषकांक्षिणः ॥ मांसैर्बहुविधैः 13 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱԵ अज्ञानतिमिरज्नास्कर. प्रोक्तस्त्वया श्राविधिः पुरा । अहत्वाच कुतो मांसमेवमेतद्विरुध्यते ॥ जातो नः संशयोधर्मे मांसस्य परिवर्जने । दोषो यतः कः स्यात्कश्वानकयतो गुणः ॥ भीष्म उवाच - प्रमोदितं वृथा मांसं विधिहीनं न नयेत् । प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः प्रजार्थिनि रुदाहृतः ॥ तथोक्तं राजशार्दूल न तु तन्मोक्षकांकियां । दविर्यत्संस्कृतं मंत्रः प्रोकितान्युदितं शुचि ॥ वेदोक्तेन प्रमाणेन पित्णां प्रक्रियासु च । अतोन्यथा वृथा मांसमनक्ष्यं मनुरब्रवीत् ॥ एतते कथितं राजन् मांसस्य परिवर्जने । प्रवृतौ च निवृतौ च विधानपिनिर्मितं ॥ इति महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मे मांसक्षणनिषेधे पंचदशाधिकशततमोऽध्यायः ११५. युधिष्ठिर नवाच - किं चानयमनक्ष्यं वा सर्वमेतद्वदस्व मे । दोषा जकयतो येपि तान्मे ब्रूहि पितामह ॥ जीष्म नवाच -एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत । न मांसात्परमं किंचिइसतो विद्यते वि ॥ सद्यो वर्धयति प्राणान्पुष्टिमग्र्यां दधाति च । न योन्यधिकः कश्चिन्मांसादस्ति परंतप ॥ विवर्जिते तु बहवो गुणाः कौरवनंदन | ये जवंति मनुष्याणां तन्मे निगदतः शृणु ॥ विधिना वेददृष्टेन तद्द्भुक्तेह न दुष्यति । यज्ञार्थे पशवः सृष्टा इत्यपि श्रूयते श्रुतिः ॥ अतोन्यथाप्रवृत्तानां राक्षसो विधिरुच्यते । क्षत्रियाणां तु यो दृष्टो विधिस्तमपि मे शृणु ॥ वीर्येणोपार्जितं मांसं यथा भुंजन दुष्यति । आरण्याः सर्वदैवत्याः सर्वशः प्रोदिता मृगाः ॥ अगस्त्येन पुरा राजन् मृगयायेन पूजिता । अतो राजर्षयः सर्वे मृगयां यांति भारत । न हि लिप्यन्ति पापेन न - चैतत्पातकं विदुः । पितृदैवतयज्ञेषु प्रोक्षितं दविरुच्यते ॥ प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति । अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. Ա नाम नारत ॥ सर्वयझषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाद्लुतं । सर्वदान फलं वापि नैतत्तुल्यमाहिंसया ॥ इति श्री मदानारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मे अहिंसाफलकथने षोडशाधिकशततमोऽव्यायः ॥ ११६ ॥ व्यास नवाच- यझेन तपसा चैव दानेनेच नराधिप । पूर्यते नरशार्दूल नरा उप्कृतकारिणः ॥ राजसूयाश्वमेधौ च सर्व मेधं च नारत । नरमेधं च नृपते मत्वाह च युधिष्टिर ॥ यजस्व वाजिमेधेन विधिवदक्षिणावता । बहुकामान वित्नेन रामो दाश रथिर्यथा ॥ इति श्री महानारते आश्वमेधिके पर्वणि तृतीयोऽ ध्यायः॥ ततो यूपोच्छ्ये प्राप्ते षविख्वान् भरतर्षन । खादिरान् बि. ख्वसमितांस्तावतः सर्ववर्णितः ॥ देवदारुमयौ छौतु यूपी कुरुपते मखे । श्लेष्मांतकमयं चैकं याजकाः समकल्पयन् ॥शुशुन्ने चय. नं तच ददस्येव प्रजापतेः । ततो नियुक्ताः पशवो यथाशास्त्रं मनी. पिन्तिः ॥ तं तं देवं समुद्दिश्य परिणः पशवश्च ये । ऋषन्नाः शास्त्रपठितास्तथा जलचराश्चये ॥ यूपेषु नियता चासीत्पशन त्रिंशतिस्तथा । अश्वरत्नोत्तरा यझे कौंतेयस्य महात्मनः ॥ स यज्ञः शुशुने तस्य साकादेवर्षिसंकुलः । सिमविप्रनिवासैश्च समंतादनिसंवृतः ॥ तस्मिन् सदसि नित्यास्तु व्यासशिप्या हिजर्षनाः ।सर्वशास्त्रप्रणेतारः कुशला यज्ञसंस्तरे ॥ नारदश्च बनूवात तुंबरश्च महायुतिः । इति श्रीमहानारते आश्वमेधिके पर्वशि अनुगीतापणि अश्वमेधारने अष्टाशितितमोऽध्यायः ७ वैशंपायन नवाच-श्रपयित्वा पशूनन्यान्विधिवलि जातयः।ततः संश्रप्य तुरगं विधिवद्याजकास्तदा ॥ उपासंवेश न राजस्ततस्तां पदात्मजां । उहत्य तु वपांतस्य याशार किजातयः ॥ नपाजिज्ञद्ययाशास्त्रं सर्वपापापहं तदा । शिष्टान्यगानि यान्यासंस्त Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अज्ञानतिमिरजास्कर. स्याश्वस्य नराधिप । तान्यग्नौ जुदुवुर्धीराः समस्ताः पोमशात्र्विजः । व्यासः सशिष्यो भगवान् वर्धयामास तं नृपं ॥ ततो युधि ष्टिरः प्रादात् ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि । गोविंदं च महात्मानं बलदेवं महाबलं । तथान्यान्वृष्णिवीरांश्च प्रद्युम्नाद्यान् सहस्रशः । पूजयित्वा महाराज यथाविधि महायुति । एवं बजूव यज्ञः स धर्मराजस्य धीमतः । बवन्नवनरत्नायैः सुराजैरेयसागरः ॥ सर्पिःपंका हृदा यत्र बनवुश्चान्नपर्वताः । पशूनां वध्यतां चैव नातं दहशिरे जनाः ॥ विपाप्मा भरतश्रेष्ठः कृतार्थः प्राविशत्पुरं । तं महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनाकुलं ॥ इति श्री महाभारते श्राश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि श्रश्वमेघसमाप्तौ एकोननवतितमोऽध्यायः || G || अर्थ-युधिष्टिर धर्मराजा भीष्माचार्यको प्रश्न करता जयाकि गृहस्थ और साधु इन दोनोमेंसें उत्तम धर्म किसका है ? जीष्मनें उत्तर दीनाकी दोनो धर्म है. पीछे कपिलची बोला कि मैं वेदाकी निंदा नहीं कर शकता हूं. आश्रम प्रमाणे धर्म होता है. स्यूमरश्म बोला कि स्वर्गमें जाने वास्ते यश करो. इसतरें सदा वेद कहता है. तिस परंपरा यज्ञ करते आये है. बकरेका, घोका, भेडका गायका, पक्षीयोंका यज्ञ होता है. गाम में और सीमामें जो जानवर है वे सर्व नक्षण करने योग्य है; ऐसा वेदमें कहा है. और जानवर और धान्य इन दोनोंसें यज्ञ होता है; ऐसा वेदनें कहा है. इसतरें प्रजापति देवनें ठहराव करके यज्ञविधि जानवर और धान्य ये सर्व उत्पन्न करे. तिसी तरें देवते यज्ञ करने लगे. यज्ञमें जो जीव मारे जाते है वे सर्व ब्रह्मदेवकी आज्ञा है. और तिसीतरें पूर्वज करते श्राये है. जनावर, मनुष्य, वनस्पति ये सर्व स्वर्ग में जानेकी इच्छा करते है जनावर धान्य इत्यादि १२ प्रकारकी सामग्री यज्ञमें चाहिये तो और Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. वेद मिलके सर्व १६ सोलें और सत्तरमी अग्नि इतनी सामग्री यज्ञकी वेदमें लिखी है. तिससे प्रथम मनुष्य यज्ञ करने लगे. ये सर्व पदार्थ यज्ञार्य करे है. ऐसे वेदोमें लिखा है. इसीतरे सर्व वेद सिह पुरुष महाऋषि इनका यही कहना है तो फेर इसमें पातक कहांसें होय ? यझसे परजवमें अा होता है. शांतिपर्वमें इसतरे कथा २६७ में अध्यायमें है. स्यूमरश्मि ऋषि कहे है, कि सर्व जीव माताके आश्रयसें जीवते है. तिसीतरे गृहस्थके आश्रय सर्व साधु जीवे है. गृहस्थसे यज्ञ होता है. तप होता है, तिस वास्ते गृहस्थाश्रमी लोक धर्मका साहाय्य देते है. यह सर्व शास्त्रानुसारे मैंने कहा है. इसतरें कया २३ए में अध्यायमें है. धर्मराजा कहता है, हे आचार्य ! अहिंसा बसाधर्म है ऐलेजो बहुत वार तुमने कहा है, और तुमनेही श्राइमें अनेक प्रकारका मांस खानेकी बुटी दिनी है.तब हिंसा करां विना मांस क्योंकर मिल सकता है. मेरा यह संशय दूर नहीं होता है इस वास्ते इस बातका खुलासा करो, नोष्मने नत्तर दीना यज्ञ विना और शास्त्रने जो बुटि दी. नी है तिसके विना मांस न खाना इसका नाम प्रवृत्तिधर्म है; परंतु मोदकी श्चा होय तितका यह धर्म नहीं. वेदमंत्रसें पवित्र हुआ और पाणी गंटके प्रोक्षण करा हुआ मांस पवित्र है, तिसके खानेमें पाप नहीं. इस नपरांत मांस नहीं खाना. प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो धर्म ऋषियोंने कहे है. अनुशासनपर्वमें यै कया ११५ में अध्यायमें है. धर्मराजा पूरे है कि हे आचार्य ! क्या खाना और क्या न खाना यह मुजको कहो. नीमने नत्तर दीना कि हे धर्मराजा ! इस पृथ्विमें मांस समान कोई नत्तम पदार्थ नही, जीवको पुष्टि देनवाला, शरीरकी वृद्धि करनेवाला, तोनि तिसके त्याग Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. करने में बहुत धर्म है. वेदाज्ञा प्रमाणे मांस खानेमें दोष नही. क्योंकि यज्ञ वास्ते परमेश्वरने पशु जनावर उत्पन्न करे है, ऐसा वेदमें लिखा है. तिसके विना मांस खाना ये राक्षसी कर्म है अब क्षत्रियका कर्म कहता हूं. तिसने अपने बलसें जीव मारा होवेतो तिसके खाने में दोष नही. अगस्ति ऋषिनेंनी सर्व मृग पदीयोंका मांस दीनाथा. सर्व राजर्षि शिकार करते है. शिकार मारनेमें तिनको पाप नहीं. श्राइमें यज्ञमें मांस खाते है, सो देवोंका न. बिष्ट खाते है. प्राण सर्वकों वल्लन है, इसवास्ते प्राणरक्षण यह वमा धर्म है. अहिंसा पालनेसे सर्व यज्ञ, तप, तीर्थका फल मिलता है. ऐसी कया ११६ में अध्यायमें है. व्यासजी कहता है. पापी जो है सों यज्ञ तप दानमें पवित्र होता है. राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, नरमेध यज्ञ, ऐसें अनेक प्रकारके यज्ञ है, तिनमेंसे घोमेका यज्ञ तूं कर. पूर्वे रामचंजीनेनी यह यज्ञ कराया. यह कया अश्वमेध पर्वके ३ अध्यायमें है. बिल्लका, खैरका, देवदारुका अनेक यूप यझमें करेथे, सो. नेकी ईटो बनाईश्री, चयन कुंम सुंदर बनाया था, और एकैक देवताके वास्ते पशु, पक्षी, बैल, जलचर, जनावर सर्व तीनसो ३०० बांधेथे. तिनमें घोमा बहुत शोनावंत दीख पडता था. सिह और ब्राह्मण, व्यासजी और तिसके बहुत शिप्य सर्व कर्मके जापकार और नारदजी बमा तेजस्वी और तुंबरू ऋषिन्नि सन्नामें थे. यह कथा में अध्यायमें है. वैशंपायन कहता है कि पीछे ब्राह्मणोंने सर्व जनावरना मांस रांधके तैयार करा और शास्त्र प्रमाणे घोमेका मांसन्नी रांधा राजा और पदिराजपत्नीकों नपवेशन संस्कार दूा. तदपीछे घोमेका कलेजा काढके ब्राह्मणोंने राजाके हाथमें दीना. तिससे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. राजेका सर्वपाप गया. अन्ह अंगोंके मांसकों सोले याझिकोंर्ने मिलके हवन करा. तिस सन्नामें कृष्ण, बलन, प्रद्युम्न वगेरेनी थे. तिस पीठे ब्राह्मणोंकि पूजा और दान करा. इसतरें धर्मराजाके घोमेका यज्ञ दूा. तिसमें धनधान्य रत्न और दारू पीनेको बहुत दीना था. और घीका कर्दम दूआ था और अन्नके पर्वत दूये थे. और जनावर इतने मारेथे कि तिनकी संख्या नहीं. ऐसा यज्ञ करनेसें राजाका सर्व पाप गया, यह कथा Gए में अध्यायमें अश्वमेध पर्वमें है. रामायण नामक काव्य ग्रंथ है. सो मूल वाल्मीक ऋषिका दूआ है. और तिस नपरसें अनेक रामायण करी है. तिनमें मुख्य अध्यात्मरामायण है. तिसके नुत्तरकांडमें रामचंजीने रावणको जीत सीताको ख्याकर अयोध्यामें आये, तव विश्वामित्र, नृगु, अंगिरस, वामदेव, अगस्ति इत्यादि ऋषि रामचंइजीको आशिर्वाद देनेको आये तिस वखत मधुपर्क पूजा रामचं जीवें ऋषियोंकी करी सो श्लोक ॥ " दृष्टवा रामो मुनीन् शीघ्रं प्रत्युत्थाय कृतांजलिः। पाद्याा दिनिरापूज्य गां निवेद्य ययाविधि" ॥ उत्तरकांड अ० १ श्लोक १३ ॥ टीका “ गां मधुपर्कार्थे वृषन्नं च महोदं वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेदिति स्मरणात् " ॥ अर्थ-रामचंजी मुनीयोंकों देखके खमा दूआ, हाथ जोमके पग धोनेको पाणी और इत्यादि पूजा करके विधिसे गाय निवेदन करी. इस नपर टीकाकारं लिखता है कि मधुपर्क पूजा करने वास्ते गाय अथवा बलद और बकरा देना चाहिये, ऐसी विधि स्मृतिमें कही दूर है. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ___स्मृति, पुराण, इतिहास, तथा काव्य येह ग्रंय ऋषियोक करे है. तिल वारले आर्ष कहे जाते है. तिस पीछे लोकोने यह मानाकि अब जगतमें ऋषि नही है, मनुष्य है. तिनके करे ग्रंथ पौरुष कहे जाते है. तिसी तरेंकें ग्रंथोकों निबंधनी कहते है. वे ग्रंथ संस्कृतमें है. और माधव हेमादि कमलाकर इत्यादि ग्रंथकार बहुत हो गये है. तिनोंने आर्ष ग्रंथोकी बाया लेके अनेक तरेके ग्रंय रचे है. ऐसे निबंध ग्रंथो कौस्तुनकार विवाह प्रकणमें गपा दुया ग्रंथ तिसके पत्रे २१७ में लिखा है ___ “अत्र जयंतः गोः प्रतिनिधित्वेन गग पालन्यते, नत्सर्जन पकेपि गग एव निवेदनीय इति ॥ गौरितिगविमनसि धृतायां हात्रिंशत्पणात्मकनिष्क्रयगगे मनसि धृते पणात्मको निष्क्रयो देयः । नामांसो मधुपर्को नवति इति सूत्रात् ॥ नत्सर्जनपकेपि अन्येन मांसेन नोजनादानमिति । वृत्तिजयंतादिनिरमिधानाच" __ अर्थ--गायके ठिकाने बकरा मारना चाहिये जेकर गाय गेडनेका पद लीना होवेतो तिसके रुपश्ये ३२ बत्तीस देने और बकरेके बदले रुपक १ एक देना. मांस विना मधुपर्क होता नही, ऐसा आश्वलायन सूत्र में लिखा है. इसवास्ते नत्सर्जन पर जेकर माने तोजी अन्य तरेका मांस ख्याके नोजन कराना, ऐसे जयंतादि वृत्तिकारोंने कहा है. - --Resernor-- ॥ श्राम विवेकमें लिखा है। अथ मांसानि ॥ गंमकमांसं विषाणसमयानुस्थितशृंगगग मांसं सर्वलोहितगगमांसं हरिणविचित्रहरिणकृष्णहरिणशंबर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ मृगमेशशककूर्माऽरण्यवराहमांसानि तित्तिरिलावकवर्त कशल्ल कीकराः एषां पक्षिणां मांसानि क्रकरः करात इति प्रसिद्धः वार्धिणसं मांसं " त्रिपिबंत्विं प्रहीणं श्वेतं वृद्धं प्रजापतिं वार्धिसं तुतं मर्याशिकाः पितृकर्मणि” कृष्णग्रीवो रक्तशीर्षः श्वेतपदो विहंगमः । स वै वाणिसः प्रोक्त इत्येषा नैगमी श्रुतिः । गगपक्षि णौ वार्धिसौ तयोमंसं मंत्रसंस्कृतमांसं यदा बागादिकं पशुमालभ्य मांसमुपादीयते तदा प्रथमं मंत्रेण पशुप्रोक्षणं कर्त्तव्यम् । मंत्रच " ओम् पितृभ्यस्त्वाजुष्टं प्रोकामि ॥ एकोद्दिष्ठे तु पित्रे त्वाजुछं प्रोक्षामीत्यादिरूपः अनासंज्ञपक्षे सिंहादिहतमांसादिषु न मंत्र संस्कारापेकेति सिंहव्याघ्रहतहरिहंमांसं लब्धक्रीतवागादिमांसम् पस्तराद्य निघातवागादिमांसं ॥ अथ मत्स्याः महाशब्करोहितराजीवपाठीनश्वेतशका अन्येपि ॥ काशी के ापेकी पुस्तकके पत्रे १६ ॥ प्रथमखंरु. अर्थ - श्राविवेक नाम एक पुस्तक है. तिसमें मातपिताके की विधि अनेक प्रकारकी लिखी है. तिनमें श्राद्ध में अनेक प्रकारक जनावरोका मांस भक्षण करना लिखा है, तिनका नाम जंगली भैंस, बकरा, दरिण, रोझ, मींढा, शशा, कटु, जंगली सूयर, और तीतर, लावक इत्यादिक पक्षी और जानवर मंत्रसें पवित्र करी पाणी अंटके ऐसा मंत्र पढनाकि मेरे पितरांके वास्ते तुजकों पवित्र करता हूं. ऐसे पढके तिसका मांस जैना अथवा पशुहिंसा करते योग्य न होवेतो व्याघ्र वा सिंहका मारा हुआ जानवरका मांस लेना, और ऐसा जनावर मिलेतो मंत्र पढने की जरूर नहीं. अथवा मांस मोल दे लेवे . इसी तरे महाशब्क-पाल म राजीव तथा पाठीन इत्यादि श्राद्ध में योग्य है. नवभूति कवि जो नोजराजाके वखतमे दुधा है तिसमें उत्तररामचरित ना 14 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अज्ञानतिमिरनास्कर. टक लिखा है सो प्रसिद है. सरकारी शालामेंनी पढागा जाता है. तिसके चौथे अंकमें वशिष्टके शिष्य सौघातक और नामायन श्व दोनोंका संवाद लिखा है. तिसमें प्रसंग ऐसा है कि राजा दशरथ वशिष्ट मुके घरमें आया तब बडा मधुपर्क वास्ते मारा तब पी जनकराजा आया तब मधुपर्क नही करा. क्योंकि यह राजा निवृति मार्गका माननेवाला था. इसवास्ते मधुपर्क न करा. तिसका संवाद नीचे लिखे मुजब जान लेना. सौधातक-मया पुतिं व्याघ्रो वा वृको वा एष इति । नांमायण-आः किमुक्तं नवति सोधातक--तेन सा वत्सतरी नकिता नांमायण-समांसमधुपर्क इत्याम्नायं बहुमन्यमानाःत्रिया याच्याग य वत्सतरी महोदंवा महाजं वा निर्वपंति गृह मेधिनः ॥ तं हि धर्मसूत्रकाराः समामनंति । सौधातक-येन आगतेषु वशिष्टमिश्रेषु वत्सतरी विशसिता। अद्यैव प्रत्यागतस्य राजर्षिजनकस्य नगवता वा स्मीकिनापि दधिमधुन्निरेव निवर्तितो मधुपर्कः नांडायण-अनिवृतमांसानामेवं कल्पमृषयो मन्यते । निवृ. तमांसस्तु तत्रनवान् जनकः ॥ अर्थ-राजादशरथने जब बदमेका मांस खाया तव सौधातकने कहा. यह राजा व्याघ्र वा नेमीया है. तब नांडायननें कहा. हा यह तुमने क्या कहा. तब सौधाधक बोला-इसने बदमी नक्षण करी तब नांमायन बोला-श्रोत्रिय अर्थात् अग्निहोत्रि ब्राह्मण और अन्यागतके वास्ते बदमी देई जाती है. बमा बलद बा बझा बकरा गृहत्य पूर्वोक्तो मधुपर्कके वास्ते मारके देता है. तिस Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. धर्मकों आश्वलायनादि सूत्रकार सम्मत करते है. तब सौधातके बोला जिस वाल्मीकनें वशिष्टादिकोंके आये बलमी मारी तिसी वाल्मोकने आजही पीग आयें राजऋषि जनकको दहीं मधुसें मधुपर्क करा. तब नांमायन बोला-जिनोंने मांस खाना नहीं त्यागा तिनका कल्प ऋषिलोक वैसाही करते है, और राजा जनक मां सका त्यागीया. इस वास्ते दही मधुसे मधुपर्क करा. पद्मपुराणके पातालखंमने रामाश्वमेधकी कथा है. तिसके साठ अध्याय है तिनमेंसे सातमें अध्यायमें ऐसा लिखा है कि रामचंदजीने अयोध्यामें आया पीछे बहुत पश्चात्ताप करा कि मैमें युइमें अपने हाथसें बहुत ब्राह्मण रावणादिक मारे तिनका पाप क्योंकर उतरेगा, ऐसा प्रभ ऋषियोंसे करा. तब ऋषियोंने जवाव दीनाकि ये सर्व पाप नाश करने वास्ते तुं अश्वमेध यज्ञ कर. अन्य कोश्नी पाप दूर करणेका नपाय नहीं और आगे जो बडे बडे राजे हो गये है तिनोंने अश्वमेध यज्ञ करके स्वर्गवास पाया है. तिनकी तरें तूंनी अश्वमेध कर तो सर्व पाप नष्ट हो जावेगे. सर्व कयन नीचे लीखा जाता है। राम उवाच ॥ ब्राह्मणास्तु पूजार्दा दानसन्माननोजनैः । ते मया निहता विप्राः शरसंघातसंदितैः ॥ कुर्वतो बुझिपूर्वमे ब्रह्महत्यास्तु निंदिता ॥इति ॥ प्रोक्तवंतं रामं जगाद स तपोनिषिः । शेष नवाच ॥ श्रृणु राम मदावीर लोकानुग्रहकारक । विप्रहत्यापनोदाय तव यचनं ब्रुवे। सर्व सपापंतरति योश्वमेधं यजेत वै । तस्मात्त्वं यज विश्वात्मन् नाजिमेधेन शोनिना ॥ स वाजिमेधो विप्राणां इत्यापापापनोदनः । कनवान्यं महाराजो दिलीपस्तव पूर्वजः।मनुश्च सगरो राजा मत्तो नदुरात्मजः । एते ते पूर्वजाः सर्वे यज्ञा कृत्वा पदं गताः ॥ ३६ अध्याय ७ में॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. धर्मशास्त्रमें सूत्रग्रंथ वेदोंके बराबर माने है. वेदार्थ लेकेहो सूत्र रचे है और सूत्रोंसें श्लोकबंध स्मृतियां बनाई गई. पीछे पुराणादि बने है. जब वेदोंकों देखिये तो मांस और जीवहिंसा करनेका कुबनी निषेध नहीं. जिस वखत स्मृतियोंके बनाने का काल था तिसमें अर्थात् कलियुगके प्रारंनमें एक बडा उपश्व वैदिक धर्म नपर नुत्पन्न हुआ. सो जैन बौध धर्मकी प्रबलता दूई. जैन बौधोने वेदोकं हिंसक शास्त्र अनीश्वरोक्त पुनरुक्त अझोंके बनाये सि करे, जिसका स्वरूप नपर कुछक लिख आये है. इस जरत खंडमें प्रायः हिंसक धर्म वेदोहिंसें चला है. जब वैदिक धर्म बहुत नष्ट हो गया तब लोगोंने ब्राह्मणोंसे पूग कि तुमतो वेद वेदोक्त यज्ञादिक धर्म ईश्वरके स्थापन करे जगतके नझार वास्ते कहते थे वे नष्ट क्यों कर हो गये. क्या ईश्वरसेंन्नी कोई बलवान है, जिसने ईश्वरकी स्थापन करी वस्तु खंडन कर दीनी. तब ब्राह्मणोंने उत्तर दिगा कि यह बुधनी परमेश्वरका अवतार है. सोश गीतगोविंद काव्य ग्रंथकी प्रथम अष्टपदीमें दशावतार वर्णन करे है तिसमें बुध वास्ते ऐसे लिखा हे॥"निंदसियज्ञविधेरहहः श्रुतिजातं सदयदृदयदर्शितपशुघातं केशव धृतबुझारीरं" ॥ गीतगोविंद ॥ __ अर्थ-नगवान विष्णुने बुक्का रूप धारके वेदमें कही यज्ञ वि धिकी निंदा करी कारण कि यझमें पशु मारे जाते है, तिनकी नगवानकों दया आई. इसी ग्रंथमें एक श्लोकमें दश अवतारका वर्णन करा है, तिनमें बुझ विषय ऐसा जयदेव स्वामीने लिखाहै, " कारुण्यमातन्वते” अर्थ-बुनें दया धर्म प्रगट करा, इससेंनी यह सिह होता है दया धर्म आगे बहुत लुप्त हो गया था और वैदिक ब्राह्मणोंने बहुत जगें हिंसक धर्म अर्थात् हिंसक वैदिक यज्ञ धर्म फैला दिया था. सो सर्व हिंदुस्थान, फारस, रुम, अरब वगैरे दे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६॥ प्रथमखंग. शोंमें फैल गया था.सोई कितनेक देशोमें अवनी यज्ञकी कुरवानी प्रमुख करते है, और वेदमंत्रोंकी जगे बिसमिल्लाह प्रमुख शब्द नचारते है. क्योंकि नारत और मनुस्मृतिमें लिखा है-शक यवन और कामजोज पुंरुक अंधविक यवनशक पा. रद पलव चीन किरात दरद खत ये सर्व क्षत्रिय जातिके लोक थे. ब्राह्मणोंके दर्शन न होनेसे म्लेच हो गये. इससे यह सिद दूा कि जिस जगे अवनी जानवरोकी बलि देते है अर्थात् कुानीयां करते है ये सर्व ब्राह्मणोनेही हिंसक धर्म चलाया है. और यहनी सिह होता है कि जिस समयमें मनुस्मृति बनाई गई है तिस समयमें इन पूर्वोक्त देशोमें ब्राह्मणोंका वेदोक्त धर्म नहीं रहा था. जब जैन बौधोंका जोर दूया, तब बौध मतके आचार्य मोजलायन और शारिपुत्र प्रमुख पंमितोनें देशोमें फिरफिरके अपने नपदेशद्वारा उत्तर पूर्वमेंतो चीन ब्रह्मातक बौधधर्म स्थापन करा और दक्षिणमें लंकातक स्थापन करा.नधर जैनाचार्य औरजैन राजे संप्रति प्रमुखोने नपदेशद्वाराधंगालसे लेकर काबूल, गजनी, हिरात, ब्रुखारा, शक पारसादि देशोंतक और नेपाल स्वेतांबिका तक, दक्षिणमें गुजरात, लाम, कौंकण, कर्णाट, सोपारपत्तन तक जैन मतकी वृद्धि स्थापन करी. तब हिंऽस्थानके ब्राह्मण कहनें लगेकि कलियुग नत्पन्न हुआ, इस वास्ते वैदिक धर्म मूब गया. कलि अर्थात् जैनबौधमतकी प्रबलता, क्या जाने ब्राह्मणोंने यह युग जुदा इसी वास्ते माना हो, जैन बोध मतकी प्रबलतामें एक और ब्राह्मणोकी जानकों क्लेश नत्पन्न हुआ कि कितनेक लोकोंने सांख्य शास्त्रका अभ्यास करके कहने लगे के ब्राह्मण लोग अग्नि, वायु, सूर्य इत्यादि अनेक देवतायोंकी उपासना करते है, और तिनके नामसे यज्ञ याग करतें है. परंतु ये देवते कहां कहे है, ये तो पदार्थ है. इनके वास्ते जीवहिंसा करनी और Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. धर्म समजना यह बहुत बमा पाप है, इस वास्ते वेडोक धर्म नीक नहीं. जिसको मोक्षकी इज्ग होवे सो प्रकृति पुरुषके ज्ञानसें और त्याग वैराग्यसे लेवे परंतु जीववध करनेसे कदापि मुकि नहीं होवेगी. तब तो चारों औरसे वैदिक धर्मवाले ब्राह्मणोंकी निंदा होने लगी, और तिनकों लोगोंने बहुत धिक्कार दिया. ति. ससे वेदोंके पुस्तक ढांककें रख गेडनेकी जरूरत हो गइ. और कितनीक बेदोक्त विधियां त्याग दीनी, और स्मृति, पुराण वगैरे बनाके तिनमें लिख दिया कि कलिमें फलानी फलानी चीज करनी और जो जो बाते जैन बौध धर्मकी साथ मिल जावे ऐसी दाखल करी, और कितनीक नवी युक्तियां निकाली, वे ऐसी कि अगले ऋषि जो यज्ञ करते थे वे जनावराको मारके ननका मांस खाके फिर जिता कर देते थे, वे बके सामर्थ्यवाले थे. कितनेक कहने लगे कि मंत्रोका सामर्थ्य तिन ऋषियोके साथदी चला गया. परंतु यह सर्व कहना ब्राह्मणोंका जुग है शास्त्रोंमेंसे यह प्रमाण किसी जगेसें नही मिलता है. परंतु यद प्रमाणतो मिलता है कि ऋषि जनावरोंको मारके होम करते और तिनका मांस खाते थे, तिस वखतमें जो वेद थे वेदी वेद इस वखतमेंनी है. परंतु वेदोक्त कर्म जो कोई आज करे तो तिसकी बहुत फजीती होवे. मधुपर्क, अनुस्तरणी, शूलगव, अश्वमेधमें संवेशन प्रकार, अश्लील नाषण इत्यादि वेदोक्त कर्म आज कोई करें तो तिसकी संगत कोई लोकनी नही करे, और तिसके साथ व्यवहारत्नी नही रख्खे. और यह पूर्वोक्त कर्म देखिये तो बहुत बुरा दिख प-' मता है. गर्नाधान संस्कारमें ऋग्वेदका मंत्र पढते है सो यह है. .. तां पुषं शिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्यावपंति॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. यानउविशति विश्रयाते यस्यामशंतः प्रहारमेशपं ॥ ऋग्वेद० अ० ८॥इसका अर्थ बहोत बीनत्स है. निगमप्रकाशका कर्ता लिखता है कि ऐसे मंत्रका अर्थ लिखीये तो बहुत अमर्यादा होवे इस वास्ते छना है सोही नला है. १२०० सो वर्ष पहिला शंकर स्वामी हूये तिनोने राजायोंकी मदतसें बौक्ष धर्मवालोंकों कतल करमा शुरु किया, परंतु जैन धर्म सर्व देशोमें दक्षिण, गुजरातादिक देशोमें बना रहा. शं. कर स्वामीनी वेदोक्त हिंसाको अच्छी मानते थे, क्योंकि शंकर विजय नामक ग्रंथ शंकरस्वामीके शिष्य आनंद गिरिका करा हुआ है तिसके बव्वीसमें अध्यायमें बौधोंके साथ संवाद जिसतरेंसे दूआ है सो लिखा है. शंकरस्वामी ने कहा है कि वेदमें जो हिंसा लिखी है सो हिंसा नही, यह तो धर्म है. सो संन्नाषण नी चे लिखा जाता है. “इदं प्राह सर्वप्राण्यहिंसा परमो धर्मः । परमगुरुनिरिदमुच्यते ॥रे रे सौगत नीचतर किं किं जल्पति । अहिंसा कथं धर्मो नवितुमर्हति । यागीयहिंसायाधर्मरूपत्वात् तथा हि अनिष्टोमादिक्रतुः गगादिपशुमान् यागस्य परमधर्मत्वात् । सर्वदेवतृप्तिमूलत्वाच्च । तद्द्वारा स्वर्गादिफलदर्शनाच पशुहिंसा श्रुत्याचारतत्परैरपिकरणीया तद्व्यतिरिक्तस्यैव पाखमत्वात् तदाचाररता नरकमेव यान्ति ॥” वेदनिंदापरा ये तु तदाचारविवर्जिताः ते सर्वे नरकं यांन्ति यद्यपि ब्रह्मबीजजाः "॥ इति मनुवचनात् ।। हिंसा कर्तव्येत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्तते ब्रह्मदत्रवेश्यशूज्ञणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव तदन्यः पतितो नरकगामी चेति सम्यगुपदिष्टः सौगतः परमगुरुं नत्वा निरस्तसमस्तानिमानः पद्मपादादिगुरुशिष्याणां पादरक्षधारणाधिकारकुशलः सततं तऽ. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. निष्ठानापुष्ठतनुरजवत् ॥ इत्यनन्तानंद गिरिकृतौ पमूविंश प्रकरणं ॥ २६ ॥ ७‍ अर्थ-सौगत कहता है अहिंसा परम धर्म है, तब शंकर कदता है, रे रे सौगत नीचोंमे नीच, क्या क्या कहता है ? अहिंसा क्योंकर धर्म हो सकता है यज्ञ हिंसाकों धर्मरूप दोनेसे, सोइ दिखाते है -अनिष्टोमादि यज्ञमें वागादि पशुका मारना परम धर्म है, और सर्व देवता तृप्त हो जाते है. और इस हिंसासें स्वर्ग मिलता है, इस वास्ते धर्म है. पशुहिंसा श्रुतिका आचार है, अन्य मतवालोंकोजी अंगीकार करणे योग्य है. वैदिक हिंसासें उपरांत सर्व पाखं है. जे पाखं मानते वे नरकमें जाते है. जो वेदकी निंदा करते है और जो वेदोक्ताचार वार्जित है वे सर्व नरक जायेंगे, ब्रह्मका बीज क्या न हो ? यह मनुनें कहा है. हिंसा करनी इसमें वेदोंकी हजारों श्रुतियां प्रमाण देती है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूर इनको वेद, इतिहास, पुराणोंका कदा प्रमाण है, इससे अन्य कुछ मानेतो नरकगामी है. यह सुके सौगत शंकरके पद्मपादादि शिष्योंका नौकर बनके उनकी जूतीयोंका रखनेवाला दूया. और उनकी जूट खाकर मस्तरहने लगा. अब विद्वानोंकों विचारना चाहिये कि शंकरस्वामी आनंद गिरि ये से कैसे अकलवंत थे क्योंकि प्रथम जो संबोधन नीचतरका करा है यह विद्वानोंका वचन नदी, फैर अहिंसा धर्मका निषेध करा यह वचन निर्दयी शौकरिक, कसाई, जंगी, ढेढ, चमारों और बावरीयोंका है कि जिनोंनं जीवहिंसाही सें प्रयोजन है और यज्ञकी हिंसा बहुत श्री कदी, सो श्रप्रमाणिक है. और इस जो मनुका प्रमाण दीया वो ऐसा है, जैसा कीसीने कहा हमारा गुरु तरण तारण है, इसमें प्रमाण, मेरा शाला जो कहता है के Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. मुरु सच्चा है. श्रुतिका जो प्रमाण दीया सो ऐसा है कि मेरी नार्या जो कहती है गुरु सच्चा है. क्या विछानोके यही प्रमाण होते है ? जो प्रतिवादीके खंडन करनेकों अपणे शास्त्रका प्रमाण देना यहतो निकेवल अन्यायसंपन्नताका लक्षण है. क्योंकि जब प्रतिवादि अन्यमतके शास्त्रोंकोही नही मानता तो फेर वो नसके प्रमा कों क्यों कर मानेगा ? इसी श्रानंदगिरिने अगले प्रकरणमें जैनमतका खंडन लिखा है, वो बिलकुल जूठ है. जो नसने जैनमतकी तर्फसे पूर्वपद करा है, सो उसके जैनमतके अननिझताका सूचक है. क्योंकि जो नसने पूर्वपद जैनमतकी तर्फसें करा है वो पद न तो किसी जैनी ने पीछे माना है और न वर्तमानमें मानते है, और न ननके शास्त्रोमें ऐसा लिखा है. इस वास्ते शं. कर और आनंदगिरि ये दोनो परमतके अजाण और अनिमानपूरित मालुम होते है; जो मनमें आया सो जूठा नतपटंग लिख दिया. जैसें वर्तमानमें दयानंद सरस्वतीने अपने बनाये सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथमें चार्वाकमतके श्लोक लिखके लिख दीयाकि ये श्लोक जैनीयोंके बनाये हुये है. ऐसेदि आनंद गिरि और शंकर स्वामीने जो जैनमतका पूर्वपद लिखा है सो महा जूठ लिखा है. इस वास्ते मैंने विचाराकि ऐसे आदमीयोंका लिखा खंगन लिखके मै काहेकों अपना पत्रा बिगाडूं. __ माधवाचार्यने दूसरी शंकरदिविजय रची है शंकर और आनंदगिरिकी अझता पिाने वारते; क्योंकि माधवाचार्यने कितनीक वाते जैनमतकी पूर्वपदने लिखी है. यह शंकरदिविजय अहंकार आदिके नद्यसें बनी है ने कुमतोंके खंडन करने सें, जैसे दयानंदने दयानंद दिग्विजयार्क रचलीनी है. दयानंदने किसमतकों जीता है सो सर्व लोग जानते है. निगम प्रकाशका कर्ता लिखता है कि शंकरस्वानी वाममार्गी श्राऐ से लोक कहते है. क्योंकि 15 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, जहां जहां शंकरस्वामीका मठ है तहां शक्तिकी उपासना विशेष करके चलती है. और हारकामें शंकरस्वामीका शारदामग्है. तहां श्रीचक्रकी स्थापना पत्थर कोरके करी है. और बहुत परमहंस, कौलिक, अघोरी, वाममार्गी, सर्वगी, इत्यादि सर्व ब्रह्ममार्गी, कहे जाते है. परंतु मदिरा मांस खूब पीते खाते है. श्रीचक्र वाममार्गीयोके पूजन करनेका देव है, सो शंकरस्वामीने स्थापन करा है, यह कथन शंकरविजयके चौसठमें तथा पैंसठ ६३ । ६५ में प्रकर में है सो निचे लिखा जाता है. ___“या देवी सर्वनूतेषु ज्ञानरूपेण संस्थिता। इति मार्कमेयवचनात् परा देवता कामाक्षीति” अध्याय १४ में । एवमेतस्मिन्नर्थे निष्पन्ने परशक्तित्त्वस्यानिव्यंजकं श्रीचक्रनिर्माण क्रियते नगवनिराचार्यः तत्रश्लोकः “ बिंऽत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्म, मन्नस्रनागदलसंयुतषोमशारम् । वृत्तत्रयश्च धरणीसदनत्रयश्च श्रीचक्रमेतऽदितं परदेव तायाः" ॥ श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः ॥ इत्यादि वचनैःश्रीचक्रस्य शिवशक्त्यैकरूपत्वात् मुक्तिकांविनिः सर्वैः श्रीचक्रपूजा कर्तव्येति सर्वे. षां मोक्षफलप्राप्तये दर्शनादेव श्रीचक्रं आचार्निर्मितमिति ॥ पंच षष्टी प्रकरणं ॥ इस लिखनेसे यह सिह होता है कि शंकरस्वामी वाममार्गीयोकानी आचार्य था. जब ऐसा दूया तबतो शंकरस्वामीने अनुचित कर्म किया होगा. शंकरस्वामीनेन्नी हिंसाहीको धर्म माना, पीठे शंकराचार्यको राजा लोगोकों बहुत मदत मिली तब बोहोंसें समाई करी और बौध लोगोंकी विना गुनाहके काल कर डाला. यह कथन माधवाचार्य अपने बनाये दूसरे शंकरविजयमें लिखता है. वे श्लोक ये है-" आसेतुरातुषास्बिौहानां वृध्वालकं। ना हंति यः स हंतव्यो नृत्यं इत्यवशं नृपाः ॥ न वदेद्यावनीं नाषां प्राणैः Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ प्रयमखं. कति हस्तिना ताड्यमानोनिन गच्छेज्जैनमंदिरं ॥ तद पिले दौडधर्म स्थानमें दूर हो गया और नुपनिषदोंका मत चला परंतु सो मत लोगोंकों श्रना नही लगा, तब लोगोंने नक्तिमार्ग निकाला. यझके ठिकाने पूजा सेवा स्थापी और ब्राह्मण कर्मकां ममें जहां दर्न वापरता था तहां नक्तिमार्ग वाले तुलसीदल वापरने लगें, ओर पुरोमाश अर्थात् यज्ञका शेष नागके बदले प्रसाद दाखल करा. और अनिकी जगें विष्णुरामचंजीकी स्थापना करी और महाक्रतुकी जगें उपन नोग इत्यादि महोत्सव शुरू करे, और वेदोंके पाठके ठिकाने माला फेरणी उदराई, और प्राय श्चित्तकी जगें नामस्मरण व्हराया, और अनुष्टानोंकी जगें नपर नजन ठहराया, और मधुपर्ककी जगें अर्घ्य अर्थात् पाणीका लोटा नरके देना ठहराया. नपनिषदके मतकों अद्वैतमत कहते है और नक्तिमार्गकों द्वैतमत कहते है, परंतु ये दोनों मत कर्मकांमके खं. मन करने वाले है. और जैनमतन्नी वैदिक यज्ञादि कर्मका खंडन करने वाला है. तिस वास्ते ब्राह्मणोंका मत बहुत नष्ट हो गया तिससे ब्राह्मण पोकार करणे लगे कि कलियुग आया, वैदिक धर्म मूबने लगा, तब यह श्लोक लिख दीया. “धर्मः प्रव्रजितः तपः प्रचलितं सत्यं च दूरं गतं पृथ्वी मंदफला नृपाः कपटिनो लौख्यं गता ब्राह्मणाः । नारी यौवनगर्विता पररताः पुत्राः पितुषिणः साधुः सीदति पुर्जनः प्रनवति प्रायः प्रविष्टे कलौ "] '१॥ ५ धर्म चल गया, तप चलित हुवा, सत्य दूर हो गया, पृथ्वी मंदफल पामी हुइ, राज लोक कपटी हया, ब्राह्मण लब्ध हो गया, स्त्री योबनका गर्व करने बाली और परासक्त हुइ, पुत्र पिताका द्वेषी हुवा. साधु दुखी है ओर दुर्जन सुखी होता है, एसा कलिकाल प्रविष्ट होनेसे हुबा है. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अज्ञानतिमिरजास्कर. कर्मaina fनंदा करने वाला सर्व देशोंमें उत्पन्न हो गये, दaिm देशमें तुकाराम साधु दुआ तिसनें बहुत वैदिक कर्मकांडकी निंदा करी है तथा कमलाकर जट्ट निर्णयसिंधुके तिसरे परिछेद में प्रथम प्रकरण में अंतमें अनेक पुराणोंमें जो काम कलियुग में नही करणे वे सर्व इस जगें एकठे करे है; तिनमें से कितनेक वचन लिखते है. ॥ १ ॥ समुझ्यातुः स्वीकारः कमंडलु विधारणं । द्विजानां सर्ववर्णानां सा कन्यापयमस्तथा ॥ देवराच्च सुतोत्पत्तिर्मधुपर्के पशोर्वधः । मांसदानं तथा श्राद्धे वानप्रस्थाश्रमस्तथा ॥ दत्तादतायाः कन्यायाः पुनर्दानं परस्य च । दीर्घकालं ब्रह्मचर्यं नरमेधाश्वमेधकौ ॥ महाप्रस्थानगमनं गोमेघश्व तथा मखः । इमान् धर्मान् कलियुगे वर्ज्यानाडुर्मनीषिणः ॥ यद् बृहन्नारदपुराणे ॥ २ ऊढायाः पुनरुद्वादं ज्येष्टांश गोवधं तथा । कलौ पंच न कुर्वीत त्रातृजायां कमरु || मादि ॥ ३ ॥ गोवान्मातृसपिंकाच्च विवादो गोवधस्तथा ॥ नरमेधोऽथ मद्यं च कलौ वर्ज्या द्विजातिनिः ॥ ब्राह्मे ॥ ४ ॥ विधवायां प्रजोपत्तौ देवरस्य नियोजनं । बालायाः कृतयोन्यास्तु न रेणान्येन संस्कृतिः ॥ कन्यानां सर्ववर्णानां विवादश्व द्विजन्मनिः । श्राततायिद्विजाम्याणां धर्मयुदेन हिंसनम् ॥ द्विजस्याब्धौ तु नौयातुः शोधितस्याप्यसंग्रहम् । सत्रदीक्षा च सर्वेषां कर्ममलुविधारणं ॥ महाप्रस्थानगमनम् गोसंज्ञप्तिश्व गोसवे । सौत्रायामपि सुराग्रहणंच संग्रदः ॥ अग्रिहोत्रहवन्याश्र लेदो लीढापरिग्रहः । वृत्तस्वाध्यायसापेक्ष्यमद्य संकोचनं तथा ॥ प्रायश्चित्तविधानंच विप्रायां मरणान्तिकं । संसर्गदापास्तेयान्यमहापातक निष्कृतिः ॥ श्रा दित्यपुराणे ॥ ५ ॥ वरातिथिपितृभ्यश्च पशूपाकरणक्रिया । दत्तौरसेतरेषां तु पुत्रत्वेन परिग्रहः ॥ शामित्रं चैव विप्राणां सोमविक्रयणं तथा कलौ कर्तेव लिप्पते ॥ इति व्यासोक्तेः ॥ महापापे रहस्य कृतेप्रायश्चित्तं नेत्यर्थः ६ श्रग्रिहोत्रं गवालनं संन्यासं पलपैतृकं । देवरा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. 33 च्च सुतोत्पत्तिः कलौ पंच विवर्जयेत् ॥ संन्यासश्च न कर्तव्यो ब्राह्मणेन विजानतः । यावर्णविन्नागोस्ति यावछेदः प्रवर्तते ॥ संन्यासं चाग्निहोत्रं च तावत्कुर्यात्कलौयुगे । एतेन चत्वार्यब्दसदस्राणि चत्वार्यब्दशतानि च कलेर्यदागविष्यन्ति तदा त्रेतापरिग्रहः ॥ स्मृतिचंडिकायां । अर्थ-एक जगें लिखा है कलियुगमें यह काम नदी क रणे. समुश्में जाना १ सन्यास लेना ३ नीय जातिकी कन्या विबाह करना ३ देवर पति करना ५ मधुपर्कमें जीव मारना ५ श्राहमें मांस खीलाना ६ वानप्रस्थाश्रम लेना ७ पुनर्विवाह करना ७ वत वर्षतक ब्रह्मचर्य पालना ए मनुष्यका यज्ञ करना १० घोमेका यज्ञ करणा ११ जन्म तक यात्रा करण। १२ गायका यज्ञ करना १३. फेर दूसरी जगें कलिमें यह नही करणा लिखा है॥ विधवाका पुनर्विवाह १ बमे नाईको बड़ा हिस्सा देना २ सन्यास लेवी ३ नाश्की विधवासें विवाह करना ४ गोवध करना ५ ॥ तीसरी जगें यह लिखा है २ मामाकी बेदीसें विवाह करना १ मो वध करना २ नरमेध करना ३ अश्वमेध करना ४ मदिरा पिना ४ फिर चौथी जगें यह लिखा है ॥ देवरको पति करना । स्त्रीका पुनर्विवाह करना २ नीच जातीकी कन्या विवाद ३ युमें ब्राह्मणको मारना । समुश्यात्रा करनी ५ सत्र नामक यज्ञ करना ६ संन्यासी बनना ७ जन्मतक यात्रामें फिरना G गोसव नाम यज्ञमें गोवध करना ए सौत्रामणी यझमें मदिरा पीना १० अग्निहोत्र ११ मरणप्रायश्चित्त संसर्गदोष १३. दच और औरस विना अन्य पुत्र करना १५ शामित्र अर्थात यझमें पशु मारनेवाला पुरोहित १५ सोमविक्रय १६. पांचमी जगें यह कलिमें न करना लिखा है. अनिहोत्र १ गोवध २ संन्यास ३ श्रादमें मांसन्नकण 4 देवरको Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज् अज्ञानतिमिरजास्कर. पति ए. इस मूजब कर्म नही करना और संसर्ग दोष नही और बाना पाप होवे सो पाप नही गिनना, संन्यास तथा अग्निहोत्र वेद तथा वर्ग तक रहे तह तक करना. नपरके लिख कर्मोनसे कितनेक अ चलते और कितनेक नदी चलते है, जो चलते है वे ये है. मामेकी बेटी विवाद करते है १. बडे नाईक बड़ा हिस्सा देते है २. जावजीव ब्रह्मचारी रहते है ३. सन्यास है ४. अनिहोत्री ब्राह्मण है ५. समुझमें जाते ६. संसर्गदोष गिनते है . महाप्रस्थान अर्थात् जन्म तक यात्रा करते है . मांजरानी गौमत्राह्मण, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैल और कितनेक नत्कलनी करते है ए पंचाविरुमें यज्ञयागादिक कर्म में मांसभक्षण करते है १०. कलियुगमें अश्वमेध करएका निषेध है तोजी राजा सवाई जयसिंहे जयपुरमें कराया ११. तोमविक्रय और शानित्र ये १२ । १३ कितनीक जंगें होते है. इस वास्ते सर्व शास्त्र ब्राह्मणोनें स्वेच्छासें जो मन माना सो लिखके बना लीये. जहां कही अमचल पमी वहीं नवा शास्त्र अपने मतवालाका बनाके खडा कर दीया अथवा नव श्लोक बनाके पुराणे शास्त्रोंमें मिला दीये. इस वास्ते एक पुराणकी प्रतिमें चार श्लोक अधिक है तो दूसरीनें दश अधिक है. जैसे जैसे काम पडते गये वैसे वैसे बनावट के श्लोक मिलाते गये. श्लोक स्मृतियोंमेंजी ऐसी ही गरम करं दीनी है. और इन पुराणों में ऐसे ऐसे कथन लिखे है कि जिसनें सुननेसें श्रोताजी लज्जायमान हों जावे. और बुद्धि उत्पन्न हो जावे. और ऐसे ऐसे नतपटंग कान माने. पुराणोदिमें नही बलके वेदो में महाहतक वज्जनीय पुनरुक्त निरर्थक बहुत वचन है सो उपर लिख आये है. श्रोसें आगेजी लिख दिखाते है. जिस है कि कार Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंड. gu नमोस्तु सर्वेभ्यो ये केचन पृथ्वी मनु । ये अंतरीक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्वेभ्यो नमः ॥ होता यक्षदाश्वनौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेता ५ हविहोतयजहोता यक्षसरस्वतीमेपस्य वपाया मे० होता यक्षादद्रमृषभस्य वपायामे० २१-४१ ॥ यास्मभ्यमरातीयाद्यश्वनो द्वेषते जनः निद्राद्यौ अस्मान्घिप्साच्च सर्वतं भस्मसात्कुरु अध्याय ११ | ८० ॥ ये जनेषु मलिम्लवस्तेनासरतस्करावने ॥ यकक्षे वधा यस्तांस्तदेधामि जंभयोः ॥ श्रध्याय ११ - १९ ॥ शुक्लयजुर्वेद संहिता ॥ भावार्थ -- प्रथम मंत्र में सर्पाकी स्तुति, दूसरे मंत्रमें वपा अ र्थात् कलेजेका यज्ञ करना. तीसरेमें शत्रुयोंके नाश करनेका मंत्र है, और चौथे में चोरांके नाश करनेका वैदिक पुस्तकों में जे देवते है और तिनको उपासना प्रार्थना जो है सो गृह्यसूत्रकी दूसरे प्रध्यायकी चौयी कांडिका प्रथम सूत्रमें तर्पण करणेंके देवतायोंकी यादगीरी लिखी है, सो देख लेनी तिसका नमुना नीचे मुजब देते है. प्रजापति १ ब्रह्मा २ वेद ३ देव ४ ऋषिए सर्वाणि बान्दांसि ६ ॐकार ७ वषट्कार ८ व्याहृतयः एए‍ सावित्री १० यज्ञ ११ द्यावापृथिवी १२ अंतरीक्ष १३ अहोरात्र १४ संख्या १५ सिद्धा १६ समुझ १७ नद्यः १० गिरयः १९ क्षेत्रोपविवनस्पतिगंधर्वाप्सरसो २० नाग २१ वयांसि २२ गावा ५३ साध्या २४ २५ या २६ रक्षांसि २७. इस समय के बुदिना देवताका खोड काढें और सर्प, नाग, पर्वत, नदी, वासं व्यादति, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अज्ञानतिमिरनास्कर. वषट्कार, यश, इत्यादिकोंकों कदापि देवता न मानेगें, यह जी वेदके सूत्रका कथन है. __ तथा प्रार्थना करने में शतरुदीय कि जिसको रुसी कहते है यह महामंल गिना जाता है. तिसमें शिवका वर्णन है. तिसके थोमेसें वचन आगे लिखते है. नमोस्तु नीलग्रीवाय, सहस्राक्षाय मीढुषे, विज्यन्धनुकपर्दिनो नमो हिरण्यबाहवे, वनानां पतये निषंगीणस्तेनानां पतये, वंचते परिवंचते तस्कराणां पतये, नक्तंचर द्भ्यः, गिरिचरायतक्षेभ्यः ॥ असौयः ताम्रो अरुणः॥ अहींश्च सर्वां जंभयं ॥ रथकारेभ्यः कुलालेभ्यः कारभ्यः श्वपतिभ्यः शितिकंठः कवचिने, आरात्तेगोध्नउतपूरुषघ्ने, अग्रेवधाय दूरे वधाय, कुल्याय शष्पाय च पर्णाय, सिकताय, बजाय, इषुकत्यः धन्वद्भ्यः गव्हरेष्टाय धन्व कृद्भ्यः पशूनां मार्मा मारीरीषा मानस्तोकेमनाधि भेषधि विशिखासः असंख्यातानि सहस्राणि ये रुद्राः ये पंथा पथि रक्षये ये तीर्थानि प्रचरंति ये अन्नेषु विविध्यं ति, दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीदशोदीची दशो ; यश्च नो वेष्ठित मेषां जंभे दधामि वाजश्च मे क्रतुश्च मे यज्ञेन कल्पताम्,ओजश्च मे शं च मे, रयिश्च मे, ब्रिहयश्च मे अश्मा च मे, अग्निश्च मे आग्रयणश्चमे स्त्रयश्च मे आयुर्यज्ञेन कल्पतां ॥ देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नं पुरुषं पशुं॥ रुद्री नारायणसूक्त ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखं. ८१ नमस्कार करूं तेरे ताइ तेरा कंठ काला है. तेरे हजार ख है. फेर तु जलकी दृष्टि करनेवाला है. तेरा धनुष तैयार है. तुं जटावाला है, तेरे स्कंध नपर सुवर्णकां अलंकार है. तुं जंगलका राजा है, तुं खजदारी है और गुप्त चोरोका सरदार है, तुंदबाजी करनेवाला और तं चोरोंका स्वामी है. रात्री में फिरनेवाला पर्वत में फिरनेवाला और सुतारनी तुं है, फेर तुं लाल और नगवांजी है, सर्व जंगके सपका मारणेवालाजी तु है. गामी बनानेवाला तुं है, कुंजार तुं है, खुदारजी तुं है, तुं कुत्ता है और कुतोका पालनेवालाजी तूं है. तुं सफेद गलेवाला है और बकतर पदे हूये है, फेर तुं गायांका मारनेवाला और पुरुषोंके मारनेवाला, सन्मुख वेतिसका मारनेवाला और दूर होवे तिसका मारनेवाला झाडोमें रहनेवाला, और घासमें रहनेवाला तुं है. फेर मैदान में रहनेवाला, रेतमें रहनेवाला, ढोरोके टोलेमें तीर बनानेवा ला, धनुष बनानेवाला, जंगलमें रहनेवाले जनावरांको लडाना नही मारना नही मेरे बेटांको न मारना. तुं वैद्य है. तेरे चोटी नही है. तेरी मूर्तियों की गिनती इतनी है. तुं रस्तेमं रहता है कितनेक तीर्थो में रहता है. कितनीक रसोइयो में विघ्न करते हो. पूर्व दिशमें तुम दश, दक्षिण में दश, पश्चिममें दश, उत्तरमें दश. और प्रकाशजी तुम दश हो. जो हमारा शत्रु होवे तिसक तुं डाढमें डालके पोसके चावगेर, अन्न दे, यज्ञ करनेकी शक्ति दें, यज्ञ करने योग्य कर, कल्याण दे, धन दे, सबी दे, तुं पत्थर दे, अनि दे, आग्रयण नामक यज्ञ करनेकी सामर्थ्य दे, यज्ञका पात्र दे, आयुष दे, यज्ञके काम में उपयोग आवे ऐसा कर, रुपी में रु देवकी प्रार्थना है. तिसमें यश करने वास्ते सर्व प्रकारकी सामग्री मुजकों दै. और वो सामग्री वेरवे वार लिखी हैसो श्रागे लिखते है. 16 " Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अज्ञानतिमिरनास्कर. इध्मश्च मे बर्हिश्च मे वेदिश्च मे धिष्णियाश्च मे०॥ शतरुीय ॥ ___ उपर मंत्रका मूल बताया है परंतु मंत्रतो दो तीन वर्गतक लंबा है. इससे यज्ञमें काम आवे ऐसी सामग्री महादेवसे मांगी है. इससे ऐसा मालुम होता है कि आगे हिंसक यज्ञ करनेकी बदुत चाल थी. प्रथमतो इस जगत नरतखममें इस अवसर्पिणी कालमें श्री आदीश्वर नगवानने जैनमत प्रचलित करा तिस पीछे मरीचि के शिष्य कपिलनें अपने अपने आसुरी नामा शिष्यको सांख्य मतका उपदेश करा, तब सांख्य मतका षष्टि तंत्र शास्त्र रचा गया. तद पीछे नवमें सुविधिनाथ पुष्पदन्त अईतके निर्वाण पी जैन धर्म सर्व नरतखममें व्यवच्छेद हो गया. तिसके साथ चारों आर्य वेदनी व्यवच्छेद हो गये. तब जो श्रावक ब्राह्मणके नामसे प्रसिइथे वे सर्व मिथ्यादृष्टी हो गये. चारों आर्य वेदोंकी जगे चार अनार्य वेदोंकी श्रुतियां बना दीनी. महाकालासुर शांमीच्य ब्राह्म का रूप धारके हीरकदंबक नपाध्यायके पुत्र पर्वतके साथ मिलके महाहिंसारूप अनेक यज्ञ सगर राजासें करवाये.पीठे व्यासजीने सर्व ऋषि अर्थात् जंगल में रहनेवाले ब्राह्मणोंसें पूर्वोक्त सर्व श्रुतियां एकठीयां करके ऋग्, यजुः, साम, अथर्वण नामक चार वेद रचें. फेर वैशंपायन व्यासका शिष्य तिसके शिष्य याज्ञवल्क्यनें वैशंपायनके साथ तथा अन्य ऋषियोंके साथ लढके शुक्ल यजुर्वेद बनाया. और व्यासके शिष्य जैमिनीने मीमांसा सूत्र रचे. पीठे शौनक ऋषिनें वेदा नपर ऋग्विधान सर्वानुक्रम इत्यादिक ग्रंथ रचे है. और शौनक ऋषिके शिष्य आश्वलायनने ऋग्वेदका सा. रनृत आश्वलायन नामक १२ बारें अध्यायका सूत्र रचा. शौ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. नकस्य तु शिष्योऽनूत् नगवान् श्राश्वलायनः । कल्पसूत्रं चकारायं महर्षिगणपूजितः”। इसी तरें अकेक शाखाकें अपने अपनें वे दों नपर अनेक आचार्योनं कात्यायन, लाटयायन, आपस्तंब, हिरण्यकेशी प्रमुख अनेक सूत्र रचे है. इन सूत्रोंमेंनी महा जीव हिंता करनी लिखी है. इन सूत्रोंसे श्लोकबह स्मृतियां बनाई गई है. वे मनु, याज्ञवल्क्य प्रमुख है. मनु १ याज्ञवल्क्य विष्णु ३ हरित ४ नशना ५ शांगिरस ६ यम ७ आपस्तंब संवर्त एकात्यायन १० बृहस्पति ११ व्यास १२ शंखलिखित १३ दक्ष १४ गौतम १५ शतातप १६ वशिष्ट १७ इत्यादि अन्यन्नी स्मृतियां नवीन रची गई है. इनमेंनी हिंसा करनी लिखी है. स्मृतियोमें वेद और सूत्र एक सरीखे माने है. और उ वेदके अंग माने है. तिसमें व्याकरण वेदका मुख कहेलाता है और सूत्न हाथ, ज्योतिष नेत्र, शिक्षा नाक, बंद पग, निरुक्त कानके कहे जाते है. इस तरेसें वैदिक धर्म चलता रहा क्योंकि पूर्वके ऋषिलोक सर्वज्ञ ठहराये. ननके वचनोंमें कोई तकरार न करे. तिसको नास्तिक, वेदबाह्य, राक्षस इत्यादिक कर देते थे इस वास्ते बहुत वर्ष तक हिंसक यज्ञ याग करनेकी रीती चलती रही. जब बीच बीचमें जैनमतका जोर बढा तब लोगोंकी कर्म अर्थात् वैदिक हिंसक यझोंसें अक्षा नठ गई. लोगोंकों हिंसा बुरी लगी तब विचार करा कि हजारों देव और हजारो अनुष्ठान और हिंसा ये ठीक नही तिससे ब्रह्मजिज्ञासा नत्पन्न दुई. तिस वास्ते नपनिषद् बनाये और तिनमें यह वचन दाखल करे. __ अधीदि भगवन ब्रह्मेति ॥ नकर्मणा न प्रजया धनेन त्याग के अमृतत्वमाशुः ॥ ब्रह्मविदाप्रोति परम् तदोजिज्ञासस्व यतो वा इमानि भूतानि जायते ॥ अथातो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ब्रह्मजिज्ञासा ॥ इत्यादि ॥ फेरतो भी लोगोंकों संतोष न आया तब ईश्वरवादीयोंका मत निकला. यद्यपि इनोंनें वेदोकी निंदा अपने सूत्रोंमें नहीं करी तो इनके मत बेद बहुत विरुद्ध है. न्यायका कर्त्ता गौतम १ योगका कर्ता पतंजलि श् वेदांतका कर्त्ता व्यास ३ वैशेषिकका कर्त्ता कणाद ४ नोंनें एक ईश्वरको एक माना और वेदोक्त देवताकों नही माना. इनके मत चलनेंसें वैदिक कर्मकांम वहुत ढीला पर गया. इनोंने अपने मतके शास्त्रोंमें शम, दम, नपरति, तितिक्षा समाधि, श्रद्धा, नित्यानित्य वस्तुका विवेक इत्यादिक साधन लिखके लोगोंकी श्रद्धा दृढ करी. इनोनें ज्ञानहीकों मुख्य साधन माना परंतु तीर्थादिकोकों मानना बोरु दीया. जैसें शिवगीतामें लिखा है.: - अज्ञान तिमिरजास्कर. " तनुं त्यजंति वा काइयां श्वपचस्य गृहेयवा । ज्ञानसंप्राप्तसमये मुक्तोऽसौ विगताशयः ॥ न कर्मणामनुष्टानैर्लभ्यते तपसापि वा । कैवल्यं न मर्त्यः किं तु ज्ञानेन केवलं " शिवगीता जो काशी में चांगालकै घरमें जीसका शरीर बुटे सो ज्ञानप्राप्तिके समयमें मुक्त हो जाता है. कर्मका अनुष्ठानसें और तपसें मनुष्य कैवल्यकुं प्राप्त होता नहीं किंतु ज्ञानसें केवलकुं प्राप्त होता है. ज्ञानपंय वालोंने वर्णाश्रम और कर्मकांमका बहुत उपहास करा. कितने वर्षों तक यह ज्ञानमार्ग चला. जब जैनबोधमतका जोर बढा तब सर्व प्रायें लुप्त हो गये. फेर शंकरस्वामीनें अद्वैतपंथकों फिर बढ़ाया. पीछे नक्तिमार्ग वालोंका पंथ निकाला, पीछे उपासना मार्ग उत्पन्न हुआ. अठारह पुराण और उपपुराण ये पासना मार्ग के प्रतिपादक है. तिसके अंदर शैव वैष्णव ये दो संप्रदाय है, सौ बहुत वधी दूर है. तिनमें शैव मार्ग पुरातन है. और उ-. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रथमखम. जए वैष्णव मार्ग तिसके पीछे निकला है. और वैष्णवमतमें मुख्य चार संप्रदाय है. रामानुज १ निवार्क २ मध्व ३ विष्णुस्वामी ५.इन चारों जणाने शंकरस्वामीका अद्वैतमत स्थापन करा दूा खंमन करके दैत मत चलाया. इनोने बहुत आधार पुराणोंका लीना, लीना, और श्रुतिके आधार कास्तै श्नोंने कितनीक नवी नपनिषद बना है. अनेक संपदा- जैसें रामतापनी, गोपालतापनी, नृसिंहतापनी इयकी उत्पत्ति. त्यादि बना लीनी. परंतु असली वेदके मंत्रनागमें नपासना विषयक कुच्छन्नी मालुम नहीं होता. तिसमें जो नुपासना है सो अग्निहारा और पांच नूतादिककी है.परंतु पुराणोंके अवतारोंकी नहीं. पुराणोंके अवतारोंकी उपासना तो पुराण हुआ पीछे चली है. उपास्य देवता- आगे नपासनाके इतने माले फूटे है जिनकी गिकी जुदी जुदी मान्यता. " नती नही. को शिवमार्गी, कोई विष्णु, कोइ मपपती, कोइ राधाकृष्ण, कोइ बालकृष्ण, को हनुमान इत्यादि अपणे अपये नपास्य देवतायोंकों परब्रह्म कहते है, और इन देवतायोंको नचा नीचा गिनता है. तद्यया॥" गणेशं पूजयेद्यस्तुविघ्नस्तस्यनबाध्यते । आरोग्यार्थे च ये सूर्यं धर्ममोक्षाय माधवं ॥ शिवं धर्मार्थमोक्षाय चतुर्वर्गाय चंमिकां ॥नावार्थ-जे गणेशकी पूजा करे ननकुं विघ्न बाधा करते नहीं आरोग्यके वास्ते सूर्यकी, धर्म तथा मोदके वास्ते विष्णुकी धर्म, अर्थ, और मोकके वास्ते शिव और चतुर्वर्गके वास्ते चंमीकी पूजा करना. पीठे अनेक संप्रदाय वालोंने अपने अपने संप्रदायके चिन्द ठहराये. शिवमार्गीयोंने नस्म, रुज्ञक, बाणलिंग, इत्यादिक रचे और वैष्णवोंने तप्त मुज्ञ, तुलसी, गापीचंदन, शालिग्राम इत्यादिक चिन्द बनाये. वे चंदन विष्णुपादा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अज्ञान तिमिरज्नास्कर, कृति करते है, कोई श्रीका चिन्ह धारण करता है. इन दोनो पंथोका परस्पर द्वेष बहुत बढा तब एकने दूसरेके विरुद्ध बहुत शास्त्र लिखे वैष्णali शैवोंकी और शैवोंने वैष्णवोंकी निंदा लिखी. पुराण और ऋषियोंकेजी दूषण लिखे कितनेक पुराण तामसी और कितनेक सात्विक ठहराये वे ऐसे है. “सत्यं पाराशरं वाक्यं सत्यं वाल्मिकमेव च । व्यासवाक्यं क्वचित् सत्यं सत्यं जैमनीवचः ॥ सात्विका मोक्षदा प्रोक्ता राजना स्वर्गदा शुजा । तथैव तामसा देवी निरयप्राप्तिदेतवे ॥ वैष्णवं नारदीयं च तथा जागवतं शुजं । गारुरुं च तथा पाद्मं वाराहं राजसं स्मृतम् ॥ अर्थ - पाराशर वचन सत्य है, वाल्मी कका वचन बी सत्य है. व्यासका वचन कोइकज सच्चा है और जैमिनि का वचन सत्य है. दे देवी, सात्विक मोक्षदायक है, राजसी स्वर्गकुं देती है और तामसी नरकनी प्राप्तिका हेतु है, वैष्णव पुराण, नारद पुराण और जागवत पुराण ए सात्विक है. गरुम पुराण, और पद्मपुराण तथा वराह पुराण राजस है. इत्यादि एक दूसरे के दूषण काढे है वे ये है. ॥ वैष्णवमतमें ॥ ब्राह्मणः कुलजो विद्वान जस्मधारी नवेद्यदि । वर्जयेत्तादृशं देविमद्योष्टिं घटं यथा ॥ वेदांतचिंतामणौ ॥ त्रिमूचं कल्पानां शूझणां च विधीयते । त्रिपुंभूधारणाद् विप्रः पतितः स्यान्न संशयः ॥ २ ॥ यो ददाति द्विजातिभ्यश्चंदनं गोपिमर्दितं । अपि सर्षपमाae पुनात्यासप्तमं कुलं ॥ ३ ॥ ऊर्ध्वपुंभूविहीनस्य स्मशानसदृशं मुखं । अवलोक्य मुखं तेषामादित्यमवलोकयेत् ॥ ४ ॥ प्रज्ञा दानं तपश्चैव स्वाध्यायः पितृतर्पणं । व्यर्थं भवति तत्सर्वमूर्ध्वपुरु विना कृतं ॥ ५ ॥ शालिग्नामोनवो देवोदेवो द्वारावती भवः । जनयोः संगमो यत्र तत्र मुक्तिर्न संशयः ॥ ६ ॥ शालिग्रामोद्रवं देवं शैलं चकांकमंमितं । यत्रापि नीयते तत्र वाराणस्यां शताधिकं ॥ ७ ॥ म्ले Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. छदेशे शुचौ वापि चक्रांको यत्र तिष्टति । वाराणस्यां यदाधिक्यं समंताद्योजनत्रयं ॥७॥ यन्मूले सर्वतीर्थानि यन्मध्ये सर्वदेवताः। यदने सर्ववेदाश्च तुलसी तां नमाम्यहं ॥ ए॥ पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा । वासुदेवादयो देवा वसंति तुलसीदले ॥ १० ॥ तुलसीकाष्टमालां तु प्रेतराजस्य दूतकाः दृष्ट्वा नश्यंति दूरेण वातधूतं यथा रजः ॥ ११ ॥ तुलसीमालिकां धृत्वा यो नुक्ते गिरिनंदिनि । सिक्थे सिक्थे स लन्नते वाजपेयफलं शुनं ॥ १२ ॥ तुलसीकाष्टमालां यो धृत्वा स्नानं समाचरेत् । पुष्करे च प्रयागे च स्नातं तेन मुनीश्वर ॥ १३ ॥ आलोक्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः । इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ॥ १४ ॥ चक्र लांबनहीनस्य विप्रस्य विफलं नवेत् । क्रियमाणं च यत्कर्म वैष्णवानां विशेषतः ॥१५॥ कृष्णमंत्रविहीनस्य पापिष्टस्य उरात्मनः। श्वानविष्टासमं चानं जलं च मदिरासमं ॥ १६ ॥ कुलीन और विद्वान् ब्राह्मण जो लस्मक धारण करते है. सो ब्राह्मणकुं मद्यका नच्छिष्ट घमाकी माफक गेड देना चाहिए १. वेदांत चिंतामणिमें लिखता है कि-चं कल्प और शूश्लोककुं त्रिपुंड धारण करनेसे ब्राह्मण पतित हो जाता है. इसमे कुब्बी संशय नही है. २. जो ब्राह्मणोकुं गोपीचंदन आपते है सो गोपीचंदन मात्र सर्षवका दाणा जैसे होवे तोनी सात कुलकुं पवित्र करते है. ३. जे ऊर्ध्वपुंछ ( नन्नातीलक ) से रहित है, तिस का मुख इमखान जैसा हे, तिनको देखनेंसे सूर्यका दर्शन करना चाहिए ५. बुद्धि, दान. तप, स्वाध्याय और पितृतर्पण ओ सब ऊर्ध्वपुंर विना करनेसे व्यर्थ होता है. ५शालिग्राममें नत्पन्न होने वाले देव और छारिकाका देव ओ दोनुंका जिसमें संगम होवे, तिसमें मुक्ति होती है, इसमें कुठनी संशय नही है. ६ शालिग्राम Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. देव और चक्रांकमंमित शैल सो जिस स्थानमें ले जाय, सो स्थान काशीसेंनी सौगणे अधिक है. ७ म्लेग्के देशमें अथवा पवित्र देशमें जिस स्थानमें चक्रांक रहते है, सो वाराणसीका त्रण यो जनसेंनी अधिक है. जिसका मूलमें सर्व तीयों है जिसका मध्यम सर्व देवता है, और जिसका अग्रन्नागमें सर्व वेद है एसी तुलसीकुं में नमस्कार करता हूं. ए पुष्करादि तीर्थ, गंगा प्रमुख नदीयां और वासुदेव प्रमुख देवता तुलसीका पत्रमें रहेते है. १० पवनसें जैसे रज दूर होता है, तैसे तुलसीकाष्टकी माला देख कर यमराजका दूत दूरसें नाशते है. ११ हे पार्वति, जे पुरुष तुलसीकी माला धारण करके नोजन करते है, सो पुरुष एक एक ग्रासे वाजपेय यझका फल प्राप्त करते है. १२. हे मुनीश्वर, जो पुरुष तुलसीकाष्टकीमाला धारण करके स्नान करते है, सो पुरुष पुष्कर ओर प्रयाग तीर्थमें स्नान करते है. १३ सर्व शास्त्रो देख कर और इसका पुनः पुनः विचार करनेसें एसा सिह होता है के सर्वदा नारायणका ध्यान करना चाहीये. १५ जो ब्राह्मण चक्रका लांउनसे रहित है, उसका क्रियमाण कर्म सब निष्फल होता है वैष्णवोसे ओ विशेष जाणना" १५ जो पुरुष विष्णुका मंत्रसे रहित होता है, ओ पापी पुरात्माका अन्न श्वानकी विष्टा जैसा और नप्तका जलपान मदिराजेसा समजना १३ शैवमतमें ॥ विना नस्मत्रिपुंड्रेण विना रुशदमालया । पूजि तोऽपि महादेवो न तस्य फलदो नवेत् ॥ १ ॥ महापातकयुक्तो वा युक्तो वा चोपपातकैः। नस्मस्नानेन तत्सर्वं दहत्यनिरिवेंधनं ॥१॥ पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च । शिवलिंगे च संत्येव तानि सर्वाणि नारद ॥ ३ ॥ महेशाराधनादन्यन्नास्ति सर्भिदायकं । अतः सदा सावधानं पूजनीयो महेश्वरः ॥ ४ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंग. Gru अमितान्यपि पापानि नदयंति शिवपूजया । तावत्पापानि तिष्टंति न यावद्विवपूजनं ॥ ५ || लिंगार्चनविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः । ततः सर्वार्थसिध्यर्थं लिंगपूजा विधीयते ॥ ६ ॥ सर्ववर्णा श्रमाणां च कलौ पार्थिवमेव हि । लिंगं महीजं संपूज्य शिवसायु. ज्यमाप्नुयात् ॥ ७ ॥ दर्शनाद् बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनाद् वंदनादपि | अहोरात्रकृतं पापं नश्यति नात्र संशयः ॥ ८ ॥ रुशधरो भूत्वा यत्किंचित्कर्म वैदिकं । कुर्वन् विप्रस्तु मोहेन नरके पतति ध्रुवं ॥ ५ ॥ देवादिदेवः सर्वेषां त्र्यंबक त्रिपुरांतकः । तस्यैवानुचराः सर्वे ब्रह्मविष्णवादयः सुराः ॥ १० ॥ विहाय सांवमीशानं यजते देवतांतरं । ते महाघोरसंसारे पतंति परिमोहिताः ॥ ११ ॥ ते धन्याः 1 शिवपादपूजनपरा अन्यो न धन्यो जनः सत्यं सत्यमिहोच्यते मुनिवराः सत्यं पुनः सर्वथा ॥ १२ ॥ शंखचक्रे तापयित्वा यस्य देहं प्रदह्यते । स जीवन कुपणस्त्याज्यः सर्ववर्मवहिष्कृतः ॥ १३ ॥ यस्तु संतप्तमुज्ञनिर्दिपतितनर्नरः । स सर्वयातनाजोगी चांडालो जन्मकोटिप || १॥ करेणैव यः शिवं सकृदर्चयेत् । सोऽपि ज्ञेवस्थानं शिवस्य गौरवात् ॥ १५ ॥ पंचाक्षरेण मंत्रेण विल्वपत्रैः शिवार्चनं । करोति श्रद्धया युक्तो स गछेदैश्वरं पदं ॥ १६ ॥ शैवमतमें एसा लिखता है. जम्मका त्रिपुंडू और रुझकी माला विना शंकरकी पूजा करनेवाला कुं शंकर कुचजीफल नहीं आते है. १ महापातक और पातक वाले पुरुषजी जो नमस्नान करे तब उसका पाप जैसे अग्नि कुंदन करे ऐसें ददन होता है. २ हे नारद, पृथ्वी में जितना तीर्थ और पवित्र स्थान है, ते सर्व शिवका लिंग में रहते है. ३ शंकरका प्राराधन जैसा सर्व अर्थ अपने वासरा नही है, तिसवास्ते सावधान होकर शंकरकी करनी चाइए ४ शिवपूजा करनेसें 17 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए. अज्ञानतिमिरनास्कर. अपरिमित पाप नष्ट हो जाता है. जबतक शिवका पूजन न होते है, तब लग पाप रेहेते है. ५ जो पुरुष शिवलिंगकी पूजासे रहित है नसकी सब क्रिया निष्फल होती है, तिसवास्ते सर्वअर्यकी सिविका अर्थ लिंगपूजा करनी चाइए ६ सर्ववर्णाश्रमवाले लोक कलियुगमें पार्थिवलिंग पूजनेसें शंकरकी सायुज्यमुक्ति पामते है. ७. बीलीका वृक्ष देखनेसे स्पर्शकरनेसें और वंदन करनेसे अहोरात्रका पाप नाश पामते है. नसमें कुरानी संशय है नही. जो ब्राह्मण रुज्ञक धारण कर्या विना जो कुठ वेदका कर्म करते है सोब्राह्मण मोहसें नरकमें पड़ता है. ए तीन लोचनवाले और त्रिपुरकानाश करनेवाले शंकर सर्व देवोका देव है. ब्रह्मा विष्णु प्रमुख सर्व देवता नसकाज अनुचर है. १० सांब शंकरकुं गोड कर जो उसरा देवताकी पूजा करते है, सो मोहसें घोर संसार में पड़ते है. ११ हे मुनिवर, में सत्य कहेता हूं के शंकरका चरणकी पूजा करने में जो तत्पर होवे सो धन्य है, उसरा धन्य नही है. १२ शंख और चक्र तपा कर जिसका देह दग्ध होता है, सो जीवता शब जैसा है. सर्व धर्मसें बाह्य सो पुरुष त्याग करने के योग्य है. १३ जिसका शरीर तप्त मुझसे अंकित है, सो सर्व पीमाका नोगी होकर कोटी जन्ममें चांडाल होता है. १४ जो पुरुष नक्तिसें पंचादर मंत्र साथ एक दफे शिवकी पूजा करते है, तो पुरुष शिवमंत्रका गौरवसें शिवका धाममें जाता है. १५ जो पुरुष श्राते पंचाकर मंत्र सहित बीली पत्रसें शिवपूजा करते है, सो पुरुष शाश्वत स्थानमें जाते है. १६ तथा वल्लनाचार्यने इतने शास्त्र सच्चे माने है-“वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि व्याससूत्राणि चैव हि । समाधिज्ञाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टयं ॥ नत्तरोत्तरतो बलवान्-अर्थ-वेद, गीता, ब्रह्म Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. सूत्र और नागवत ये चार एक एकसे बलवान अधिक मानने योग्य है. और स्वामीनारायण सहजानंदने अपनी लिखी शिक्षापत्रीमें कितनेक शास्त्रोंकों सच्चे प्रमाणिक ठहराये है तिनके नाम“वेदाश्च व्याससूत्राणि श्रीमन्नागवताविधं । पुराणं नारते तु श्री. विष्णोर्नामसहस्रकं ॥ ए३ ॥ धर्मशास्त्रांतर्गता च याज्ञवल्क्यऋषेः स्मृतिः । एतान्यष्ट ममेष्ठानि समास्त्राणि नवंति हि ॥४॥ शिक्षापत्रिकाश्लोकः ॥ वेद, व्याससूत्र, श्रीमद्भागवत नारतमें श्रीविष्णुसहस्रनाम, पुराण धर्मशास्त्रमें याज्ञवल्क्य स्मृति ए आठ सत् शास्त्र हमारे इष्ट है. ए३-४ इस तरे शास्त्र जूठे और सच्चे माने अनेक संप्रदाय निविविध मतो- काले. ऐसा घोर अंधकार नरतखंमके लोगोंके की उत्पत्ति. वास्ते खमा दूा कि कोश्नी सच्चे जूठे पंथ और शास्त्रोंका निर्णय नही कर सकता है. ऐसे घोरांधकारमें आकुल व्याकुल होकर नक्तिमार्गवालें तथा कबीरजी नानकसाहिब दादू प्रमुख अनेक जनोनें मूर्तिपूजन ओम दिया, और अपनी बुड़िके अनुसारे अपणें अपणे देशकी नाशमें नाषाग्रंथ रचे, और ब्राह्मणोंके सर्व मतों गोड दिया, वर्णाश्रमकी मर्यादानी तोक दीनी. तिनमें नानकसाहिबका पंथ बहुत फेला कारणकि नानकसाहिबिसें पीले दशमें पाट उपर गोविंदसिंहजी इये, तिनके काल करा पीछे मुसलमानोका राज्य मंद हो गया, और गुरु गोविंदसिंहके शिखोंका जोर राजतौरसे बढा. इतनेहीमें लाहोरमें रणजीतसिंह राजा हो गया, तिसके राजतेजसे नानकसाहिबके पंथवालोंकों बहुत मदद मीली. ब्राह्मण, क्षत्रिय, रोमे, जाट प्रमुख लाखों श्रादमीयोंने शिर नपर केश रखाके गुरुके शिख बन गये. इनके म Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अज्ञानतिमिरनास्कर, तमें मूर्तिपूजन नही. अपणे दशों गुरुयोंकी चित्रकी मूर्तियों तो रखते है परंतु मंदिर में मूर्ति बनाके नहि पूजतेहै, परंतु गुरुके बनाये ग्रंथ साहिबकी बहुत विनय करते है. इनके मूल अंग्रमें ईश्वरकी महिमा बहुत करी है और इस नाबालाओंकी बडा लक्ति करते है, और हरेक नूखेको खानेकानी है. इनके ग्रंथमें जीवहिंसा और मांस मदिरा खाना पीना निषेध करा है. परंतु कितनेक पापी शिप्य इस कामकों करतनी है. नानकसाहिबके शिख अनुमानसे इग्यारह लाखके लग जग होंगे. ये लोक गुरुके ग्रंथ समान और किसी पुस्तकको उत्तम नही समजते है. और यह ग्रंथ साहिब साधारणसी पंजाबी ना. षामें नानक गुरुके शिष्य अंगद साहिबने रचा है, और गुरु अर्जुन साहिबने कागजों नपर लिखा है. इस मतके गुरु दशही क्षत्रिय होयें है. ब्राह्मण, मुसलमान, जैनी, सूफी, मुसलमान फकीर, जिनकों मारफतवालेन्नी कहते है इनके कुछ कुछ मतकी वातें लेकर रचा है. इनके मतवाले ब्राह्मणोंका बहुत आदर सन्मान नही करते है, जेकर धर्मार्थ जिमणवारनी करते है तो गुरुके शिष्याको नोजन कराते है. इनके मत से एक रामसिंद जाका गुरुके शिष्यने लोदीहानेकुकामतका से दश कोलके अंतरे लागी गामके रहने वालेने - एक नया पंथ निकाला है. तिसमें इतनी वस्तुका निषेध है-मूर्ति नहीं पूजनी १, जीवहिंसा नही करनी ५, मांस नही खाना ३, मदिरा नही पीना ४, जूठ नही बोलना ५, चौरी नही करनी ६, परस्त्रीगमन नही करना ७, जूया नही खेलना, दिन प्रतिमस्तकके केशां सहित स्नान करणा ए, ब्राह्मणसें विवाह नही करना १०, विवाहमें सवा रुपैया खरच करना ११; जबसें स्वरूप. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. इस पंथके चलाने वाले नारामसिंहको सरकार अंग्रेज पकमके ब्रह्माके देश में ले गये है तबसें यह मत मुस्त पड़ गया है. तोनी एक लाखके करीब आदमी होंगे. लोकोनें इस पंधका नाम कूका रखा है. क्योंकि इस मतके नजन बोलने वाले कूक मारते है. इन मतमें ब्राह्मलोंका कदर है नही. हमारे सुनने में आया है कि पंजाब देशमें एक वटाला नामका नगर है. तिसका रहनेवाला एक नद्यालनेमि नामक ब्राह्मण काशीमें वेदांत शास्त्र पढा और रामघाट नपर जाकर स्नान करती दूर नग्न स्त्रियोंके अंगोपांग देखनेका लालची बहुत हुआ. विद्यागुरुने मने करा तोनी न माना, तब गुरुने अपनी शालासें निकाल दीया, वेदांतिओका तब नद्यालनेमिनें क्रोधित होकर सर्व नपनिषद् और वाशिष्ट प्रमुख वेदांत ग्रंथोकी नाषा कर के पंजाब देशमें ब्राह्मणसें लेकर जाट, चमार, नंगीयो तक वेदांत शास्त्र पढाया, ब्राह्मणोंकी बांधी सर्व मर्यादा तोड गेरी.इधर दिल्ली के पास निश्चलदास दादूपंथीने विचारसागर और वृनिपनाकर ये दो वेदांतके ग्रंथनापामें रचके छपावके प्रतिइकरे. इनको वांचके कितनेक लोक वेदांती हो गये है. तिनमें कितकेकतो चालचलनके अच्छे है, परंतु दुराचारी नास्तिकोंके तुल्य बहुत हो गये है. अमृसरमें कितनेक निर्मले फकीर और पुरुष स्त्रियां बमे उराचारी है. मांस मदिरानी खाते पीते है. और नानकजीके नदासी साधुनी बहुत वेदांती हो गये है. तथा चकुकटे १ रोमे २ गुलाबदासी ये नास्तिकमती निकले है. तथा गुजरात देशमें स्वामीनारायणका एक नवा पंथ निकला है. अव जो कोई सच्चे धर्मकों अंगिकार करा चाहे तो इन भ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, मतोतं कौनसे मतको माने यह निर्णय करना बहुत मुश्किल है. अब हम नपर लिखेकों फेर शोचते है वैदिक धर्मकी प्रबवेदोंका यज्ञोमें लता और वेदोंमें हिंसा बावत कुछ तकरारही न हिंसा बहोतहै. ही है. जानवरोंकी दया वेदोंमें नही, इतनाही नही बलकी मनुष्योंकि बलि देनी और नरमेध यज्ञकी बड़ी बड़ी विधिके नेद लिखे है. और नरमेध जो दूए है तिनकी कथानी वेदमें जगे जगे लिखी है. ऐतरेय ब्राह्मणमें शुनःशेपाख्यान है सो इसीतरांका है. नागवतमें जडन्नरतकी कथानी इसी तरेंकी है. वैदीक धर्मकी प्रबलताके कालमें वैदिक धर्मवालोंके मनमें संशयनी नही था कि हिंसा पाप होता है की नही. शाक नाजीके काटनेमें जैसे इस कालमें बहुत लोक पाप नही समजते है तैसे तिस कालमें जनावरोंके वास्ते समजते थे. तिस कालमें तिस तरेंका व्यवहार था. दैवकार्यमें और पितृकार्यमें जनावर पशुका मारना इस बातको पुण्प समजते थे. केवल स्वर्ग जानेका साधन इसीको समजते श्रे. और मनुष्य अपने निर्वाहके वास्ते जीवांको मारके तिसका मांस खाना इसकों विधि मानते थे. इसमें पुष्प वा पाप कुठ नही समजते थे. इस तरेका वेदका अनुशासन है. जब पिछली महाभारतकी वेर जैनबौधमतका जोर बढा तब हिंसा अहिंसा ___ का बढा झगडा खमा दूा तिस वखत जैनबौधका बहुत लोगोंके दिलमें असर दूा. तिस वखतमें महानारत ग्रंथ बना मालुम होता है, क्योंकि महानारतमें लिखा है कि बुझरूपं समास्थाय सर्वरूपपरायणः। मोहयन् लर्व नूतानि तस्मै मोहात्मने नमः ॥ ६ ॥ उत्पत्ति Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. ՍԱ नीष्मस्तवराज नारते. ॥ अर्थ--सर्व रूपोंमें परायण ऐसा विष्णु बुझका रूप लेकर मोह करता है, ते मोहात्माकु नमस्कार है ॥ ६ तथा ब्राह्मणोंने वेद माननेका अनिमानतो नही बगेमाथा. परंतु जैन बोइमतका नपदेश इनके मनमें अठी तरें प्रवेश कर भारतमें हि- गयाथा. तिस वास्ते नारतमें हिंसा सो क्या है. साका निषेध- अहिंसा यह क्या है. मांस खाना के नही खाना इन बातोंमें बहुँ तकरार और प्रश्नोत्तर लिखे है. और तिन सर्वका तात्पर्य यह मालुम होता है कि वेदने जो कही हिंसा सौ करणी, अन्यत्र अहिंसा पालनी, वेदविहित हिंसामें पाप नही, जैसे मुसलमान लोग कुरवाने ईद जिसको बकरी ईद कहिंसामें मुस- हते है तिस दिन अवश्य जानवर मारके परमेश्वलमान लोगका दृष्टांत, रको बलिदान देते है. सो ईद जिलहिज महीने में आती है. जिलहिज अर्थात् मुसलमानोंकी जात्राका ठिकाणा जो मक्का तहां जानेका महिना, जो मुसलमान मक्के जा आता है तिसको हाजी कहते है. और जो जात्राकों जाते है वे तहां जात्रामें जीव मारके बलिदान करते है. और जिस वखन पशुका वध करते है तिस वखत बिसमिल्लाह कहके करते है. बिसमिल्लाह इस शब्दका यह अर्थ होता है, परमेश्वर दयालु है तथा शुरु करता हूं अल्लाहके नामसे. और बिसमिल्लाह कहे विना जो जीव मारा जाता है तिसको वे लोक हराम कहते है, तिस पशुका नक्षण करना अपवित्र गिणते है. और बिसमिल्लाह कहके पशु वध करा जावे तो तिसका नकण करता हलाल अर्थात् पवित्र गिणते है. इसी तरें ब्राह्मण लोगोंमें जहां वैदिक कर्म होता है तहां Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अज्ञानतिमिरनास्कर. वेदमंत्रोले आप्यायन संस्कार, प्रोक्षण संस्कार, नपाकरण संस्कार जिस पशुको हुआ हो तिसका मांस हव्य तथा कव्य समजके नक्षण करनेका निषेध नही मानते थे. इस तेरेंका वैदिक मत था इस वास्ते वेद हिंसक शास्त्र है वेद हिंसक ठ बिचारे बेगुनाह, अनाथ. अशरण, कंगाल, गरीव, - कल्याणास्पद, ऐसे जिवांको मारणा और मांसन्न कण करणा और धर्म समजना यह मंदबुड़ियोंका काम है. और जिस पुस्तकमें हिंसा करणेका नपदेश होवे और मांस मदिराका बलिदान करना लिखा होवे वे शांस्वनी जूग है, और वे देवतेनी मिथ्या दृष्टि अनार्य है, और तिस शास्त्रका प्रथम नपदशकनी निर्दय, निर्लज और अज्ञानी, मांसमदिराका स्वाद क ओर अन्यायशिरोमणि है. परमेश्वरके वचनतो करुणारसन्नरे, सत्यशील करके संयुक्त,निर्हिसक तत्वबोधक, सर्व जीवांके हितकारक, पूर्वापर विरोध रहित, त्रमाण युक्ति संपन्न. अनेकांत स्वरूपस्यात् पद करी लांठित, परमार्थ और लौकिक व्यवहारसे अविरु.६ इत्यादि अनेक गुणालंकत नगवान अर्हत परमेश्वरके वचन है. ये पुर्वोक्त लक्षण वेदोंमें नही. लक्षण तो दूर रहे, ऐसे ऐसे बेमर्याद वचन वेदों में है कि जो आज कालने निच लोक होलीमें नी ऐसे निर्लज वचन नही बोलते है. जो कोई ब्राह्मणादि दया धर्म मानते है और प्ररूपते है वे वेदांके विरोधि है. क्योंकी वेदों में दयावर्मकी मुशकनी नही है. जेकर वेदोंमें अहिंसक धर्मकी म. हिमा होती तो सौगतको काहेको कहेते “ अहिंसा कथं धर्मो नवितु नर्हति ” अर्थात् अहिंसा कैसे धर्म हो सकता है, अपि तु हिंसाहो धर्म हो शकता है इसमें यह सिद्ध होता है कि शंकरस्वामीनी गाय, बलद, बकरा, उंट, सूयर, प्रमुख जीवांकों वे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. दोक्त रीतीनें मारक इनका मांस कलेजा आदि क्षण करनेमें धर्म समजता था. उपर लिखे मुजब वेद हिंसक शास्त्र है, और जो कहते है वेदों में हिंसा नही वो हम सत्य नही समजते है. क्या शंकरस्वा • मी, इट, महीधर, सायन इनको वेदांका अर्थ मालुम न दूश्रा जो ननोनं हिंसाधर्म वेदोक्त माना और आजकालमें जो स्वकपोलकति वेदा नवीन अर्थ दयानंद आदि कहने और बनाने लग रहे है वे सच्चे हो जावेंगे ? នថា स्वामी दया- यद्यपि दयानंद सरस्वतीनें वेदोके अर्थ जैन बौध नंद. धर्मसे बहुत मिलते करे है अर्थद्वारा वेदोंका असली अर्थ ष्ट कर दिया है. यही एक जैनमतीयोंकों मदद मि ली है. परंतु दयानंदजीने यह बहुत असमंजस करा जे अपनें मतके आचार्योंकों जूग ठहराया. हां, जिस बखत वेद बनाये गये थे, जेकर उस वखत दयानंद सरस्वतीजी पास होते तो जरूर वेद बनाने वाला झगा करके अपने मनके माने समान वेद बनवाते वा आप रचना करते. परंतु इस वखतमें वा समय नही इस वास्ते दयानंदजीने अर्थही उलटपुलट करके अपना मनोरथ सिद्ध कर लिया. यथार्थ तो यह वात है कि वेदोंमें हिंसा प्रवश्यमेव है. सो उपर अनी तसे लिख आये है. इस हिंसाकी जैनी निंदा करते है इस वास्ते ब्राह्मण लोक जैनीयोंको नास्तिक और वेद कहते है, परंतु जैसे वैदिक हिंसाकी निंदा वेद माननेवालोनें करी है तैसी जैनीयोंनें नही करी. जैनी तो वेदोंके परमेश्वरका कल पुस्तकही नही मानते है, क्योंकि वेद कालासुरनें लोगों नरक जाने वास्ते महाहिंसासंयुक्त बनाये है ऐसे जैनी लोग मानते है. जो वस्तु स्वरूपसेंदी बुरी है फेर तिसकों जो 18 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. को बुरी कहे लो इस वातमें क्या निंदा है. वेद माननेवालेली वैदिक हिंसाकी निंदा करते है तथा च श्रुतिः-- ___“प्लवाद्यते अहढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म एतच्यो येऽनिनंदति मूढास्ते जरामृत्युं पुनरेवापि यांति" अर्थ-यह यज्ञरूपी प्लव जो नाव है सो अदृढ कहता दृढ नही और अगरह अध्वर्यु आदि पुरोहित यजमानादिक जो ननोंने करा ऐसा जोकम हिंसा रूप सो नीच कर्म है, तिस हिंसामय यझके करने वाले पुरुष वारंवार जन्ममरणाको प्राप्त होते है. यह श्रुति वेदकी पुरी 'निंदा' करती है. यः श्रुति किसी दयावान ऋषिनें जैन मतकी प्रबलतामें बनाई है. तमा वैदिक यज्ञ करने वाले मूर्ख अज्ञानी है ऐसेनी एक श्रुनिमें कहा है- कश्चिवा अस्माल्लोकात्मेत्य आत्मानं वेद अयम हमस्मीति कश्चित्स्वं लोकं न प्रतिजानाति अग्निमुग्धो हैव धूमतांत ” इति-अर्थ-कोईक अपणालोक जो ब्रह्मधाम आत्मतत्व वा तिसको जानता नही जो पुष्परूप अवांतर फलमें परम फलका माननेवाला अग्नि साध्य अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्ममें आसक्त होने से नष्ट हो गया है विवेक जिसका, तिसको अंतमें धूममार्ग है अर्थात् पाप है. तथा ऋग्वेदके ऐतरेय ब्राह्मणकी दूस। पंचिकामें पुरुषमेध लिखा है, तिस पुरुषमेधकी यह श्रुति है. “ पुरुषं वै देवाः पशुमालभंत ।" देवतानी पुरुषकु पशुवत् आलनन करता है. इस पुरुषमेवका निषेध नागवतके पंचम स्कंधके हमेके अध्यायमें निषेधद्वारा नरकमें यम जो पीडा देता है सो लिखी है___ “ तथाहि येत्विद वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजंते याश्च स्त्रियो नृपशून खादंति तांश्च ताश्च ते पशव इह निहता यमसदने पातयंतो रोगणाः सौनिक श्व स्वधितिनाविदयाला भिवंति नृत्यति गा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. uu यंति च हृष्यमाला यथेह पुरुषादाः || १ || इस लोकोमें जो पुरुष पुरुषमेधा यज्ञ करते है. जो स्त्रीलोक मनुष्य पशुका मांस खाते है, सो पुरुष और स्त्रीयोंकुं ओो पशु राक्षस होकर, पीडते है. और यमराजका द्वारमें कसाइकी माफत उसका साधर पीते है. पीछे गाते है और इर्षसें नाचते है ? तथा सोमक नामा राजा था, तिसके एक पुत्र जंतुनामे या तिसको एक दिन कीकीयोंनें काटा तत्र तिसने चीसका रुक्का मारा तब राजाने शिर हलाया और कहा कि मेरे एक पुत्र है, सोनी पुत्रों में नही, तब राजाके पास जो पुरोहित खफा था हिनरमेध यज्ञपर सने कहा कि इस पुत्रकों यज्ञमें होमो तो बहुत भारतकीकथा. पुत्र होंगे; तब राजानें कहा में दोमुंगा, यज्ञ करो. पीछे तीस ब्राह्मणने यज्ञ करके राजाके पुत्रका होम करा. तद पीछे तिस राजाके १०१ पुत्र हुये पीछे काल करके ब्राह्मण यज्ञ करानेवाला नरक गया, पीछे राजाजी मरके नरक में गया. तब तीस ब्राह्मण यज्ञ कराने वालेको देखके राजानें यमराजेको कहा जो तुनमें इस मेरे गुरु ब्राह्मण को किस वास्ते नरकमें गेरा है, तब यमराजानें कहा कि तुमनें पुरुषमेध करा या तिसके पापसें तेरकों और तेरे गुरु ब्राह्मणकों नरक जोगनी परेगी. यह कथा भारत के वनपर्व में विस्तार सहित देख लेली. इससे यह सिद्ध दू कि वेदोक्त जो हिंसा करे सो नरकमें जावे इसी वास्ते तो वेद ईश्वरके कहे सिद्ध नही होते है. तथा प्राचीन वर्दिष राजानें यज्ञ करके पृथ्वीका तला दर्ज करके आच्छादित करा. ऐसा वेदोक्त कर्म करणें में जिसका मन प्रासक्त या ऐसे प्राचीन वर्हिष राजाको देखके कृपालु दवाधर्मी नारदजी तिसको प्रतिबोध करते हूये, दे राजन् ! किन कमो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अज्ञानतिमिरमास्कर, प्राचीनवाई करनेसे दुःखहानि और सुखकी प्राप्ति होती है. राजाकी कथा. तब राजाने कहा, महाराज ! मुजको कुब ख बर नही. पीछे नारदजीने यझमें जो राजाने पशु मारे थे वे सर्व प्रत्यक्ष दिखलाये, जे कुगर लेकर राजाके मारने वास्ते खमे है, तिनको देखके कंपायमान हुआ. उक्तं च महानागवते चतुर्थस्कंधे-“ वर्हिषस्तु महानागो हावि निः प्रजापतिः । क्रियाकामेषु निष्णातो योगेषु च कुरुह ॥ १ ॥ यस्येदं देवयजनमनुयॉ वितन्वतः। प्राचीनाप्रैः कुशैरासीदास्तृतं वसुधातलं ॥२॥ प्राचीनवर्हिषं राजन् कर्मस्वासतमानसं । नारदोऽध्यात्मतत्वज्ञः कृपालुः प्रत्यबोधयत् ॥ ३ ॥श्रेयस्त्वं कतमशजन् कर्मणात्मन ईदसे । कुःखहानिः सुखावाप्तिः श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥४॥राजोवाच न जानामि महाबाहो परं कर्मापविधीः । ब्रूहि मे विमलं ज्ञानं येन मुच्येय कर्मतिः॥५॥गृहेषु कूटधर्मेषु पुत्रदारधनार्थधीः । न परं विंदते मूढो ब्राम्यन् संसारवर्त्मसु ॥ ६॥ श्री नारदनवाच, नो नो प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे । संझपितान् जीवसंघानिघृणेन सहस्रशः॥७॥ एते त्वां संप्रतीदंते स्मरंतो वैशसं तव । संपरेतमयः कूटैदित्युत्थितमन्यवः॥ ॥ युधिष्टिरवाक्यं प्रथमस्कंधे,” यथा पंकेन पंकांनः सुरया वा सुराकृतं । नूतहत्यां तथैवैकां न य.र्माटुमर्हति ॥१॥ ___ अर्थ-महानाग प्राचीनवर्हिराजा दानवाला यज्ञोमें,कामधेनुरूप, कियाकांममें प्रजापतिरूप और योगविद्या में प्रवीण होता देव यक करनेवाला जीस राजाका प्राचीन (पूर्व दिशामें ) जीसका अग्र नाग है, एसा दानसे सब पृथ्वी प्रास्तृत होरहीथी एसा कर्ममें आसक्त ओ राजाकुं अध्यात्म तत्त्वकावेत्ता कृपालु नारदमुनि बोध करने लगे-“ राजा, तुम अपना केसा कल्याणं कर्मसे प्राप्त कर Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखेम. नेकुं चाहते है ? मुखकी हानि और सुखकी प्राप्ति श्रो श्रेय एकमसे नही मीलजाता है प्राचीन बहीराजा कहेते है-महाबाहु नारदजी, मेरी बुद्धिकर्मसे नष्ट हो गई है, उसके लीएमें श्रेयकुं जानता नही है जीससे में कर्मसे मुक्त होजान, एसा निर्मल ज्ञान मुजकुंकहो कूट धर्मवाले घरोकी अंदर पुत्र, स्त्री, धन औ अर्थकी बुध्विाला मूढ पुरुष संसारका मार्गमें नमते है, परंतु ओ परमतत्वकुं नहीं प्राप्त करते है तब नारदमुनि कहेते है, हे प्रजापति राजा, देखले ओ पशुओकुं जो हजारो पशुओकुं तुम निर्दय होकर यझमें मारमार्या है, ओ सब अहिं खमे है ओ पशुओ तेरी हिंसाकुं स्मरण करते तेरी राह जोते है मृत्यु पीठे ओ क्रोधसे लोहाका कुवामेसं तुजकुं देगा. ७ असलमें नारदजी जैनी रे क्योंकि जैनीयोंके शास्त्रमें नारदजीनारदका उप- को जैनी लिखा है. यद्यपि नारदजीका वेष सन्यासीदेश जैनी जे ज का था तोजी श्रद्धा नवही नारदोंकी जैनमतकी थी. इसी वास्ते नारदजीने मरुत राजाको हिंसक यज्ञ करनेसे हटाया, और इसीतरें प्राचीन वर्हिष राजाकों हिंसक यज्ञ करनेसे मना किया. नारदजीने बहुत जगें हिंसक यज्ञ दूर करे है.. इससेंनी यह सिह होता है कि वेद हिंसक पुस्तक है, और ईश्वर के कथन करे दूए नही, जेकर ईश्वरोक्त वेद होते तो नारदजी क्योंकर वेदोक्त कमका निषेध करते और वेदोक्त यज्ञ करनेवाले नरकमें क्योंकर मरके. जाते? इस वास्ते वेद हिंसक जीवोंके बनाये हूए है. लागवतका प्रथम स्कंधमें युधिष्ठिरनेंनी कहा है जैसे चीककडसें चीकम नही धोया जाता तथा जैसे मदिरेका नाजन मदिरेसे धोयां शुरू नही होता है तैसेंही जीवहिंसा करने से शुरू नही होता है, इस वास्ते यज्ञमें जीवहिंसाके पापको दूर नही कर सकते है. तथा नारत मोदधर्म अध्याय एश में । “प्रजानामनु Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अज्ञानतिमिरनास्कर. कंपार्थ गीतं राज्ञा विचख्युना"॥१॥ टीका-प्रजानां पुरुषादिपशूनां अर्थ-यझमें होमता ऐसे जो पुरुषादि पशु तिन नपर दया करनेके अर्थे विचख्यु नासक राजाने कदा है. विचख्यु रा- सो विचख्यु नालक राजा तिसमें गबालंन्न अर्थात् 1 ५. गौवध करके यइमें काटा है जिसका शरीर ऐसा जो वृषन्न बलद तिलको देखके मायोका अत्यंत विलाप देखके यज्ञपामेमें रहे ऐसे जो निर्दय ब्राह्मण तिनकों देखकें विचख्यु राजानें ऐसा कहा नारते मोक्षधर्षे अध्याय ए में, " स्वस्ति गोन्यस्तु लोकेषु ततो निर्दचनं कृतं ! हिस्सायां हि प्रललायाम्माशिरेषा तु कल्पिता॥ अव्यवस्थितमर्यादर्विमूढ़नास्तिकैनरैः। संशयात्मन्निख्यक्तैर्हिसा समनुवर्णिता ॥ ४॥ आत्मा देहोऽन्यो वान्योऽति कर्ताऽकर्ता वा अकर्तापि एकोऽनेको वा एकोपि संगवानसंगोवा.” अर्थ-विचख्यु राजानें जो निवर्चन करा लो यह है. नाजों स्वस्ति कल्याण निरुपश्च होवे, कोई किसी प्रकाररोजी लकी हिंसा नकरे क्योंकि हिंसाकी प्रवृत्ति अर्थात् यहोरें लीवोंका वध करणा मर्यादा रहितोंने और मूर्योने और नास्तिकोने और आत्मा देहदी है अथवा देहसें अन्य है, अन्यत्री है तो कतो वा अकर्ता है, अकर्तानी एक है वा अनेक है, एकती है तो क्या संगवान है वा असंग है ऐसे ऐसे संशयवालोने हिंसक यइका वर्णन करा है, वैदिक हिंसक यझोंकों श्रेष्ट ठहराते है. इस कयनसेनी यह सिह होता है कि वेद "बेमर्यादे मूर्ख और नास्तिकोंके और अझानियोंके” बनाये हुए है. तथा नारदपंचरात्रे च न तबास्त्रं तु यहास्त्रं वक्ति हिंसामनदां । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ प्रथमखम. यतो नवति संसारः सर्वानर्धपरंपरः॥" अर्थ-दो शास्त्रही नही है जो हिंसाका नपदेश करे, कसी है हिंसा, अनर्थकी देनेवाली है तिस हिंसासें संसार सर्व अनर्थ परंपररूप होता है. इत्यादि बहुत शास्त्रोमं हिंसक यझोंकी 'निदा' करी है. यह 'निंदा' करनेवाले अध्यात्मवादी और प्राये वैष्णवमतवाले है. परंतु कर्मकांडियोंने वैदिक यझकी 'निंदा' किसी जगेनी नही करी. हनने जो इस गंघमें हिंसक यझोकी 'निंदा' लिखी है सो ब्राह्मलोके शास्त्रानुसार लिखी है, परंतु जैनमती. योंके शास्त्रोंसें नही लिखी है. जैनमतके शास्त्रोम तो सर्वोत्कृष्ट 'निंदा' यह लिखी हैउत्तराध्ययनमें बनारसमें दो नाई वेदोके पढे हुए रहते थे. बझेका जयघोष और विजयघोपकी नाम अपघोष था और गेटेका नाम विजयघोष कथा है. था. तिलमेंलें जयघोष जैनमतका साधु हो गया था. और विजयघोष वेदोक यज्ञ करने लग रहा था. तिसके प्रतिबोध करने वास्ते जयघोष मुनि विजयघोषके यज्ञपामेमें आये. दोनो नाईयोंकी बहुत परस्पर चर्चा दूई. तब विजयघोषनें वैदिक यज्ञ गेम दीनें, और नाईके पास दीक्षा ले लेनी. यह सर्वाधिकार विस्तार पूर्वक देखनो होवे तो श्री नत्तराध्ययनके पच्चीसमें अध्ययनमें देख लेना. तिसमें वेदो बाबत जयघोषमुनिनें जो वि. जयघोषको कहा है सो यहां लिखा जाता है. " पशुबंधा सव्व वेय जठं च पाव कम्मणा नतंवायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति हा. उत्तराध्ययन" २६अ. टीका-" पशूनां गगादीनां बंधो विनाशाय नियमनं यैहेतुनिस्तेऽमी पशुबंधाः “ श्वेतं गगमालनेत वायव्यां नूतिकाम इत्यादि वाक्योपलहिताः। न तु आत्मारे ज्ञातव्यो मंतव्यो निदि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ध्यासितव्य इत्यादि वाक्योपलक्षिताः सर्ववेद ऋग्वेदादयः जति इष्टं यजनं चः समुच्चये पापकर्मणा पापहेतुनूतपशुबंधाद्यनुष्टानेन न नैव तं वेदाध्येतारं यष्टारं वा त्रायंते रदंति लवादिति गम्यं । किं विशिष्टं दुःशीलं तान्यामेव हिंसादि प्रवर्तनेन दुराचारं यतः कआणि बलवंति ऽर्गतिनयनं प्रति समर्थानीद नवदागमानिहिते वेदाध्ययने यजने च नवंतीति गम्यते पशुवधप्रवर्तकत्वेन तयोः कमपोषकत्वादिति नावः ततो नैतद्योगात्पात्रनूतो ब्राह्मणः किंतु पूोक्तगुण एवेति नावः ॥ ____अर्थ-वेद जो दे ऋग्वेदादि वे सर्व बागादि पशुयोंके वधके हेतु है, क्यों कि वेदोंमें ऐसी ऐसी श्रुतियां लिखी है " श्वेतं गगमालनेत वायव्यां नूतिकामः " इस वास्ते सर्व वेद पशुवधके हेतुनूत वेद है. और यज्ञ जो है वे सर्व पापके हेतुनूत है. इम वास्ते वेद, पढनेवाले और यज्ञ करने वालोंकि रक्षा संसारमें नही कर सकते है. क्यों कि कर्म बमें बलवान है, वेद पढनसें और यज्ञ करनेसे पापकर्म नत्पन्न होता है वो पाप दु. र्गतिका हेतु है. इस वास्ते पूर्वोक्त गुणवानही ब्राह्मण हो स. कते है. .: जैन मतके आगम शास्त्रोम वेदों बाबत इतनाही लिखा है र यह लिखना ननके शास्त्र मुजब ठीक है. क्योंकि दका विचार. जैनीयोके शास्रमें अहिंसा परमधर्म लिखा है और हिंसा करनी बहुत बुरी बात लिखी है. इसी तरें वेद मानने वालेनेनी हिंसक यज्ञोंकी निंदा' बहुत शास्त्र भारत नागवत नारद पंचरात्रि प्रमुखमें लिखी है. जब हिंसाकी निंदा' लखी तब चोरकी निंदा' साथही हो गई. जेकर कोई कहे वेदोमें हिंसा करनी नही लिखी क्योंकि भारतके मोकधर्म नामक एश Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंरु. २०५ · में अध्यायमें ऐसे ही लिखा है- " सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृशरौदनम् । धूर्तैः प्रवर्तितं तदेषु कल्पितम् ॥ मानान्मोहाच लो नाच लोब्यमेतत्प्रकल्पितम् " अर्थ- सुरा - मदिरा म मधु हित मांस और आसव एक प्रकारका मद्य इन वस्तुयोंका क्षण करणा धूतानं भवर्ताया है, यह कयन वेदमें नही है. मोदतें, लोन, मानसें, लौलपणा इन पूर्वोक्त वस्तुयोंका जक्षण करना कल्पित करा है इत्यादि अनेक जंगे अनेक शास्त्रोंमें हिंसक यज्ञ और मांस मदिरेकों नकल निषेध करा है. इस वास्ते हम जानते है और हमारे वेदोमें हिंसा करोका और मांस मदिरादिकके नका उपदेश नही तो हम पूछते है जो लव्हट महीधर सायन माधव प्रमुख जो जायकारक दूये है तिनोंनें वेदों के अर्थ करे है तिनमें तो साफ लिखा है कि वैदिक यज्ञमें इस तरेंसें पशुका वध करणा और तिसके मांसका होम करके शेष मांस नक्षण करणा, सौत्रामणी यज्ञमें मदिरा पीना और आश्वलायन सूत्र तथा कात्यायनसूत्र तथा लाट्यायनसूत्रादि सूत्रकारोंनें और नारा. यस हरदत्तादि वृत्तिकारानंजी वेदोक्त यज्ञोंमं तथा मधुपर्क अनुस्तरणी आदि अनुष्ठानोंमें बहुत जीवाका वध करणा लिखा है. यह कथन उपर हम विस्तार सहित लिख आये है तहांसें देख लेना; तो फेर हम क्योंकर मान लेवे के वेदोमं हिंसा करणी नदी लिखी है ? हिंसाका विष पूर्वपक्ष-ये पूर्वोक्त जाप्यकार सूत्रकार और वृत्तिय पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष कार मूर्ख अज्ञानी थे. इस वास्ते उनकों वेदाका सच्चा अर्थ नही प्रतीत हुआ, इस बास्ते जो मन माना सो लिख मारा. हम उनके लिखे अर्थोकों सचे नही मानते है. उत्तरपक्ष - नला इनको तो तुमनें जूठे असत्यवादी माने 19 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. अज्ञानतिमिरनास्कर. परंतु मनु और याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारोंने वेदोक्त रीतीसें पशुवध करके तिसके मांसन्नकण करणेमें दोष नही लिखा है, किंतु पूर्वोक्त रीतीसें मांसन्नकण करे तो धर्म लिखा है, और मनुस्मृतिका निषेध तुम किसी तरेन्नि नही कर सकते हो क्योंकि तुमारे वेदोमें मनुकी बहुत तारीफ लिखी है. “ मनुवै यत्किंचिदवदत्तप्रेषजं”। गंदोग्यब्राह्मणे. जे कोइ मनुस्मृतिको जूठी मानेगा तिसकों वेदनी जूठे माननें परेंगे. जे कर कोई कहे मनुस्मृति आदि शास्त्रोंमें जो हिंसक श्लोक है वे सर्व पीउसे मांसाहारियोंने प्रक्षेप कर दीये है, परंतु मनुजीने हिंसक श्लोक नही रचे है क्योंकि नारतके मोक्षधर्म अध्याय ए में लिखा है-- सर्वकर्मस्वहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । कामकाराहि हिंसंति बहिर्वेद्यां पशूनराः ॥ अर्थ-धर्मात्मा मनु सर्व कर्म ज्योतिष्टोमादि यझने विषेनी अहिंसाहीका व्याख्यान करता नया, नर जो सो काम कारणसेंही बहिर्वेदीने विषे पाने मारता है परंतु शास्त्रसे नही. विषेपार्थ देखना होवेतो इस श्लोककी टीका देख लेनी. टीकामें श्रुति लिखी है सोन्नी हिंसक यशका निषेध करती है. इस वास्ते मनुस्मृत्यादिकमें जो हिंसक श्लोक है वे पीसें हिंसक और मांसाहा. रियोंने प्रदेप करे है. नतरपद-यह कहना ठीक नही, क्योंकि जब वेदोहीके बीचमें हिंसक यज्ञ करनेवालोंकी अनेक तरेकी कथा प्रशंसारूप लिखी है तो फेर मनुमें हिंसक यझोके विधिविधानके श्लोक प्रदेपरूप कैसे संनव हो सकते है. ऐसें मान लेवं कि जैनधर्मकी प्र. बलतामें जो मनुस्मृत्यादिक शास्त्र बनाये गये है तिनमें दयाधर्मका कुछ कुछ कथन है. ऐसा तो संनवन्नी हो सकता है. तथा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रश्रमखम. जब नारतका कर्ता व्यासजी नारतमें लिखता है कि धर्मात्मा मनु सर्व जंगे अहिंसाको श्रेष्ट कहता है तो फेर जीवहिंसा करनेवाले राजायोंकी प्रशंसा प्रोतके वास्ते शिकार मारके जीवांका लाना यह कश्चन और युधिष्ठिरक अश्वमेध यज्ञमें इतने पशु मारे गये कि जिनकी गिणती नही और ब्राह्मणोंने मांस खाया और घोमेका कलेजा काटके राजाने राणीके हायमें दीना लब राजाका सर्व पाप दूर हो गया; यह सर्व कथन जो नारतमें लिखा है, क्या इससे व्यासजी दयाधर्मका कथन करनेवाला सिह हो जावेगा ? जेकर कहोगे के नारतका अर्थ यथार्थ करना किसीका आता नही तो तुमारे मतमें आजतक कोश्नी सच्चे अर्थका जाननेवाला पीछे नही दूआ ? क्या यह सत्ययुगादि अच्छे युगांका माहात्म्य था और आज कालमें सच्चे अर्थ मालुम हो गये यह कलियुगका माहात्म्य होगा इसमें क्या उत्तर देना चाहिये. तथा जो को कहते है वेदामें हिंसा करनेका नपदेश नही तो शंकरविजयमें जो आनंदगिरिने सौगतकी चर्चा में लिखा है कि जीवहिंसा अर्थात् वेदोक्त यज्ञ करणंमें जो पशुयोंका वध करा जाता है सो धर्म है, तिससे कल्याण सुखकी प्राप्ति होती है, इस हिंसाके करणेमें वेदोंकी हजारों श्रुतियांका प्रमाण है. तिस शंकर विजयका पाठ है-“ हिंसा कर्तव्येत्यत्रवेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्तते " अब विचार करना चाहिये जव शंकरस्वामी कहता है कि हिंसा अर्थात् वैदिक यज्ञमें जो हिंसा करी जाती है सो हिंसा करणे योग्य है. इस कयनकी हजारों श्रुतियां प्रमाण देती है तो फेर वेद निर्हि सक क्योंकर माने जावे ? यातो हिंसाकी निंदा' के जो श्लोक उपनिषद स्मृति पुराणों में लिखे है बे जूते है या सूत्रकार नायकार टीकाकार व्यास शंकरस्वामी प्रमुख वैदिक हिंसाकों अनी माननेवाले जूठे है. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. तथा हमारे समय में जो दयानंद सरस्वतीजीने नयी तरेका दयानंद सूर मत निकाला है सो एसा सुनने और पढने में आया स्वतीका वेद संबंधे विचार है कि दयानंद सरस्वती वेदांकी संहिता और ऐक शावास्य उपनीपद वर्जके और किसी पुस्तकको परमेश्वरका रचा नही मानता है. इनोंनें वेदोंकें ब्राह्मण और आरण्यक नागनी मानने बोम दीये. कारण इनके माननेंसें उनके मतमें कुछ खलल पहुंचता होगा परंतु दयानंद सरस्वतीजीनें जो अपने बनाये सत्याप्रकाश जावा ग्रंथ में और अपने बनाये वेदनाष्यभूमिकामें और अपने बनाये ऋग्वेद यजुर्वेद भाष्य में जो शतपथ ब्राह्मण और एत रेय ब्राह्मण और तैत्तरेय आरण्यक और निघंटु निरुक्त बृहदारण्यक तेत्तरेय उपनिषद प्रमुखोंका जो प्रमाण लिखा सो क्या समझके लिखा है ? क्या वेद संहितामें वो कथन नहीं था, इस वास्ते पूर्वोक्त ग्रंथोका प्रमाण लिखा ? अथवा जो लोक पूर्वोक्त ग्रंथोकों मानते थे उनको अपनी वेदनाप्यकी सच्चाइ दृढाने वास्ते प्रमाण लिखा ? वा अजाण लोगोकों भूल भूलयेमें गेरनेकों पूर्वोक्त ग्रंथोके प्रमाण लिखे ? वा वे ग्रंथ जूठ सच्चसे मिश्रित है उनमें से जो सच्चा अंश था सो प्रमाणिक जाणके तिसमें प्रमाण लिखे? अथवा जो दयानंद सरस्वती लिख देवें सो सर्व सच और ईश्वरके कदे समान है इस वास्ते लिखा है ? जे कर प्रथम पक्ष मानोंगे तबतो वेद पूरे पुस्तक नहीं क्योंकि जिनमें सर्व वस्तुयोंका कथन नही वो पुस्तक ईश्वर पूर्ण ज्ञानीका रचा दूधा नही. जे करे सर्व वस्तुयोंका कथन होता तो अल्पज्ञोंके बनाये पुस्तकोकां काहेको शरणा लेना परता. जैसें दयानंद सरस्वतीनें अपने बनाये वेदनाष्य भूमिका में मुक्ति स्वरूप विषे लिखा है, यद्यपि हमकों पूर्वले वैदिक हिंदुयोंके मतानुसार दयानंद सरस्वती के करे वेदोंके अर्थ १०८ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. १० दया सच्चे नही मालुम होते है तोनी इस ग्रंथ के पढणे वालोंकी न्याय बुद्धिकी बुद्धि वास्ते दयानंदके बनाये अनुसार लिखते है, नंद सरस्वतीजीनें अपनी वेदभाष्यभूमिका के पृष्ट १०१ में मुक्तिका स्वरूप लिखा है. तिसमें पतंजली के करे योगशास्त्रका इग्यारे वा बारे सूत्रांके प्रमाण लिखे है. तथा गौतमरचित न्यायशास्त्र के तीन सूत्रांके प्रमाण लिखे है. और पीछे व्यासकृत वेदांत सूत्रादि ग्रंथोका प्रमाण लिखा है. पीछे शतपथ ब्राह्मणका प्रमाण लिख है. पीछे ऋग्वेद के एक मंत्रका प्रमाण लिखा है. पीछे यजुर्वेदके एक मंत्रका प्रमाण लिखा है. बुद्धिमानोकों विचार करना चाहिये के पतंजलीने ज, मुक्तिस्वरूप लिखा है तिस स्वरूपकी गंधजी ऋग्वेद और यजुर्वेदके मंत्रो में मुक्तिस्वरूप में नही है. और जो गौतमजीनें न्याय सूत्रोंमें मुक्ति स्वरूप निरूपण कीया है तिसकीनी पूर्वोक्त वेदमंत्रोंमें गंध नही, क्योंकि गौतमजी की मुक्तिमें ज्ञान बिलकुल नही माना है, पाषाणतुल्य स्वपरजानरहित और सुखदुःख रहित मुक्ति मानी है और ग्रात्माको सर्वव्यापी मानते है और भेदवादी है, क्योंकि आत्मा गिणती में अनंत मानते है. और दयानंद सरस्वती अपनी वेदोक्त मुक्तिमें लिखते है कि उस मोक प्राप्त मनुष्यकों पूर्व मुक्त लोग अपने समीप आनंदमें रख लेते है और फिर वे परस्पर अपने ज्ञानसें एक दूसरेको प्रीतिपूर्वक देखते है और मिलते है ॥ पृष्ट १०० और ४ तक, और इसी पृष्टमें पंक्ति में. विद्वान लोग मोक्षकों प्राप्त होके सदा आनंदमें रहते है. अब गौतमकी मुक्तिमें तो मुक्तात्मा न कहीं जाता है न कहीं सें आता है. क्यों के वो सर्व व्यापी है. सुख आनंदसे रहित होता है. अब दयानंद वेद कहते है, जब जीव मोक्ष प्राप्त होते है Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अज्ञानतिमिरजास्कर. तव तिनकों जो आगे मुक्त जीव है वे अपने समीप रख लेते है. क्या उसका हाथ पकडके अपने पास बिठला लेते है. क्या मुक्ति आके हाथ पग शरीरादिनी होते है ? अथवा जो नवीन मुक्तरुप दुआ है वो अगले मुक्तरूपवालों में घुस नही सक्ता है. क्या वो ननसे करता है कि मुझकों अगले मुक्त जीव अपनी पंक्ति में घुसन देंगे के नही तथा श्रागे जो मुक्तरूप हो गयें वे क्या वानेदार वन गये है जो उसकों अपने पास रखते है? अथवा जो नवीन मुक्ता है वो जगा स्थान नही जागता है मेरेको कहां रहना है, इस वास्ते पूर्व मुक्त लोग उसको अपने पास रखते है तथा नन पूर्व मुक्त लोगोंकों ईश्वरकी तर्फसें हुदा मिला हुआ है और परवाना मिला हुआ है जो कमुक अमुक नवीन मुक्तकों तुमने अपने अपने समीप रखना ? जेकर कहोगे पूर्व मुक्त लोग प्रीतसे नवीन मुक्तकों अपने पास रखते है तो क्या मुक्त लोगोंकी रागद्वेष है? जब प्रीति होवेगी तब रागद्वेष अवश्य होवेंगें. ततो नवीन मुक्तक सर्व पूर्वमुक्त अपने अपने पास रखना चा हेंगे, तब तो चातानसें नवीन मुक्तकी कमवक्त था जावेगी वे किसके पास रहेया ! कहां तक लिखे बुद्धि जुवाब नही देती है. यह दयानंद सरस्वतीजीकी वेदोक्त मुक्तिका हाल है. और गौतमोक्त मुक्तिमें पूर्वोक्त दूपण नही क्योंकि गौतमजी तो थात्माकों सर्वव्यापी मानते है, इस वास्ते आणा और जाला कि तेजी नही. न ईश्वरके बीचमें घुस बेठना है क्योंकि सर्वव्यापी है, और न पूर्वमुक्त नवीन मुक्तकों अपने पास रख सक्ते है क्योंकि समीप र कुबजी नही, सर्वही सर्व व्यापी है. आपसमें प्रतिजी नहीं क्योंकि रागद्वेष करके रहित है, और ज्ञानसें परस्पर नहीं है क्योंकि मुक्तावस्थामें ज्ञान माना नहीं और सदा आनंद सुख और सुख जोगनेकी इवा ये तीनों मुक्तावस्था में Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. माने नही. इस वास्ते गौतमोक्त दयानंदकी वेदोक्त मक्ति विल. क्षण है, इससे दयानंद सरस्वतीजीकी वेदोक्त मुक्तिको कुन्नी सहारा नही पहुंचता है. हम नही जानते के दयानंदजीने गौतम मतको मुक्तिका सूत्र किस वास्ते लिखे है ! फिर दयानंदजीनें वेदांत मतकी मुक्तिके सूत्र और उपनिषदकी मुक्ति लिखी है. तिनका एसा अर्थ लिखा है-पृष्ट १५ और १८६ में १७७ में दयानंद लिखता है अब व्यासोक्त वेदांत दर्शन और नपनिषदोंमें जो मुक्तिका स्वरूप और लक्षण लिखे है सो आगे लिखते है (अनावं ) व्या सजीके पिता जो बादरी आचार्य थे नुनका मुक्ति और अभाव विषयमें ऐसा मत है कि जब जीव मुक्त दशाको दानाहि है. प्राप्त होता है तब वह शुद्ध मनसें परमेश्वरके साथ परमानंद मोदमें रहता है और इन दोनों में जिन इंडियादि पदार्थोका अन्नाव हो जाता है ॥ १ ॥ तथा नावं ( जैमिनी ) इसी विषयमें व्यासजीके मुख्य शिप्य जो जैमिनी थे उनका ऐसा मत है कि जैसे मोदमें मन रहता है वैसेंही शह संकल्प मय शरीर तथा प्राणादि और इंडियोंकी शुरु झाक्तिनी बराबर बनी रहती है क्योंकि उपनिषदमें (स एकधा नवति द्विधा नवति त्रिधा नवति ) इत्यादि वचनोंका प्रमाण है कि मुक्त जीव संकल्पमात्रसेंही दिव्य शरीर रच लेते है और इच्छामात्रसेही शीघ्र ठोडन्नी देते है और शुरू झानका सदा बना रहता है॥२॥ (छादशाह ) इस मुक्ति विषयमें बादरायण जो व्यासजी थे ननका ऐसा मत है कि मुक्तिमें नाव और अनाव दोनोंही बने र. हते है, अर्थात् क्लेश अझान और अशुदि आदि दोषोंका सर्वथा अन्नाव हो जाता है और परमानंद ज्ञात शुक्ष्ता आदि सव सत्य Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणोंका नाव बना रहता है. इसमें दृष्टांतत्नी दिया है कि जैसे वानप्रस्थ आश्रममें बाहर दिनका प्राजापत्यादि व्रत करना होता है उसमें थोमा नोजन करनेस कुधाका योमा अन्नाव और पूर्ण नोजन करनेसे कुधाका कुछ जावन्नी बना रहता है, इसी प्रकारसे मोदमेंनी पूर्वोक्त रीतीसें नाव और अन्नाव समज लेना. इत्यादि निरूपण मुक्तिका वेदांत शास्त्र में किया है ॥ ३ ॥ इस अर्थके ये सूत्र लिखे है-- अथ वेदांतशास्त्रस्य प्रमाणानि ॥ अभावं बादरिराहह्येवम् ॥ १॥ भावं जैमनिर्विकल्पामननात् ॥ २ ॥ द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोतः ॥३॥ अ० ५॥पा० ४ सू० १०॥ ११ ॥१२॥ इनका अर्थ नपर लिखा है, और दयानंदजीने नुपनिषदकारोके मतसें बारांतरेकी श्रुतियोंसे मुक्ति लिखी है तिनका संस्कृत पाठ यह लिखा है । “ यदा पंचावतिष्ठन्ते झानानि मनसा सह । बुधिश्च नविचेष्टेत तामाहुः परमां गतिम् ॥१॥तां योगमितिः मन्यन्ते स्थिरामिन्श्यिधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा नवति योगो हि प्रनवाप्ययौ ॥२॥ यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हदि श्रिताः। अथ मयोऽमृतो नवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥३॥ यदा सर्वे प्रनिद्यन्ते हदयस्येह ग्रंथयः। अथ मयोऽमृतो नवत्येतावदनुशासनम्" ॥४॥ को अ० वल्ली ६ मं० १०-११--१४-१५ ॥ देवेन चकुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते ॥ ५॥ य एते ब्रह्मलोके नं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषा ५ सर्वे च लोका आत्ताः सर्वे च कामाः स सर्वा ५श्च लोकानाप्नोति सर्वा ५श्व कामान् यस्तमामातमनुविध जानातीति है प्रजापतिरुवाच ॥ ६॥ यदन्त Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखं. रापस्तद् ब्रह्म तदमृतरस आत्मा प्रजापतेः समावेश्म प्रपद्ये यशोहं नवानि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशो विशां यशोऽहमनु प्रापत्ति सहाहं यशसां यशः ॥ ७ ॥ गन्दोग्योपनी प्रपा ७ ॥ अणुः पन्या वितरः पुराणो मा स्पष्टो विता मयैव ॥ तेनधीरा अपि यन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गलोकमितो विमुक्ताः ॥७॥ तस्मिञ्चुलनीलमादुः पिंगलं हरितं लोहितं च ॥ एष पन्था ब्रह्मणा हानुविचरतेनेति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यश्च ॥ ए॥ प्राणस्य प्राणमुत चकुपञ्चकुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रमनत्यानं मनसो ये मनो विदुः ॥ ते निचक्युब्रह्म पुराणमग्रयमनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन ॥ १० ॥ मृत्योः स मृत्युमामोति यह इह नानैव पश्यति । मनसैवानुश्ष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम् ॥ ११ ॥ बिरजः पर आकाशात् अज आत्मा महावः तमेव धीरा विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ॥ १२॥श का १४ अ०७॥ इनका अर्थ दयानंदजीने ऐसा लिखा है-अब मुक्ति विषयमें नपनिषदकारोंका जो मत है सोजी आगे लिखते है, (यदापंचाव) अर्थात् जब मनके सहित पांच ज्ञानेंघिय परमेश्वरमें स्थिर होके उसी में सदा रमण करती है और जब बुहिनी ज्ञानसे विरू५ चेष्टा नही करती उलीको परमगति अर्थात् मोक्ष कहते है ॥१॥ (तां योगण) उसी गति अर्थात् इंडियोंकी शुद्धि और स्थिरताको विछान लोग योगकी धारणा मानते है. जब मनुष्य नुपासना योगसे परमेश्वरको प्राप्त होके प्रमाद रहित होता है तन्नी जानोकी वह मोक्षकों प्राप्त दूया. वह नपासना योग कैसा है कि प्रनव अर्थात् शुद्धि और सत्यगुणोंका प्रकाश करनेवाला (अप्यय:) अर्थात् सब अशुदि दोषों और असत्य गुणोंका नाश करनेवाला है. इस लिये केवल उपासना योगही मुक्तिका साधन है ॥२॥ 20 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अज्ञान तिमिरजास्कर. ( यदा सर्वे ) जब इस मनुष्यका हृदय सब बुरे कामों से अलग होके शुद्ध हो जाता है तभी वह अमृत अर्थात् मोक्षकों प्राप्त होके आनंद युक्त होता है. प्रश्न- क्या वह मोक्षपद कहीं स्थानांतर वा पदार्थ विशेष है, क्या वह किसी एकही जगतमें है, वा सब जगतमें ? उत्तर- नही ब्रह्म जो सर्वत्र व्यापक हो रहा है वही मोक्षपद कहाता है और मुक्त पुरुष नसी मोक्षको प्राप्त होते है ॥ ३ ॥ तया ( यदा सर्वे ० ) जब जीवकी अविद्यादि बंधनकी सर्व गांठे विन्नभिन्न होके टूट जाती है तभी वह मुक्तिकों प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ प्रश्न- जब मोक्षमें शरीर और इंडियां नहीं रहती तब वह जीवात्मा व्यवहारकों कैसे जानता और देख सक्ता है ? उत्तर - ( दैवेन ) वह जीव शुद्ध इंडिय और शुद्ध मनसें इन श्रानन्दरूप कामाकों देखता और जोक्ता नया उसमें सदा रमण करता है क्योंकि उसका मन और इड़ियां प्रकाश स्वरूप हो जा - ती है ॥ ५ ॥ प्रश्न- वह मुक्त जीव सब सृष्टिमें घुमता है अथवा कहीं एकदी काने बेठा रहता है ? उत्तर - ( य एते ब्रह्मलोके० ) जो मुक्त पुरुष होते है वे ब्रह्मलोक अर्थात् परमे व कों प्राप्त होके और सबके आत्मा परमेश्वरकी उपासना करते हुए उसीके आश्रयसें रहते है. इसी कारण से ननका जाना माना सब लोक लोकांतरों में होता है. उनके लियां कहीं रुकावट नही रहती और उनके सब काम पूर्ण हो जाते है, कोई काम पूर्ण नही रहता इस लिये मनुष्य पूर्वोक्त रीतीसें परमेश्वरकों सबका आत्मा जानके उसकी उपासना करता है वह अपनी संपूर्ण कामनाओंकों प्राप्त होता है यह वात प्रजापति Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. परमेश्वर सब जीवोंके लिये वेदोंमें बताता है ॥६॥ पूर्वे प्रसंगका अन्निप्राय यह है कि मोक्षकी श्छा सब जीवोंकों करनी चाहिये (यदन्तरांग) जो कि आत्माकान्नी अंतर्यामी है नसीको ब्रह्म कहते है और वही अमृत अर्थात् मोक स्वरूप है और जैसे वह सबका अंतर्यामी है वैसे नसका अंतर्यामी कोईनी नहीं किंतु वह अपना अंतर्यामी आपही है. ऐसे प्रजानाथ परमेश्वरके व्याप्तिरूप सन्ना. स्थानकों में प्राप्त होऊ और इस संसार में जो पूर्ण विद्वान ब्राह्मण है नुनके बिचमें (यशः) अर्थात् कीर्तिको प्राप्त होऊ तथा (राज्ञां) कृत्रियों (विशां) अर्थात् व्यवहारमें चतुर लोगोंकें बीचमें यशस्वी होळं. हे परमेश्वर ! मैं कीर्तियोंकानी कीर्तिरूप होके आपको प्राप्त ह्या चाहता हूं. आपनी कृपा करके मुझकों सदा अपने समीप रखिये॥॥ अव मुक्तिके मार्गका स्वरूप वर्णन करते है. (अणुः पन्था) मुक्तिका जो मार्ग है सो अणु अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म है.(वितर) नस मार्गसे विमुक्त मनुष्य सब दोष और दुःखोसे पार सुगमतासें पहुंच जाता है, जैसें दृढ नोकासें समुश्को तर जाते है. तथा (पुराणः) जो मुक्तिका मार्ग है वह प्राचीन है, दूसरा कोई नही मुझकों (स्पृष्टः) वह इश्वरकी कृपासे प्राप्त दूआ है नसीमागैसें विमुक्त मनुष्य सब दोष और 5 खोस बूटे हूये (धीरा.)अर्थात् विचारशील और ब्रह्मवित् वेदविद्या और परमेश्वरके जानने वाले जीव (उत्क्रम्य ) अर्थात् अपने सत्य पुरुषार्थसें सबदु:खोंका उल्लंघन करके (स्वर्गलोकं) सुखस्वरूप ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है॥ ॥ (तस्मिक्ल ) अर्थात् नसी मोक्षपदमें (शुक्ल) श्वेत (नील) शुइ घनश्याम (पिंगल) पीला श्वेत ( हरित) हरा और (लोहित ) लाल ये सब गुणवाले लोक लोकांतर झानमें प्रकाशित होते है. यही मोदका मार्ग परमेश्वरके साथ समागमके पीछे प्राप्त होता है. अन्य प्रकारमें नही ॥ ए.॥ (प्राण Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अज्ञान तिमिरास्कर. स्य प्राण० ) जो परमेश्वर प्राणका प्राण, चक्कुका चक्षु, श्रोत्रका श्रोत्र, अन्नका अन्न, और मनका मन है, उसको जो विद्वान् निश्चय करके जानते है वे पुरातन और सबसे श्रेष्ट ब्रह्मको मनसें प्राप्त होनेके योग्य मोक्ष सुखको प्राप्त होके श्रानंदमें रहतें हैं. ( नेदना० ) जिस सुखमें किंचित्जी दुःख नहीं है ॥ १० ॥ ( मृत्योः स मृत्यु० ) जो अनेक ब्रह्म अर्थात् दो तीन चार दश बीस जानत है वा अनेक पदार्थोके संयोग से बना जानता है वह वारंवार मृत्यु अर्थात् जन्म मरणकों प्राप्त होता है क्योंकि वह ब्रह्म एक और चेतन मात्र स्वरूपही है. तथा प्रमाद रहित और व्यापक होके सबमें स्थिर है. उनको मनमेंही देखना होता है, क्योंकि ब्रह्म श्राकाशसेंनी सूक्ष्म है ॥ ११ ॥ ( विरजः पर प्रा० ) जोपरमात्मा विशेष रहित श्राकाशमें परम सूक्ष्म ( श्रजः ) अर्थात् जन्म रहित और महाध्रुव अर्थात् निश्चल है. ज्ञानी लोग उसीको जानके अपनी बुद्धिकों विशाल करें, और वह इसी ब्राह्मण कहता है ॥ १२ ॥ तथा याज्ञवल्क्यकी कही मोक लिखी है. सहोवाच एतद्वैतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्य स्थूलमण्वेवा-हस्वदीर्घमलोहितमस्नेहलमच्छायमतमोऽ वाय्वनाकाशम संगमस्पर्शमगंधमरसमचक्षुष्कम श्रोत्रमवाग मनोऽतेजस्कम प्राणममुखमनामागोत्रम जरममरमभयममृतमरजोऽशब्दमविवृतमसंवृतमपूर्वमपरमनंतमबाह्यं न त दश्नोति कंचन न तदश्नोति कश्चन ॥ १३ ॥ श० कां० १४ अ० ६ । कं० ८ ॥ अथ वैदिक प्रमाणम् ॥ य यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इंद्रस्य सख्यममृतत्त्वमनशे तेभ्यो Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमवंक. भद्रमंगिरसा वा अस्तु प्रतिभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥ १ ॥ ऋ० अ० ८अ० २ व० १ म० १॥ स नो बंधर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा यत्र देवा अ मृतमानाशानास्तृतीयधामन्नध्यत्यन्त ॥ २॥२० अ० ३२ मं० १०॥ अथ याज्ञवल्क्यकी कही मुक्ति दयानंद सरस्वती लिखता है ( सहोवाच ए) याज्ञवल्क्य कहते है, हे गार्गि ! जो परब्रह्म नाश, स्थूल, सूक्ष्म, लघु, लाल, चिक्कन, बाया, अंधकार, वायु, आकाश, संग, शब्द, स्पर्श, गंध, रस, नेत्र कर्ण, मन, तेज, प्राण, मुख, नाम, गोत्र, वृक्षवस्था, मरण, जय, आकार, विकाश, संकोच, पूर्व, अपर, नीतर, बाह्य, अर्थात् बाहिर इन सब दोष और गुणोंसे रहित मोक स्वरूप है. वह साकार पदार्थके समान किसीको प्राप्त नहीं होता और न कोई नसको मूर्ति व्यके समान प्राप्त होता है, क्योंकि वह सबमें परिपूर्ण, सबसे अलग अद्नुत स्वरूप परमेश्वर है, नसकों प्राप्त होनेवाला कोई नही हो सकता है, जैसे मूर्तव्यको चकुरादि इंश्योंसें सादात कर सकता है, क्योंकि वह सब इंडियोंके विषयोंले अलग और सब इंडियों आत्मा है. नसी मार्गसें ब्रह्मका जाननेवाला तथा (तैजसः) शुःइस्वरूप और पुण्यका करनेवाला मनुष्य मोक्ष सुखको प्राप्त होता है, तथा कव दयानन्दजी अपनें ऋग्वेद और यजुर्वेदकी कही मुक्ति लिखते है. ( यज्ञेन ) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानरूप यज्ञ ओर आत्मादि व्योंकी परमेश्वरको दक्षिणा देनेसें वे मुक्तलोग मोक्षसुखमें प्रसन्न रहते है. (इंश्स्य ) जो परमेश्वरको सख्य अर्थात् मित्रतासे मोकनावकों प्राप्त हो गये है नन्हीके लिये लक्ष्नाम सब सुख नियत किय गये है, (अंगिरसः) अर्थात Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अज्ञानतिमिरनास्कर. ननके जो प्राण है वे ( सुमेधसः) ननकी बुड़िकों अत्यंत बढानेवाले होते है और उस मोद प्राप्त मनुष्यकों पूर्व मुक्तलोग अपने समीप आनंदसें रख लेते है और फिर वे परस्पर अपने समीप आनंदसें रख लेते है और फिर परस्पर वे अपने ज्ञानसे एक दूसरकों प्रीतिपूर्वक देखतें और मिलते है, ( सनोबंधु० ) सब मनुप्योंकों यह जानना चाहिये की वही परमेश्वर हमारा बंधु अथात् उखका नाश करनेवाला है तथा वही सब काका पूर्ण कर्ता और सब लोकोंके जाननेवाला है कि जिसमें देव अर्थात् विहान् लोग मोक्षको प्राप्त होके सदा आनंदमें रहते है और वे तीसरे धाम अर्थात् शुक्ष्सत्वसें सहित होके सर्वोत्तम सुखमें सदा स्वच्छंदतासे रमण करते है ॥३॥इस प्रकार संवेपस मुक्तिका विषय कुछ तो वर्णन कर दिया और कुछ आगेनी कहीं कहीं करेगे सो जान लेना, जैसे (वेदाहमेत ) इस मंत्रमेंनी मुक्तिका वि षय कहा गया है ॥ इति मुक्तिविषयः संदेपतः ॥ यह दयानंद सरस्वतीकी मानी दुश् मुक्ति है. अब हम इस पूर्वोक्त मुक्तिकों विचारतें है, प्रथम वेदांतकी - मुक्तिमें झगमा पड रहा है. व्यासजीके पिता बाका विचार, दरीजीतो मुक्तिका स्वरूप कितनी वस्तुयोंके अन्ना व होनेसे मानते है, और जैमिनीव्यासका मुख्य शिष्य बादरीजीसे विपरीत मुक्ति स्वरूप मानते है, और व्यासजी इन दोनोंहीसें निन्न तीसरी तरेमी मुक्ति मानते है. इससे यह ति होता है कि वेदोंमें मुक्ति स्वरूप अच्छी तरेंसें नही कथन करा है जे कर करा होता तो इन पूर्वोक्त तीनों आचार्योंका अ. लग अलग मुक्ति विषयमें मत न होता, जे कर कहोगे वेदोहीमें मुक्ति तिन तरेकी कही है, तब तो वेद एक ईश्वरके बनाये हुये नदी है, किंतु तीन जणोंके बनाए हुये है. जैसी जैसी तिसकी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. ११५ समझ थी उसने वैचा वैसा लिख दिया तब तो मुक्तिके स्वरूप में संशय होनेसें पूर्वोक्त मुक्ति तीनों तरेकी प्रेक्षावानोंकों नपादेय नही, तो फेर दयानंदजीनें इनमेंसें कौनसी मुक्तिकों स्वीकार करा यह नही मालुम होता. और तीनो तरोकी मुक्ति मानें तो परपस्पर विरोध वे है, और वेदांतियाँके जाप्यादि शास्त्रोंसें दयानंदके करे दूरु है, न तो ऐसे अर्थ वेदांती मानतें है, और न एसे शांकर नायादिकमें लिखें है. हम नही जानते के दयानंदकी कल्पना क्योंकर सत्य हो सकती है जेकर कसीके शा inपको रासन चरें तो देखनेवालेकी क्या हानि है, दानितो कुछ नही परंतु अनुचित काम देखनेंसें मनको अच्छा नही लगता है, जिनके शास्त्रांका नलटा कर्थ करा है वेही दयानंदजी सें पूना होवेगा तो पूछ ले वेंगे हमतो जैसे अर्थ दयानंदसरस्वतीजीनें लिखे है नदीका विचार करते है, दयानंदसरस्वती लिखता है कि मुक्त लोगोंका जाना थाना सब लोक लोकांतर में होता है. मुक्त लोक जो सब जगे प्राते जाते है और घूमते है इसमें क्या हेतु है, क्या उनके एक जगे रहने से हाथ पग शरीरादि प्रकर जाते है उनके खोलने वास्ते लोक लोकांतरमें घूमते है इसमें १ अथवा उनका एक जगें चित्त नही लगता है ? २ अथवा एक जगे रहना अपने आपको कैदी समजतें है इस वास्ते लोक लोकांतर में दौमते फिरतें है ? ३ अथवा मुक्त होकेनी उनके मनमें लोक लोकांतरके तमाशे देखने वास्ते सब जगें दौना पकता है इस वास्ते नमे नमे फिरते है ? ४ अथवा मुक्त पीछे उनको पूर्ण ज्ञान नही होता है और वस्तुयांके देखनेकी वा बहुत होती है सो वस्तुके समीप गया बिना देख नही सकता है इस वास्ते हरेक जंगे नटकते फिरते है ? ५ अथवा एक जगें रहनेसें वांकी आब हवा बिगम जाती है इस वास्ते अछी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अज्ञानतिमिरनास्कर. श्राब हवा की जगह है? ६ अपवा विनाही प्रयोजन वावलोकीतरें फिरत है ? इन सातोही पकोमें अनेक दूषण है. इन पदोमेंसे एकजी पक जाना जायेगा तो मुक्त सिह तो किसी तरें नी नही होगा परंतु मुक्तिकी खरावी तो लिह हो जावेगी क्या जाने इस मुक्तिके माननेवालेकी एसी मनसा होवेकि यहां तो देश देशांतर जानेमें रेलादिकका नामा देना पड़ता है और जब हम मुक्त हो जावंगे तब तो पदीयोंकी तरे जहांका तमाशा देखना होगा तहां चले जावेंगे तो इस बातकों कौन मना कहता है. परंतु प्रेक्षावान तो युक्तिविकल मुक्तिको कदापि नही मानेगे. तथा मुक्त होके चलना फिरना, देशदेशांतरमें जाना आना, ऐसी मुक्ति तो पोजति गौतम वादरि जैमिनि व्यास याज्ञवल्क्यादि. कों में किसीनेनी नही मानी तो फेर ननके मतके शास्त्रोंसे मुक्ति स्वरूप लिखने से क्या प्रयोजन लिइ होता है, और दयानंद सरस्वीजीने जो वेदोक्त मुक्ति लिखी है उसमेंनी मुक्त लोगोंका लोकांतरमें जानाबाना नही लिखा है तो फेर यह नमें फिरने लोक लौकांतरमें जाना आनेवाली मुक्ति सरस्वतीजीनें कहांसें निकाला लीनी. तया फेर दयानंदजी लिखते है मुक्त हूयां पीछे उनके सब काम पूर्ण हो जाते है, को काम अपूर्ण नही रहता है, तो फेर हम पूजते है कि मुक्तलोग लोकलोकांसमें किल वाल्ते जाते आते है ? प्रयोजन तो उनका कोश्जी बाकी नही रहा है. यह पूर्वापरव्याहति है. फेर दयानंदजी लिखते हैकि पूर्वोक्त मुक्ति प्रजापति परमेश्वर सब के लिये वेदोन बताता है तो हम पूछते है, ऐसी चलने फिरने वाली मुक्ति परमेश्वरने कौनसे वेदमें वताई है. जो तुमने ऋग्वेद, यजुर्वेदके दो मंत्रसे मुक्ति स्वरूप लिखा है तिसमें तो चलने फिरनेवाली मुक्ति नही लिखी है. तया फेर दयानंदजी लिखते है मुक्तिस्था. रमेश्वरहीहै, अन्य को मुक्तिस्थान नही तो Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. ११ हम कहेंगे जैसे आकाश सर्वव्यापी है तेसैही ईश्वर मुक्तस्थानरूप सर्व जगें व्यापक है, तिसमें मुक्तलोग स्वबंदतासें चलते नमते फिरते है तो हम पूछते है चील कौये तो अपने नकादिकी तलासमें फिरते है परंतु मुक्तलोग तो सर्व कामसें पूर्ण है तो फेर ननकों देश देशांतर जानेसे क्या प्रयोजन है. अब इस लिखनेसें यह सिह हुआ कि जो दयानंदजीने मुक्तिके स्वरूप वास्ते योग न्याय वेदातांदि मतोकि सादी लिखी है वह वेदोंमें मुक्ति स्वरूपके अधूरेका पुरे करने वास्ते लिखी है. नसनें तो वेदोक्त मुक्तिको पुरा तो नही करा बलकि वेदोक्त मुक्तिका खंमन कर दीया और वेद अधुरो कथन करनेसे सर्वज्ञ इश्वरके बनाये दूए सिह नही होती है. इति प्रश्रम पदः ॥१॥ दूसरा पद तो संन्नवही नही हो सकता है क्योंकि हमने द्वितीय पक्ष. बहुत जगें पंमित ब्राह्मणोसें सूना है कि दयानंदजीके बनाये वेदनाप्यन्नूमिकादि ग्रंथ सच्चे प्रतीत करने योग्य नही है. प्रतीति और प्रमाणिकता तो दूर रही बलकी दयानंदकी न्यायबुहि बाबत बाबू शिवप्रसाद सतारे हिंदनें अपने दूसरे निवेदन पत्रमें ऐसा लिखा है. दूसरे निवेदन पत्रका पाठ-राजा शिवप्रसाद कहता है, कि जब मैंने गौतम और कणादके तक और न्यायसें न अपने प्रश्रका प्रमाणिक नुत्तर पाया और न स्वामीजी महाराजकी वाक्यरचनाका नससे कुछ संबंध देखा मराकि कहीं स्वामीजी महाराजनें किसी मेंम अथवा साहिबसें को नया तर्क और न्याय रुस अमेरिका अथवा और किसी दूसरी विलायतका न सीख लिया हो ? फरकिस्तानके विजनमंडलीनूषण काशीराज स्थापित पाठशालाध्यक्ष दाक्तर टीबो साहिव बहापुरको दिखलाया बहुत अचरजमें आये और कहने लगे हम तो स्वामी जी महाराजको बझे पंमित जानतेथे फेर अब उनके मनुष्य हो. 21 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अज्ञानतिमिरनास्कर. नेमें संदेह होता है, दूसरा निवेदन पत्र पृष्ट ५-६ ॥ अन्य पंडित तथा विलायती पंडित दयानंद सरस्वतीजीके बाबत यह लिखते है. न्यायसे दूसरपरका संनव नही होता है ॥२॥ तृतीय पक्ष. तिसरे पद तो संन्नव होनी सक्ता है परंतु सतपुरुषांको ऐसा लिखना नचित नही ॥ ३ ॥ चतुर्थ पक्ष. . चौथा पद प्रतीत करनेके योग्य नही क्या जाने सच्चकी जगें जूठही हाथ लगा होवे ॥४॥ पंचम पक्ष. पांचमा पक्ष अप्रमाणिक और न्याय बुहिसे हीन तो कदाचित् मानन्नी लेवें परंतु प्रेक्षवान् कदापि नही मानेगं ।। ५ ॥ हिंदुस्थानमें बहुतोंने अपने मतके पंथ चलानेसें आर्य लोकोंकी बुद्धि कुंठ होगइ है. मिथ्यात्व घोर अंधकार सागरमें संशय नरे हुवे अब रहे है. कितनेकतो क्रिश्चियन हो गये है और कितनेक मुसलमान बन गये है और कितनेक स्वकपोलकल्पित ब्रह्म समाजादि पंथ निकाल बैठे है और कितनेक किसी मतान्नी नहीं मानते है और-कितनेक दयानंद सरस्वतीजीके मतमें दाखिल हो गये है. और साधु फकीरतो हल गेम गेडके, इतने जाटादि हो गये है, गृहस्प लोगोंको सीख देनी मुशकल होगइ है, बहुत साधु फकीर लोग लोनी है, पन रखते है, रांडत्नी रखते है, लोगोंसें लमते है, गांजे चरसकी चिलमें नमाते है, नांग अफीम धतुरा खाते है और लोगोंसें गाल देते हे तथा कितनेक नगरोंमें मेरे धांध बैठे है, लोगोंको लुंटते लुच्चेपणे करते हैं, परस्त्रीयों गमन करतेहै, मांस मदिरानी कितनेक खाते पीते है. इस फिकीरोसे तो गृहस्थ हो और न्यायसें पैला पैदा करके अपने बाल बच्चोंकों पालें, दीन उखान चासँको देवतो अचाकाम है. साधु नुसीकों होना चाहिये जो तन मात्र वस्त्र और नूख मात्र अन्न लेवे, शील पाले Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंरु. १२३ और लोगों कों जूठ, चोरी, कपट, बल, दंज, अन्याय व्यापार अ. नुचित प्रवृत्ति उपदेश द्वारा बचायें नहीतो साधु होनेसें कुछ लाज नही. दयानंदमतसमीक्षा. दयानंद सरस्वतीजीने प्रथम " सत्यार्थ प्रकाश बनाया था, तिसमें चार्वाकका मत लिखके लिख दियाकी ये श्लोक जैनोके बनाये हुए है. तिनकी बाबत जब दयानंदकों पूछा गया तब पत्रद्वारा धमकीयां शिवाय और अंninके शिवाय कुछनी उत्तर न दीया. तिन पत्रोकी नकल " दयानंदमुखचपेटिका" नामक ग्रं लिखी और उप गइ है. अब दयानंदजीने नवीन सत्यार्थप्रकाश रचा है. तिसमंत्री कितनीक मिथ्या बातां लिखके फेर जैनमतको जूठा ठहराया है. इस वास्ते दयानंदजीने जो ईश्वरमुक्ति संसारकी रचना प्रमुख बाबत जो इंड्जाल रचा है सो खंगन करके दिखाते है. प्रथम जो दयानंदजी अपने स्वरूपमें परमहंस परिव्राजकाचार्य लिखते है सो मिथ्या है. क्योंकि जो परमहंसोकी वृत्ति शास्त्रोंमें लिखी है सो दयानंदजी में नही है. परमहंसको परिग्रह अर्थात् धन रखना नहीं कहा है, और दयानंदजी रखते है. परमहंसको तो माधुकरी निक्षा करनी कही है, ओर दयानंदजी रसाई करवाकर खाते है. परमहंसको असवारीका निषेध है श्रोर दयानंदजी सवारी नपर चरुता है. इत्यादि अनेक बा तो दयानंदजी में परमहंसके लक्षण नही है तो फेर परमहंस परिव्राजकाचार्य क्योंकर हो सक्ते है. और कौनसे वै परमहंस है जिनका दयानंदजी प्राचार्य है. इसवास्ते जो अपनेको परमहंस परिव्राजकाचार्य लिखा है सो मिथ्या है. राजा शिवप्रसाद "" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अज्ञानतिमिरनास्कर. सतारे हिंदने अपने दूसरे निवेदनपत्रमें लिखा है कि फर डिस्ता. नके विछजनमंमलीनूषण काशीराज स्थापित पाठशालाध्यक्ष डाक्तर टीबो साहिब कहता है, हमतो बमा पंडित जानते थे पर अब ननके मनुष्य होने में संदेह होता है. मैं इतनंतक नही जाता हूं. मैरा कहना इनके ग्रंथोंके संबंध है. - दयानंदजीने जो जो ग्रंथ वेदनाष्यनूमिका वेदनाष्यादि रचे है, वै सर्व नारतवर्षीय प्राचीन वैदिक धर्मसे विरुइ है. प्राचीन वैदिक धर्मके नष्ट करने वास्तेही दयानंदजीका सर्व उद्यम है, ओंकारका अ- प्रथम जो ननोंने ॐकारका स्वरूप लिखा है सो का भ्रम. दयानद- मिथ्या है, क्योंकि हमने बहुत पंडितोसे सुना है मि कि 'अ' 'न' और 'म्' इन तीनों वर्गोसें ॐ बनता है, और ये तीनों अकर क्रमसें विष्णु, शिव, ब्रह्मा इनके वाचक है. जेकर दयानंदजीनी इस तरें मान लेता तो इनका काकंददग्ध हो जाता क्योंकि दयानंदजी इन तीनों अर्थात् विष्णु, शिव, ब्रह्माको देव ईश्वर नहि मानते है. इस वास्ते दयानंदजीने ॐकाररूप पीठ बांधने वास्ते मृषा अर्थरुप पथ्थरोकी सामग्री एकही करके पीठिका बांधी है. सो यह है—दयानंदजी लिखते वै, अकारसें विराट, अग्नि और विश्वादि, नकारसें हिरण्यगर्न, वायु और तैजसादि, मकारसें ईश्वर, आदित्य प्राज्ञादि नामोंका वाचक और ग्राहक है. अब विचार करके देखिये तो यह कथन मिथ्या है क्योंकि तीन अकरोंसें जव ॐकार बना है तब तो इन तीनो अक्षरांका जोवाच्यार्थ है तिसके समुदायका नाम ईश्वर दूधा, परंतु वास्तवमें एक वस्तुका नाम ॐकार नही है. तथा दयानंदजी लिखता है इन तीनो अकरोसे परमेश्वरके विराट, अग्नि, वायु आदि जे नाम है वे सर्व ग्रहण करे है. यह लखना मिथ्या है, क्योंकि किसी को Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. शमेनी परमेश्वरके नाम वायु, अनि पाश्कि नही है. जेकर व्यु त्पत्तिधारा वायु, अग्नि आदि परमेश्वरके नाम माने जावे, तबतो उलूल, अकिंचित्कर, विडाल, यश, अहि, वृश्चिक, इत्यादि लाखो नाम परमेश्वरके हो जावेगे; तवतो परमेश्वरको खल, खर, गदर्न, श्वा, कुक्कर, योनि, स्त्री, मरि, नगंदर, चौरादि नामसे कहना चाहिये. यह व्युत्पत्तिस्वरूप पमितोमें नपहास्य होवे, इस वास्ते पूर्वोक्त परमेश्वरके वायु, अग्नि आदि नाम सर्व मिथ्या कस्पित है.और जो दयानंदजीने ॐकारकी व्युत्पत्ति लिखी है सोनी मिथ्या है. “ अवति रहतीति ॐ," जब रक्षा करे तब सर्व जीवांकी करे, जेकर सर्व जीवांकी रक्षा करे तो जो जीव नूख, तृषा, मरी, रोग, चोरादिकोंके नपश्वोंसे मरते है तिनकी अथवा अगम्यगमन, चोरी, क्रोध, ईर्ष्या, शेष, असत्यनाषण, अन्याय इत्यादि कुकर्म करनेवालोकी फांसी, कैद नरकपातादिसें रक्षा क्यों नही करता है. जेकर कहोगे पापी जीवाने पाप करे है इस वास्ते वे फुःख नोगते है तिनकी ईश्वर क्या रक्षा करे; जब दुःखीयोंकी रक्षा नही करता है तो रक्षक कैसे सिइ होवेगा? ईश्वर अन्यायी जेकर कहोगे जो जैसा पुण्य पाप करता है तिसको ४ ईश्वर तैसाही फल देता है, यही उसका रक्षकपणा है, तो हम पूजते है प्रथम ईश्वर जीवांको पापकर्मही करणा बंद क्यों नही करता है ? क्या ईश्वरको पापीयोंको पाप करणेसें बंध करणेकी शक्ति नही है? जेकर कहे शक्ति है, तो पाप करणा बंद क्यों नही करता ? जेकर कहोगे, ईश्वरमें पाप करणेके बंद करणेकी शक्ति नही, तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नही, और जब पापीयोंका पाप करता बंद न करे और पापके फल नूख, तृषा, रोग, शोकादिसें मुक्त न करे तो ईश्वर दयालु क्योंकर दो सत्ता Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अज्ञानतिमिरजास्कर. है ? जैकर कहोगे, पापीको पाप फल और पुण्यवान् को पुण्यफल देता है, जैसें राजा सज्जनोंको साधुकार देता है और पापी चौरादिकक दंग देता है तैसे ईश्वरजी करता है. यही ईश्वरकी द यालुता और न्यायता है यह कहना महा मिथ्या हैं, क्योंकि राजा लोको में चौरादिकोकों बंद करोकी हाक्ति नही है इस वास्ते चोरादिकको बंद नही कर सकता है. ईश्वरको तो तुम सर्व शक्तिमान मानते हो तो फेर पापीयोंकों पाप कररोंसे बंद क्यों नही करता है ? पापीयोंको पाप करणेंसें बंद न करलेस ईश्वर दयालु नही है, और ईश्वरही जानके पाप कराता है; फेर दंग देता है.. इस वास्ते तुम्हारा ईश्वर अन्यायीनी सिद्ध होता है; जैकर ईश्वर पापकरताकों नही जानता है तो अज्ञानी सिद्ध होता है. जानता है और रोकता नही तबतो निर्दय, असमर्थ पक्षपाती, रागी, द्वेषी सिद्ध होता है. हम प्रत्यक्ष देखतें है सर्व जीव जम चैतन्यके निमित्त अपने अपने करे पुण्य पापका फल सुख दुःख जोगतें है तो फिर काहेको ईश्वरको फलप्रदाता कल्पन करके अन्यजीवांको मां जालमें गेरे है ? जब हम अपने पुण्यपापानुसारी फल जोगते है तब तो जैसें दुकानदारसें थपनें पैसेसे लेकर वस्तुका जोगणा है तिसमें दुकानदारनें हमको क्या अधिक फल दिया ? कुबनी नही दिया; तैसेही निमित्तरूप दुकानदारसें हमनें अपने अपने पापपुण्यका फल जोगा तो तिसमें ईश्वरनें हमको क्या दिया ? इस वास्ते ईश्वर जगतका रक्षक नही. तथा दयानंदजी कहते है ईश्वरका नाम ' खं ' और ' बह्म' जी है, सर्वत्र प्रकाशकी तरें व्यापक होनेसें खं, और सबसें बना होनेसें ब्रह्म है. यह लिखनामी मिथ्या है, क्योंकि जो सर्व जगें व्यापक होता है वो अक्रिय होता है, जो अक्रिय होता है वो अकिंचित्कर होता ईश्वरका खं नामका खंडन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथमखम. १२ है, आकाशवत् . और सबसे बमा तव होवे जब आकाशसेंनी बडा होवे, सो है नही, क्योंकि आकाश सर्व व्यापक माना है. इस वास्ते ईश्वरका नाम ब्रह्मनी नही, किंतु स्वकपोलकल्पित है. और ईश्वरको सर्व व्यापक माननेसे पुरीषादि सर्व मलीन वस्तुयों में व्यापक होनेसे ईश्वरकी बहुत पुर्दशा सिह होती है. सत्यार्थ प्रका- दयानंदजीने जो ईश्वरका नाम ॐकार लिखा सो शसो अससार्थप्रकाश हो तो सत्य है, परंतु अ, न और म् से जो वायु अता है. नि आदिकोंका ग्रहण करा है सो अनघटित पथ्यरोके समान है, अप्रमाणिक होनेसें. क्या ऐसी ऐसी असत्कल्पना जिस ग्रंथमें होवे तिस ग्रंथका नाम सत्यार्थ प्रकाश कोई बुद्दिमान् मानेगा, क्योंकि प्राचीन वैदिक मतवालेतो पूर्वोक्त रीतीसे ॐकार मानते है, तिनके माननेमेंनी शंका नत्पन्न होती है, क्योंकि जब तीनो अवताररूप होके ॐकारने जगतमें माताके नदरसे अवतार लीना, तब अंकारके तीन खंभ हो गये, और इन तीनोंके शिवाय अन्यको ॐकार नही है. अकार रजोगुणरूप विष्णु, नकार सत्वगुणरूप ब्रह्मा, मकार तमोगुणरूप शंकर, इन तीनो अकरोंसें ॐकार बना तबतो अकारमेंमी तीनो गुण सिह होवेंगे. इस वास्ते यह कपनन्नी यथार्थ मालुम नही होता है, तो दयानंदजीका कल्पित अर्थ कग्नि वायु आदि क्योंकर ॐकार बन सकता है ? जैनमतमें ॐ- सत्य ॐकारका स्वरुपतों यह है-- कारका अर्थ. - अरिहंता असरारा आयरिय उवज्झाय मुणिणो पंचख्खर निष्पन्नो ॐकारो पंचपरामेष्ठि. अस्यार्थः-अरिहंत पदकी आदिमें अ है सो लेना. और अशरीरी सिपदका नाम है तिसकी आदिमेंनी प्रकार है सो लेना, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अज्ञानतिमिरनास्कर. तथा आचार्य पदकी आदिमें दीर्घ आकार है सो लेना, और उपाध्याय पदकी आदिमें नकार है सो लेना, और मुनि पदकी आदिमें मकार है सो लेना, तब यह पांच अकर नये-अ, अ, आ, न,म्, व्याकरण सिःह हैम, जैन, कालापक, शाकटायनके सूत्रोंसें “समानांतेन दीर्धः" इस सूत्र करके तीनो अकारोंका एक दीर्घ आकार दूआ, तब आ, न, म् , एसा रुप सिह दूआ. तब पूर्वोक्त व्याकरणके सूत्रोंसे आकार नकारके मिलनेसे अोकार सिह होता है और पूर्वोक्त व्याकरणोंके सूत्रोंसें मकारकां बिंदुरूप लिइ होता है. तब ॐकार सिह होता है. यह पंच परमेष्टिकोंही ॐकार कहते है क्योंकि अरिहंत नसकों कहते है जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अष्टादश दूषोंसे रहित, पृथिवीमें जीवांको सदागमका उपदेष्टा है; और; अशरीरी नसकों कहते है जो सिइ, बु, अमर, अजर, परमात्मा, ईश्वर, निरंजनादि अतंत गुणां करके संयुक्त मुक्तस्वरूप होवे आचार्य नसको कहते है जो पांच आचार पाले, जगत्को सत्शास्त्रका उपदेश करे; नपाध्याय नसकों कहते है जो सत्शास्त्रका पठण पाठण करावे; मुनि नसको कहते है जो पंचमहाव्रत और सत्तर नेद संयमके धारक होवे; इन पांचोके शिवाय जीवांकों अन्य कोई वस्तु नपास्य नही है. इनही पांचोके आय अक्षरोंसे ॐकार सिह होता है. यह सत्य ओंकारका स्वरूप है. मिथ्याकल्पना कल्पित ॐकारसें सत्य ॐकारकी महि. मा घट नही सकती है. तथा सर्व आर्य लोकोंके जप स्मरण वास्ते माला रस्वनेका . व्यबहार सर्व प्राचीन मतोमें प्रसिाह है, तिस मास्वरूप. लाके १७ मणिये होते है. तिसका निमित्त पूर्वोक्त सत्य ॐकारके १५७ गुण है, अरिहंत पदके बार गुण, अशरीरी जपमालाका Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. १२ अर्थात् सिद्धपदके गुण; आचार्य पदके ३६ गुण; नपाध्यायपदके १५ गुण और मुनिपदके २७ गुण है. ये सर्व एक्कठे करे १०८ गुण होते है; सत्य ॐकारके १०८ गुण स्मरण करनें वास्ते अष्टोतरी माला जगतमें प्रसिद्ध हुई है. तथा दयानंद सरस्वतीनें अपने मनोकल्पित मतकी गोदमी दयानंदकाम बनाई है. सो रंगबिरंगी विरंगी है, क्योंकि प्रथम तकी गोदडी. जो सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक मतोंकी प्रक्रियाके सूत्र है वे रंग विरंगी है; परस्पर तिनका कहना मिलता नही है, क्योंकि सांख्य तो प्रकृति पुरुष मानता है, मीमांसक कर्म और ब्रह्म त मानता है; न्याय सोला और वैशेषिक पट् पदार्थ मानता है. उनका खंमन परस्पर एकैकने अपने शिवाय सर्वका कीया है. और सदागमवालोंनें सम्मति, द्वादशसार नयनचक्र पूर्वोक्त सूत्रों का खंकन यथार्थ किया है. तिस यह अनमिल रंग बिरंगी तर्क प्रमाण बाधित जीर्ण दूई श्रुति सूत्रोंको लेके मतकी गोदमी बनाई है. और इनपूर्वोक्त श्रुति सूत्र स्मृतिसूक्तोंके स्वकपोल कल्पित अर्थ बनानेसें गोदमी रंगविरंगी और विरंगी बनी है. देखिये, नवीन सत्यार्थप्रकाश पृष्ट ११, " सूर्याचं मसौधाता यथा पूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चांतरीक्षमशोस्वः " ॥ ऋग्वेद मंगल १, सूत्र १२७ मंत्र ३. इस मंत्र में लिखा है ईश्वरनें आकाश बनाया, रचा है. पृष्ट २१५ में दयानंदजी लिखता है आकाश नित्य है. पृष्ट १०० में एक सांख्य मतका सूत्र लिखा है, तिसमें आकाशकी उत्पत्ति लिखी है. इस तरें बहुत श्रुतियों में प्रकाशकी उत्पति लिखी है. पृष्ट २१० " तदेत बदुःस्यां प्रजायेयेति । १ । सोऽकामयतबहुः स्यां प्रजायेयेति " | २ | अर्थ - आत्मा देखकर विचार करत है के में प्रजासें बहोत हुं. आत्मा ऐसी इच्छा करता है कि में प्रजाके 22 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अज्ञान तिमिरास्कर. वास्ते बहोत हुं " यह तैत्तरेयोपनिषद्का वचन है हो नही मानना " सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेद नानास्ति किंचन. " यदजी उपनिषद्का वचन है इसकों मिथ्या मशकरीसें कहता है, सो मशकरी यह है - यह वचन ऐसा है जैसाकि कहींकी इंट कहीका रोडा नेनमतीनें कुडवा जोडा, ऐसी लीलाका है. इस तरें सेंकको श्रुतियाको मिथ्या उदराई है, और सेंकमोंके स्वकपोल कल्पित अर्थ करें है. कहीं कहीं सांख्य, वेदांत, न्याय स्मृतिके वचन ग्रहण करें, कहीं स्वकपोलकल्पित कर्य करें, और कहीं मिथ्या बहराये; इस कथन सत्यार्थप्रकाश जरा पड़ा है. इस वास्ते दयानंदकी मतगोदमी प्रोढने योग्य नही. दयानंदनें जो व्युत्पत्तिद्वारा ईश्वरके अमि, वायु, रुड्, सरईश्वरकाना स्वती. लक्ष्मी आदि नाम सार्थक करे है वे कोई मकी कल्पित व्युत्पत्ति. विद्वान नही मानेगा. दयानंदजी अपनें सत्यार्थप्र काशके प्रथम समुल्लास में " खं १ अनि २ मनु ३ ६ ४ प्राण ५ गरुत्मान् ६ मातरिश्वा सुपर्ण भूमि ए विराटू १० वायु ११ आदित्य १२ मित्र १३ वरुण १४ अर्यमा १५ बृहस्पति १६ सूर्य १७ पृथ्वी १० जल १० आकाश १० संविता २१ कुबेर २२ अन्न २३ अन्नाद २४ अत्ता १५ वसु २६ चंद २७ मंगल २० बुध १० बृहस्पति ३० शुक्र ३१ शनैश्वर ३२ राहु ३३ केतु ३४ होता ३५ यज्ञ ३६ बंधु ३७ पिता ३८ माता ३० आचार्य ४० गुरु ४१ गणेश ४२ गणपति ४३ देवी ४४ शक्ति ४५ श्री ४६ लक्ष्मी ४७ सरस्वती ४८ धर्मराज ४९ यम ५० काल ५१ शेष ५२ कवि ५३ इत्यादि ईश्वरके नाम लिखे है. जला यह नाम कबीजी ईश्वरके हो सक्ते है ? अगर जो हो सक्ते है तो हम पूछते है कि यह नाम कोनसे कोशके आधारसें लिखे है अगर जो कोश फोस कुछ नहीं Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १.३१ मानते है हमतो अपने ज्ञानके बलसे बनाते है तबतो तुमारे मु. खसेंही सिह दूआ कि यह ग्रंथ. सत्यार्थप्रकाश नहीं किंतु असत्यार्थ प्रकाश है, क्योंकि सत्यवातके प्रकाश करणेंके स्थलोंमें तो व्याकरण काव्य कोश अलंकारके अनुसारही रचना करनी कविजनोंके वास्ते लिखी है, तबही शास्त्रके अर्थका और शब्दकी शक्तिका ग्रहण. हो सकता है. तथाहि-“ शक्तिग्रहं व्याकरणोपमा नकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदंति, सांनिध्यतः सिपदस्य वृक्षः " ॥ अर्थ-शब्दकी शक्तिका ग्रहण व्याकरण, नपमान, कोश, श्राप्तवाक्य, व्यवहार, शेष वाक्य, विवृति, सिपदकी सानिध्यता इत्यादिकोंके अनुसार होता है. केवल व्युत्पप्ति. मात्रसें नहीं होता है. जेकर केवल व्युत्पत्ति मात्रसेंही शब्दकी शक्तिका ग्रहण होवे तबतो यह नीचे लिखे दुवेनी नाम परमेश्वरके होने चाहिये.. १. “ अंन्हिः-पुल्लिंग-संसारवृक्षस्य अंन्दिः कोर्थः मूलं तदिव यो वर्तते. स अंन्हिः "-अर्थ-संसारवृक्षके मूलकी तरें होनें-- से ईश्वरका नाम अंन्हि है. “ अकिंचित्करः--पुं. न किंचित् करोति इति अर्कि:चित्करः कस्मात् कृतकृत्यत्वात. ” अर्थ--कृतकृत्य होनसें कुउनी नहीं करता है. तिस लिये ईश्वरका नाम अकिंचित्कर है.. ३ " अकृत्यः पु. न विद्यते कृत्यं यस्य कृतकृत्यत्वात् इति अकृत्यः ” अर्थ--कृतकृत्य होनेसे बाकी कुबनी करणेंका नही रहा है तिस लिये ईश्वरका नाम अकृत्य है.. नलूकः पु. नुहलत्ति सर्वत्र समवैति व्याप्नोति वा इति उखकः ” अर्थ-सर्व जगें व्यापक होनेसे ईश्वरका नाम नलूक है. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अज्ञानतिमिरनास्कर. ५ गर्दनः. पु. गर्दति वेदशब्दं कारयति इति गर्दनः " अर्थ-वेदशब्दके करानेसे ईश्वरका नाम गर्दन है. ६ बिमालः पु. वेमति शपति उष्टान् इति विडालः " अर्थ-5ष्ट जनोंकु श्राप देणेंसें ईश्वरका नाम विडाल है. " कुक्कुरः. पु. कौ पृथिव्यां नक्तजनप्रबोधाय वेदध्वनि कारयति इति कुक्कुरः ” अर्थ-इस पृथ्वीपर नक्तजनोंके बोधके लिये वेदध्वनीके करानेसे ईश्वरका नाम कुक्कुर है. G“ यमः. पु. यमयति शुनाशुनकर्मानुसारेण जंतून दं. मयति इति यमः. अर्थ-नले बूरे कर्मोके अनुसार जीवोंके तांश दंग देनसें ईश्वरका नाम यम है. ए“ वृश्चिकः. पु. वृश्चति छिनति जक्तजनपापानि इति वृ. श्चिकः, अर्थ-नक्तजनोंके पापोंका वेदन करनेसे ईश्वरका नाम वृश्चिक है. १० " नारवाहकः. पु. जगतः नारं वहति इति नारवाहक: अर्थ-जगतका नार वहन करनेसे ईश्वरका नाम नारवाहक है. ११ “ विट. पु. विटति आक्रोशं करोति उष्टान् इति विट् , अर्थ-उष्टोंका उपर आकाश करणेसे ईश्वरका नाम विट् है. . १२ “ मंदः. पु. मंदते मोदते ऐश्वर्यपदे इति मंदः ". अर्थअपनें ऐश्वर्यपदमें नित्य खुशी रहनेस ईश्वरका नाम मंद है. १३ “ विश्वकाकः. पु. विश्वे काकः कोऽर्थः तिलकमिव वतते इति विश्वकाकः. " अर्थ--इस पृथ्वीरूपी नामिनीके नासस्थल में तिलककी तरें होनेसें ईश्वरका नाम विश्वकाक है. १५ “ गरलं न. गिरति प्रलयकाले सर्वेषां शरीराणीति गरलं. " अर्थ-प्रलयकालमें जीवोंके शरीरोका नाश करनेसे ईश्वरका नाम गरल है. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १५ “ खलः. पु. खलति सृष्टयादिरचनायां स्वस्वन्नावात् इति खलः ” अर्थ-सृष्टि आदि कालमें अपने स्वनावसे खलायमान होनेसे ईश्वरका नाम खल है. १६ “ कुविंदः. पु. कुं पृथ्वीं विंदति कोऽर्थः प्राप्नोति सवत्र व्यापकत्वात् इति कुविंदः.” अर्य-सर्वत्र व्यापक होनेसे सब पृथ्वीका लान हुआ है इस लीये ईश्वरका नाम कुविंद है. १७ " पाषंमी. पु. पापं खंमयति इति पाषंमी. " अर्थनक्तजनोके पापको खंमन करणेसे ईश्वरका नाम पामी है. १८ " बलदः. पु. नक्तजनान् बलं ददाति इति बलदः." अर्थ-नक्त जनोंकेतांश बलका दाता होनेसे ईश्वरका नाम बलद है. १ए “नगंदरः पु.नक्तजनानां योनि कोऽर्थः पुष्टयोनिषु नत्पति दारयति इति नगंदरः.” अर्थ-नक्तजनोंकी उर्गतिको दूर करनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम नगंदर है. ___ २० “ महिषः. पु.मह्यते जनैरिति महिषः. " अर्थ-जनोके समुदाय करके पूज्य होनेसे ईश्वरका नाम महिष है. १ “ श्वाः, पु. श्वयति कोर्थः वेदध्वनि प्रापयति इति श्वा." अर्थ-वेदध्वनिको प्राप्त करनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम श्वा है. २२ “ अहिः पु. आहंति नक्तजनपापानि इति अहिः,” अर्थ-नक्तजनोके पापोंका नाश करनेस ईश्वरका नाम अहि है. २३ “ स्त्री. स्त्री. स्यते वेदध्वनी कारयते इति स्त्री. अर्थ-इस पृथ्वी पर वेदध्वनिकुं प्रगट करनेसे ईश्वरका नाम स्त्री कहेली ठीक है. ५ अज्ञः पु. “नजानाति स्वस्य आदि इति अज्ञः” अर्थ-अपनी आदिके न जाननेसे ईश्वरका नाम अज्ञ है.. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अज्ञानतिमिरनास्कर. २५ " अंधःपु. अंधयति कोर्थः चर्मचकुषा न पश्यति इति अंधः ” अर्थ-ईश्वर पोते अपने चरमचकुयोसें अपनी इंडियोंका छारा नही देखनेवाला होनेसे ईश्वरकानामधनीकहनानीठीक है. २६ “ अमंगलः पु. नास्ति मंगलं कोर्थः पयोजनं यस्य सः अमंगलः” अर्थ-किसी बातका प्रयोजन न होनेसें ईश्वरका नाम अमंगल है. ७ “ गर्दली. स्त्री. गर्दयति वेदशब्दं कारयति इति गर्दनी" अर्थ-इस पृथ्वी नपर वेदशब्दाका करानेसे ईश्वरका नाम गर्दनी है. २७ “ गाएमी. पु. ज्ञानग्रन्धिरस्यास्ति इति गाएमी.” अर्थज्ञानग्रंथिवाला होनेसे ईश्वरका नाम गाएकी है. श्ए “चमालः पु. चंमति दुष्टान् इति चंझालः.” अर्थ-उष्ट जनोंके नपर कोप करनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम चंकाल है. ३० “ चौरः पु. चोरयति उष्टानां सुखधनं इति चौरः ”. अर्थ-दुष्टोंका सुख रूप धन ले लेनेसें ईश्वरका नाम चौर है, __३१ "तुरगःपु. तुरेण वेगेन सर्वत्र व्याप्नोति इति तुरगः"अर्थवेगसे सर्वत्र व्यापने वाला होनेसें ईश्वरका नाम तुरग है. ___३५ “दुःखंः. न. फुःखयतिः पुष्ठान इति खं." अर्थ-5ष्ठोंकों सदा दुःख देनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम दुःख है.. ३३ " उर्जनः पु. उष्ठो जनो यस्माजायते कस्मात् सर्वोत्पत्तिकारणत्वात् ईश्वरस्य. " अर्थ-उष्ठ जनोंकी नत्पत्ति इश्वरसें होनेसे इश्वरका नाम उर्जन, है. इति अलं प्रपंचेन. अब बुझ्जनोकुं विचार करना चाहियेकि केवल व्युत्पत्तिमात्रसे तो यह नपरः दिखाये दूये महा खराब नामनी ईश्वरके हो सक्ते है. इस वास्ते दयानंदजीका कहना महामिथ्या है. जो जो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम १३५ परमेश्वरके सत्य नाम है वे आगे नव्यजनोके जानने वास्ते लिखते है. “ अर्हन जिनः पारगतस्त्रिकाल वित् कीणाष्टकर्मा परमेष्ठयधीश्वरः । शंनुः स्वयंनूनगवान् जमत्प्रनुः तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ स्याहायनयदसाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ । देवाधि देवबोधिदपुरुषोचमवीतरागाप्ताः " ॥२॥ इन दोनों काव्योके अर्थ साथे ईश्वर परमात्माका यथार्थ नामो बतलाते है. १ "अर्हन. पु. चतुस्त्रिंशतमतिशयान् सुरेशदिकृतां पजां वा अर्हति इति अईन.” मुछिपाईः सनिशतुस्तुत्य इति शूप्रत्ययः अरिहननात् रजोहननात् रहस्यानावाच्चेति पृषोदरादित्वात् अर्हन्.” अर्थ-अनूतरूप आदि चौंतीश अतिशयोंके योग्य होनेसें और सुरेऽनिर्मित पूजाके योग्य होनेसें तीर्थंकरका नाम अर्दन है. मुहिषादि जैन व्याकरणके सूत्रसे यह अर्हन शब्द सिह होता है. अब दूसरी रीतीसेंनी अर्हन् शब्दका अर्थ दिखलाते है जैसे अष्टकर्मरूप वैरियोंको हननेसें और इस जगतमें तिनके झानके आगे कुबन्नी गुप्त नही रहनेसे तिस ईश्वर परमात्मा तीर्थंकरका नाम अर्हन है. . २" जिनः. पु.जयति रागद्वेषमोहादिशत्रून् इति जिनः " अर्थ--राग, द्वेष, महामोह आदि शत्रुवोंकु जितनेसें तिस परमात्माका नाम जिन है. ३ " पारगतः पु. संसारस्य प्रयोजनजातस्य पारं कोर्थः अंतं अगमत् इति पारगतः." अर्थ-संसारसमुश्के पार जानेसें और सब प्रयोजनोका अंत करनेसें तिस परमात्माका नाम पारगत है, " त्रिकाल वित्, पु. त्रीन कालान् वेत्ति इति त्रिकाल वित्" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. अर्थ-नूत, नविष्यत् , वर्तमान, येह तिन कालमें होनेवाले पदापोंका जाननेवाला होनेसें तिस ईश्वर परमात्माका नाम त्रिकाल वित् है. ५ " कोणाष्टकर्मा. पु. वीणानि अष्टौ ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि यस्य इति कीणाष्टकर्मा.” अर्थ-वीण हो गये है ज्ञानावरणीय आदि अष्ट कर्म जिनके तिस परमात्माका नाम हीणा ष्टकर्मा है. ६ " परमेष्टी. पु. परमे पदे तिष्टति इति परमेष्टी परमात् तिकिदिति शनि प्रत्यये नीरुष्टानादित्वात् पत्वं सप्तम्या अलुक् च अर्थ-परम नत्कृष्ट ज्ञान दर्शन चारित्रमें स्थित होनेसे ईश्वर परमात्माका नाम परमेष्टी है. “ अधीश्वरः. पु. जगतामधीष्टे इत्येवंशीलोऽधीश्वरः स्थसन्नासपिसकसोवर इति वरः.” अर्थ-जगतजनोंकु आश्रयनूत होनेसें तिस परमात्माका नाम अधीश्वर है. ___G “शंन्नुः. पु. शं शाश्वतसुखं तत्र नवति इति शंन्नुः " शंसंस्वयं विप्रोदुबोधुरिति दुः. अर्थ-सनातन सुखके समुदायमें दोन करके ईश्वर परमात्माका नाम शंन्नु है. ___ए“ स्वयंन . पु. स्वयं आत्मना तथान्नव्यत्वादिसामग्रीपरि पाकात् न तु परोपदेशात् नवति इति स्वयंनू.” अर्थ-अपनी जव्यत्वपनाकी स्थिति पूर्ण होनेसें स्वयमेय पैदा होता है इस लिये तिस ईश्वर परमात्माका नाम स्वयंनू है. १० " नगवान्. पु. नगः कोर्थः जगदैश्वर्य झानं वा अस्ति अस्य इति नगवान् ” अतिशायिने मतुः " अर्थ-इस जगतका सब ऐश्वर्य और ज्ञानहै जिसकुं ऐसे परमात्माका नाम नगवान है. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. ११ “ जगत्प्रन्नुः. पु. जगतां प्रनुः जगत्प्रनुः.” अर्थइस जगतका स्वामी होनेसे ईश्वरका नाम जगत्प्रन्नु है. १२" तीर्थकर.: पु. तीर्यते संसारसमुशेऽनेन इति तीर्थ प्रवचनाधारञ्चतुर्विधः संघः तत् करोति इति तीर्थकरः" अर्थ-जिस करके संसार समुइ तरीए सो तीर्थ; तिसकुं करनेवाला होनेसें ईश्वर परमात्माका नाम तीर्थंकर है. १३ “ तीर्थकरः. पु. तीर्थ करोतीति तीर्थकरः.” अर्थ--पूर्वोक्त संसारसमुसें तारनेवाला तीर्थका प्रवर्तक होनेसें ईश्वर परमात्माका नाम तीर्थकर है. १५ “जिनेश्वरः पु. रागादिजेतारो जिनाः केवलिनस्तेषामीश्वरः जिनेश्वरः.” अर्थ-रागद्वेषादि महा कर्मशत्रुवोके जितनेवाले सामान्यकेवली तीनोंकानी ईश्वर होनेसें परमात्माका नाम जिनेश्वर है. १५ " स्याछादी. पु.स्यादिति अव्ययमनेकांतवाचकं “ततः स्यादिति अनेकांतं वदतीत्येवंशीलः स्याहादी” स्याहादोऽस्यास्तीति वा स्याहादी यौगिकत्वादनेकांतवादी इत्यपि पाठः.” अर्थ-सकल वस्तुस्तोम अपने स्वरूप करके कथंचित् अस्ति है और परवस्तुके स्वरूप करके कथंचित् नास्तिरूप है ऐसा तत्व प्रतिपादन करनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम स्याहादी है. १६ “अन्नयदः. पु. नयमिहपरलोकादानाकस्मादाजीवमरणाश्लाघानेदेन सप्तधा एतत्प्रतिपकतोऽनयं विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्य निःश्रेयसधर्मनिबंधनन्नूभिकानूतं तत् गुणप्रकर्षादचिंत्यशक्तियुक्तत्वात् सर्वश्रा परार्थकारित्वाददाति इति अजयदः.” अर्थ-सर्वथा अन्नयका देनेवाला होनेसे ईश्वरका नाम अन्नयद है. १७ “ सार्वः. पु. सर्वेन्यः प्राणिन्यो हितः सार्वः.” अर्थ-सर्व प्राणीके पर हितकारी होनेसे ईश्वरका नाम सार्व है. 23 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अज्ञान तिमिरज्ञास्कर. १० " सर्वज्ञः प्र. सर्व जानातीति सर्वज्ञः " अर्थ — सर्व पदाकुं अपने ज्ञानद्वारा जाननेवाला दोनेसें ईश्वरका नाम सर्वज्ञ है. १७" सर्वदर्शी. पु. सर्व पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी " अर्थअपने अखं ज्ञानद्वारा सर्व वस्तुको देखनेका स्वभाव है जिसका इस लीये ईश्वरका नाम सर्वदर्शी है. २० " केवली. पु. सर्वथाssवरणविलये चेतनस्वन्नावाविनवः केवलं तदस्यास्तीति केवली. " अर्थ - सर्व कर्म आवरणके दूर होनेसें चेतनस्वभावका प्रकट होना सो केवल ऐसा केवलका धारक होनेसें ईश्वर परमात्माका नाम केवली है. २१ " देवाधिदेवः. पु. देवानामप्यधिदेवो देवाधिदेवः. " अर्थ-देवताकाजी देव होनेसें ईश्वरका नाम देवाधिदेव है. २२ " बोधिदः. पु. बोधिः जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तददाति इति वोधिदः. ” अर्थ — जिनप्रणीत शुद्ध धर्मरूप बोधिवीजका देनेवाला होनेसें ईश्वरका नाम बोधिद है. २३ " पुरुषोत्तमः. पु. पुरुषाणां उत्तमः पुरुषोत्तमः. " अर्थपुरुषों के बिच सर्वोत्तम श्रेष्ठता धारण करनेवाला होनेसें ईश्वरका नाम पुरुषोत्तम है. २४ " वीतरागः. पु. वीतो गतो रागोऽस्मात् इति वीतरागः. " अर्थ- दूर हो गया है अंगनादिकोंसें राग जिसका इस लिये ईश्वर परमात्माका नाम वीतराग है. २५ प्राप्तः पु. जीवानां हितोपदेशदातृत्वात् प्राप्त इव अर्थ — जीवोके तां हितोपदेश करनेवाला होनेसें ईश्व - " प्राप्तः. का नाम प्राप्त है. यह नामो सत्य परमेश्वरके है. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. १३॥ जगत्का ई- आगे दयानंदजीने जो जगतका कर्ता ईश्वर माना श्वरका खंडन. है तिसका खंमन लिखते है. सर्व जगतके बनानेसे ब्रह्मा परमेश्वरका नाम है. यह गुण परमेश्वरमें कबी कही हो सकता है. क्योंकि दयानंदजी सत्यार्थप्रकाशमें लिखता है, पृष्ट में, जब सृष्टिका समय आता है, तब परमात्मा नन परम सूक्ष्म पदार्थोकुं एकहा करता है. नला अनंतशक्तिवाला होकर परमात्मा पामरोंकी तरे पदार्थ एकछे करे है. फेर ननसे महतत्व बनावे है, तिनसें अहंकार, तिससे पंचतत्वमात्र इत्यादि क्रमसें सृष्टि बनाता है तो हम पुरते है इतनी मेहनत करके जो ईश्वर सृष्ठि बनाता है परमात्माको कोई जरूरता है वा वे पदार्थ ईश्वर आगे बिनति करते है. प्रथम पद मानोंगेतो ईश्वर कृतकृत्य नदि रहेगा, कर लिये है करने योग्य काम जिसने नसका कृतकृत्य कहते है. ईश्वरका तो बमा नारी काम रहता मालूम होता है जो इतनी महेनतसे सृष्टि बनाना स्वीकार कीया है. जेकर कहोगे ईश्वरको कोई प्रयोजन नही तो फेर काहेको इतनी मेहेनत नगता है, बिना प्रयोजनतो मंद पुरुषन्नी नही प्रवृत्त होता है. जेकर कहोगे ईश्वर दयालु है, दया करके प्रलयमें स्थित जीवांको प्रलयसे निकाल कर ननका सुख देने वास्ते नवीन शरीर बना कर ननके साथ संबंध कर देता है तो हम पूछते है प्रलयमें ननका क्या दुःख था, जेकर कहोगे वहां सुखन्नी क्या था वहतो सुषुप्तिक सदृश है, तो हम पुगते है नला जिन जीवांकोतो सुखी रचा ननकों तो सुख दीया परंतु जिन जीवांको पुःखी रचा ननकों क्या सुख दीया. जो कुष्ट, नगंदर, जलोदर, शरीरमें कृमि पडे इवे, महाउःख लोग रहे है, खानेको टुकमानी नही मिलता है, शरीरमें रोग हो रहा है, मस्तकोपरि लकडीयांका नार नवाया हुवा है, इत्यादिक परम पुःखोंसें पी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अज्ञानतिमिरनास्कर. मित हो रहे है इनों नपर ईश्वरने क्या दया करी. इस दया करनेसेंतो ना करनी अही थी. विचारें गरीब जीव सुखसें सोये हवे थे ननका ईश्वरकी दयानं विपदामें काल दिया. किसी आदमी सोतेको जगादेवे तो वो मनमें दुःख मानता है. नन जीवांको तो ईश्वरकी दयाने सोताको जगाकर नरकम माल दीया, वे बिचारें जीव तो ईश्वरकी दयाकी बहुत स्तुति करते होगे. सुज्ञ जनों ! देखीये, यह दया है कि हिंसा है. हम नही जानते ऐसी दया माननेवाले कौनसा मोहको प्राप्त हो रहे है. जे कर कहोगे ईश्वर क्या करे वे जीव ईश्वर आगे विनती करते है, ईश्वर ननकी प्रार्थनाको क्योंकर नंग करे; यह कहेनानी अज्ञानताका सूचक है. क्योंकि प्रश्रमतो उन जीवांके शरीर नही है, वे तालु आदि सामग्री विना बोलनी नही सकते, विनंती करनीतो पुररही, नला, जीन जीवोंको सुखी रचा नननोंकी तो विनती कर. नीनी बन सक्ती है, जिन जीवांको दुःखी रचा वे जीव अपने दुःखी होने वास्ते कैसे विनति करते होंगे. जेकर कहे वे जीव विनती नही करते परंतु नन जीवोंके साथ जो कर्म लगे हुबे है ननका फल नुगताने वास्ते ईश्वर सृष्टि रचता है तो दम पुरते है जेकर ईश्वर नमकों क का फल न जुगतावे तो क्या वे कर्म ईश्वरको :ख देते थे, जो नुनके दुःखसे भर कर सृष्टि रचता है जेकर कहोगे ईश्वरको जीवांके कोनें क्या दुःख दैना था. वो तो अनंतशक्तिमान है. ईश्वर तो फक्त क्रीडावास्तेही सृष्टि र. चता है. वाह ! अच्छा ईश्वर तुमने माना है जो अपनी खेल वास्ते जीवांको अनेक दुःखोंमें गेरता है अपनी खेल वास्ते गरीब जीवांको नरकमें मेरना, रुवाना, पिटाना, रोमी दरिक्षा करना यह दयावानका काम नही. सच है कि चिडियोंकी मौत गवारोंकी हांसी. जेकर वगर विचारें कहे ईश्वर खेल वास्ते Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमचम. ११ नही सृष्टि रचता, किंतु ईश्वरका स्वनावही अनादि कालमें सृष्टि रचनेका है, तो निष्प्रयोजन परजीवांकों दुःख देनेके स्वनाववाला है, वो कवी ईश्वर नही हो सकता है, जैसे कमवे स्वन्नाववाला नींव मीसरी नही हो सकता है. अब जब सृष्टि बनानेका प्रयोजन नही तो सृष्टि ईबरने बनाई है यह क्योंकर सिह होवेगा. जब कोईजी प्रयोजन ईश्वरके सृष्टि बनाने में न मिला तब दयानंदजीने सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ १३ में नही बनाने में क्या प्रयोजन है ऐसा लिखा. बमे शोककी बात है दयानंदजी ऐसे बुध्विान् नाम धरा कर ऐसा प्रश्न पुग, जिसका नत्तर बालकनी दे सकते है; प्रयोजनका अन्नाव यह न बनानेका प्रयोजन है; यह बात सब सामान्य लोकनी जानते है, जिस काम करनेका कुछ प्रयोजन नही नस कामको कोई नही करता. - फेर पृष्ठ २१३ में स्वामीजी लिखता है न बनाना यह आलसी और दरिद लोगोंकी बाते है, पुरुषार्थीकी नही, और जीवांको प्रलयमें क्या सुख वा दुःख है ? जो सृष्ठिके सुखःखकी तुलना की जाय तो सुख केई गुना अधिक होता है, और बहूतसे पवि. त्रात्मा जीव मुक्तिके साधन कर मोक्के आनंदकोनी प्राप्त होते है. प्रलयमें निकम्मे जैसे सुषुतिमें पड़े रहते है वैसे रहते है और प्रलयके पूर्वसृष्ठिमें जीवोंके कीये पाप पुण्य कमोका फल ईश्वर कैसे दे सक्ता और जीव क्योंकर नोग सकते तिसका नत्तर-नला जो काम निकम्मा होवे जिसका प्रयोजन कुट न होवे. करने में अनंत जीवांकों कुःख उत्पन्न होवे, ऐसे काम करनेवालेको नला मानस और न करनेवालेको दरिड़ी कौन बुद्धिमान कह सक्ता है; कोश्नी नही. और जो लिखा सुख केई गुना अधिक होता है बहुत पवित्र जीव मुक्तिके आनंदको प्राप्त होते है, नला! जिन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अज्ञानतिमिरनास्कर. जीवांको पुःख नत्पन्न हो गया, नरकमें अनंत कुःख लोगना पडा, ननको निकाल कर क्या सुख दीया ? नन जीवां वास्ते तो ऐसा पुरुषार्थी ईश्वर नहोता तो अच्छा था, वाह ! यही ईश्वरका. पुरुपार्थ है जो बिना प्रयोजन जीवांको पुःख देना ? फेर जो दयानंदजी लिखता है, प्रलयमें निकम्मे सुषुप्ति जैसें पके रहते है तो हम पूछते है परमेश्वरका निकम्मे देखकर क्या पेटमें शूलं नगवे नहीं कुछ काम करतेथे तो परमेश्वरका कौनसा गामा अडका इवा था. जब प्रलयसे निकालनेसें काम करने लगे तब कौनसा दुःख मिट गया. अलबतां ननकों नरक, स्वर्ग, सुख दुःख, पशु पक्षी इत्यादिक अनेक तरेका फल देनेका टंटातो गलेमें जरूर पम गया. यह कहनी दयानंदके. ईश्वरकों लागू पमी निकम्मी ना यनका टटू मुंडे. फैर जो लिखा है प्रलयके पूर्व सृष्ठिमें जीवोंके किये पाप पुण्य कर्मोका फल ईश्वर कैसे दे सक्ता. सक्ता है हम पुछते है ईश्वर ननको फल न देता तो क्या ननके पापोका फल ईश्वरको नोगना पमता था. जेकर कहोगे, नहीं, तो फेर किस लिये उनको दुःखमें माला. जेकर कहोगे ईश्वर न्यायी है, जेकर ननको कर्मोका फल न देवेतो ईश्वरका न्याय नहीं रहता है. जैसे अबन्नी जो कोई चोरी, यारी, खून वगैरे करता है. ननके करनेसे राजाको कोईनी दुःख नही होता है तो नी अपनें न्याय वास्ते राजा ननको दंम देता है. यहनी तुमारा विना विचारका कथन है. क्योंकि जब किसी एक पुरुषनें दुसरेका धन लूट लीया और उसको मार दिया जेकर राजा नसको दंड न देवे तो ननको देख कर दूसरानी ऐसे करे, दुसरेको देख कर तीसरानी ऐसे करे, राजाका तो नय है नहि तबतो आगेको वे विशेष करके नपश्व करें, कितनेक लोक परस्पर लम करमर जावे, बहुत लोक कुःखी होकर उस राजाकों नपुंसक जानकर नस राजाके Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखंग. १४३ राजाको गेडकर दूसरे राजाके राज्यमें जा वसे, तबतो नस राजेको राज्य नष्ठ हो जावे जब नसके संपूर्ण सुख नष्ठ हो जावे; तुमारा ईश्वर जेकर ननकों दंम न देता तो नसकेन्नी सुख नष्ठ हो जाते थे ? नस राजाकी प्रजा एक दूसरेको देखकर नपवन्नी कर सक्ती है. वे जो जीव सुषुप्तिकी तरें प्रलयमें पडे है वे तो कुगनी नही करते, न आगेको करनेके है. ननकों दम न देनेसे ईश्वरका कौनसा राज्य नष्ट हो जाता था, जे कर कोई नास्तिक ऐसे कहे ईश्वरकातो कुछनी नष्ट नहीं होता था परंतु जेकर ईश्वर दंक न देवे तो ईश्वरका न्यायीपणा नही रह. ता है. हम पूछते है, ईश्वरको न्यायी किसने बनाया है कि तुम हमारा न्याय करा करो. जेकर तुम कहोगे अनादि न्यायी है तो हम पूबते है जैसे ईश्वर अनादि है ऐसे जीवनी अनादि है यह क्यों कर नेद पड गया, एक जीव न्यायी, शेष सर्व अन्यायी, एक जीव स्वतंत्र, शेष सर्व परतंत्र, एक जीव सर्वज्ञ, शेष सर्व असर्वज्ञ. जेकर कहोगे जैसे आकाश और जीव दोनो अनादि है तदपि एक चैतन है, एक जड है ऐसा ईश्वर जीवनी न्यायी अन्यायी है. यहनी कहना तुमारा मिथ्या है. क्योंकि जीव और आकाश निन्न निन्न जातिवाले पदार्थ है. इनके नेद होनेमें जातिका नेद कारण है. ईश्वर और जीव एक आत्मतत्व जातिवाले पदार्थ है. इनके स्वरूप में नेद कन्नी नही बन सक्ता, जेकर कहोंगे इनके स्वरूपमें तो नेद नही. जैसे पुण्य पापकी न्यूनाधिकतासें जीवोंका परस्पर नेद है ऐसे पुण्य पापके अन्नावसे जीव ईश्वरका नेद है तो हम पूरते है, ईश्वरमें पुण्य पापका अन्नाव कब दूवा, जेकर तुम कहोगे ईश्वर अनादिसें पुण्य पापसे रहित है, तो हम पूबते Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अज्ञानतिमिरनास्कर. है तुल्य जाति वाले होनेसें जीवनी अनादिसें पुण्य पापसे रहित क्यु नहीं हुवे ? इससे एकला ईश्वर कनी न्यायी नहीं लिह होता है. जेकर नास्तिक कहे जेकर तुख्य जाति करके नेद न मानोगे तो अनादिसें सर्व जीव पापवाले अश्रवा पुन्यबाले होने चाहीये थे परंतु हम देखते है केई जीव पापवाले है, केई पुएयवाले है ऐसेही ऐसेही कोई जीव अनादिसें पुण्य पापसें रहित सिह हो जायेगा. हे नास्तिक ! यह तेरा कहेना अति मूर्खपणेका सूचक है क्यों कि कोई ऐसा जीव नही जो केवल पुण्यवालाही है और ऐलानी को जीव नही जो केवल पापवाला है. किंतु पापपुण्य दोनों करी संयुक्त सब जीव अनादि कालसे चले आते है. जो जीव मुक्तिके साधन करता है वो पाप पुण्यसें रहित हो जाता है. अनादि न्यायी कन्नी पाप पुण्य करके युक्त नही था. ऐसा नास्तिकोंका ईश्वर कनी नही लिइ हो सका. अब कहना चाहिये तुमारे ईश्वरकों किसने न्यायी बनाया है, हे नास्तिक ! न्यायी नसका नाम है जो सच्चको सच्च, जूठकों जू. ठ कहे, किसीका पक्षपात न करे. परंतु तुमारा ईश्वर ऐसा नहीं हो सकता है, क्यों कि जो पहले तो जीवांको पाप करतेको न रोके, जब पाप कर चूके तो पीछे ऊट इंक दनकों तैयार हो जावे. ऐसे अन्यायीको कौन बुद्धिमान न्यायी मान सक्ता है ? इस न्यायसें तो आधुनिक राजेन्नी अच्छे है. जो इनको खबर हो जावे इस मनुष्यनें चोरी करनी है वा खून करना है, नसकों पका कर पहलेही नसकी जामीनी आदि बंदोबस्त कर लेते है. जेकर नास्तिक कहे वेदका उपदेश देकर ईश्वरनेन्नी पहलेही सब जी. वांको पाप करने से रोका है, तो हम पूरते है जो ईश्वरके नपदेशको न मानकर पाप करते है क्या वे ईश्वरसें जोरावर है जो ईश्वर उनको पापकरतेको देख कर उसी वखत नुनको बंद Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्ग वाद. प्रथमखम. १५५ नहीं करता, ननका मन नहीं फेरता, ननके हाथ पग नहीं तोडना, इत्यादि करके पाप करने से पहलेही क्यों नही ननको बंद करता ? जेकर कहोगे पहले ईश्वरमै सामर्थ्य नही तो पीछे कहांसें आई ? और सदा अनंतदाक्तिवाला क्यों कर सिह होगा ? तथा नास्तिक ! प्रलय कालमेंनी जीव पाप पुण्य करी नास्तिक और संयुक्त होते है नस कालमें ईश्वर फल क्यों नहीं काल देता ? जेकर कहोंगे नस कालमें कर्मफल देनसें नन्मुख हो जाते है तो ईश्वरकों फलदाता मानना निरर्थक है. फल देने न देने वालेतो कर्म हुए. नास्तिक-कर्म तो जड है यह क्यों कर अपने आप फल दे सक्ते है. आस्तिक-जहरतो जड है यह क्यों कर अपने आप फल खाने वालेको मार देता है. नास्तिक-ईश्वर जेकर फल न देवेतो ईश्वरमें जो अनंत सामर्थ्य है वो सृष्टि रचे विना क्यों सफल होगी? आस्तिक-ईश्वरमें जो सृष्टि रचनेकी सामर्थ्य सृष्टि रचे विना सफल न होवे तो मनुष्यका अवतार धार कर स्त्रियोंसें नोग करना, परस्त्रियोंके कपढे चुराने, ननकों अपने सन्मुख नग्न खमी करना, स्त्री आगे नाचना, अपनी बेटिसे नोग करना, सतीयाके शील ब्रष्ट करने वास्ते निखारीका रूप धारन करना, इत्यादिक अनेक कुकर्म करके पीने निराकार निरंजन परमात्मा बन बयग्ना इत्यादिक जो ईश्वरमें सामर्थ्य है तो इन कामोंके कीये विना क्योंकर सफल होगी. जेकर कहोगे यह सामर्थ्य ईश्वरमें नही, तो हे नास्तिक ! सृष्टि रचनेकी सामर्थ्य कैसे होगी ? जेकर कहोगे ईश्वरमें अनंत शक्ति है इस वास्ते सृष्टि रच सक्ता 24 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अज्ञानतिमिरनास्कर, है, तो पूर्वोक्त काम करन कालमें क्या वो अनंत शक्ति नष्ट हो जाति है ? नास्तिक-ईश्वर असंनवकाम नही करता. पूर्वोक्त काम असंनव है. इस वास्ते ईश्वर नही करता. आस्तिक-सृष्टिका रचनानी असंभव है यह क्यों कर करता है? नास्तिक-ईश्वरके कीये दुवे नियम जैसे अग्नि नष्ण, जल, शीतल इत्यादि इनकों ईश्वरत्नी नही बदल सक्ता है, इस लिये सर्व शक्तिमानका अर्थ इतनाही है कि परमात्मा, बिना किसीके सहायक सब कार्य पूर्ण कर सकता है. आस्तिक-जब ईश्वरमें अपने करे दुवे नियमोके बदलनेकी सामर्थ्य नही तो वह नियम ईश्वरनें करे है यह क्योंकर सिह होगा ? नास्तिक-विना कर्ताके कोनी क्रिया वा क्रियाजन्य पदार्थ नही बन सक्ता. जिन पृथ्वी आदि पदार्थोमें संयोग विशेषसें रचना दीखती है बे अनादि कन्नी नही हो सक्ते, इससे सृष्टिका कर्ता ईश्वर सिह होता है. आस्तिक-पृथ्वी आदि पदार्थोकी जो रचना है उनका कर्ता पृथ्वीकायकादि जीव है, ईश्वर नही. यह रचना प्रवाहसें अनादि अनंत है, पर्यायकी अपेक्षासें सादिसांत है. नास्तिक-संयोग कोईनी अनादि नही हो सक्ता है. आस्तिक-हे नास्तिक ! तुमारे ईश्वरके अंशोके संयोगकी जो रचना है उसका कौन कर्ता है ? नास्तिक-ईश्वरतो निरंश. है. जेकर ईश्वरका अंश होवे तो ननके संयोगद्वारा ईश्वरकी रचनाका कन्निी कोई सिाह होवे. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. १४७ आस्तिक-जेकर ई-वर निरंश होवे तो घटपटादि सर्व पदाोंमें व्यापकनही सिह होगा, क्योंकि एक परमाणुमें ईश्वर सर्वात्मा करके रहता है के एक अंश करके ? जेकर सर्वात्मा करके रहता है तो एक परमाणु प्रमाण ईश्वर सिह होगा, जेकर कहोगें एक अंश करके रहता है तो सिह दुवा ईश्वर अंशो वाला है, निरंश नही. : नास्तिक-ईश्वरके अंशोका संयोग अनादि है. आस्तिक-पृथ्वी आदि पदार्थोके संयोगकों अनादि कहतेको क्या लज्जा आती है ? नास्तिक-आदि सृष्टि मैथुनी नही होती. आस्तिक-यह तुमारा कहना असंन्नव है. इसमें को.. इनी प्रमाण नही. नास्तिक-जो कोई पदार्थको देखता है तो दो तरेंका ज्ञान होता है. एक जैसा वह पदार्थ हैं. दूसरा नसकी रचना देखकर बनाने वालेका. आस्तिक-३५ धनुष्य देखकर इंधनुष्यका ज्ञान होता है यह किसीने बनाया है ऐसा कीसीकोनी ज्ञान नही होता है.. नास्तिक-यह पृथ्वी परमेश्वरनें धारण करी हुई है. आस्तिक- मूर्त पदार्थोको अमूर्त कन्नी धारण नही कर सक्ता, जेकर करता है तो आकाशमें पृथ्वी से एक गज नंची ईंट देख कर तो दिखावो. ___नास्तिक-ऐसातो. कोई मूर्त पदार्थ नही अधरमें मूर्न पदार्थकों धारण करे. आस्तिक-तृणादि अनेक पदार्थोको धारन करता दुवा वायु तुमकों नही दीखता जो ईश्वरके माथे पर इतना लार देकर अपना मजूर बनाते हो. . . . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अज्ञानतिमिरनास्कर सत्यार्थप्रकाश पृष्ट ५३० में दयानंदने ऐसी गप्प मारी है दयानंदकाकु कि जैनी कहते है पृथ्वी नीचे नीचे चली जाती है. हम पूरते है जैनशास्त्रमें तो ऐसा लेख नही है. दयानंदने कौनसें जैनशास्त्रमें देख कर यह लिखा है ? हमको आश्चर्य होता है कि दयानंदजी ऐसा निःकेवल जूठ लिख कर जूठ बोलने वालोमें अग्रणीकी पदवी लेते जिसने अपने वेदके अर्थ पूर्वाचार्योके कीये हुवे गेम कर मनोकल्पना करके जूठे मन माने बना लीये है वो दूसरे मतके शास्त्रोका अर्थ क्यों न जूग करेगा ? ऐसेही सत्यार्थप्रकाशमें और अनेक जूठ बांतें लिखी है. जैन मतकी बाबत जो दयानंदजीने जैनीयोंसें बदूत कुःखी होके जैन मतका कितनाक गबम सबड लिखके खंडन लिखा है तिसका कारण यह है. संवत १७३७ का चौमासा हमारा पंजाब देशके गूजरांवाले नगरमें प्रा. तहां दयानंदजीका बनाया हुवा प्रथम सत्यार्थप्रकाश जब देखने में आया तब तिसमें दयानंदजीने स्वकपोलकल्पित बातोंसें जैन मतका खंमन लिखा देखा. तिसमें एक ऐसी बझी गप्प अनघड लिखीके चार्वाक आनाकके बनाये श्लोक (लिखके लिख दिया के ये श्लोक) जैनोंके बनाये है.तिसकी बाबत पंजाब निवासी लाला गकुरदासने पत्रद्वारा दयानंद सरस्वतीजीको पूगकि तुमने अपने सत्यार्थप्रकाशमें जो श्लोक जैन मतके लिखे है तिनका स्थान बतलाओ कौनसें जैन मतके शास्त्रके है. दयानंदजीने सीवाय धमकियांके अन्य कुनी उत्तर नही दिया. अनुमानर्से दो वर्षतक पूर्वोक्त प्रश्नमें गकुरदाससे पत्र व्यवहार रहा. अंतमें गकुरदासने मुंबई जाकर दयानंदजी योग्य मेसर्स स्मीय और फ्रिअर सोलिसिटर्सकी मार्फत नोटीस दिया. तिसका उत्तरन्नी संतोषकारक न मिला. तब गकुरदासने दया Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १४ नंदजीके साथ जो परस्पर पत्रव्यवहार दूआ था तिनमेंसें प्रथम पत्रोंको एकत्र करके दयानंदमुखचपेटिका नाम पुस्तकका प्रथम नाग उपवाके प्रसिह करा. इत्यादि कारणोंसें दयानंद सरस्वतीजी ने बहुत खीज करके दूसरे सत्यार्थप्रकाशमें पूर्वोक्त श्लोकोको ठिकाने लगाया परंतु कितनीक बाते स्वकपोलकल्पिक करके जैन मतियोंको तिरस्कार करनेवाले वचनोंकी वर्षा करी है. तिनका न. चर यहां हम लिखते है. नवीन सत्यार्थप्रकाश पृष्ट ४०१ में जो दयानंदजी लिखता है कि आनाणक चार्वाकनें जो लिखा है वेदके कर्ता नाम धूर्त और निशाचरवत् पुरुषाने बनाये है. यह जूठ है, ! हां नाम धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए है, ननकी धूर्तता है वेदोकी नही. इसका नत्तर, दयानंदजीके लिखने मूजब तो जो आनाणक चार्वाकनें लिखा है कि धूर्तोकी रचना, अति बिन्नत्त कार्य करना कराना धूतोंके विना नहीं हो सक्ता १० और जो मांसका खाना लिखा हे वह वेद नाग राक्षसका बनाया है. ११ पृष्ट ४०१ में, यह कहना आनाणकका सत्य मालुम होता है. क्योंकि यजुर्वेदकी टीकामें वेदश्रुतियोंका वैसाही अर्थ महीधर श्रादिकोंने करा है और जैसे वेदश्रुतियोंके अर्थ महीधर, नव्हट, रावण सायन, माधव आदिकोंने करे है तैसेंही आयावर्चके प्राचीन वैदिक मतवाले मानते चले आये है, तो फेर इस कथनमें आनाणकनें क्या जूठ लिख दिया है जिसको वांचके स्वामीजी कूदते और गन्नराते है. हां, दयानंदकी रची स्वकपोलकल्पित नाष्य जेकर प्रान्नाणक बांचता और सच्ची मानता तो ऐसा न लिखता; इस वास्ते वेदकी रक्षा करने वास्ते दयानंदजीके ईश्वरने दयानंदजीको सत्य नाष्य बनाने वास्ते सर्व नाष्यकारोसे पहिला जन्म न दिया यह दयानंदजीके ईश्वरकी नूल है. तथा दयानंदके ईश्वरने अपने Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अज्ञानतिमिरनास्कर. बनाये वेदोंके जूटे अर्थ बनाते दूए लिखते दूए महीधर आदिकोंकी हस्तांगुलियों न स्तब्ध करी, जिव्हा आकर्षण न करी आदि सत्यानाश न करा यह दयानंदजीके ईश्वरकी असमर्थता वा अज्ञता सिह होती है. तथा दयानंदजीने महीधरादिकोंको वाममार्गी और कुकर्मी लिखे है परंतु हम तो ऐसा वचन नही लिख सक्तेहै. ___ दयानंदजी लिखते है कि बमा शोक है कि जैनाचार्योने वेदकी संहिता नही पढी थी, जिससे वेदकी निंदा कर गये और करते है. नत्तर, जगवंत श्रीमहावीरके बडे शिष्य गौतम आदि इग्यारे गणधर सर्व विद्यायोंके पारगामी अग्निहोत्री ब्राह्मण थे. तथा इनके शिवाय शय्यंनवजट्ट आदि सैंकमो जैनाचार्य चार वेदके पाठी थे. इस वास्ते वेदांको हिंसकशास्त्र जानकर, तिनको त्याग कर परमदयामय जैनधर्म अंगीकार करा. हां, दयानंदजीकी स्वकपोलकल्पित नाष्य हमारे आचार्योनं नही पनि करी श्री, न होनेसें. जो तिनके समयमें दयानंदजी वेदनाष्य बनाते तो लिहितो करते. दयानंदजीकी नाष्य वांचकर मैरा निश्चय खूब दृढ दूया कि सोतरें स्वकपोलकल्पनासें आर्य वेदोंके नष्ट होनेसें ऐसे वेद हो गये है. बृहस्पति चार्वाकमतका आचार्य था, वोनी चार वेदका पाठी था, परंतु वेदरचनाको अयौक्तिक जानके नास्तिक मत वेद श्रुतियोंसे निकाला मालुम पड़ता है, तिन श्रुतियोंमेंसें यह एक श्रुतिका नमुना है. ___“ विज्ञानघन एव एतेश्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येव अनु विनश्यति न प्रेतसंज्ञा अस्ति ।" अर्थ-विज्ञानघन आत्मा इन जूतोंसें उत्पन्न हो करके तिन नूतोंको कायाकारसे नाश होतोंके साथही नाश हो जाता है इस वास्ते प्रेतसंज्ञा अर्थात् परलोक नामकी संज्ञा नही है..., Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखंरु. १५१ बृहस्पति मतका प्रार्यसमाजका मतकी साथ कुछ साधर्म्य - जी मालुम होता है. बृहस्पति पांच जूत मानता है, और दयानंदजी पांच जूत मानता है; बृहस्पति मनुष्य तिर्यंच पशुकी गति शिवाय नरक और स्वर्गगति अर्थात् नारकी देवतायोंके रहनेका नरक स्वर्ग इस जगतके शिवाय कहीं नहीं लिखता है, ऐसेही दयानंदजी मानता है; जैसे बृहस्पति सदामुक्त नदी मानता है, तैसें दयानंदजी सदासुक्त रहता नही मानता है; इत्यादिक कितनी वस्तुयोंके माननेसें चार्वाकका मत दयानंदका सधर्मी मालुम पकता है. और जो दयानंदजी चार्वाकमतकों जैनमतका संबंधी लिखता है तथा जैन बौमतको एक लिखता है तिसमें राजा शिवप्रसाद के इतिहास तिमिरनाशककी गवाही लिखता तिस वास्ते दमने बाबु शिवप्रसादकी दस्ताक्षरकी पत्रिका मंगवाई सो यहां दर्ज करते है. बाबु शिवप्रसादकी हस्ताक्षर पत्रिका. श्री ए सफल जैन पंचायत गुजरावालोंको शिवप्रसादका प्रणाम पहुंचे. कृपापत्र पत्रों सहित पहुंचा. १ जैन और बौड़मत एक नहीं है. सनातन से मित्र निन्न चले प्राये है. जर्मन देशके एक बजे विद्वाननें इसके प्रमाण में एक ग्रंथ बापा है. २ चार्वाक और जैनसे कुछ संबंध नही. जैनको चार्वाक कहना ऐसा है जैसा स्वामी दयानंदजी महाराजको मुसलमान कहना. ३ इतिहास तिमिरनाशकका आशय स्वामीजीकी समजमें Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. नही आया. उसकी नूमिकाकी (१) नकल इसके साथ जाती है. उससे विदित होगा कि, संग्रह है, बहुत वात खंमनके लिये लिखी गई, मेरे निश्चयके अनुसार नसमें कुबनी नही है. - ४ जो स्वामीजी जैनको इतिहासतिमिरनाशकके अनुसार मानते है तो वेदोंकोंन्नी नुसके अनुसार क्यों नही मानते. बनारस १ जान्युआरी आपका दास सन १७७३ ३० शिवप्रसाद, इस राजा शिवप्रसाददके लेखसे जो दयानंदजी जैन बौद्ध चार्वाक मतको एक कहता है सौ महामिथ्या है. दयानंद सरस्वतीजीकी डंडी कहींनी नहीं सिकरती है. तथा दयानंदजी जगे जगे ऐसें लिखता है जैनीयोमें विद्या नही थी. तथा अन्यमतवालोंकोजी ऐसेही लिखता है. यह लिख ना ऐसा है जैसा मारवाममें पश्मिनी स्त्रीका होना. जैसे मारवाम में एक काली, कुदर्शनी, दंतुरा, चिपटी नासिका, विनत्स्य रूप वाली, एक स्त्रीको किसीने पुग कि तुमारे गाममें पद्मिनी स्त्री सुनते है तिसको तुं जानती है ? तब वो दीर्घ नच्छवास लेके कहती है कि मेरे सिवाय अन्य पश्मिनी स्त्री कोई नही, मुजको बहु त शोक है कि मेरे समान कोई पद्मिनी न हुई न होगी. मेरे मरण पी जगतमें पद्मिनी स्त्री व्यवच्छेद हो जावेगी. नला, यह वात कोई सुझ जन मान लेवेगा कि जैनमतमें वा अन्य मतमें कोईनी विज्ञान नही हुआ है ? । सप्तभंगीमें दयानंदका कुर्तक. दयानंदजी सत्यार्थप्रकाश पृष्ट १० में लिखता है, बौह और जैनी लोग सप्तनंगी और स्याहाद मानते है. यह लेख निः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. १५३ केवल जूठ है बौद्ध लोगतो सप्तरंगी स्याद्वाद के शत्रु है. वांचक वृंद ! तुमने कजी जैन मतके सिवाय अन्य मतमें स्याद्वाद सप्त जंगी सुनी है ? तत्वलोकालंकार, स्याद्वादरत्नाकर, अनेकांतजयपताका आदि जैन मतके शास्त्रों में पूर्वपदमें बौद्ध लोकोंनें जैनके शत्रु दोके बहुत जैनमय स्याद्वाद सप्तरंगीका खंमन लिखा है. ra artis लिखता है बौद्ध लोग स्याद्वाद सप्तनंगी मानता है यह केवल दयानंदका जैनमतानभिज्ञता और विवेकविकलता सिद्ध करता है. स्वाद्वाद इस पदका यथार्थ अर्थ जैनीयोंके शिष्य बने विना अन्य प्रकारसे नहीं आवेगा. गोविंद, कुमारीलजह नयनकी तेरे जैनीयोंके शिष्य बनके शिखे तो कदाचित् श्रा वी जावे. आगे जी व्यासजीनें ब्रह्मसूत्रमें "नैकस्मिन्त्रसंजवात् " इस सूत्रमें सतजंगीका खंडन करा है. इस सूत्रकी शारीरिक जाष्यमें शंकराचार्यने सप्तनंगीका खंगन लिखा है. पीछे सायन, माधव, विद्यारण्यनेंजी सप्तनंगीका खंमन लिखा है: सप्तरंगी जिसतरें जैन मानते है और जैसा खंमन व्यास शंकरने करा है और व्यास शंकरके खंगनका खंडन द्वितीय खंड में लिखेंगे तहासें जान लेना. जब व्यास ओर शंकर, सायन. माधव जैसैकोजी सप्तभंगीकी समज यथार्थ नही पक्षी तो दयानंदको क्या खबप. पृष्ट ४११ में लिखता है, सप्तजंगी अन्योन्य प्रभाव समासकती है, यह लेखनी अज्ञानताका है क्योंकि जब सप्तजंगीका स्वरूपी दयानंदकी समऊमें नही ग्राया तो आगे लिखना सब मिथ्या है. काल संख्या मानने में दयानंदजीका कुतर्क, 25 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अज्ञानतिमिरनास्कर. आगे दयानंद पृष्ट ४२० में जैनी जिसतरें कालकी संख्या मानते है सो लिखता है. हां, हमारे सदागममें जो कालका स्वरूप लिखा है सो हम सर्व सत्य मानते है क्योंकि जब हमने जगत अनादि सिह कर दया है तो इस जगतमें अनंत कालका वर्तना संनव हो सक्ता है. और जो दयानंद अपने अनुयायी गणितबिद्यावालोकों पूबता है तुम जैनके कालकी संख्या कर सक्ते हो वा इस संख्याको सत्य मान सक्ते हो ? ऐसा लिखके पीछे हमारे तीर्थंकरोका उपहास्य करा है तिसका नत्तर-तुमसे पूछते है तुम समुश्के पानीके, खसखससंन्नी बदूत सूक्ष्म जलबिंध्योकी गिनती करके बता सक्ते हो ? नही. तया इस सृष्टिसें अनंत काल पहिला जो दयानंदके ईश्वरने सृष्टि रवीश्री नसके वर्ष कह सक्ते हो ? नहो. जैनमतमें तो इतने अंकलक गणितविधि है- एश्६३२५३७३१०२४११५७७३५६७५६ ए६४०६१ए६६न्मन१८३२एकी उपर एकसो चालीश शून्य. दयानंद पृष्ट ५२१ में लिखता है जैनीयोका एक योजन दश सहस्त्र कोशका होता है. यह दयानंदका लिखना जूठ है. क्योंकि दश सहस्र कोशका योजन हमारे किती शास्त्र में नही है. हमारे शास्त्रमें तो किसी कालांतरमें प्रथम ओर आदिमें ओर किसी छीपमें ओर किसी समुश्में ऐसी जातकी वनस्पती कम लनालादिकको नत्सेधांगुलके योजनसे अर्थात् प्रमाणांगुल, आत्मांगुल, नत्सेधांगुलसें हजार योजनकी अवगाहना होती है और किसीक कालमें और किसीक द्वीप समुशदिमें ऐसे हींश्यि जीव होते है की जिनकी अवगाहना पूर्वोक्त बारा योजनकी होती है और तीनेश्यि जीवकी तीन कोस और चतुरिंक्ष्यि जीवकी चार कोसकी पूर्वोक्त नत्सेध कोससे अवगाहना होती है. दयानंद और दयानन्दके अनुयायीयोंने सर्व कालका स्वरूप और सर्व छीप स; Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. . १५५ मुड होते नही है तो फेर ननके न माननेसे न देखने से कदापि पूर्वोक्त कहना जूठ नही हो सक्ता है; जेसे एक गीदम अर्थात् शियालने जन्म लीना तिस वखत थोडासा मेघ वर्षा तब गीदम कहता है ऐसे नारी मेघके समान कबु जगतमें मेघ नही वर्षा है, क्या तिस गीदडके कहनेसे सर्वत्र महामेघोका अन्नाव हो जावेगा? ऐसही दयानंद और दयानंदीयोंके न देखनेसें पूर्वोक्त वस्तुयोंका अन्नाव नहीं होता है. और जो दयानंद लिखता है कि जैनी बार योजनकी जू मानते है, यह निःकेवल जूठ है ऐसा जूझा कथन जैनमतमें कही नही है. जीव और कर्मकी बाबतमें दयानंदका आक्षेप, इसके आगे पृष्ट पश्श से पृष्ट५२६ तक जीव कर्मकी बाबत लिखी है लिल सर्वका नुत्तर अगले परिच्छेदमें लिखेंगे. और पृष्ट ४२५ लेकर ४० पृष्ठ तक जो षष्टिशतकके श्लोक लिखके अर्थ करा है वे सर्व स्वकपोलकल्पनासें मिथ्या लिखा है.क्यौंकि श्लोकाक्षरोंसे वैसा अर्थ नही निकलता है, जिसने वेदोंका अर्थ फिरा दिया वो जैनमतके श्लोकोंके जूठे अर्थ क्यों न लिखे ! और दयानंदने ४४३ पृष्टसें पृष्ट ४५३ तक जूठी जैनमतकी निंदा लिखी है सो मिथ्यात्व सिद्ध करता है. क्योंकि जैन मतमें ऐसा कहीं नही लिखा है कि वेश्यागमन परस्त्रीगमन करनेसें स्वर्ग मोहमें जाता है. दयानंद लिखता है श्रावक साधु तीर्थकर वेश्यागामी थे यह लेख लिखनेवालेकी अज्ञानता, और मिथ्यात्य प्रसिः करता है, जैनमतमें ऐसा कथन तो नही है परंतु दयानंदने वीतराग निर्विकारीयोंकोनी कलंकित करा इसमें इनकी बुद्धिका मन्नाव कैसा है सो सज्जन लोग जान लेंगे. और जैनमत रागद्वेष रहित सर्वज्ञका कथन करा हुआ है तिससे श्री महावीर नगवंतका Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अज्ञानतिमिरनास्कर जीव त्रिपृष्ट वासुदेव हा तिसकोनी नरकमें गया लिखा है और श्रेणिक, सत्यकि, कोणिक ये महावीरके नक्त थे, परंतु जीवहत्या, घोर संग्राम करनेसें और महा विषय नोग करने से जन्मांत तकनी राज्य नही त्यागा इस वास्ते परक गये है ऐसा को सत्यवादी विना कह सक्ता है ? तथा नव बलदेव अचल १ विजय १ नइ ३ सुन्न । सुदर्शन ५ श्रानंद ६ नंदन ७ रामचंद बलन ए इनमेंसें प्रथम आठ मुक्ति गये है और बलनजी पांच में ब्रह्मदेवलोकमें गये है श्नोंने अपने अपने नाई वासुदेवोंके मरणे पीछे सर्व राज्यन्नोग विषय त्यागके संयम महाव्रत अंगीकार करे इस वास्ते मोक्ष और स्वर्गमें गये. इनोनें कुछ जैन तीर्थंकरोकों गूस अर्थात् लांच कोड नही दीनी थी कि तुमने हमको मोह स्वर्गमें गये कहना. और वासुदेव ए, प्रतिवासुदेव ए, इनोनें राज्य लोग विषय नही त्यागा, महाघोर संग्रामोमें लाखो जीवोंका वध करा इस वास्ते नरक गये है. हां यह सत्य है. और हमनी कहते है कि जो राज्य नोग विषयरक्त, घोर संग्राम करेगा, मरणांत तकन्नी पूर्वोक्त पाप न गेडेगा तो नरकमें जायगा. और जो कृष्ण महाराजकी बाबत लिखा है कि जैनीयोने कृष्णको नरक गया लिखा है सो सत्य है क्योंकि जैन मतमें कृष्ण वासुदेव दु आ है तिलको हुए ६४१२ वर्ष आज तक ढूए है वो कृष्ण अरिष्टनेमि २२ में अहतका नक्त श्रा, उसने नविष्य कालमें बारवा अमम नामा अहंत होनेका पुण्य नपार्जन करा परंतु राज्य नोग संग्राम विषयासक्त होनेसें मरके नरकमें गया. तहांसें निकलके वारवा अवतार अमम नामा अरिहंत होगा. ऐसा लेख जैन मतके शास्त्रमें है. परंतु जिस कृष्ण वासुदेवकों दूए है गौर कृष्णकों लोक ईश्वरावतार मानते है इस कृष्ण वासुदेवका कथन जैनमतमें किचिन्मात्रही नही है. और न इस कृष्णको जैनमतमें नरक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमखम. १५७ गया लिखा है तो फिर दयानंद काहेको जूग वाद करता है. दयानंदका यह लेख लोगोंका उगने वाला है क्योंकि इस लेखकों देखके कृष्णके मानने वाले लोक जैनीयोंसें विरोध करेंगे, परंतु दयानंदने जैसी कृष्णादि अवतारोंकी निंदा करी है तैसि किसी नेनी नही करी है. क्योंकि जिसने कृष्णादि अवतारोंके रघे पुराण नपपुराण गीता नारत नागवत सर्व १७ स्मृतियां आश्वलायनादि सूत्र ऐतरेय तेत्तरेय शतपय तामय गोपथ वेदाके ब्राह्मणाकों वेदकी उपनिषदाको ऐतरेय आरण्यक तैत्तरेय आरण्यक पूर्वकालीन नाष्य टीका दीपिकाकों इत्यादि सर्व ग्रंथाको मिथ्या ठहराये है, जब ये ग्रंथ मिथ्या है तो इनके बनाने वाले श्रीकृष्णादी मृषावादी अज्ञानी और पापी ग्हरे तथा सर्व देवोंकी मूर्तियोंकी निंदा करी तब सर्व देवोंकी निंदा हो चुकी. इत्यादि इसी सत्यार्थप्रकाशमें देख लेना. __दयानंदका अमूर्तिवाद. पृष्ट ४१-४२ में दयानंदजीने नीचे उपा हुवा चित्र दीया है. इसमेंसे पहिला चित्र वेदीकी स्थापनाका है, दूसरा प्रोक्षण पात्रीका है, तीसरा प्रणोतापात्रका है, चौथा भाज्यस्थालीका है ओर पांचवा चमसाका है. अब इसके संबंध मेरा कहनेका आशय यह है कि दयानंदजी अपने शिष्यो समाजने वास्ते ऐसा चित्र दिखलाते है अथात् आकृति ( मूर्ति ) का स्वीकार करता है और बाह्यसें मूर्तिका निषेध करता है यह कैसा न्याय ! नला, यह तुच्छ मात्र आहुतिका पात्र विना स्थापनाके समझाय नही सक्ता है तो जो महात्मा अवतार सत्यशास्त्रके उपदेशक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अज्ञानतिमिरनास्कर. हो गये है तिनकी प्रतिमा विना तिनके स्वरूपका कैसै ज्ञान हो सके ? इस वासते सत्यशास्त्रोंके नपदेशककी प्रतिमा माननी प्रोर पूजनी चाहिये. ओर तिनके स्वरूपका ध्यानन्नी तिस मूर्ति छाराही हो सकता है. पूर्वपद-जेकर इश्वर सर्वज्ञ देहधारी को दूा होवे तो तो तुमारा कहना सत्य होवे, परंतु देहधारी सर्वज्ञ ईश्वर दूआही नही है. नत्तरपद-यह कहना समीचीन नही है. क्योंकि वेद, वेदांत, न्याय, जैन आदि सर्व शास्त्र देहधारीकों सर्वज्ञ होना कहते है, और युक्ति. प्रमाणसे संमति, छादशसार नयचक्र, तत्वालोकालंकार सूत्रमें देहधारीकों सर्वज्ञ ईश्वर होना सिह करा है, इस वास्ते प्रतिमा मानना नचित है. जेकर देहधारी सर्वज्ञ नही मानता तो वेद किसने बनाये है. ? नत्तर-सर्वव्यापक सर्वज्ञ ईश्वरनें... प्रश्न-क्या ईश्वरने मुखसें वेद नच्चारे है ? नही तो क्या नासिकासें नच्चारे है ? नही तो क्या कर्णधारा नचारे है ? नत्तर-नही क्योंकि मेरे ईश्वरके मुख, कर्ण नासिका है नही शरीरनी नही है. प्रश्न-जब ईश्वरके पूर्वोक्त वस्तुयो नही है तो वेद कहांसें नत्पन्न हुआ है. पूर्वपद-ईश्वरने अग्नि, वायु, सूर्य, अंगिरस नामक ऋषियोंके मुखधारा नच्चारण करवाये है. उत्तरपद-यह कहना जूठ है,अप्रमाणिक होनेसें. क्योंकि जिसके मुख नाक कान शरीरादिक न होवेंगे वो दूसरायोंकों कैसे प्रेरणा कर सक्ता है ? जेकर कहोके ईश्वरनें अपने मनसे Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखम. १५ प्रेरणा करी तो ईश्वरके मन नही है, शरीरके अन्नावसें. क्योंकि मनका संबंध शरीरके साथ है. पूर्वपक-ईश्वरनें अपनी इच्छासे प्रेरणा करी है. नत्तरपद-शरीर और मनके विना श्छा कदापि सिनही होती है. जेकर कहोगे ईश्वरनें अपनी शक्तिद्वारा प्रेरणा करी तो ये शक्ति किस द्वारा प्रवृत्त दू? प्रथम तो शक्ति ईश्वरसें अन्नेद है. जब ईश्वरमें हलचल होवेगी तब शक्तिनी हल चलके प्रेरणा करेगी. ईश्वर तो जैसे आकाश है तैसे सर्वव्यापी मानते है, तो फेर ईश्वरमें हलने चलनेकी शक्ति कुबनी नही है, और सर्वव्यापी होनेसं हलनेचलने वास्ते कोइ नी अवकाश नही है. इस वास्ते तेरा ईश्वर अकिंचित्कर है, आकाशवत्. जेकर कहे आकाशतो जम है और ईश्वर ज्ञानवान् है तो फिर आकाशका दृष्टांत कैसे मील शक्ता है ? नत्तर–ज्ञानको प्रकाशक है परंतु ज्ञान हलवल नहि सक्ता है इस वास्ते आकाशका दृष्टांत यथार्थ है. इसी मुजव दयानंदने जो ईश्वर बाबत लेख लिखा है वे प्रमाण रहित है. ऐसा ईश्वर किती प्रमाणसे सिाह नही होता है तव वेद अल्पझो के बनाये सिइ हुए. अल्पशनी कैसेके जीनकी बाबत आनाक लिखता है कि. वेद धूर्त अरू राहतोके बनाये हुए है क्या जाने आनण -कका कहनाही सत्य होवे इतना तो हमकानीमा वेद कैसे रचा लुम होता है कि वेद बनाने वाले निर्दय, मांसाहुआ ! हरी और कामी थे. और मोठमुल्लर नामा बमा पंमित तो ऐसा कहता है कि वेद ऐसा पुस्तक है कि मानो अज्ञानीयोके मुखसे अकस्मात् वचन निकला होवे तैसा है. जबवेद ईश्वरका कथन करा नदि तब तिसके माननेवाले दयानंद Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខូច अज्ञानतिमिरनास्कर. सरीखे तिनकाजी नाश कर देवेतो क्या आश्चर्य है ! इस वास्ते देव सिह नगवान कदापि उपदेष्टा लिइ नही हो सकता है. इस वास्ते दयानंदने जो कल्पना करी है कि ईश्वरने प्रेरणा कराके चार वेद नत्पन्न करे सो मिथ्या है, तया तिन रूषियोंके कदनेसे लोक क्योंकर सत्य माने? और जानोंके रुपीओकों ईश्वर प्रेरता है ? जेकर कहोंगे के ईश्वर ननको कह देता था कि मैने इन रुषीओंसे वेद कथन करवाये है इस वास्ते तुम सत्य मानो तो इश्वर हमको क्यों नही कहता है. क्या वे ईश्वरके सगे संबंधी थे और हम नदि है. प्रश्रम तो ईश्वरको मुख, नाक, कान इत्यादि नहि है तो चनकों कहना क्योंकर बन शक्ता है ? इस वास्ते ईश्वरने कोईनी प्रेरणा नही करी है. सत्यतो यह है कि याज्ञवल्क्य, सुलसा पिप्पलाद और पर्वत प्रमुखोने हिंसक वेद रचे है. इनको अपनी कल्पनासें अब चाहो किहीके रचे कहो. इस वास्ते देहधारी सर्वझही सत् शास्त्रोंका नपदेष्टा मानना सत्य है, और तिसकी प्रतिमानी पूजनी सत्य है इस वास्ते दयानंद जो प्रतिमा पूजनकी निंदा करता है सो महापाप नपार्जन करता है. दयानंद जो अंग्रेजी नूगोल, खगोलको सत्य मानके दुसरा हीप समुश्का होना और सूर्य, चंका चलना नही मानता है ओर लूगोल खगोलकी बाबतो जैनशास्त्रका कदना जत्थापन करता है वो समीचीन है ? कबीनी नहि क्योंकि दूसरे सर्व शास्त्रो द्वीप समुशंका होना और सूर्य, चंका फिरना बताया है तो फिर जैन ओर सर्व मतके शास्त्रोकें अंग्रेजी नूगोलके साथ नहि मिलनेसे जूग ठहराना वो बना अप्रमाणिक है. क्योंकि नूगोलविद्या अस्थिर है. आज इस तरेकी है तो फिर काल अपर हीपादि वस्तु देखने में आया सो अन्य तरेकी होवेगी, प्रां Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखंम. २६१ खसे सर्व वस्तु नहि देखी जाती दे तैसें भूगोल विद्यावाले उत्तर दक्षिण दिशाका कुछ अंत नदि लाये दे. कालके प्रभावसे समुकी जगे स्थल होता है और स्थलकी जगे ससुर होता है, पहा, नदीयां, शेहेरादि सब नलटपालट हो जाता है. श्री ऋषन देवके समय से लेकर आज तक असंख्य वस्तु नलटपालट हो गई है. और जैनशास्त्रका कथन तो जैसा प्रथम आरेमें था. वैसाही ग्राज तक चला आता है. तो फिर पांच में आरेमें तैसा द्वीप, समुश्की व्यवस्था कैसें देखाय ? बहुत जरतखंग ससुर जलने रोक लीया है इस वास्ते आंखोस बराबर नदी देखा सक्ता है. दयानंद नसके ग्रंथ में लिखता है के व्यासजी और शुकदेवजी पाताल में गये सो दयानदर्के थके पृष्ट ४४५ के लेखने तो पाताल है नहि तो पातालमें कैसे गये ? अमेरिकाको पाताल हराया सो कौनसी वेदकी श्रुतिमें अमेरीकाको पाताल लिखा है ? तथा दयानंद अपने बनाये वेदनाप्य भूमिका नामके ग्रंथ में वेदकी श्रुतियो पृथ्वीका भ्रमणा, सूर्यका स्थिर रहना, तारसें खबर देना, अगनसें आगबोटका चलाना लिखता है यह लिखना नारी असमंजस और मिथ्या है, क्योंकि वेद भाष्यकारोंनें ऐसा श्रुतियोंका अर्थ किसीजी जगे नहि लिखा है. फिर दयानंद जो तीर्थकरोकी आयु, अवगाहना और अंतर देखकर जैन शास्त्रकों जूग मानता है वो बुमा अज्ञानताका कारण है. क्योंकि कालका ऐसा प्रमाण नहि है अमुक समय से काल प्रचलित हुआ और अमुक समयमें कालका यंत प्रावेगा क्योंकि काल अनादि अनंत इव्य ( पदार्थ ) है. कोई किसी काल में मनुष्यकी आयु, अवगाहना विशेष होवे और को किसी कालमें 26 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अज्ञान तिमिरभास्कर. आयु, अवगाहना अल्प होवे उसमें क्या आश्चर्य है. प्रोफेसर श्रीप्रोमोर कुक अपने बनाये भूस्तर विद्याका ग्रंथ में लिखता है कि पूर्व काल में नमते गीरोली जातके प्राणी ऐसे बडेथे कि उसके पांख २७ फिट लंबी थी, जब ऐसे बडे विद्वान् गीरोली जैसा ना - ना प्राणीका ऐसा बडा पूर्व कालमें या ऐसा सिद करता है तो फिर पूर्व कालमें वो समयमें मनुष्यकी बडी श्रायुष्य ओर अवगाना माननी उसमें क्या आश्चर्य है. बहुते पुराला शोधसें पूर्व कालके मनुष्यकी आयु, अवगाहना जास्ती सिद्ध होती है. इस वास्ते दयानंदका अटकल के अनुमान सब जूठे है. उपसंहार. हम सब सुजनोसें नम्रतापूर्वक यह विनंति करते है कि एक वार जीसने धर्म पीबानना होवे सो जैनमतके शास्त्र पढे वा सुने तो उसको सर्व मालुम हो जायेगा. जैनमतका शास्त्र और तत्वबोध अच्छी तरे जाने सुने विना मतमें संकल्प विकल्पकरके कोइ कीसी बातको अपनी समज मुजब सच्ची और जूठी माननी वो अज्ञानताका एक चिन्ह है. ॥ इति श्री तपगलीये मुनिश्री मलिविजयगलि शिष्य श्री बुद्धिविजय तविष्य श्रात्माराम आनंद विजयविरचिते अज्ञानतिमिर नास्करे प्रथमः संपूर्णः ॥ १ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अज्ञानतिमिरभास्कर, द्वितीयः खण्डः प्रवेशिका प्रथम जैनमतकी उत्पत्ति लिखते है. यह संसार यार्थिक नयके मतसें अनादि अनंत सदा शास्वता है, और पर्यायार्थिक नयसे मतसें समय समय में नृत्पत्ति प्रो विनाशवान है, इस संसार में अनादिसें दो दो प्रकारका काल वर्तते है एक अवसर्पिणी काल अर्यात् दिन दीन प्रति आयु बल, अवगाहना प्रमुख सर्व वस्तु जिनमें घटती जाती है, और दुसरा उत्सर्पिणीकाल, जी लमें सर्व अच्छी वस्तुकी वृद्धि होती जाती है. इन पूर्वोक्त दोनु काली में अमीत् अवसर्पिणी - उत्सर्पिकाल करे व विजाग है. अवसर्पिणीका प्रथम सुषम सुत्रम, १ सुषम, ३ सुत्रम डुम, ४ पुत्रम सुषम, ५ दुषम, ६ मम है. उत्सर्पिणी में बहो विभाग नलट जान लेने. जब अवसर्पिणी काल पूरा होता है तब नत्सविंसी काल शरू होता है. इस अनादि अनंत कालकी प्रवृत्ति है; और दरेक अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी के तीसरे चौथे ओर अर्थात् कालविभाग में चौवीस तीर्थकर अर्थात् सच्चे धर्मके कथन करनेवाले नृत्यन्न होता है, जो जीव वीश धर्मके कृत्य करता है सो नवातरों में तीर्थंकर होता है. वे वीश कृत्य यह है. अरिहंत १ सि६ २ प्रवचन अर्थात् श्रुतज्ञान वा संघ ३ गुरु Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अज्ञानतिमिरनास्कर धर्मोपदेशक ४ स्थविर ५ बहुश्रुत ६ अनशनादि विचित्र तप कर नेवाला तपस्वी अथवा सामान्य साधु ७ इन सातोंकी वत्सलतां करे अर्थात् इनके साथ अनुराग करे, यथावस्थित गुणकीर्तन करे तथा यथायोग्य पूजा नक्ति करे सो तीर्थकर पद नपार्जन करे इन पूर्वोक्त अहंतादि सात पदका वारंवार झानोपयोग करे तो ७ दर्शन सम्यक्ता ए झानादि विषय विनय १० इन दोनोंमे अतिचार न लगावे, अवश्यमेव करने योग्य सयंम व्यापारमें अतिचार न लगावे, ११ मूलगुण ननरगुणमे अतिचार न लगावे १५ कण सवादिमें संवेग नावना ओर ध्यानकी सेवना करे १३ तप करे ओर साधुओंको नचित दान देवे १५ दश प्रकारकी वैयावृत करे १५ गुरु आदिकोके कार्य करणारा गुरु आदिकोंके चित्तको समाधि नपजावे १६ अपूर्वज्ञान ग्रहण करे १७ श्रुतन्नक्ति प्रवचनमें प्रत्नावना करे १७ श्रुतका बहु मान करके १ए यथाशक्ति मार्गकी देशनादि करके प्रवचनकी प्रनावना करे . इनमेंसें एक दो नत्कृष्ट पदें वीश पदके सेवनेंसें तीर्थंकर गोत्र बांधे, यह कथन श्रीज्ञाताजी सूत्रमें है. जो तीर्थकर होता है सो निर्वाण अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है, फेर संसारमें नही आता है; और चला जायगा जगतवासी जीव जैसे जैसे शुनाशुन कर्म करते है तैसा तैसा शुनाशुन्न फल अपने अपने निमित्तके योगसे नोगते रहते है तिस निमित्तहीकों अझलोक ईश्वर फलदाता कल्पन करते है, और सगुण निर्गुण, एक अनेक, रूपसे कथन करके अनेक ग्रंथ लिख गये है, परंतु निरंजन, ज्योतिस्वरूप, सचिदानंद, वीतराग परमेश्वर किसी युक्ति प्रमाणसेंनी जगतका कर्ता, हर्ता, फलदाता, सिह नहि होता है, यह कथन जैनतत्वादर्शमें अछी तरेसें लिखा है. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. पक्षपात गेडके विचारेगा तो यथार्थ मालुम हो जायगा, परंतु जो वेद विगेरे शास्त्रोका हठ करेगा तिसकों सत्यमार्ग कदापि प्राप्त न होवेगा क्योंकि वेद विगेरे बहुत शास्र जो हालमें प्रचलित है वे सर्व युक्ति प्रमाणसे बाधित है, इनका स्वरूप प्रथम खंममें किंचित् मात्र लिख आये है, और अन्य लोगोंको जो असत् शास्त्रका आग्रह है सो जैनमतके न जाननेस है; क्योंकि हिंदुस्तानी, करानी, मुसलमान विगरे सर्व लोक अंग्रेजी, फारसी प्रमुख अनेक तरेंकि विद्या पढते है, परंतु जैनमतके शास्त्र किसी मतवालेने नहि पढे है. वेद, पुराण, कुरान प्रमुखके पढे हुये अं. ग्रेज बहुत है परंतु जैनमतके शास्त्रका पढा हुवा कोई अंग्रेज नहि है; इसका कारण तो लोक एसा कहते है कि जैनि लोक अपने शास्त्र अन्यमतवालोंकों नहि देते है, यह वाततो सत्य है, परंतु वह समय तो अब नहि रहा क्यों कि हजारों ग्रंथ जैनमतके अन्यमतवालोंके पास पहुंच गये हे. परंतु जैनमतके न फैल नेका कारण यह हैमुप्तलमानोंके राजमें जैनके लाखों पुस्तको जला दिये गये ग्रंथ ने फ है, और जो कुछ शास्त्र बच रहे है वे नंडारोमें लनकाकारण. "" बंद कर गेमे है वे पके पझे गल गये है, बाकी दोसो तीनसो वर्षमें तमाम गल जायगे. जैसे जैनलोक अन्य कामोमें लाखो रुपये खरचते है तैसे जीर्ण पुस्तकोको नहार करानेमें किंचित् नहि खरचता है, और न कोई जैनशाला बनाकें अपने लमकोंको संस्कृत धर्मशास्त्र पढाता है, और जैनी साधुनी प्राये विद्या नहि पढते है क्योंकि ननकों खानेकातो ताजा माल मिलते है वे पढके क्या करे, और कितनेक यति लोक इंक्यिोंका नोगमें पड रह है सो विद्या क्योंकर पढे. विद्याके न पढनेसे तों लोक श्नकों नास्तिक कहने लग गये है, फेरनी जैन लोगोंको Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रज्ञानतिमिरजास्कर. लज्जा नदि प्राती है, जैनलोक चूरमेके लाडू और दुधपाकादिके खाने वास्ते तो हजारो एकट्ठे हो जाते है, परंतु पुस्तकों के उधार वास्ते सूते परे है: हमारे लिखनेका प्रयोजनतो इतनादी है कि जैनलोगों को उचित है कि सर्व देशवाले मिलके पाटन, जैसलमेर, खंजात प्रमुखके जंकार पुस्तकका जीर्णोधार करावें, और बने बने शहरो में जैनशाला बनाकें अपने लमकोंका संस्कृतादि विद्या पढावे, और आगम विना अन्य योग्य ग्रंथ लिखावादि करके प्रसिद्ध करें, जीसमें फेर जैनधर्मकी वृद्धि होवे; तथा जैनमतके शास्त्रोके संकेत अन्यमतवालोंकी समजमें नदि श्राती है, सो तो जैनीयोसें पुत्र लेनें चाहिये. यह जैनमत बहुत उत्तम है इसकी उत्पत्ति इस अवसर्पिणी कालमें जैनमतानुसार जैसे हुई है तैसे लिखी जाती है. जैनोका पूर्व इतिहास. इस अवसर्पिणी कालके तीसरे आरेके अंत में जब सात कुलकरमेंसे व व्यतीत हो गये तब नानि कुलकरकी मरुदेवा नायकी कूखसें श्री ऋषभदेव नृत्पन्न दुवे, श्री ऋषभदेवसें पहिलां इस भरतखंग में इस अवसर्पिणी कालमें किसी मतका धौर सारिक विद्याका कोइनी पुस्तक नहि था, क्योंकि श्रीऋषनदेवसें पहिला ग्राम नगरादि नदि थे, इस समयके मनुष्य वनवासी और कल्पवृक्षोंके फलांका आदार करते थे, इस जगत में जो व्यवहार प्रजाके हितकारी है वे सर्व श्री ऋषभदेवजी नही प्रवतीये है इसका खुलासा जैनतत्वादर्शमें लिख दिया है तथा जी सतरें श्री ऋष देवके पुत्र भरतनें चार आर्य वेद बनाये तथा जीस तरें ब्राह्मणनें बनाये, इत्यादि तिसका सर्व स्वरूप जैनतस्वादर्शमें लिख आये है. पन्नर कुलकरके दिसाबसें सबसे पीछेका Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. १६७ कुलकर रूपनदेव हुआ है तिनके चलाये व्यवहारकी कितनीक वातों लेकर और कितनीक मनकल्पित. वातों एकटी करके नृगुजीने मनुस्मृति बनाई है, मनुस्मृति बनायका बहुत काल नदि दुआ है; इसका प्रमाण प्रथम खंगमें लिख आये है. श्रीरूपनदेवही कोही लोक श्रादीश्वर, परमेश्वर, ब्रह्मादि नामोंस पुकारते है. क्योंकि भरतके बनाये चारों आर्य वेदोंमें श्रीषनदेवकीदी अनेक नामोंसें स्तुति थी, सो जब चारों श्रर्यवेद और जैनधर्म न व सुविधिनाथ पुष्पदंत अइतके निर्वाण पीछे व्यवच्छेद दो गये तव ब्राह्मणजी मिथ्यादृष्टि हो गये, तब तिन ब्राह्मणानासने नेक मनमानीयां श्रुतियां रच लीनी, पीछे व्यास, याज्ञवल्क्या दिकोंने ऋग, यजुर. साम, अथर्व नामा चार, वेद बनाये, और ऋषजदेवकी जगे एक ईश्वर कल्पन करा, तीसकी अनेक रूपसें कल्पना करी. और इन वेदोंमें अनेक ऋषियोंकी बनाई श्रुतियां है, और वेद अनेकवार नलट पुलट करके रचे गये है, जिसने जो चाहा तो लिख दिया. पीछे महाकाला सुरनें ब्राह्मणका रूप करके शाफल्य नामसें प्रसिद्ध ऋषि होके सगर राजाको नरक पहुंचाने वास्ते शुक्तिमती नगरीके कीरकदंबक उपाध्यायके पुत्र पर्वत से मिलके महा हिंसक वेद मंत्र बनाये, वे वेद आज कालमें चल रहे है, इनका पुरा स्वरुप जैन तत्वादर्शसे जान लेना तेवीस श्री पार्श्वनाथ प्रत हूये तिनके पीछे मौलायन और सारीपुत्र और आनंदश्रावक हुआ, यह आनंद श्रावक जो नपासकदशांग शास्त्र में कहा है सो नहि, इनोंने बौधमतकी वृद्धि करी यह कथन श्री श्राचारांगकी वृत्तिमें है अंग्रेजोनें सांचीके स्तनकों खुदवाया तिसमेंसें मौलायन और सारीपुत्रकी हकीकत निकली है और तिस मब्बेके ऊपर इन दोनोंका नाम पाली श्र करमें खुदै दुये है. इस लिखनेका तात्पर्यतो यह है कि श्रीपन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अज्ञान तिमिरजास्कर. देवजीने इस अवसर्पिणी में प्रथम जैनमत प्रवृत्त करा और अंतके तीर्थंकर श्री महावीर हुये. श्रीमदावीरके गौतमादि १४००० चौदे दजार शिष्य हुये. श्रीमहावीर जगवंतका उपदेश सुनकें गौतमादि ११ इग्यारें जैन ग्रंथोका raiने द्वादशांग शास्त्र रचे, तिनमें प्रथम श्री - इतिहास. आचारांग रचा, तिसके पचीस अध्ययन है तिनमेंसे प्रथम श्रुतस्कंध के नव अध्ययनोमें जीवास्तित्व १ कपायजीतना २ धनुकूल प्रतिकूलपरिसद सदना ३ सम्यकत्वका स्वरूप ४ लोकमें सार वस्तुका कथन ए पूर्वोपार्जित कर्म कय करणा ६ विशेष करके जगतके फंदसें बूटना ७ महात्याग और मदाज्ञानका कथन श्रीमहावीर अईतकी बझस्यचर्या ए इन नवांका विचित्र तसे कथन है; और दुसरें श्रुतस्क में साधुके याचार व्यवहारादिका कथन है. इस सूत्र के अठार हजार १८००० पद है. और चौदह पूर्वधार नश्वादुस्वामिकी करी इस नपरें निर्युकि है, पूर्वधारी की करी चूर्णी है, शीलांगाचार्यकी करी टीका है. दुसरा शास्त्र सूत्रकृतांग, इसमें तीनसें त्रेसठ मतांका खंमन और जैनमतका मंमन है. इसी तरें द्वादशांगका स्वरूप जान लेना. द्वादशांगोके विना श्री महावीरके शिष्योंके रचे १४००० चौदह हजार शास्त्र प्रकीर्णनी है अरू बारवां अंग दृष्टिवाद थे, जीसके एक अध्ययन में चौदह पूर्व थे. चौदह पूर्वका इतना मूलपाठ था कि जेकर श्याहीसे लिखता सोने हजार तीनसें तीरासी १६३०३ हाथी प्रमाण श्यादीका ढेर लिखनेको लगे. येपूर्व लिखे कदापि नदि जाते है, गौतमादि गणधरोके केंवस्थही थे. जब ये पूर्व व्यवच्छेद होने लगे तब प्राचार्योनं तिनका स्थलोंके लाखो ग्रंथ रचे तिनमें उमास्वाति आचार्य श्री Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितोयखंम. १६ए महावीरजीके पीछे २५० वर्षके दुये तिनके रचे ५०० ग्रंथ है, और श्री महावीरजीसे पीछे १000 वर्ष गये हरिनइसरि हुये तिनोंके रचे १४४४ चौदसो चमालीस शास्त्र है. तथा हेमचंज्ञचार्यके रचे साडे तीन कोटि श्लोक है. बुल्हर साहेबने बंबई इलाके में १५0000 मेढ लाख जैन मतके ग्रंथोका पता लगाया है. और पांच वर्षके अंदर तिनकी फेरिस्त गपनेका वायदा कीया है. इस नरतखंममें बौधके, शंकरस्वामिके और मुसलमानोंकी जुलमसे बचे हुये अवनी जैनमतके पुस्तकोंके नंडार पाटन, जैसलमेर, और खंबातमें जैसे है तैसे पुस्तक वैदिक मतवालोंको देखनेकानी नसीब नहि है. तथा जैनमतके उ कर्मग्रंथ तथा शतक कर्मग्रंथ पंचसंग्रह तथा कर्मप्रकृति प्रमुख ग्रंथोमें जैसा कौका स्वरूप कथन किया है तैसा बुनियांमें किसी मतके शास्त्रमें नहि है; और कौका स्वरूप देखनेसे यहनी मालुम होजाताहै किये कर्मोकां ऐसा स्वरुप शिवाय सर्वज्ञ, और कोई ऐसा बुद्धिमान् नही जो अपनी बुडिके बलसें ऐसा स्वरूप कथन कर सके अन्यमतोवाले जो जैनमतसें विरोध रखते है सो जैनमतके ग्रंथोके न जाननेस, और जैनमतमें शिवाय अर्हत सिह परमेश्वर अन्य देवोकी नपासना नहि है क्योंकि अन्यमतके देवोमें देवपणा सिद नहि होता है तथा ब्राह्मणोका चलाया पाखंग जैनी मानते नहि है इस वास्ते ब्राह्मण लोक जैनमतकी निंदा करते है तिनकी देखादेखसे अन्यमतवालेंनी जैनसें विरोध रखते है. परंतु बुश्मिानोकुं ऐसा चाहिये कि प्रथम जैनमतके ग्रंथ पढके पीछे गुण दोष कहे, और इस कालमें जैनमतकों थोमा फेलाया देखके अनादरनी न करे. मन जो जैनमतकी बमा लिखी है सो मतानुराग करके नहि लिखि किंतु हकीकतमें जैनमत एसा प्रमाण प्रतिष्ठित है कि जिसमें कोश्नी दूषण नहि है, इस कालमें जो जैनमत नि. 27 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अज्ञानतिमिरनास्कर. र्बल हो रहा है सो जैनी राजायोके अन्नावसें; तथा बहुत लोक यहनी समजते है कि जैनमतमें जगतका कर्ता ईश्वर नहि मानते है इस वास्ते जैनमत नास्तिक है; परंतु जगत्कर्ता ईश्वर, निरंजन निर्विकारी, वीतराग किसी प्रमाणसें सिाह नहि होता है, यह कथन जैनतत्वादर्शमें लिख आये है. लोगोकों सूक्ष्मबुझिसे विचारना चाहिये, निम्केवल गमरी प्रवाहकी तरें नहि चलना चाहिये. जगतकर्ताका विचार. प्रश्न-जैनमतमें जेकर पूर्वोक्त ईश्वर जगतका कर्ता नदि मानते तो इस जगतका कर्ता कौन है ? नत्तर-जैनमतमें अनादि जो यशक्ति है, तिसकोंही जड चेतनरूप पर्यायका कर्त्ता मानते है. यह कथन तत्वगीतामें है; तिस अनादि व्यशक्तिके पांच रूप है. काल १ स्वन्नाव कर्म ३ नियति ४ ग्यम ५. जो कुछ जगतमें हो रहा है सो इन पांचोहीके निमित्त, नपादानसें हो रहा है। इन पांचोके विना अन्य को जगतका कर्ता प्रमाण सिह नहि होता है. और इन पांचोहीको जैनमतवाले अनादि व्यकी शक्ति व्यसें कथंचित् नेदान्नेद मानते है. और इस व्यतत्वकोंही इस पर्यायरूप जगतकर्ता मानते है, परंतु सर्वज्ञ, वीतराग, मुक्तरूप परमेश्वर जगतका कर्ता सिइ नदि होता है, लोगोंने इस अनादि व्यत्व शक्तिको प्रज्ञानके प्रन्नावसे समलब्रह्म, सगुणईश्वर, अपरब्रह्म परमेश्वरकी शक्ति, परमेश्वरकी माया, प्रकृति, परमेश्वरकी कुदरत आदि नामोंसे कथन किया है. परंतु वास्तवमें अनादि व्यत्व शक्तिहीको कथन करा है. जैकर सर्वज्ञ, वीतराग ईश्वरकोंही कर्ता मानिये तबतो परमेश्वरमें अनेक दूषण नत्पन्न हो जावेगे, और नास्तिकोका मत सिःह हो जावेगा, यह कथन जैनतत्वादर्शमें Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. १७१ लिख पाये है. इस वास्ते बुझिमानोको अच्छीतरें जैनमतके तत्वको समजना चाहिये, क्योंकि जो लोक वेदांत मानते है सो एकांत माननेसे शु च्यार्थिक नयानास है. यथार्थ नदि है. य थार्थ आत्मस्वरूपका कथन आचारांग, तत्वगीता अध्यात्मसार, अध्यात्मकल्पम प्रमुख जैनमतके शास्त्रोम है. और योगाच्यासका स्वरूप देखना होवे तो योगशास्त्र, योगवीशी, योगदृष्टि, योगबिं, धर्मबिंउ प्रमुख शास्त्रो देख लेना. और पदार्थोका खंमन मंगन देखना होवे तो सम्मतितर्क, अनेकांत जयपताका, धर्मसंग्रहणी रत्नाकरावतारिका, स्याद्वाद रत्नाकर, विशेषावश्यक प्र. मुख ग्रंथो देख लेना, और साधुकी पद विन्नाग समाचारी बेद ग्रंथोमें है, और प्रायश्चित्तकी विधि जितकल्प प्रमुखमें है. और गृहस्थ धर्मकी विधि श्रावक-प्रज्ञप्ति, श्राइदिनकर, आचारदिनकर आचारप्रदीप, विधिकौमुदी, धर्मरत्न प्रमुख ग्रंथोमें है. ऐसा कोई पारलौकिक ज्ञान नहि है जो जैनमतके शास्त्रोमें नहि है; सो जै. नमत और जैनमतके शास्त्र जो इस समयमें है वे सर्व नगवंत श्रीमहावीर स्वामीके नुपदेशसे प्रवर्त्तते है. ___तथा कितनेक बुद्धिमान ऐसेंनी समजते है कि जैनमत जैनमत पुरा- नवीन है: दयानंद सरस्वति कहता है कि साडेतीन ना है. हजार वर्षके जैनमत लगन्नग चीन प्रमुख देशोसें हिंऽस्तानमें आया. यह कथन अप्रमाणिक है. क्योंकि दयानंदजीने इस कथनमें कोईनी प्रमाण नहि दीया. तथा तवारीख लिखनेवा. लोने तथा इतिहासतिमिरनाशकमें लिखा है कि संवत ६००० के लगनगसें जैनमत चला है. यहनी अप्रमाणिक है, क्योंकि श्वेतांबर दिगंबर दो जैनमतकी शाखा फटेको १७७३ अढारसो तीन वर्ष आजतक हुये है. क्योंकि दिगंबर जिनसेनाचार्य अपने बनाये ग्रंथमें लिखता है. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अज्ञानतिमिरनास्कर. “उत्तिस वास सये विक्कम निवस्त मरण पत्तस्स, सोरठे वल्लहीये सेयवा संघ समुपनो” १ अर्थः विक्रम राजाके मरां पीठे एकसो उत्तीस वर्ष पीठे सोरठ देशकी वजनी नगरी में श्वेतां बर संघ नत्पन्न हुवा. तथा श्वेतांबर मतके शास्त्र विशेषावश्यकमें जीसका कर्ता जिनन्नगणि कमाश्रमण विक्रम संवत् ४०० में दुआ सो लिखता है. “नवाधिकैः शतैः पतिः अब्दानां वीरतो गतैः, महात्सर्वविसंवादात् सोष्टमो बोटिकोनवत् ” १ अर्थः स्थवीरपुर नगरमें श्रीमहावीर पीने ६ए बसों नव वर्ष गये दिगंबर मत हुआ. जब एक जैनमतके दो मत हुये इतने वर्ष हुये तब तवारीख लिखनेवालेका लिखना क्योंकर मिथ्या नहि. तथा जनरल कनींगहाम साहेबनें मथुरामें श्रीमहावीरस्वामोकी मूर्ति पाई है तिसको इति हासतिमिरनाशकके लिखनेवाला 1000 दो हजार वर्षकी पुरानी लिखना है. यह लिखना गलित है. क्योंकि विक्रमसें ए नब्बे वर्ष पहिला वासुदेव नामका कोईनी राजा नहि दुआ. और नस श्रीमहावीरकी प्रतिमा नपर ऐसा लिखा है. " सिः ओं नमो अरहंत महावीरस्त राजा वासुदेवस्य संवत्सरे ए नव्वे" यह लिखते पालि होंमें है, जोके अढाइ हजार वर्ष पहिला जैनमतमें लिखी जातीथी इस वास्ते श्रीमहावीरकी मूर्ति का हजार वर्षकी पुराणी मालुम होती है. जेकर इतिहास लिखनेवालेकी समजमें ऐसा होवे कि श्रीमहावीर अहंतकी मूर्ति श्रीमहावीरसे पाठे बनी होगी इस वास्ते दो हजार वर्षके लगन्नग पुरानी है. यहनी अनुमान गलित है, क्योंकि श्रीऋषन्नेदेवके वखतसेंही होनहार तीर्थंकरोंकी प्रतिमा बनानी शुरु हो गइ श्री-ऐसा जैनशास्त्रमें लिखते है, तो महावीरजीके पीछे होवनीका अनुमान गक नहि. इस कालमेंनी राणीजीके नदयपुरमें आगली नत्सर्पि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंरु. १७३ मैं दोनदार प्रथम पद्मनाम तीर्थंकर की मूर्ति और मंदिर विद्यमान है, इसवास्ते जनरल कनींगदाम साहेबको जो मूर्ध्नि मिली है सो बहुत पुराणी है. इस्सेंजी जैनमत अपने आपको पुराना और तवारीख लिखनेवालेकी अक्कलका अजीर्ण सिद्ध करता है. जैनमत बौधमतसें नीकला नहि है तथा जो कोइ इसीजी समजता है कि जैनमत बौधमतसें निकला है सोनी जूठ है. क्योंकी इंग्लंमके थोमस साहेबने इक पुस्तक राजा अशोकके प्रथम धर्मके निश्वय करने वास्ते बनाया है तिसमें लिखा है कि राजा अशोकचंड प्रथम जेनी था, और तीसी पुस्तक में लिखा है कि बौद्धमत जैन मतमेसें निकला है, और जैन मत सर्वमतो पहिलां पुराना है. तथा जर्मनिका एक विद्वाननें किताब बनाई है तिसमें अनेक प्रमाणोंसें जैनमत बौद्धमतसें अलग और सनातन लिखा दे. ब्राह्मणोंने शिवपुराण में जो जैन मतकी नृत्पत्ति लिखी है सोनी जुटी है. क्योंकि शिवपुराण धोके कालका बनाया हुआ है इन पुराणों में वैष्णवकी निंदा लिखी है, इस वास्ते नवीन है कित - क कहते है कि हिंदुस्तान में वेद सबसे पुरानें पुस्तक है तिनमें जैनमतका नाम नही इस वास्ते जैनमत नवीन है. यह कहना केवल प्रमाणिक है क्योंकि जिस पुस्तकोमें वेदांका और अन्य मतोंका नाम न होगा वे पुस्तको इस प्रमाणसें वेदोंसे प्रथम बनें ठहरेंगे, जैसे जैनमतका प्रज्ञापना सिद्धांत, जीवानिगम सूत्र तत्वार्थसूत्र, प्रश्नव्याकरण, दशवैकालिक प्रमुख किसिमका और वेदांका नाम नही है. इस्से येनी वेदांके प्रथम बने माननें चाहिये तथा वेदांमें जैनमतका नाम न होनें से जेकर नविन मानिये तब तो जो वस्तु वेदांमें नही कही सो सो सर्व नवीन माननी पफेगी. यह मानना मिथ्या है तथा मुंरुकोपनिषद में मनुस्मृतिका नाम है इस्सें तो मनुस्मृतिनी वेदांके प्रथम बनी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ठहरी, और मनुमें वेदांका नाम है इस वास्ते यह कहना अप्रमाणिक है. तथा कितनेक बुदिमान ऐसेनी समजते होगे किजैनमतकें सर्व पुस्तक नवीन अर्थात् अढाइ हजार वर्षके पहिला नावंत श्री महावीरजीनेही कथन कीए है जेकर जैनमत पुराना होता तो श्रीपार्श्वनाथ आदि तेवीस तीर्थकरोके कथन करे दूये शास्त्र होते. इसका खुलासा यह है कि जैन मतमें जो तीर्थंकर होता है सो चीस धर्मके कृत्य करनेसें तीर्थकर नाम कर्मकी प्रकृति पुण्यरूप नुत्पन्न करके तीर्थकर होता है. सो तीर्थकर नाम पुण्य प्रकृतिका फल नोगनेंमें तब आता है जब धर्मोपदेशद्वारा धर्मतीर्थ करे. जब धर्मतीर्थ करे तब तीसही तीर्थकरके करे हूये शास्त्र प्रवृत्त होने चाहिये. इस वास्ते पूर्वपूर्व तीर्थंकरोके शास्त्र बंद हो जाते है, और नवीन नवीन तीर्थंकरोके शास्त्र प्रवृत्त होते है, इस वास्ते महावीरजीके तीर्थ में पीउलें तीर्थकरोके पुस्तक बनाये न रहनेसे प्राचीन शास्त्र नही है. और जो कुछ कथन श्री ऋषन्नदेवजीने करा था सोही कथन सर्व तीर्थकरोने किया. नामन्त्री आचारांगादि छादशांगका सबके एक समान था. परंतु जो कथारूप शास्त्र है तिनमें जो जीवांका नाम है सो बदला गया है. नगरी, राजा साधु, श्रावकादिकोंका नामन्नी बदला गया है शेष सर्व शास्त्र सर्व अनंत तीर्थंकरोंके तीर्थमं एक सरीखें है इस वास्ते इनही शास्त्रांको पुराने मानने चाहिये. तथा कितनेक .. यहनी कहते है कि जैनमतके शास्त्र प्राकृतमें कृतमें लखने- है इस वास्ते सर्व झोक्त नहि, जेकर सर्वज्ञोक्त का प्रयाजन होते तो संस्कृतमें होते. इसका खुलासा यह है कि श्रीमहावीर नगवंतकी वाणी अर्ध मागधी नाषामें श्री तिसमें ऐसा अतिशय था के आर्य, अनार्य, तिर्यंच प्रमुख सर्व अप Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. १७५ नी अपनी नापा अपने समझते थे. पी गौतमादि मुनियोंने संस्कृत प्राकृतमें सूत्र गुंथे. पूर्व तो प्राये सर्व संस्कृतमें गुंथे और बालक, स्त्री अल्प बुदि प्रमुखोके वास्ते सूत्र प्राकृतमें गुंथे. तथा यह जो प्राकृत वाणी है तिसके शब्दोमें जैसी सामर्थ्य है तैसी संस्कृतमें नहि है. प्राकृतके शब्द अनेकार्थके बोधक है और विछानोका माननंजन करनेवाला है और बहु गहनार्थ है. जैनमतके शास्त्र निःकेवल प्रातही नहि है किंतु पम् नापामें है. संस्कृत १ प्राकृत र शौरसेनी ३ मागधी ४ पैशाची ५ अपभ्रंश ६ प्राकृत तीन तरेकी है. समसंस्कृत १ तज २ देशी ३. श्न सर्व नापायोका व्याकरण विद्यमान है. संस्कृतके शब्दोसें जो प्राकृत बनती है, तिसको लज्ज कहते है. और जौ अनादि लिइ शब्द है; और जो किसी व्याकरणसेंनी तिइ नही होता है तिसको देशी प्राकृत कहते है. तिस प्राकृतकी देशी नाममाला श्री महावीर पीछे 40 वर्षके लगन्नग पादलिप्त आचार्य हुवा जिनके प्राचार्य श्रावक नागार्जुन तांत्रिक योगिनें अपने गुरु पादलिप्त आचार्यके नामले श्री शत्रुजय तीर्थराजकी तलेटीमें पादलिप्तपुर अर्थात् पालीताणा नगर वसाया तिप्त पादलिप्त आचार्यने देशी नामवाला रची थी. तिनके पीछे विक्रमसंवत १०३ए वर्षे राजा नोजका मुख्य पंमित धनपाल जैनधर्मीनें उसरी देशी नाममाला रची. पीछे श्रीहेमचं आचार्यने सिराज जयसिंहके कहनेंसें तीसरी देशी नामवाला रची जो इस समयमें बुन्दर साहेबे उपावाके प्रसिह करी है. देशी नाममाला कुछ देशी शब्द जो नाषामें बोलने में आता है तिन शब्दोकी है. तथा कच्छ देश अंजार गामके पास एक जैनमतका बहुत प्राचीन जैनमंदिर है जिसको हाल नश्वरजी कहते है तिस पुराने जैनमंदिरमें एक जमा खोदनेसे एक ताम्रपत्र निकला है तिसकी आ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ खा है. अज्ञानतिमिरनास्कर. कृति निचे मुजव है और तिस पत्रमें एसा लिखा है. १ उप देवचंडीय श्रीपार्श्वनाथ देवस्यतो । २३ । सो ताम्रपत्र नश्वरजीके नंमारमें अब विद्यमान है जीसको शंका होवे सो ताम्रपत्र देख ले. इस ताम्रपत्रके लेखकी कल्पन सुज्ञ जननें ऐसी करी है. ॥ ॥ इति ऐसा पालीलिपिमें ॥ व ॥कारकी संज्ञा है त ब ऐसा अर्थ सिह होता है-देवचं नाम विशेषण रूप वणिग् ऐसी जातिवालेका अनुमान किया है क्योंकि नूगोल हस्तामलकी १४४ में पृष्ठमे पाली लिपीकी वर्ण मालामें ॥" "॥ इति ऐसा चिन्ह " व " कारका देखनेमे आया है इस वास्ते "व" कार करके वणिग् जाति है ऐसा समजमें आता है ॥ देवचंड़ीयेति ॥श्य प्रत्यय करके देवचंद श्रेष्टी संबंधी जाननेमें आता है. अर्थात् देवचं शेठने प्रतिष्टा करी. पार्श्वनाथ देवकी प्रतिष्टा मंदिर यह विशेषण है.पार्श्वनाथ देवस्य, ऐसा मुलनायकका नाम है. इस कालमें तो कितनेक वर्ष पहिला श्रीमहावीर नगवतका ब दांतिविजय नामक यतिने स्थापन करा है. छठी विन्नक्तिका संबंध आगे जोमते है ( देवस्य ) इहां " स्य" कारके नुपर एक मात्रा जोमनी चाहिये. क्योंकि ब्रांतिके सबबसें ताम्रपत्रमें मालुम नहि होता है. हम ऐसे जानते है कि जब ऐसा हुआ तब तो संधि पृथक को तब 'इत' ऐसा शब्द सिह हुआ. तिसका यह पूर्वापर संबंध है. पार्श्वनाथ देवस्य इतः' तब ऐसा अर्थ दुआ ॥ पार्श्वनाथ देवस्य इतः । इस प्रतिष्टाके कालमें लगवान महावीर तेवीस वर्ष पहिले दुआ को पूके नगवान वीर ऐसा तु ने कहांसें जाना तिसका नत्तर यह है कि ऐसे अकरके आगे Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. १७७ " "" ( 0 ) शून्यरूप विश्रामका चिन्ह है तिसके आगे ' ' ऐसा चिम्ह पालि लिपिमें न कारका है. तिस वास्ते " न " कार अ कर करके जगवान् वीर ऐसा जानीये है. इस नपरके लेख में प्रन्य एकनी प्रमाण है. इस चैत्यके एतिह्य रूप खरमेमें तथा कच्छ भूगोल में लिखा है. श्रीवीरात् संवत २३ वर्षे यह जिन चैत्य जिन मंदिर बनाया. इस वास्ते हमने ताम्रपत्र लेखकी कल्पनानी इसके अनुसारही करी है. परंतु किसि गुरु गम्यतासे नहि करी है. इस वास्ते इसकी कल्पना कोई बुद्धिमान् यथार्थ प्रन्यतरेंजी करके मेरेको लिखे तो बमा उपकार है. तथा श्रीपार्श्वनाथ भगवंतसे आज तक अविच्छेदपणे नृपकेश गच्छकी पट्टावली चलती है, तिस पट्टावली पुस्तक में ऐसे लिखा है कि श्री पार्श्वनाथ भगवंत पट्टोपरी वीपार्श्वशिष्य प्रणम्य गणधर श्रीशुन दत्तजी दुवें १ तत्पटे श्री हरिदत्त २ तत्पटे आर्यसमुइ ३ तत्पटे hil Turer प्रदेशी राजाका प्रतिबोध करनेवाला ४ तत्पटे स्वप्रसूरि ५ तत्पटे रत्नप्रन सूरि ६. यह रत्नप्रन सूरि द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वधर था, श्री विरात् ५२ वर्षे इनको आचार्य पद मिला, इनके साथ ५०० साधुका परिवार था. सो विहार करते हुवे जिन्नमाल में आये इस निन्नमालका नाम निन्नमालसें पहिलां वीरनगरी था, तिस लाखो वर्ष पहेला श्रीलक्ष्मीमहास्थान था; परंतु श्रीपार्श्वनाथ और महावीर स्वामिके समयमें इस नगरीका नाम जीनमाल था. तिस नगरीका राजा नीमसेन तिसका पुत्र श्रीपुंज तिसका पुत्र नृत्पल कुमार अपर नाम श्री कुमार तिस उत्पलकुमारका बोटा जाइ श्री सुरसुन्दर युवराजा था. उत्पलकुमार राजाके दो मंत्री थे. एकका नाम ऊहरु और दुसराका नाम ऊधरण नहड मंत्रीनें तिस जिन्नमालको किसी निमित्त नज्जड होनेवाली जानके ५५३ घोमे दिल्ली के श्री साधु 28 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अज्ञानतिमिरनास्कर. नामा राजाको नजराणा करें. राजाने तुष्टमान होके नपकेश पट्टनकी जगा दीनी. तिहां नहम मंत्रीने अपने राजा नत्पलदेवके रहने वास्ते पट्टन नामा नगर बसाया. तिस नगरीमें श्रीरत्नअनसूरि आया. तिनोंने तिस नगरमें १२५०० सवालाख श्रावक जैनधर्मी करे तब तिनके वंशका नपकेश ऐसा संज्ञा पडी, और नगरका नामनी नपकेश पट्टण प्रसिद हुआ. तिस नगरमें कहा नपकेश वंशीने श्रीमहावीर स्वामीका मंदिर ब. नवाया. तिस मंदिर में श्री रत्नप्रनसूरिने श्रीवीरात् ७० वर्ष पीछे प्रतिष्ठा करी, श्रीमहावीर स्वामिकी मूर्ति स्थापन करी. सो मं. दिर, मूर्ति क्रोमो रुपओकी लागतके योधपुरसे पश्चिम दिशामें आसा नगरी २० कोसके अंतरे में वहां है. नपकेशपट्टन और नपकेश वंशकाही नाम लोकोने ओसा नगरी और ओस वंशी ओसवाले रखा है. भेनें कितनेक पुराने पट्टावलि पुस्तकोमें वराित् ७० वर्षे नपकेशे श्रीवीर प्रतिष्टा श्रीरत्नप्रनसूरिने करी और ओसवाल. नी प्रथम तीस रत्नप्रनसूरिने वीरात् ७० वर्षे स्थापन करे ऐसा देखा है. हम हाय करते है, ओसवाल, श्रीमाल, पोमवाल प्रमुख जैनी बनीयोंकी समजको. क्योंकि जिनके मूल वंशके स्थापन करनेवाले चौदह पूर्वधारी श्रीरत्नप्रनसूरिका प्रतिष्टित जिनमंदिर, जिनप्रतिमा आज प्रत्यक्ष योधपूरसें वीश कोशके अंतरे विद्यमान है. संशय होवे तो आंखोसे जाकर देख लो, तिस रत्नप्रनसूरिके धर्मको गमेके संवत १७०ए में निकलें ढुंढकमति और संवत १७१७ में निकले नीपममति तेरापंथीयोंके कहनेसे नवीन कुपंथ धारा है. जीस पंश्रके चलानेवाले महामूर्ख अणपढ थे. इस वास्ते ओसवाल श्रीमालादि बनियोंने श्रीरत्नप्रनसूरिका नपश्या धर्म ऐसे गम दिया. जैसे कोई नोला जीव चिंतामणिरत्नको किसी महा मूर्ख, गमार, नीच जातिके पुरुषके काच कहनेसें Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. २७ फेंक देवे तैसें प्रोसबालादि कितनेक बनीयोका धर्म कुलगुरुप्रोने गेम दिया है. ___ अब तवारीख अर्थात् इतिहास लिखनेवाला लिखता है. जैनमत संवत ६०० में बौह और शंकरकी लमाइमें नुत्पन्न हुआ है तिसकी समजन्नी ठीक नहि, समजके अन्नावसे जोचाहा सो अप्रमाणिक लिख दिया. क्योंकि ब्राह्मण लोकोके मानने मुजव और तवारीख लिखनेवालेकी समज मुजब श्रीकृष्ण वासुदेवको हुए 4000 हजार वर्ष हुए है, तिनके समयमें व्यासजी वैशंपायन, यादवल्क्यादि वेदके संग्रह कर्ता और शुक्ल यजुर्वेद शतपथ ब्राह्मणादि शास्त्रोंके कर्ता दुये है. तिनमें सर्वसें मुख्य व्यास ऋषिनें वेदांत मतके ब्रह्मसूत्र रचे है तिसके दुसरें अध्यायके उसरे पादके तेतीसमें सूत्र में जैनमतकी स्याहाद सप्तनंगीका खंमन लिखा है. सो सूत्र यह है. नैकस्मिन्नसम्भवात् ॥ ३३ ॥ इस सूत्रकी नाष्यमें शंकर स्वामीने सप्तन्नंगीका खंडन लिखा है सो आगे लिखेंगे. जब व्यासजीने जैनमतका खेमन लिखा तब तो व्यासजीके समयमे जैनमत विद्यमान था, तो फिर व्यासस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, शुक्लयजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मणादिकमें जैनमतका नाम न लिखा तथा अन्य वेदोंके बनानेके सममेंनी जैनमत विद्यमान था तोनी जैन मतका कथन न लिखनेसे जैनमत नवीन क्योंकर कह सकते है ? व्यासजीसे पहिले तो चारों वेद नहि थे. ऋषियों पास यज्ञ अर्थात् जीवोंके हवन करनेकी श्रुतियों श्री. तिन हिंसक श्रुतियोंमें अहिंसक जैनधर्मके लिखनेका क्या प्रयोजन या ? कदापि निंदारुप लिखा होगा तो या विध्वंसकारक, राक्षस, दैत्यादि नामोंसें लिखा होगा. इस Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अज्ञानतिमिरनास्कर, व्यासजीके स्तवन करें सूत्रसेतो जैनमत चारों वेदोंका बननेसे पहिला विद्यमान था. ग्रंथकार जिस मतका खंडन करता है तो मत तिसके समयमें प्रबल विद्यमान होता और ग्रंथकारके मतको विरोधी होता तब लिखता है. इस लिखनेसेनी यह सिड होता है कि जैन धर्म सर्व मतोंसे पहिला सच्चा मत है. इस वास्ते जैनमतको जो कोइ नवीन मत कहता है सो बडी नूल खाता है. तथा जैनमतके तीर्थंकरोकी मूर्ति देखनेसेंनी जैनमतका नपदेष्टा सर्वज्ञ, निर्विकार, निर्नयादि गुणो करके संयुक्त सिहोता है, तथा अन्यमतके देवताओकी मूर्ति देखनेसें वे देव असर्वज्ञ कामी, हिंसक, सन्नयादि करके संयुक्त थे ऐसा अनुमानसें सिह होता है. जैसे हम अन्य देवोकी मूर्ति स्त्री और शस्त्र संयुक्त देखते है अथवा लिंग नगमें देखते है तथा जानवर पक्कीके नपर चढा हुआ हाथमें जपमाला, कमंमल, पुस्तक विगेरे रखेला देखते है. श्न चिन्हो द्वारा हम जीस देवकी मूर्ति देखते है, तिस मूर्ति छारा हम तिस देवको पीगन शकते है. प्रथम जो देव स्त्री रखता था तिसका स्त्रीके संगमसे सुख होता था; जितना चिर स्त्रीसें विषय नहि सेवता था तितना काल काम पीमित दुःखी रहता था. इस वास्ते स्त्री रखनेवाला देव दुःखो, कामी, मोही, रागी, आत्मानंद वर्जित, निशूक, पुजलानंदी, ब्रह्मज्ञान वर्जित, शुः स्वरूपका अननिक, अजीवन्मुक्त, सविकारी, स्त्रीके मुखका धुंक चाटके सुख माननेवाला, मांस, रुधिर, नसाजाल, वातपित्त, कफकी ग्रंथिरूप कुचके मर्दन और आलिंगन करके सुख माननेवाला, परवश, इत्यादि दूषण है. स्वस्त्रीके रखनेवालामें इतना दूषण है, जेकर परस्त्री हरण करे अथवा परस्त्रीसें मैथुन सेवे तब तो लुच्चा, चोर, धामी, पारदारिक, माकु, कुव्यसनी, अन्यायी, स्वस्त्रीसें असंतोष, विषयका निक्षाचार, राज्य संबंधी दंम योग्य, अन्याय प्र विषय नहि सब रखनेवाला देव मुखमान वर्जित, शु Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंम १८१ वर्तक, अन्याय शिरोमणि, हीन पुण्यवाला, परस्त्री देखी झुरनेवाला, असमर्थ, इत्यादि अनेक दूषसो वो देव में सिह होता है. तो फिर ऐसे देवको ईश्वर मानना अथवा ईश्वरका अंशावतार मानना, धर्मका उपदेष्टा मानना, तिसकी सेवा, भक्ति, पूजा, ध्यान, जाप, अरू रटने से अपनेकों मुक्त होना मानना, वो महा ज्ञानी जीवोका काम नही है. ऐसे देव, देव नदि थे, परंतु नारीकर्मी जीवोनें पापोदयसे सच्चे देवकी स्पर्धा करके आटोके धोवनके दुध मानके और प्राकके दुधको गोडुग्ध मानके पीया है अर्थात् कुदेवो सच्चा देवका आरोप किया है. जो देव शस्त्र रखते है, तिस्सें यह सिद्ध होता है कि शस्त्र तो शत्रु जयवाला रखते है, इसवास्ते वो देव सजय है, इसका शत्रु नपर द्वेष होनें से हैवी है, शत्रुको विना शस्त्र मार नहि शकता है इस वास्ते असमर्थ है, शत्रुको उत्पन्न करनेसें अज्ञानी है. पूर्व जन्मादिमें पाप करे तिस वास्ते वैरी नृत्पन्न हुए इत्यादि प्र नेक दूषणो शस्त्र रखनेवाला देवमें है, तथा जो सदा स्त्री के साथ विषयासक्त रहते है सो देव सदा कामदेवकी अदिग्ध प्रज्व लित है, तिस देवके नक्तोकों लज्जा नहि आती होवेगी ? जपमाला रखनेवालाजी देव नहि. माला तो वो रखते हैं जिनको जापकी संख्या याद नदि रहती है. भगवान तो सर्वज्ञ है. अथवा माला वो रखते है जिनोनें किसीका जाप करना होवें. भगवान तो किसिका जाप नहि करते है तो फिर मालाके जाप करनेसें देव क्या मागते है. ring अशुचि दूर करने वास्ते है, जगवंतकु प्रशुचि है नहि. पुस्तक वाचनेसें सर्वज्ञ नहि है. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रज्ञानतिमिरजास्कर. शरीर के विभूति लगाने से कृतकृत्य नहि दुआ है. जानवरोकी स्वारि करणेसें जानवरोकों दुःख देता है और असमर्थ है, क्योंकि विना जानवरकी स्वारि प्रकाशमें नहि नम शकता है. पूर्वोक्तदूत प्रतिमा में नदि है. इस वास्ते श्रईत सर्वज्ञ, दयालु, निर्भय, निर्विकारी, रागद्वेष मोहादि कलंक पंकसें रहित था तो तिसकी मूर्तिनी वेसेही चिन्ह पाये जाते है. इस वास्ते लोकोंने स्पर्धा प्रयोग्य पुरुषोंके विषे देवका उपचार करा है. परंतु वे देव नहि. इस वास्ते जैनधर्मही सच्चा और सनातन मोक्ष मार्ग है. जैनमतक जितनें आगम है वे सर्व प्राकृत भाषा में है और इन शब्दो में अनंत अर्थ देनेकी शक्ति है. ॥ राजानो ददते सौख्यं ॥ इस वाक्यके आठ लाख अर्थ तो में करे शकता हुँ, इस वास्ते जैनवाणी बहुत अतिशय संपन्न है. कितनेक झोले जीवोंको ऐसा संशय होवेगा कि दिवाली कल्पादि शास्त्रो में लिखा है कि विक्रमादित्यके संवत १९१४ में कलंकी होवेगा. सो नहि हुआ है, इस वास्ते जैनवाणी में संशय रहता है. इसका उत्तर यह है, प शास्त्रमें नदि दे नव्य जीव ! जिनवासीतो सदा निःकलंक और सत्य है, रंतु समजमें फेर है. क्योंकि विक्रमादित्य के संवत १९१४ में कलंकी राजा होवेगा ऐसा लेख किसी जैनमतके है. दिवाली कल्पादि ग्रंथो में तो श्रीवीरात् संवत लंकीका होना लिखा है. तिस कालको आज वर्ष व्यतीत हो गये है तो फेर इस समय में से दोवे. १७१४ में क दिन तक ६०० कलंकी कहां Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. प्रश्न-श्रीमहावीर स्वामीके पीछे संवत ११४ में कानसा कलकी राजा हुआ है जिसकी बाबत दिवाली कल्पादि ग्रंयोमै कलकीका होना लिखा है ? उत्तर-गुर्जर देश नूपावली ग्रंथमें लिखा है कि विक्रमादित्यके संवत १४४६ में अल्लानदीन खुनी बादशाहका राज्य या तिसके पहिला ओर पीने सहाबुद्दीन खुनी ओर शरकीफिसान दुश्रे है. यह अल्लानदीनादि ऐसे जुल्मी बादशाह दुबे है कि जिनोंने हजारो मंदिर तोडवाये थे. अल्लाउदीन तो ऐसा जुल्मी था कि जिसने अपना किला बनाने वास्ते ऐसा हुकम करा था के निः केवल मंदिर तोमके तिनके मसालेसेंही किल्ला बनाया जावे. तिस अल्लाउदीनने प्रनासपाटनमें राजा कुमारपालका बनाया जैनमंदिर तोमवाके मसजीद बनाई थी. सो मसजीद पाटनमें विद्यमान है. तिस अल्लानदीनके राज्यमें प्रजाको ऐसा दुःख दुआ था कि किसी राजाके राज्यमें ऐसा नहि दुआ होगा. इस वास्ते ये जुल्मी बादशाह मेरी समजमें कलंकी राजा था. इसके जुल्म इतिहास ग्रंथोमें ऐसा लिखे है कि जिनके वांचनेसे आंखोमें तुरत आंसु आ जावे. और जो कलंकीका विशेष वर्णन लिखा है सो समुच्चय है, इस कलंकीके वास्ते नहिं. किंतु सर्व कलंकी, उपकलंकीओ से जो जारी कलंकी होवेगा तिसके वास्ते मालुम होता है. क्योंकि सुदृष्टतरंगिणी नामके ग्रंथमें तथा अन्य ग्रंथोमै कलंकी नपकलंकी बहुत होने लिखे है इस वास्ते पूर्वोक्त जुल्मी बादशाह पूर्वोक्त संवतमें दुआ संनव होता है तिसकोंही कलंकी कहना ठीक है. प्रश्न-सबसे बडा कलंकी कबहोवेगा जिसके विशेषण दीवाली कल्पादि ग्रंथोमें कहा है. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अज्ञानतिमिरनास्कर. उत्तर-महानिशीय सूत्र में गौतम गराधरे पृचा करीके हे नगवन् ! तुमारा शासन किस समयमें अत्यंत तुछ रह जावेगा अर्थात् जैन धर्म बहुत हीण हो जावेगा? तब जगवंतनें कहा, है गौतम ! जब कलंकी राजा होवेमा तव तिलके राज्यमें मेरा शासन बहुत तुब रह जावेगा, और तिस कलंकी राजाके राज्यांतमें श्रीप्रन्न नामा युगप्रधान आचार्य हावेगा तिस आचार्यसें फेर मेरे शासनकी वृद्धि होवेगी. परंतु महानिशीथ सूत्र में संवत् नहि लिखा है इस वास्ते युगप्रधान गंडिका और दुष्यमसंघस्तोत्र यंत्र में लिखा है कि श्रीप्रन्न आचार्य आग्में उदयमें आदि आचार्य होवेगा तिसके समय में कलंकी राजा होवेगा. इस वास्ते दिवाली कपादि ग्रंथ देखके व्यामोह न होना चाहिये. जो जो राजा नारी पापी, धर्मका विरोधी, प्रजाका अहितकारी होवेगा तिस तिसका नाम कलंकी जाननाकिसीका नाम अर्धकलंकी, नपकलंकी जानना. इस वास्ते जा. नना के कलंकी राजा बहुत होवेगा. इसकी साथ तेवीस नदयका यंत्र दिया जाता है, तिसमें श्रीप्रन आचार्य मालुम हो जावेगा. दयानंद सरस्वतोने लिखा है कि जैनाचार्येने अपना मत गुप्त रखने वास्ते धूर्तताले वामीयोकी तर संकेत करी है. उत्तर इसका यह है. दयानंद सरस्वतीने प्राकृतका व्याकरण नहि पढा है इस वास्ते दयानंद सरस्वतिकी बुहिमें नासन नहि होता है. कबी ननोने प्राकृत व्याकरणका अन्यास करा होता तो ऐसा कवी नहि लिखता. दयानंदके जो वेद है तिसकी श्रुतियां ऐसी रीतिसें बनाई है कि जिसमें बहुत अक्षर निरर्थक है, और वेदोकी संस्कृतनी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम.. १७५ संस्कृतके कायदासे रहित है इस वास्ते जंगली ब्राह्मण अर्थात् ऋषियोकी बनाइ दुइ है. इसी वास्ते बझे विचरण मोक्षमूलर साहेब लिखते है कि वेद अज्ञानियोके बनाये हुए है. और वे. दामें संकेतनी ऐसे गुप्त करे है, कि दुसरे मतवाले उन शब्दोंके अर्थ न समजे जैसे वाजपेय, सौत्रामणि, गोसव, मधुपर्क - त्यादि. जो कलंक दयानंद जैनशास्त्रांको देता है सो सर्व वेदो नपर पमता है. और जैनसूत्र निःकलंक है क्योंकि प्राकृत व्याकरण विद्यमान है. प्राकृत नाषा सर्व पंमिताको सम्मत श्री. नहि तो पाणिनि, वररुचि, चंड, नंद, हेमचंद प्रमुख काहको प्राकृत व्या: करण बनाते तथा वेद वेदांग शिक्षामें ऐसा क्यों लिखते. त्रिषष्टिश्चतुः षष्ठिर्वा वर्णाः शंभुपतेः मताः पाकृते संस्कृते चापि, स्वयंप्रोक्ताः स्वयंभुवा ॥१॥ अर्थ-वर्ण विषष्टि ६३ और चतुःषष्टि ६५ है, ऐसा शंनुपतिका मत है. स्वयंनूने प्राकृत और संस्कृत मे ते वर्ण मान लीया है ॥ १ ॥ परंतु दयानंद अपनीही गोदडी में सोना जानता है. दयानंद अन्य मतोका कुच्छन्नी जानाकर नहि, नहि तो अपने बनाये सस्यार्थप्रकाशमें जैनमतकी बाबत स्वकपोलकल्पित काहेको नतपटंग लिखता. यह दयानंद वेदोका विहुदातन छिपाने वास्ते स्वकपोलकल्पित वेदोके अर्थ नविन बनाके लोगोंसें लगता फिरता है, परंतु यह काठको हामी कव तक चठगी ? इस वास्ते जैनशास्त्र, संस्कृत, प्राकृत दोनोही व्याकरणसे सिह होनेसे प्रमाणिक है. कोई कहता है कि कुच्छक बोह मतकी बांता और कुच्छक वैदिक मतकी बांता लेकर जैनमत बनाया है. यहनी लिखना .29 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अज्ञानतिमिरजास्कर. मतमें है तो फिर ठहर सकता है ? परंतु समु अक्कलके अजीता है, क्योंकि जैन मतमें जो जो कथन सो सो तो बौद्ध मतमें है और नतो वैदिक जैन मत पूर्वोक्त मतों की बातोंसें वना क्योंकर क्योंकि सर्व नदीयां समुझमेंतो प्रवेश करती है, किसीजी एक नदी में नहि समा सकता है. इसी तरें जैनमत स्याद्वादरूप समुइ है. तिसमें तो सर्व मतां नदीयां समान स मा सकते है परंतु जैनमत समुह समान किसीजी एक मतमें नहि समा शकता है, जैन मतकीही बातां लेकर सर्व मत बने है. मूर्तिपूजाका मंडन. कितनेक यही कहते है कि जैन मतमें मूर्त्तिपूजनका कथन है और मूर्त्ति पूजनका आज काल बहुत बुद्धिमान घुया करते है. इस वास्ते जैन मत वा नहि. इसका यह है कि मूर्त्तिके विनामाने किसनी बुद्धिमानका काम नहि चलता है. प्रथम तो बुद्धिमान सर्व मुलकोके अरु ग्राम नदी, पर्वतादिकके नक्शे बनाते है. और तिन नकशा द्वारा असल वस्तुका स्वरू पका निश्चय करता है. हिंदुयोंके मतमें तो अपने अपने इष्ट देवकी मूर्त्ति पूजन प्रसिद्ध है. और ईसाई मतवाले अपनी बापी दुइ कितनीक पुस्तकों के उपर इसाकी मूर्ति, जैसा शूलि देनेकुं ले चलेका रूप था तैसा बापते है जिससे देखने वालेको इसामसीही वस्था याद आवे तथा रोमनकेथोलिक पादरी इसाकी मूर्ति मानते है. और मूर्ति न माननेवालाको नवीन मतवाला कहते है. तथा मुसलमानों में जो सिया फिरकेके मुसलमान है वे मोहरम में ताबुत बनाते है और दुलकुल घोडा निकालते है अपने इमामोकी लाश बनाते है यह सर्व मूर्त्ति पुजनमें Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम.. १७ सामिल है, तथा सर्व मुसलमान मक्केमें हज करनेंकोजाते है. मक्कमें श्याम पथ्यरके वोसे लेते है. मदीनेमें जाते है, यह नी सर्व मूर्ति पूजनमें दाखिल है. तथा जो पुस्तक मतधारीप्रोकी है वे सर्व परमेश्वरकी बनाई कहते है; तबतो जो पुस्तक पत्रोंमें लिखें जाते है वे सर्व मूर्त्तिकें माफक है. तथा सुंदर कामिनीके अद्भूत रूपकी मूर्ति देखनेसे जैसे कामीकों काम नत्पन्न होता है तैसा वीतरागकी मूर्ति देखके नक्त जनांको नक्तिराग नुत्पन्न होता है. तश्रा जो कहता है कि नूतिं हाथोकी बना है तब तो पुस्तकनी दायोके बनाये है तिनकोंनी न वांचना चाहिये. पूर्वपद-पुस्तक वांचनेसेतो ज्ञान होता है. नत्तरपद-वीतरागकी प्रतिमाको देखनेसेनी वीतरागकी अवस्था याद आनेसं वैराग्य और नक्ति नुत्पन्न होती है. प्रश्न-प्रतिमाको चोर चुरा ले जाते है. मूसे मूत जाते है, म्लेंच्छ खमन कर देते है, तो प्रतिमा हमको क्योंकर तारेगी.. नत्तर-पुस्तकन्नी पूर्वोक्त दूषणों संयुक्त होनेसे वाचने वालेको कुच्छन्नी नपकारक न होने चाहिये. जैसे प्रतिमा पाषाणादिककी है तैसे पुस्तकन्नी स्याही और सणिके है. जैसे प्रतिमा विकती है तैसे पुस्तकत्नी विकते है. जैसे प्रतिमा तालेके अंदर दीनी जाति है तैसे पुस्तकनी तालेके दीये जाते है. इस वास्ते जो पुरुष प्रतिमाकी निंदा करते है. और पुस्तकांको परमेश्वरकी वाणी मानते है, और तिनको वांचते है, और आदर करते है वे निर्विवेकी है. और जो दयानंद प्रतिमाकी निंदा करता है. सोनी तैसाही समजना क्योंकि जैनाचार्य, बौध, गौतम, कपिल पतंजलि, कणाद, व्यास प्रमुख महातार्किकोने मूर्तिपूजनका नि: Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अज्ञानतिमिरनास्कर. षेध कहीं नहि लिखा है. तथा नानकजी, कवीर, दाङ, गरी. बदास, ढुंढीये, ब्रह्मसमाजी प्रमुख जो प्रतिमाकी निंदा करते है सो नवीन, और अननिझ होनेसे हिंओंके मतसें विरु६ है. क्योंकि प्रतिमाकी निंदा हिंओंके प्राचीन किसी शास्त्रमें नहि लिखी है. तथा जो कहते है कि ईश्वर निरंजन, निर्विकारी, अरूपी, अक्रिय, जगतका कर्ता, और सर्वव्यापक है तिस ईश्वरकी मूर्ति बनही नाई सकती है, मूर्ति तो देहधारकी दो शकती है, - उत्तर-पूर्वोक्त जगतका कर्ता और सर्वव्यापी इन दोनों विशेषणोवाला ईश्वर तो किसी प्रमाणसेंनी सिह नहि होता है, और पूर्वोक्त विशेषणोवाला ईश्वर नपदेशकन्नी सिह नहि होश कता है तिसका यह प्रमाण है. धर्माधर्मों विना नांगं विनांगेन मुखं कुतः । मुखाद्विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथं ॥१॥ अदेहस्य जगत्सर्गे प्रत्तिरपि नोचिता। न च प्रयोजनं किंचित् स्वातंत्र्यान्न पराज्ञया ॥२॥ क्रीडया चे प्रवर्तेत रागवान्स्यात् कुमारवत् । कृपयाथ सृजेत्तर्हि सुख्येव सकलं सृजेत् ॥ ३ ॥ दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिकलेशविव्हलं । जनं तु सृजतस्तस्य कृपालोः का कृपालुता ॥४॥ कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि न स्वतंत्रोस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किमनन शिखंडिना ॥५॥ अयं स्वभावतो दृत्तिरवितर्कमिहेशितुः । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ‍ द्वितीयखंग. परीक्षकाणां तष परीक्षाक्षेपडिंडिमः ॥ ६ ॥ सर्वभावषु कर्तृत्वं ज्ञातृत्वं यदि सम्मतं ॥ मतं नः संति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभूतोपि च ॥ ७ ॥ सष्टिवादकुवाकमुन्मुत्चैत्य प्रमाणकं ॥ त्वच्छासने रमंते ते येषां नाथ प्रसीदसि ॥ ८ ॥ इति वीतरागस्तोत्रे जगत्कर्त्तृनिरासस्तवस्यः सप्तमः प्रकाशः अर्थः- धर्म, धर्म अर्थात् पुण्य, पाप विना अंग, शरीर होता नहि है, धर्मसें रमणीक और अधर्मसें रमणीक शरीर होता है, परंतु धर्म धर्म विना शरीर होतादी नदी है, और शरीर विना मुख कैसे होवे, और मुख विना कथन करना नहि होता है. इस देतुसे, हे नाथ ! अवर जो ईश्वर शरीर विना है वो कैसे शास्तारः अर्थात् शिक्षाका दाता हो शक्ता है. १ हे नाथ प्रदेहस्य दरहितको जगततकी सृष्टिमें अर्थात् जगतकी रचनामें प्रवृत्त होनाजी उचित नहि है तथा दे नाथ ! प्रददस्य, देद रहितको जयतकी रचनायें स्वतंत्रता और परतंत्रता प्रवर्त्तनेका प्रयोजन नहि है, क्योंकि स्वतंत्रता से तो ईश्वरकी जगत रचनेंमें तब प्रवृति होवे जब ईश्वरको किसी वस्तुकी ईच्छा होवे क्योंकि ई वाला है सो ईश्वर नहि है, और परतंत्रतासें तब प्रवृत्ति होवे जब ईश्वर किसीके प्राधीन न होवे. इस वास्ते दोन प्रकारसें प्रवृत्ति नही. २ जेकर देह रहित ईश्वर क्रीमाके वास्ते जगतको रचता है तब तो राजकुमारवत् सरागी हुआ, और ईश्वरपयाही जाता रहा; जे कर दया करके जगतकी रचना करता है तब तो सुखीही सर्व जीव रचनें चाहिए, क्योंकि कीसीको सुखी और किसी को दुःखी रचेगा तव तो विषमदृष्टि होनेर्स ईश्वरत्वसिंह नहिं होता है. ३ जेकर देह रहित ईश्वर दुःखी जनांको र Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अज्ञानतिमिरजास्कर.. → चता है तब तो ईश्वरको दया नदि, क्योंकि जब ईश्वर दुःख दुर्गति, योनि, जन्मादि क्लेश करके व्याकुल जीवांको रचता हुआ तब ईश्वदमें कौनसी कृपालुता है. 8 जेकर पूर्वोक्त ईश्वर कमीपे कासे अर्थात् जैसे जैसे शुभाशुभ कर्म जीव करते हैं तिमको तैसा तैसा सुखी दुःखी रचता है तब तो ईश्वर अस्मादिकों की तरें स्वतंत्र न हुआ, किंतु परतंत्र हुआ अर्थात् कर्माके आधीन जैसे हम वर्तते तैसे ईश्वरजी दुआ, जब कर्मोही जगतकी विचित्र रचना है तव तो जगतका कर्ता नपुंसक ईश्वर कादेको मानना, नसके मानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहि होता है ५ जेकर ईश्वरका स्वजावही ऐसे जगत रचनेका है, तब तो यह कहना परीक्षककी डमीका नाश करणा है अर्थात् परीक्षकोंकी बुद्धिका नाश करणा है, क्योंकि स्वजाव पक्षको लेकर महा मूढनी जय पताका ले सकता है. ६ जेकर सर्व पदार्थोके जानवेका नाम कत्व है तब तो देह रहित सिद्ध और देह सहित केवली कर्त्ता सिद्ध हुए तब तो हमाराही मत सिद्ध हुआ. व हे नाथ ! वे पुरूप तेरे शासन में रति करते है क्या करके, पूर्वोक्त श्रप्रमाणिक अर्थात् प्रत्यकादि प्रमाण रहित सृष्टिवाद कुदेवाक बोडके अर्थात् खोटी अभिलाषा बोके कब बोते है जब तुं तुष्टमान होता है इति सप्तम प्रकाशका अर्थ. इस वास्ते देहधारी, सर्वज्ञ, वीतराग प्रतिदी की मूर्ति मानने योग्य है, अन्य देवोंकी मानने योग्य नहि है क्योंकि अन्य देara परमेश्वरver किसी प्रमाणसे सिद्ध नहि होता है. जो देव कामी, क्रोधी प्रज्ञानी, मत्सरी, स्त्रीका अभिलाषी, चोर, परस्त्री गमन करनार, शस्त्रधारी, माला जपनेवाला, शरीरको स्म विभूति लगानेवाला, लोजी, मानी, नाचनेवाला, हिंसाका नप Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ हितीयखं. देशक, दुनियाको करामत देखानेवाला, जगतमें अपनी बढाइका इच्छक इत्यादि अवगुण करके संयुक्त है वो परमेश्वर सिह नहि होता है. अहंत परमेश्वर वो अवगुणसे रहित है इस वास्ते इसकी मूतिनी शांतरूप, ध्यानारूढ, निर्विकारी होनी चाहिये, जिसके दैखनेसें वीतरागकी अवस्था याद आवे. ऐसी मूर्तितो जैन मतमें ही है, अन्यमतमें नहि क्योंकि अन्यमतोमें पूर्वोक्त दूषण रहित को देवत्नी नहि दुआ है. __ जैनमतमें अगरह दूषण जिसमें नहि होवे तिसको अर्हत परमेश्वर मानते है, वे दूषण यह है. अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः। हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोकएव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा।। रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्ठादशाप्यमी ॥२॥ अर्थ-दानगत, अंतराय, लालगत अंतराय, वीर्यगत अंतराय, नोगगत अंतराय, नपन्नोगगत अंतराय यह पांचतो नगवंतके विघ्न नहि है, नगवंत तीन लोककी लक्ष्मी तृणाग्र मात्रसे दान करे तो को रोकनेवाला नदि; नगर्वतका परश्रकी चारवर्ग अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाका लान तथा जगवंतका समस्त साधन और अनंत चतुष्टयकी प्राप्तिमें कोई विघ्न करता नहि तथा लानातरायके वयसे अचिंत्य माहात्म्य, विनूति प्रगट हु है तिससे जगवंतके लानमें कोई विघ्न करता नहि, नगवंत अनंत शक्ति सें, चाहे तो तीन लोकको स्वाधीन करे लेवे तिसमें को रोक शकता नहि है; नगवंत अनंत आत्मिक सुख नोगते है तथा नुपन्नोग अनंत प्रकारका चाहे तो कोई विघ्न करता नदि; नगवंत Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अज्ञानतिमिरनास्कर को दांसीनी नदि आती है क्योंकि हांसी तीन निमित्तोसे नत्पन होती है, आश्चर्य वातके सुननेसें, आश्चर्य वस्तुके देखने से, आश्चर्य वस्तुकी स्मृति होनेसें. अहंत नगवंतके पूर्वोक्त तीनोही आश्चर्य नहि है क्योंकि नगवंत तो सदा सर्वज्ञ है; पदार्थोपर प्रीति करणी सो रति; पदार्थोपर जो अप्रीति करणी सो अर. ति; नय; जुगुप्सा अर्थात् घृणा; शोक, चित्तका वैधूर्यपणा; का. म, मन्मथ; मिथ्यात्वदर्शन मोद; अज्ञान, मूढपणा; निश, सोना; अविरति, अप्रत्याख्यान; राग, सुखानिज्ञ, सुखकी अनिलाषा, पूर्व सुखकी स्मृति. सुखमें और शस्त्रके साधनमें गृपिणा सो राग, द्वेष, उःखानि खानुस्मृति पूर्व उःखमें और दुःखके साधनोमें क्रोध सो क्षेष, ये अगरह दूषण जिसमें न होवे सोही अईत परमेश्वर है. जब अहतका निर्वाण होता है तब शुरू निरंजन, अविकारी अरूपी, सच्चिदानंद, इनस्वरूपी, अलख, अगोचर, अजर, अज, अमर, ईश, शिवशंकर, शुभ, बुझ, सिह, परमात्मादि नामोसे कहा जाता है; परंतु अज्ञानोदयसे मतजंगी ओंने अनादि व्यत्व शक्तिका ईश्वरका गुणोपचार करके ईश्वरको जगतका कर्ता ठहराया है, इसमें सिह परमात्मामें अनेक टूषणो नत्पन्न होते है सो तो मतजंगी नहि विचारते है. परंतु इस जगत ईश्वर विना कदापि नहि हो सकता है इस चिंतामही डूब मरे और मूब जाते है; और जो जो मतजंगीओंने अपने मतमें आदि उपदेशक, देहधारी ईश्वर, शिव, राम, कृष्ण, बह्मा, ईशादि ठहराये है वे अगरही दूषणोस रहित नहि थे, क्यों कि शिवकी बाबत पुराणोमें जो कथन लिखा है तिससे एसा मालुम होता है कि शिवजी कामीनी थे, वेश्या वा परस्त्री गमनन्नी करते थे, और राग द्वेषीनी थे, और क्रोधीनी थे, और अज्ञानीनी श्रे, इत्यादि अनेक दूषण संयुक्त थे, इस वास्ते अस्त Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखमः परमेश्वर नहि था, किंतु लोकने स्वच्छंदतासें ईश्वर कल्पन कर गेडा है. तथा श्रीरामचंजी यद्यपि परस्त्रीगामी नहि था, और अनेक शुनगुणां करी अलंकृत था. परंतु अहंत परमेश्वर नहि था, क्योंकि नार्या सीतासें नाग करता था, इस वास्ते कामसें रहित नहि पा; तथा संग्रामादि करने रागद्वेष रहितनी नहि था; राजा होनेसे अविरतिनी था; शोक, जय, रति, अरति, जुगुप्सा, हास्यादि करकेन्नी संयुक्त था; इस वास्ते अहंत परमेश्वर नहि था; यद्यपि दीदा लिया पीने श्रीरामचंजी सामान्य केवली हो गये थे परंतु तीर्थंकर नहि थे. इसी तरे श्रीकृष्णजीनी जान ले. ने. तथा इशामसीहनी पूर्वोक्त अगरह दूषणोसे रहित नहिं था, क्योंकि रंजीलमें लिखा है कि एक दिन इसामसीहको नूख लगी तब गुलरके फल खानेको गया. जब गूलरके पास गये तब गुलरमै फल एकत्नी न मिला, तब श्खामसीहनें गुलरको शाप दिया, जिस्से गुलर मूक गया. इस लिखनेसें यह मालुम होता है कि यसामसीहको ज्ञान नहि था, नहितो फल रहित गुलरके पास फल खानेकु न जाते, तथा गुलरको शाप देनेसे वेपन्नी सिह दुआ, तथा जगतमें करामत दिखलाके लोगोका अपने मतमें लाता था, जेकर समर्थ होता तो अपनी शक्तिसें लोकोका अंतःकरण शुइ नहि कर शकता था ? तथा नक्तजनोके पापके बदले शूली चढा. क्या विना शूली चढे नक्तोका पाप नहि दूर कर शकता था ? तथा पाप करा अन्यने और फल नोग्या अन्यनें यह असंन्नव है; तथा जिलमें कहता है, जो पाप करते है तिसको में नसकी सात पेढी तक उस पापका फल देता हूं, यह अन्याय है क्योंकि करा अन्यने और फल अन्यको देना, तथा इसामसीह चौद रहा कि सर्व लोक मेरे पर इमान लावे परंतु लोक लाय नहि. इससेंनी अज्ञान, असामर्थ्यता सिह होती या शूजी चले और फल लोग्न है ति 30 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {យម अज्ञानतिमिरनास्कर. है तथा इसामसीह चलनेसे थक गयानी लिखा है इस वास्ते वीयांतराय दूषणनी था. तथा दयानंद सरस्वति जो कहता है कि मनुष्य सर्वज्ञ कदापि नहि हो सकता है, इस वास्ते ईश्वरने अग्नि, वायु, सूर्य, अंगीरस ऋषियोंके मुखसे वेद कथन करवाये; यह कहना महा जूठ है, अप्रमाणिक होनेसें; तथा क्या जानने नन ऋषियोने स्वकपोलकल्पित गप्पेही मारी होवे, इस वातका गाह कौन है कि ईश्वरने ननसे कयन करवाया. क्या ईश्वर बने बनाये, लिखे लिखाये वेद ऋषियोको नहि दे शक्ता था ? हम नपर प्रमाण लिखे आये है कि देह विना सर्वव्यापी ईश्वर अन्यको प्रेरणादि कुच्छ नहि कर शक्ता है तथा अनुमान प्रमाणसेंनी सिह होता है कि देह रहित ईश्वर कर्ता नहि अक्रियत्वात्-अक्रिय होनेस, आकाशवत्. इस वास्ते अठारह दूषण रहित देहवालाही उपदेशक हो शक्ता है, सोही अहंत परमेश्वर है. . दयानंद सरस्वति जो प्रतिमाका पूजना निषेध करता है सोनी अज्ञानोदयसे क्योंकि प्रथम खंममें सप्रमाण लिख आये है कि वेद ईश्वरके कथन कर हुए नहि तब तो वेदोमें मूर्ति पूजन हुआ तो क्या दुआ, और न दुआ तोनी क्या हुआ. जब वेदही ईश्वरोक्त नहि तब दयानंदके गल्ल बजानेसे क्या है. इस वास्ते अहंत परमेश्वरही, सर्वज्ञ और सच्चे धर्मका नुपदेशक है, अन्य नहि है; जेकर कोई ऐसा कहे कि जैनीओने अच्छी अच्छी बाता अपने पुस्तकोमै अपने अर्हतोके वास्ते लिखी लिनी है तो हम कहते है कि अन्य मतांवालाको किसने रोका है जो तुम अपने अवतारो वास्ते अच्छी बाता मत लिखो; परंतु जैसा जिसका चाल चलन था तैसाही लिखनेवालोने लिखा है, क्योंकि विक्रमादित्यका बमा नाइ नर्तृहरि अपना बनाया शृंगार शतकमें लिखता है कि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. रएए शंभुस्वयंभुहरयो हरिणेक्षणानां येनाक्रियंत सततं गृहकर्मदासाः । वाचामगोचरचीरत्रविचित्रताय तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय ॥ १॥ सारांश यह है कि ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर इन तीनों कामने स्त्रीयोंका घरका दास बनवाया. और अहंत परमेश्वर गुगवान श्रे सो वैसेहि लिखनेमें आये है, अरु अन्य देव विषयी होनेसे वैसेहि लिखनेमें आते है. जैनमतमें दर्शावेल आयुष्य और देह प्रमाणका प्रतिपादन. कितनेक यह जी कहता है कि जैन मतमें जॉ तीर्थंकरोकी आयु और अवगाहना अर्थात् शरीरका चापणा और परस्पर ती थंकरोकी अंतरके असंख्य क्रोमो, लाखो वर्ष प्रमुख जो लिखे है सो प्रतीतिके लायक नही है क्योंकि इतनी आयु, और इतनी नंची देह, और इतना काल संनव नही होता है. इतिहासतिमिरनाशकका कर्त्तानी इस वातकों मश्करीकी तौरपर लिखता है, परंतु जब यह संसार अनादि सिःह है तो इसमें पूर्वोक्त तीनो वातोका होना मुश्कल नहि है. और जो वेदों में लिखा है कि में सो वर्षतक जीशकुं और कठ नपनिशदमें यम नचिकेताको कहता है कि बेटे और पोते. मांग जो सौ सौवर्ष जिवना.इससे तो जोमोद मुलर साहिबनें लिखा है कि वेदोंको बने श्ए सौ वा ३१०० सौ वर्ष हुए है सो सिाह होता है क्योंकि श्ए० वा. ३१०० वर्ष पर वेदोंकी नत्पति समयमें सौ वर्षकही आयु श्री. सो वैसाही प्रार्थना करी. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. तौरत ग्रंथमें नूह प्रमुखकी ६०० सौ, 300 सौ, ए00 सौ वर्षतककी आयु लिखी है इस वास्ते क्या वेदाहीका कहना सत्य, अन्यथा नही ? इतिहासतिमिरनाशकका लिखनेवाला वेद स्मृति पुराणादिकके अनुसारही बहुत वातो लिखता है, क्या अन्य पुस्तक कोई नही जिसका प्रमाण लिखा जाय, तथा अंग्रेज जो पुरानी बातका पत्ता लिखता है वो ६००० हजार वर्ष अंदरहीका लि. खता है, इसामसीहका कहना सत्य करता है. कितनेक कहते है कि ६००० हजार वर्षके पहिलेकी को इमारत वा सिक्का नहि मिलता है इस वास्ते ६००० हजार वर्षके अंदरही सर्व वस्तुका बनेका अनुमान करता है, तिसका ननर यह है कि इमारततो इतने वर्षतक रह नही शकती हे और पुराने सिक्के सर्व, श्री पार्श्वनाथके जन्म कल्याणकमें धरतीसें निकालके पार्श्वनाथके घरमें इं और देवताओने माल देनेसे पुराना सिका नहि मिलाता है, यह लिखना जैनमतानुसार है. और अनादि कालकी सर्व खबर और यथार्थ स्वरूप इस कालका अल्प बुदिवान इतिहास लिखनेवाले नहि कह शकते है तो फिर इनके लिखनेसे बहुत कालकी प्राचीन बातां जैनमतकी गलित नहि हो शक्ती है; और जो इतिहासतिमिरनाशकवाला लिखता है कि इतना बडा घामा ओर स्त्री कहां मिली होगी तो हम पुछते है कि क्या घोमा, स्त्री बमे होनेकी नास्ति है, यह तो प्रसिद्ध है कि जैसा पुरुष बना होता है तैसी स्त्रीनी बझी होती हे. - और जो इतिहासवालेको यह फिकर दुआ कि धरति थोडी और वस्ति बहुत सोनी अक्कलकी अजीर्णता है क्योंकि इस पुनिया नपर अनंत काल वित्या है क्या जाने समुश्का कहांसें प्रा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. १ ना दुआ है और कहां कहां जलने जमील रोकी है. जैनमतके शास्त्र में लिखा है कि आगे इस समुश्का पानी इहां नही था, महासागरमेंसे सगर चक्रवर्ती लाया, अंग्रेजोने इस समुश्का दविणादि किनारा नहि पाया है, और जो लूगोलादि कटपन करा है सोनी अपनी अक्कलकी अधिकारतार्से, परंतु परोक्ष वातो इनकी अकलसें रद्द नहि दोती है, और कालदोषसें जैन मतके सर्व शास्त्र न रहने से और यथार्थ अर्थ बतानेवाले आचार्यके अन्नावसे जैन शास्त्र जूळे नहि हो सक्ते है. जैनशास्त्रका उपदेष्टा अगरह दूषण रहित था इस वास्ते जैन मतके शास्त्र सच्चे है तथा जैन मतमें जैसा त्याग, वैराग्य और संयमकी बारीकी और बं. दोबस्त है और जिस जिस अपेक्षासें जो जो कथन करा है सो सो वाचनेवालेका चित्तको चमत्कार उत्पन्न करता है. क्या वेद ओर क्या अन्य शास्त्र, सर्व जैन मतके शास्त्र आगे निर्मात्य लगता है, यह मेरा कहना तब सत्य मालुम होवेगा जब जैनमतका शास्त्र परीक्षा करनेवाला पढ़ेगा. इतिहासतिमिरनाशकका लखनेवाला लिखता है कि जैन और बौः एक मत है, सो ननकी बमी नूल है क्योंकि जैन और बौ६ मतमे इतना अंतर है. कि जैसा रात और दिनमें है. जेकर इतिहासतिमिरनाशकके लिखनेवाला जैन और बौ६ मतका तत्वको जानता तो ऐसा कदापि न लिखता, आजसे १२ वर्ष पहिला महावीर नगवंतका पावापुरीमें निर्वाण हुआ, जब श्रीमहावीर विद्यमान थे तब बौः मतका शाक्यसिंह गौतम नामका को गुरु नहि बा; निःकेवल इतिहास और तवारीख लिखने वालोंने महावीर लगवंतकाही शाक्यसिंह गौतम करके लिखा है. इतिहास तिमिरनाशकका लिखनेवाला शाक्यमुनिकी स्त्रीका नाम यशोधरा लिखता है. श्रीमहावीरके गृहस्थवासकी स्त्री Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខុសច अज्ञानतिमिरनास्कर. का नाम जैनमतके शास्त्रमें यशोदा लिखता है यही मिलता है परंतु ललित विस्तरा नामके बौ६ मतके शास्त्र में शाक्यमुनिकी स्त्रीका नाम गोपा लिखा है, इस वास्ते लोकोने श्रीमहावीर स्वामिकोही शाक्यमुनिके नामसें लिखा है. नगवंतश्री महावीर स्वामिको केवल कान हुआ जब १४ निका चौहद वर्ष हुए तब नगवानका शिष्य जमालि स्वरूप.. नामा प्रथम निन्दव दुआ, निन्दव नसको कहते है जो नगवंतके कहे ज्ञानमेंसें एक वा दो वचन न श्रहे. इस जगालिने नगवंतका एक वचन नहि माना. नगवंततो निश्चय मतसे क्रिया काल-और निष्टाकाल अर्थात् क्रिया और तिस क्रि यासे नुत्पन्न हुआ कार्य एकही समयमें मानना कहते थै, औरजमालोने व्यवहार नयके मतको मानके क्रिया और कार्य निन निन्न कालने मानके पूर्वोक्त श्रीमहावीरके वचनको मिथ्या ठहराये. जमालीने अपना मत श्रावस्ती नगरीमं निकाला, परंतु जमालीका मत जमालीके साथही नष्ट हो गया, जमालीके मरां पीने इस मतवाला कोइ नहि रहा. इति प्रश्रमो निन्दवः. . श्रीमहावीरको केवलझान हुआ जब सोलह १६ वर्ष दुए तब राजगृह नगरमें तिष्यगुप्त नामा दुसरा निन्दव हुआ, सो वसु आचार्यका शिष्य था. तिसको आत्मप्रवाद पूर्वक आलावा पढते हुएको यह श्रान दुआ जो आत्माका एक अंतका प्रदेश है. सोइ जीव है. तब तो गुरु प्रमुख बहुत बहुश्रुतोनें इनको समजाया परंतु हट नही गेमा. जब तिष्यगुप्तको अमलकल्पा नगरीके मिन्नश्री श्रावकने समजाया तव हठ गेड दीया. इसका पंयनी नहि चला. इति छितीय निन्दवः, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. १ श्रीमहावीरके निर्वाण पीछे जव १४ वर्ष गये तब आषाढ आचार्यके शिष्य तीसरे निन्दव हुए. आर्याषाढ काल करे देवता हो कर फेर तत्काल अपने शरीरमें प्रवेश करके अपने शिष्योको पढाता रहा. जब पढना पुरा हुआ तव अपना स्वरूप कह कर शरीरको गेडके देवलोक चला गया. तव शिष्याने परस्पर वंदना करनी गेम दीनी; नसका संशय हो गया, क्या जाने साधु साधु है कि मृतके साधुके शरीरमें देवता प्रवेश करके साधु बन रहे है, आर्याषाढ आचार्यवत्. इस वास्ते इनको अयुक्तवादी निन्दव नाम पड़ा, जब राजगृहमें आये तब मौर्यवंशी बलन्न राजा श्रावकने समजाए तब हठ गेड दीप्रा. श्नकानी पंथ नदि चला इति तृतीयो निन्हवः. श्री महावीरके निर्वाण दुए जब २२ वर्ष हुए तब समुच्चेदक वादी अर्थात् कणिकवादी अश्वामित्र नामा मिथिलानगरीमें चौथा निन्हव हुआ. इसको राजगृहमें महेसूल लेनेवाले श्रावकोने समजाया. परंतु इसका मत बौधोनें स्वीकार किया. इस चास्ते बौधोमें योगाचार मत कणिकवादी है परंतु इस अश्वमित्रसे मत गेड दीआ. इति चतुर्थो निन्हवः. श्रीमहावीरके निर्वाणको जब २२७ वर्ष हुए तब दो क्रिया वेदनेमें एक साथ नपयोग माननेवाला गंगदत्त नामा पांचमा निन्हव हुआ. महागिरि आचार्यके धनदेव नामा शिष्यका वो शिष्य था. तिसके शिरमें टढरी (ताल) श्री. आश्विनी मासमें नदी नतरतेके शिरमें सूर्यकी धूप लगी और पगोमें ठंमा जल लगा तब कहने लगा कि मेरा एक समयमें दोनुं जगे नपयोग है. इस वास्ते में एक समयमें दो क्रियाका मत स्थापन करने लगा, गुरुका समजाया न समजा. फिरता हुआ राजगृह नगरमें मणिनाग यके मंदिरमें आया. तिहां अपना मत लोगोके आगे कहने लगा, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ अज्ञानतिमिरास्कर. तब मणिनाग यकने कहा कि भगवंत श्री महावीरनें इसीनें जपर एक समय में एक क्रिया वेदनेका एक उपयोग कहा था, तुं क्या उनसेंनी अधिक ज्ञानी है ? व बोम दे नहि तो मार मालुगा. तब करके लिये और गुरुओके समजानेर्स मतका व छो दिया. इति पांचमो निन्दवः. श्री महावीरके निर्वाण पीछे जब ए४४ वर्ष गये तब रोहगुप्त नामा बा निन्दव हुआ. श्रीगुप्ताचार्यके शिष्य रोहगुप्तनें अंतर जीका नगरी में बलश्री राजाकी सनामें पोटशाल परिव्राजकको जितने वास्ते जीव, अजीव, नोजीव, ये तीन राशी प्ररूपी परिब्राजकको जिता, जब गुरु पास आया तब गुरुने कहा, तीसरी रासी " नोजीव ” नहि. तुं राजाकी सजामें फिर जाकर कह दे "नोजीव " है. मैंने जूठ तो नहि कहा है ? तत्र गुरुने राजाकी के " नोजीव, नहि. तब रोहगुप्त अभिमानसें कहने लगा कि सनामे रोहगुप्तको जूता उदराया. परंतु श्रभिमानसें रोहगुप्तनें अपना मत बोडा नहि. तब गुरूनें उसकों संघ बाहिर किया. तब तिस रोगुप्तनें वैशेषिक मत चलाया, जो कि ब्राह्मण लोगोमें नवीन न्याय मत करके प्रसीद है, यह नहि समजा. इति षष्टो निन्दवः, श्री महावीरके निर्वाण पीठै जब ५८५ वर्ष गये तब गोष्ठमादिल नामा सातमा निन्दव हुआ. इसमें दो बातां अभिमानसें नहि मानी. एक तो जीवके कर्म आत्माके उपरलेही प्रदेशोके साथ बंध होते है, और दुसरा, प्रत्याख्यान में कालकी मर्यादा नहि करनी. यह नहि समजा. इति सप्तमो निन्दवः इन सातोका विशेष स्वरूप देखना होवे तो विशेषावश्यककी टीका देख लेनी . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखर. २०१ श्री महावीरके निर्वाण पीने जब ६०ए वर्ष गये तब आठमा महानिन्दव, महाविसंवादी शिवनूति बोटिक हुआ. तिसकी नत्पत्ति ऐसी है. रणवीरपुर नगरके राजाका शिवनूति नामा बडा योक्षसेवक था. राजाको बमा वल्लन था. एक दिन अपनी स्त्रीसें गुस्से हो कर, और राजाको विना पुढे श्रीकृष्णमूरि आचार्यके पास दीक्षा ले लीनी, तिहांसे अन्यत्र विदार कर गया. कालांतरमें फिरकर तिसी नगरमें गुरुके साथ आया, तब राजाने. अपने पास बुलाया. दर्शन किया, और एक रत्नकंबल तिसको दीया, तब तिसने गुरुको दिखलाया. गुरुने कहा, इतने मोलका वस्त्र साधुको रखना योग्य नहि, नला अब तुं इसको औढ ले, तब तिसने तिस रत्नकंबलको बांधके रखे लिया; जब कोई पास न होवे तब तिस रत्नकंवलको खोलके देख लेता था, ममत्वसें खुशी मानता था. एक दिन गुरुने देखा तब विचाराकि इसको रत्नकंबल पर ममत्व हो गया है, तब गुरुने तिसका विना पुरे तिस कंबलके टुको क रके पग लुग्नेको साधुओको दे दिये. जब शिवनूतिने कंबलके टुको देखे तब बहुत क्रोधमें आया, परंतु गुस्सेंसें कुच्छ जोर न चला. एक दिन श्रीकृष्णमूरि आचार्यनें जिनकल्पका वर्णन किया यथा जिनकल्पी मुनि बाउ तरेंके होते है तिनमेंते सर्वोत्कृष्ट जिन कल्पीको दो उपकरण होते है. रजोदरण १ मुखवस्त्रिका २ तब शिवनूति सुनके बोला के जिनकल्पीका मार्ग आप क्यों नहि पालते हो? तब श्री कृष्णमूरिने कहा-श्रीजंबूस्वामिके निर्वाण पीछे नरतखममें दस बोल व्यवच्छेद हो गये है ___ यथाख्यात चारित्र १ सूक्ष्मसंपराय चारित्र २ परिहारविशुदि चारित्र ३ परमावधि ज्ञान । मनःपर्याय ज्ञान ५ केवल 31 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अज्ञानतिमिरजास्कर. ज्ञान ६ जिनकल्प उ पुलाक लब्धि प्रदारक लब्धि ए मुक्ति दोना १०. इस वास्ते जिनकल्प इस कालमें व्यवच्छेद है. तब शिवभूति बोला तुम कायर दो, मैं जिनकल्प पालुंगा. गुरुनें बहुत समजाया, सो विशेषावश्यकसें जान लेना. तब शिवभूति सर्व वस्त्र ahhh नग्न हो गया. तब तिस शिवनूतिकी बहिन उत्तरा नामे थी, तिसनेंजी नाइकी देखा देख वस्त्र फेंक दीए, और नग्न हो ग. जब नगर में निक्षाको प्राइ तब वेश्याने झरोंखेसे नसके छपर एक वस्त्र ऐसा गेरा, जिस्से उसका नम्रपणा ढांका गया. तव जाइको कहने लगी कि मुजको देवांगनानें वस्त्र दिया है. जव जारकोजी नग्न फिरती बुरी लगी, तब कहने लगा तुं वस्त्र रख ले, तेरेको (स्त्रीको) मुक्ति नहि. तिस शिवभूतिको दो चेले हुए, कौडिन्य. १ कोष्टवीर. २ तब तिनके चेले नूतिवलि और पु-पदंतनें श्रीमहावीरसें ६८३ वर्ष पीछे ज्येष्ट सुदि ५ के दिन तीन शास्त्र रचे. धवलनामा ग्रंथ 30000 सित्तेर हजार श्लोक प्र माण, जयधवल नामा ग्रंथ ६०००० साठ हजार श्लोक प्रमाण, महाधवल नामा ग्रंथ ४०००० चालीस हजार श्लोक प्रमाण. ये तीनों ग्रंथ कर्णाटक देशकी लिपी में लिख गये. और शिवभूतिके नम्र साधु बहुलताई कर्णाटक देशको तर्फ फिरते है. क्योंकि दक्षिण देश में शीत थोमा पकता है. जब कालांतर पाके मतकी वृद्धि हो गइ तब जगवंतसें १००० हजार वर्ष पीछे इस मतके धारक आचार्योंके चार नाम रखे. नंदी, सेन, देव, सिंह जैसे पद्म नंदी १ जिनसेन १ योगीं देव ३ विजयसिंह ४ इनके लगनग कुंदकुंद, नेमचंद, विद्यानंदी, वसुनंदी आदि प्राचार्यो जब हुए तब तीनोंने श्वेतांबरकी दीनता करने वास्ते मुनिके प्राचार व्य Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. वहारके स्वकपोलकल्पित अनेक ग्रंथ बनाये. जिस्से श्वेतांबरोकों कोश्नी साधु न माने. बहुत कठिन वृत्ति कथन करी. परतुं यह नहि समजके पमोशीके कुशौन करनेको अपना नाक कटवाना अच्छा नहि. दिगंबरोने करिन वृति कथन करके श्वेतांबरोकी निंदा तो करी, परंतु अपने मतका साधुओका सत्यानाश कर डाला. ऐसी वृत्ति पालनेवाला नरतखंझमे इस पंचम कालमें हो नहि शकता है. तथा एक ओर मूर्खता करी, जो वृत्ति चतुर्य कालके वजऋषन संहननवालोंके वास्ते थी, सो वृत्ति पंचम कालके सेवा संहननवालोके वास्ते लिख मारी. जब दिगंबरोमें कशाय नत्पन्न न तब इनके चार संघ नये. काष्टासंघ २ मूल संघ २ मा थुर संघ ३ गोप्य संघ ५. चमरी गायके वालोकी पीछी काष्ठा संघमे रखते है, मूल संघमें मोरपीली रखते है, माथुर संघमें पीजी रखते नहि है, ओर गोप्य संघ मोरपीगी रखते है. गोप्य संघ स्त्रीकोनी मोक करते है, शेष तीन नहि करते हैं गोप्य वंदना करने वालेको धर्मलान कहते है, शेषतीन धर्मवृद्धि कहते है. अब इस कालमें इस मतके वीश पंथी, तेरापंथी, गुमानपंधी इत्यादि नेद हो रहे है. तीनमें वीशपंथी पुराने है. शेष दोनो नवीन है, इति अष्टमो निन्दवः ढुंढकमतकी इस पीने संवत् ११६ए में पुनमी संवत् ११३ उत्पत्ति में अचलीश्रा, संवत् ११३६ में साढपुनमीया, सं वत् १२६० में आगमीमा, संवत् १२०४ में खरतर, संवत् १६७२ में पासचंद हुआ. इनके वेषमें विशेष फर्क नहि है. जिन प्रतिमाकी पूजामेंनी फर्क नहि है, किंतु किसी वातकी श्रझमें फरक है. सो खेंचातान नहि करता सो अच्छा है. इनके शिवाय चुपक और ढुंढक तथा तेरापंथी ढुंढक ये तीनो पंथ गृहस्थके चलाये है. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अज्ञानतिमिरनास्कर. इनके न तो देव है, और न गुरु है. बहुती वातां इनके मतोमें स्वकपोलकल्पित है. इनका वेषत्नी जैनमतका नहि है, इनकी उत्पत्ति ऐसी है. __गुजरात देशके अहमदावाद नगरमें एक लौंका नामका लिखारी यतिके नपाश्रयमें पुस्तक लिखके अजीविका चलाता था. एक दिन नसके मनमें ऐसी वेश्मानी आइ जो एक पुस्तकके सात पाना बिचमेंसें लिखने गोड दीए, जब पुस्तकके मालिकने पुस्तक अधूरा देखा तब लुके लिखारीकी बहुत नमी करी और नयाश्रयमेंसे निकाल दिया, और सबको कह दिया कि इस बेश्मानके पास कोश्नी पुस्तक न लिखावे. तब लुका आजीविका तंग होनेसे बहुत दुःखी हो गया. और जैनमतका बहुत देषी बन गया. परंतु अहमदावादमें तो लुकेका जोर चला नहि, तब तहांसें ध५ कोस पर लिंबमी गाम है वहां गया. तहां लुकेका संबंधी लखमसी वाणिया राज्यका कारनारी था. तिसको जाके कहा कि नगर्वतका धर्म लुप्त हो गया है; मैनें अहमदावादमें सच्चा उपदेश करा था. परंतु लोकोंने मुजको मारपीटके निकाल दिया. जेकर तुम मेरी सहाय करो तो में सच्चे धर्मकी प्ररूपणा करु. तब लखमसीने कहा तु लिंबडीके राज्यमें बेधडक तेरे सच्चे धर्मकी प्ररूपणा कर. तेरे खानपानकी खबर में रखंगा. तब लुकेनें सवत् १६०७ में जैन मार्गकी निंदा करणी शुरु करी. परंतु २६ वर्ष तक किसीने इनका नपदेश नहि माना. पीने संवत १६३५ में अक्कलका अंधातूपणा नामक वाणिया लुकेको मिला, तिसने लुकेका नपदेश माना. लुकेके कहनेसे विना गुरुके दिये वेष पहना ओर मूढ लोगांकों जैन मार्गसे ब्रष्ट करना शुरू किपा, लोकेने एकत्रीश शास्त्र सच्चे माने, ओर व्यवहार सूत्र सच्चा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंम. नहि माना, और एकत्रीस सूत्रोंमें जहां जहां जिनप्रतिमाका अधिकार था तहां तहां मन कल्पित अर्थ कहने लगा. इस तरें कितनेक लोगोंकों जैन मार्गसें भ्रष्ट करा. नूणेका शिष्य संवत १५६७ में रूखजी हुआ. तिसका शिष्य संवत् १६ ६ में वरसिंह हुआ. तिसका शिष्य संवत् १६धए में महा सुदी १३ गुरूवार प्रहर दिन चमे जशवंत दुआ. इसके पीछे संवत् १७णए मां वजरंगजी लुंपकाचार्य हुआ. तिसके पीछे सुरतके वासी वोहोरा वीरजिके बेटी फुलांबाश्की गोदी लीए बेटे लवजी नामकनें दिदा लिनी. दीक्षा लिया पीने जब दो वर्ष हुए तब दस वैकालिकका टबा पढा. तब गुरुको कहने लगा तुम साधुके आचारसें ब्रष्ट हो इसी तरे कहनेसे गुरुसे लडाइ हुश्, तब ढुंपक मत और गुरुकुं. वोसराया. और रीष श्रोन्नण और सखीओजीकों वहकाके अपने साथ लेके स्वयमेव दीक्षा लिनी, और मुहडे पाटी बांधी, इसका चेला सोमजी तथा कानजी हुए, और लुपकमति कुंवरजीके चेले धर्मसी, श्रीपाल, अमीपालनेनी गुरुको गेडके गेड़के स्वयमेव दीक्षा लिनी. तिनमें धर्मसीने अष्ठ कोदी पञ्चखाणका पंथ चलाया सो गुजरात देशमें प्रसिद है. और लवजीके चेले कानजीके पास गुजरातका एक धर्मदास बीपी नामक दीक्षा लेनेकुं पाया, परंतु कानजीका आचार नसने ब्रष्ट जाना. इस वास्ते मुहके पाटी बांधके वोली साधु बन गया. इनके रहनेका मकान ढुंढा अर्थात् फुटा हुआ था इस वास्ते लोकने ढुंढक नाम दिया. धर्मदास बीपीका चेला धनाजी हुआ. तिसका चेला नूधरजी हुआ, तिसके चेले रघुनाथ, जैमलजी, गुमानजी हुए. इनका परिवार मारवाममें है. रघुनाथके चेले लीषमनें तेरापंथी मुहबंधेका मत चलाया सवजिका चेला सोमजी, तिसका चेला हरिदास, तिसका चेला वैदावन, तिसका चेला नवानीदास, तिसका चेला मलुकचंद, ति Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. सका चेला महासिंह, तिसका चेला खुशालराय, तिसका चेला. उजमल, तिसका चेला रामलाल, तिसका चेला अमरसिंह, इसके चेले पंजाब देश में मुह बांध। फिरते है. और कानजीके चेले. मालवा और गुजरात में मुह वांधी फिरते है. और धर्मदास बीपीके चेले गुजरात, मालवा और मारवाममें मुंह बांधी फिरते है. इति प्रवेशिका.. ऐसे कुमाताओके मतोके आग्रहसे दूर होकर हेयोपादेयादि पदार्थ समूहके परिज्ञानमें जीवको प्रवीग होना चाहिये, और जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक्तादिकों करके पीमितको स्वर्ग मोकादि सुख संपदके संपादन करणेमें अबंध कारण ऐसा धर्मरत्न अंगीकार करणा नचित है, क्योंकि इस अनादि अनंत संसार समुश्में अतिशय करके ब्रमण करणेबाले जीवांको प्रथम तो मानुष्य जन्म, आर्यदेश, नत्तम कुल, जाति, स्वरूप, आयु पंचेश्यिादि सामग्री संयुक्त पावणा उर्लन है. तहांनी मानुष्यपणेमें अनर्थका हरणहार सतधर्म पावणा अति झन है. जैसे पुण्यहीन पुरुषको चिंतामणि रत्न मिलना उर्लन है तैसें एकवीश गुण करी रहित जीवको सर्वज्ञ प्ररूपित सत्धर्म मिलना उर्लन है. इस वास्ते प्रश्रम तिन एकवीश गुणांका स्वरूप किंचित् एकवीश गुण मात्र लिखते है, क्योंकि प्रथम नव्य जीवांको अ का स्वरूप. पणेमें धर्मी होनेकी योग्यता नप्तन्न करनी चाहिये. जेकर प्रथम योग्यता नत्पन्न न करे तबतो धर्मकी प्राप्तिन्नी प्रथम न होवे. जैसे अयोग्य नूमिमें वीज बोया निष्फल होता है तथा जैसे नींब अर्थात् पाया दृढ किया बिना जो महा प्रसाद बनाना चाहता है वो जबतक पाया दृढ नहि करता है तब तक विशिष्ट प्रासाद Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयम. २०७ गृहस्थ और सा स्थित नहि हो शकता है. ऐसेही योग्यता विना धुका धर्मी प्राप्त नहि होता है. हम देखते और सुनते है, त मतोवाले बहुते जीवांको अपने मतमें लाने वास्ते और जातिसें ष्ट करनें वास्ते अपना खाना लिखा देते है, अपने मतमें और अपनी जातिमें दाखल कर देते है. जब वे उनके मत में मिलते है तब बेधक बंडुके लेकर जंगलो मेंसे जानवर मारकर खाने लगते है, और अंग्रेजो सरिखा वेष पेहनके ऐसे घमंडसे चलते है कि भूमिकोजी धा देते है, और मन चाहेसो बकवाद करते है. बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माका किंचित् स्वरूपनी नहि जानते है. और वेदांति कितनेक जीवोकी एसी बुद्धि बिगाते है. कि वे व्यवहार सत् कर्मोसें भ्रष्ट हो जाते है. और कितनेक मतवाले स्त्रीका जोग, मांस खाना, बदफैली कर दुसरे मतवालोको कतल करणा, उनके पुस्तकोको जला देना उनके मंदिर, मूर्ति तो फोम अपने मतका स्थान बनाना, इ. त्यादि काम करके अपने आपको स्वर्ग जानेवाला मानना यही धर्म मानते है. परंतु हम सब मतवालोंसे नम्रता पूर्वक विनती करते है कि सर्व मतवाले अपनी जाति, अपने मतमें कहै बुरे कामको वो अपने आपको योग्यता प्रगट करी धर्मके अधिकारी बनावे, और सर्व पशु पक्षी और मनुष्यो नपर मैत्री - नाव करे और देवगुरु धर्मकी परीक्षा करे तो यथार्थ धर्मको प्राप्ति होवे इस वास्ते हम इहां प्रथम योग्यताका स्वरूप लिखते है. प्रथम इक्कीस गुण जिस जीव में होवे अथवा प्राये नवीन उपार्जन करे तिस जीवमें उत्कृष्ट योग्यता जाननी और थोडेसें यो इक्कीस गुणोंसे चाहो कोइ दस गुण जीवमें होवे तिसको जघन्य योग्यतावाला जानना. ११-१२-१३ – १४–१५–१६ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. १७–१८-१०-२० शेष गुणवालेको मध्यम योग्यतावाला जानना. तीन इक्कीस गुणमेंसें जिसमें दसगुणांसें न्यून गुण होवे वो जीव धर्मकी योग्यता रहित जानना. वे इक्कीस गुण ये दै. २०८ प्रकु १ रूपवान् २ प्रकृति सौम्य ३ लोकप्रिय ४ अक्रूर - चित्त ५ नीरु ६ अशठ ७ सुशकिएय लज्जालु ए दयालु १० मध्यस्थ सोमदृष्टि ११ गुणरागी १२ सत्कथ १३ सुपयुक्त १४ सुदीर्घदर्शी १५ विशेषज्ञ १६ वृद्धानुग १७ विनीत १८ कृतज्ञ १७ परहितार्थकारी २० लब्धलक्ष्य २१. इनका किंचित् मात्र खुलासा लिखते है. अतु- यद्यपि कुइ शब्द तुच्छ, क्रूर, दरिड, लघु, प्रमुख अर्थो में वर्तते है तोनी इहां कुइको प्रगंजीर कहते है. तुच्छ बुदि, उत्तान मति, निपुण बुद्धि; ये इस गंभीरपणेका पर्याय नाम है. गंभीर पुरुष धर्म नहि प्राराध शकता है. जीमवत् क्योंकि धर्म जो हे सो सूक्ष्म बुद्धि साध्या जाता है, और तुच्छ बुद्धि धर्मका घात हो जाता है. इस वास्ते प्रकु पुरुष सूक्ष्मदर्शी, अच्छीतरे विचारके कामका करणेवाला इहां धर्म ग्रहण करणे योग्य होता है, सोमवत्. नीम सोमकी कथा - मरत्न शास्त्र से जाननी सर्व दृष्टांत तहांसे जानने इहां निःकेववल गुण और नाम मात्र लिखेंगे. इति प्रथमो गुणः दुसरे रूपवान् गुणका स्वरूप लिखते है. संपूर्ण दोवे अंगोपांग - तदां अंग, शिर, नर, नदर प्रमुख है और उपांग अंगुलि आदिक है. ये पूर्वोक्त अंगोपांग जिसके संपूर्ण होवे और खंमित न होवे वो रूपवानू कदे जाता है. पांचो इंड़िय सुंदर होवे. काणां, शेकर, बहिरा, गुंगादि न होवे और शोजनीक संदनन अर्थात् शरीर सामर्थ्यवाला जिसका दोवे वो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम.. ३०॥ रूपवान कहे जाते है. सामर्थ्य संहनन वाला तप संयमादि अनु. टान करमे में शक्तिमान होता है. पूर्वोक्त रूपवान धर्म करणेको समर्थ होता है, सुजातवत्. जेकर यथोक्त रूपवान् न होवे तो प्राये सत् गुणका नागी नदि होता है. यथा “ विषमसमैविषम समा, विषमैर्विषमाः समैः समाचाराः । करचरणदंतनासिका, वकत्रोष्टनिरीक्षणैः पुरुषाः ॥१॥ नावार्थ-जिस पुरुषके हाथ, पगदांत, नासिका, मुख, होग, आंख वांके टेढे दोवे वे पुरुष कपटी धूर्त, वक्राचारी होते है. और ये पूर्वोक्त हायादि सम-सूधे सुंदर होवे वे पुरुष सरलचारी और धर्म के योग्य होते है. यह बहुलताका कथन है, तथा आचारांगकी टीकामेंनी कहा है कि “यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति”. अर्थात् जहां सुंदर रूप होवे तहां गु. ण वास करते है. यह गुण तो पूर्व जन्म के पुण्योदयसें होता है विवेक विलाप्समें श्री जिनदत्तसूरिनी लीखते है, जिसका हस्त रक्त होवे सो धनवंत होवे, और नीला हावे सो मद्यपीने वाला होवे, और पीला होवे सो परस्त्रीमामी होवे, और काला होवे सो निर्धन होवे, और जिसका नख श्वेत होवे सो यति दोवे, दाम सरीखे नख होवे सो निर्धन होवें, पीले नख होवे सो रोगी होवे फुल सरीखे नख होवे सो पुष्ट होवे, व्याघ्र सरीखे नख होवे सो क्रूर होवे. इस वास्ते रूपवान्ही धर्मका अधिकारी है. इति स्वरूपवान् द्वितीयो गुणः. प्रकृति सौम्य नामा तिसरा गुण कहते है. प्रकृति अर्थात् स्वन्नावेही परंतु कृत्रिम नहि है सौम्य स्वन्नाव जिसका सो अमरामणी, विश्वसनीय, सुरति रूपवाला होवे, और पापकर्म, प्रा. क्रोशवध, हिंसा चोरी आदिमें न प्रवर्ते, एतावता निर्वाह होते हुए पापमें न प्रवर्ने, सुखे क्लेशके विना आराधने योग्य होवे और अन्य जीवांको प्रशमका कारण दोवे, विजय श्रेष्टिवत्. इस गुण 32 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर वालेकी समज और बुझिनी ऐसी होती है. क्षमा सर्व सुखांका मूल है, और कोप सर्व सुखका मूल है, और विनय सर्व गुगांका मूल है; और मान सर्व अनर्थोका मूल है. जैसे सर्व स्त्रीयोंमें अईतकी माता प्रधान है, मणीप्रोमं जैसे चिंतामणि प्रधान है, बतायोम जैसे कल्पलता प्रधान है, तैसे सर्व गुणांमें कमा प्रधान है. कमा धारण करी परिसह और कषायको जीती अनंत जीव आदि अनंत, परम पदको प्राप्त हुए है. इस हेतुसे पुरुषको क्षमावान होना चाहिये. और कमावालाही पुरुष प्रकृति सौम्य गुणवाला होता है, और ऐसे गुणवानकी संगतसे अन्य जीवन्नी प्रशम गुणवान् हो शकते है. यथा संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वातौ सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौक्तिकं, प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते ॥१॥ इस वास्ते पुरुषको प्रकृति सौम्य होना चाहिये इति तृतीयो गुणः लोकप्रिय गुणका स्वरूप लिखता है. इस लोक विरुः १ परलोक विरु६ २ नन्नय लोक विरुः ये तीनो वर्जे. तीनमें इह लोक विरु६ नीचे मुजब है. परकी निंदा करणी, विशेष करके गुणवंतकी निंदा करणी सरलकी और धर्मवालेको हांसि करणी, बहुत लोकोके पूजनीककी ईर्ष्या करणी, बहुत लोगोका विरोधीकी साथ मित्रता करणी, देशके सदाचारका नल्लंघन करणा, निषि वस्तुका नोग करणा, दाताकी निंदा करणी, नले पुरुषको कष्ट पड़े तो दर्ष मानना, ते Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. सामर्थ्य अच्छे पुरुषको संकटमें पके सहाय न करणा; इत्यादि श्ह लोक विरु धर्मका अधिकारी वर्जे. परलोक विरुद यह है; खर कर्मादिखेती करावणी, कोटवाल पणा, महसुलका ठेका लेना, गामका ठेका लैना, कोयला कराय वेचना, वन कटाय वेचना, इत्यादि महा हिंसक काम विरति नहि तोनी सुकृति न करे. ये काम यद्यपि इस लोकसे विरुद नहि तोनी परलोकमें अच्छी गतिके नाशक होनेसे परलोक वि. रु६ है. उन्नय लोक विरूह यह है; जुआ खेलनादि, तद्यया." द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या पापाई चौर्ये परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके, पापाधिके पुंसि सदा नवन्ति " ॥१॥ इहैव निंद्यते शिष्टैर्व्यसनासक्तमानसः, मृतस्तु उगीतं याति, गतत्राणो नराधमः ॥२॥ अर्य-प्रथम, जुएका खेलना बमा पाप है. इस लोकमें जुवारीयेकी इज्जत नहि है. जुआ खेलनेसें दीवालीये हो जाते है, राजे राज्य हार जाते है, चोरी करते है, वेश्या और परस्त्रीगमन करते है, बालक बच्चेको मारके उसका झवेरात उतार लेते है, मांस खाते है, और मद्य पीते है, लुच्चे और बदमासोकी मंमलीमें रहते है, धर्म कर्मसें ब्रष्ट हो जाते है, मरके नरकादि गतिम नत्पन्न होते है, इस वास्ते जुएका खेलना नन्नय लोक विरुद्ध है. उसरा. मांसका खानान्नी उन्नय लोक विरुइ है, क्योंकि मांस खानेसें दया नष्ट हो जाती है. जो अच्छी पशु, पनी देख. नेमें आता है तिसनीको खानेकी इच्छा होता है, मांस खानेवालेका हृदय ऐसा कठोर हो जाता है कि मनुष्य मारणेमनी किरक नदि करता है. जितने मांसाहारी है वे सर्व निर्दय है जैसे नील, कोली, मैणा, धांगम, नंगी, ढेड, चमार, धाणक, गंधील, कंजर, वाघरी Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रज्ञानतिमिरनास्कर, प्रसुख निर्दय है सो मांस खानेसे है, और जो मांसाहारी नहि है वे सर्व प्राये दयावान है और नरम हृदय वाले है, यह वात हम प्रत्यक्ष देखते है. जगतमें सर्वसें गरीब जानवर नेम अर्थात् गाडर घेटा देखने में आता है. ऐसेका जो मांस नहण करे तो खुंखार अर्थात कठीन हिंसक स्वन्नाववाला बन जाता है, और जो आगे विना गुनाह हजारो लाखो वालबच्चे स्त्री पुरुषांको कतल कर गये है, वे सर्व मांसके खानेकी निर्दयतासें ऐसे काम करते थे, जेकर कोई मांसाहारी मनुष्यमात्रको दयावालेनी है तोन्नी कपण, अनाथ, दीन पशु पदीयोकी दया तो नही है. बिचारे क्या करे ननके मत चलाने वालोनेही मांस खाया और खानेकी आझा करी है. वेद बनानेवाले और कितनेक स्मृति बनानेवाले मांसाहारी थे और मांस खानेकी आज्ञा दे गये है. इसका तमाम वृत्तांत प्रथम खंडमें लिख आये है. मनु याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारक तो बेधड़क लिख गये है. न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। प्रत्तिरेषा भूतानां निटत्तिस्तु महाफला ॥१॥ मांस नकणमें दोर नहि है और मद्य तथा मैथुनमें बी दोष नदि है. वे तो प्राणीप्रौनी प्रवृत्ति है सो महाफलवाली है. ___ यद्यपि नारत, नागवतादि ग्रंयोमें मांस नक्षण निषेध करा है, तोनी वेद स्मृतिका कहना पुराना है, और नारत, नागवत या धर्मकी प्रबलतामें बने हुए है. इस वास्ते इनमें मांसका निषेध है और वैष्णवादि मतवाले जो मांस नहि खाते है वेन्नी दया धर्मकाही प्रन्नाव है बाकी शेष मतोवालोके देशमें दया धर्म नदि प्रवृत्त दुआ है. इस वास्ते सर्व मांसाहारी है. जो जो मांसाहारी है वे प्राये कठीण हृदयवाले है. इस वास्ते मांसका खाना Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. इह लोक विरुद है, और परलोकमें नरकादि गतिका देनेवाला है. यउक्तं स्थानांग सिखंते-" चनहिंगरोहिं जीवा नेरया उत्ताए कम्मंप करें ति तं जहा" इत्यादि. इहां तिसरे पदमें ' कुणिमा होणं' अर्थात् मांस खाने करके नरकायु उपार्जन करता है तथा “ मांसाहारिणः कुतो दया.” इस वास्ते मांसका. खाना उन्नय लोक विरु६ है. ... मदिराका पान करना यहनी नन्नय लोक विरुइ है.मदिरा पीनेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. मद्य पीनेवालेके मुहमें कुत्ते मुतते है. मदिरा पीनेवाला माता, बहिन, बेटीसेंन्नी कुकर्म करता है. ऐसी कौनसी बुरी बात है जो मदिरा पीनेवाला न करे. मदिरा पीनेवाला मरके नरक गतिमें जाता है. इस वास्ते मद्य पीना उन्नय लोक विरुक्ष है. वेश्यागमन करनेवालेकी कोश्नी जाति नहि; नंगी, चमार, कोली मुसलमीन आदि सर्वकी जुठ खानेबाला होता है. इस वास्ते ननकी कोश्नी जाति नहि. वेश्यागमनसे धनका नाश होता है, बुद्धि प्रष्ट होती है, आबरु नहि रहती है, गरमीके रोगसे शरीर गल जाता है, तिस्से कुष्ठ, जगंदर, जलोदरादि महा नयंकर रोग हो जाता है तथा परलोकमें उर्गति होती है. इस वास्ते वेश्यागमन करना नन्नय लोक विरुइ है. पापदि अर्थात् शिकार करना यहनी उन्नय लोक विरु है, क्योंकि कगेर हृदय विना शिकार नहि हो शकता है. शिकारीको दया नहि, न्याय नहि, धर्म नहि और परलोकमें उनकी नरक गति होती है, इस वास्ते शिकार करना उन्नय लोक विरुइ है. चोरी और परस्त्रीगमन ये दोनो तो सर्व लोकोमें बुरे काम वास्ते जनकतमीन आदि सालकी कोश्नी जा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ १४ अज्ञानतिमिरनास्कर. गिने जाते है, और दोनोसें परलोकमें दुर्गति होती है, इस वास्ते उन्नय लोक विरूह है. पूर्वोक्त सातो कुव्यसनका सेवनेवाला इस लोकसें शिष्ट जनोका निंदनीय होता है, और परलोकमें उर्गति प्राप्त करता है, इस वास्ते जो पुरुष सातो कुव्यसनका त्याग करे सो धर्मका अधिकारी होता है. दान, विनय, शील श्नो करके पूर्ण होवे. तिनमें दान दे. नेसे बहुते जीव वश हो जाता है. और दान देनेसे वैर, विरोध दूर हो जाता है. शत्रुनी दान देनेसें नाइ समान हो जाता है इस वास्ते दान निरंतर देना योग्य है. विनयवान् सर्वको प्रिय लगता है, और शु शीलवान् इस लोकमें यश कीर्ति पाता है और सर्व जनाको वल्लन्न होता है, और परलोकमें सुगति प्राप्त करता है. इस वास्ते जो पुरुष सात व्यसन त्यागे और दानादि गुणों करी संयुक्त होवे सो लोकप्रिय होवे, विनयंधरवत् इति चतुर्थो गुणः अक्रचित्त नामा पांचमा गुण लिखता है. क्रूर नाम क्लिष्ट स्वन्नावका है, अर्थात् मत्सर, ईर्ष्यादि करके दूषित परिणाम वालेका है. सोनी धर्मका आराधनमें समर्थ नहि होता है, समर कुमारवत्, इस वास्ते धर्मके योग्य नहि. और जो क्रूर नदि सो धर्मके योग्य है, कीर्तिचं नृपवत् . इति पंचमो गुणः नीरू नामा उठा गुण लिखते है. इस लोकमें जो राजनिग्रह दंडादि कष्ट है और परलोकमें जो नरकगति गमना कष्ट है, तिनको नावि होतदार जानके जो पुरुष हिंसा, जूठ, चोरी, मैशुन, परिग्रहादि पापोंसें त्रास पामे, और ननमें न प्रवर्ग सो धमके योग्य होता है, विमलवत्. इति षष्टो गुणः, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. २१५ प्रशव नामा सातमा गुण लिखते है. प्रशव ननको कहते है जो परको गंगे नदि इस वास्ते प्रशठ, श्रमायी, विश्वासका स्थान होता है, और जो शव, मायाशील होता है यद्यपि किंचितू पाप न करे सोजी सर्पकी तरें आत्मदोष करी दूषित बनके विश्वास योग्य नहि होता है. इस वास्ते अशठ प्रसंशनीय होता है.. - " यथा चितं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः, धन्यास्ते वितये येषां विसंवादो न विद्यते " ॥ १ ॥ अर्थ - जेसा चिन तैसा वचन और जैसा वचन ऐसी क्रिया. ए तिनमं जिसकु विसंवाद नदि है, सो पुरुष धन्य है. ऐसा पुरुष धर्मानुष्ठानमें प्रवर्त्तता है. तथा जावसारसद्जावसुंदर अपने चित्तके रंजन करनेवाले अनुष्ठानका कर्ता है. परंतु परके चिचके रंजन करने वास्ते नदि करता है. क्योंकि स्व चित्तको रंजन करना बहुत कठिन है. तथा चोक्तं, " नूयांसो नूरिलोकस्य चमत्कारकराः नराः । रंजयंति स्वचित्तं ये नूतले ते तु पंचपाः " ॥ १ ॥ तथा, कृर्तिमैर्डवरैश्वित्तं शक्यतोषयितुं परं । श्रात्मातुवास्तवैरेव दंत कं परितुष्यति ॥ २ ॥ अर्थ - दुसरा बोहोत लोकोकुं चमत्कार करनेवाला बहोत पुरुषो है. परंतु जे पुरुष पोताना मनकुं रंजन करे ऐसा पृथ्वी में पांच व पुरुष होता है. कत्रिम श्राडंबरो घुसरेकुं संतोष करना शक्य है. परंतु आत्माकुं कोण संतोष कर सक्ता है. इस वास्ते अशी धर्मके योग्य होता है. सार्थवादपुत्र चक्रदेववत् इति सप्तमो गुणः. सुदाक्षिण्य नामा आठमा गुण लिखते है. सुदाक्षिण्य पुरुप परोपकार में प्रवर्ते, जब कोई प्रार्थना करे तब तिसको दि तकारी काम करे. जावार्थ यह है कि जो काम इस लोकमें और Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. परलोकमें हितकारी हो तिसमेंही सो प्रवत्ते, परंतु पाप हेतु काममें न प्रवृत्त होवे. इस वास्ते सु अक्षर करके दाक्षिण्यको वि. शेषित करा है. इस गुणवाला कैसा होता है, अपणा कार्य गेमके परोपकारमें प्रवर्तते है, इस हेतुसें हैसा पुरुष ग्राह्य वाक्य अर्थात् अनुलंघनीय आदेश होता है. ऐसे पुरुषके मनमें कदाचि. त् धर्म करणेकी इच्छा नहिनी होवे तोनी धर्मी पुरुषके कहनेस धर्म सेवता है, कुल्लक कुमारवत्. इति अष्टमो गुणः. ".. नवमा लज्जालु गुणका स्वरुप लिखते है. लज्जावान् नसको कहते है जो अकार्य अर्थात् बुरा काम न करे, दूरही कुकर्मसे रहे, सो पुरुष धर्मका अधिकारी होता है. जो श्रोमानी अकार्य न करे, तथा चोक्तं, “ अविगिरिवर गुरय पुरंत मुख, नारेण जंति पंचतं । न नगो कुगमि कम्मं स पुरुसा जनका यव्वामेति." नावार्थ-संन्नावना करते है कि सत्पुरुष मेरू समान पर्वतका नार करके मरण पामे परंतु नहि करने योग्य कार्य कदापि नकरे. सदाचार अर्थात शोन्ननिक व्यवहारको लज्जाका हेतु मानके स्नेह बालानियोगादिक करके अंगिकार करी अच्छी प्रतिज्ञा. को लगता है. क्योंकि प्रतिज्ञाका सेवना लज्जाका हेतु है, ऐसा तो नले कुलका नत्पन्न हुआ पुरुष जानता है, विजयकुमारवत् इति नवमो गुणः. दयालु नामा दशमें गुणका वर्णन लिखते है. धर्मका मूल कारण दया अर्थात् प्राणिरता है. यउक्तं श्री आचारांग सूत्रे, " सेवेमि जे अश्या, जे पडुपन्ना, जेय आगमिस्ता, अरहंता नगवंतो ते सव्वे एवमा ख्वंति, एवं नासंति. एवं पनवंति, एवं परूवंति, सव्वे पाणा, ससे नूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अन्जा वेयव्वा, नररितावेयव्वा, न नवेयव्वा, एस धम्मे Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. सुहे, निश्ए सासए, समिञ्च लोय खेयन्नेहिं पवेशए ” इत्यादि. भावार्थ:-सुधर्मस्वामि जंबूस्वामिको कहते. हे शिष्य ! जैसे मैने नगवंत श्रीमहावीरजीके मुखारविंदसें सूना है तैसें में तु. जको कहता हूं. नगवंतश्री महावीरनें कहा है कि अतीत कालमें अनंते अत नगवंत हो गया है और जो अहंत नगवंत वर्तमान कालमें है और जो आगामि कालमें अनंत होवेंगे, तिन स. र्वका यहि कहना हुआ है, तथा होवेगा कि सर्व प्राणी, बे इंश्य तीनेडीय, चतुरिंद्रीय, सर्वनूत वनस्पति, सर्व पंचेंडीयजीव, सर्व सत्व अर्थात् षटकाय, पृथ्वीकाय, अपकाय, अनिकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, वसकाय, इन षट्कायके जीवांको हनना नहि. तथा इन जीवोंसे जोरावरीसें कोई काम नही कराना. शारीरिक और मानसिक पीमा करके ननको परितापना नहि करणी. यह जीवअहिंसारूप शुभ धर्म है, नित्य है शाश्वता है, सर्व लोकके पीमाकी जाननेवाला सर्वज्ञ अईत नगवंतने कथन करा है. तथा-- अहिंसैव परो धर्मः शेषास्तु व्रतविस्तराः। अस्यास्तु परिरक्षायै पादपस्य यथावृतिः॥१॥ अर्थ-अहिंसाज परम धर्म है, शेष सर्वव्रत अहिंसाकी रकाके वास्ते है. जैसा वृक्षकी रक्षाके वास्ते वाड होती है. अर्थात् अहिंसाकी रहाके वास्ते शेष सर्व व्रत है. तथाच, " अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधिनी, अस्याः संरक्षणार्थच न्याय्यं सत्यादिपालनं "॥ १ ॥ इस वास्तेही जीवदया संयुक्त सर्व विहार, आहार, तप, वैयावृत्यादि सदनुष्टान सिह है जिनेइ मतमें वीतरागके कथन करे सिशंतमें श्री शय्यंनव सूरि कहते है. 8 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. “जयंचरे जयंचिंठे जयंमासे जयंसए जयंजतो नासंतो पावकम्मं नबंध " ॥१॥ व्याख्या, र्यासमिति अर्थात् नपयोग सहित चार हाथ प्रमाण अगली नूमि देखे और जीवांको बचाके पग धरी चले सो यतनासें चलना कहिये. हस्त पगादिकके विकेप विना यतनासें खमा रहे. नपयोग पूर्वक यतना. से बैलें. अकुंचन प्रसारणादि करे. नूमिका नेत्रोंसे देखके रजोहरणादिसें प्रमार्जके पीछे शय्या करे. यतनासे सोवं. समाहित रा. त्रिमें प्रकाम अर्थात् अधिक शय्या वर्जे और चैत्यवंदन पूर्वक शरीर प्रतिलेखी सामायिकसूत्र, पोरसीसूत्र पठन करी सोवे यतनासें नोजन करे. बं कारणसें नोजन करे. बहु सरस आहार न ले नोजन करे तब प्रतर सिंहादिककी तरें तरें जोजन करे. यतनासें बोले. साधु नाषासें, मृ; कालप्राप्त, अकर्कश, अमर्मवेधिनी नाषा बोले. इस हेतुसे पापकर्म ज्ञानावरणादि न बांधे. अन्योने पण कहा है. न सा दीक्षा नसा भिक्षा न तदानं न तत्तपः । न तज्ञानं न तद्ध्यानं दया यत्र न विद्यते ॥१॥ अर्थ-जिसमें दया नहि है, सो दीक्षा, निका, दान, तप, झान और ध्यान, बराबर होताज नहि. इस वास्ते धर्माधिकारमें दयालु, योमानी जीववधका, यशो धर सुरेदत्त महाराजाकी तरे दारुण विपाक जानना दूआ तिनमें नहि प्रवृत्त होता है. सर्व मतावाले लोक दयाको अच्छी कहते है परंतु दयाका यथार्थ स्वरूप जानना बहुत कठिन है. दोहा " दया दया मुखसें कहे, दया न हाट विकाय; जाति न जाने जीवकी, दया कहो किन गय." ॥१॥ कितनेक नोले जीव कहते है और उनके शास्त्रमेंनी वेसाही लिखा है कि एक मनुष्य Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. शए मात्रकी दया करनी चाहिये, क्योंकि मनुष्य विना जितने जीव है तिनकी आत्मा अविनाशी नहि है, और जितने जीव है वे सर्व मनुष्यके लोग वास्तेही ईश्वरने रचे है. इसकों नत्तर, हे नोले जीव ! यह समज तुमारी ठीक नही क्योंकि मनुष्य विना अन्य जीवांकी आत्मा अविनाशी नहि; इस कहनेम कोश्नी प्रमाण नहि है. प्रत्यक्ष प्रमाणसें तो जैसा मनुष्यांको मरतां देखते है तैसे पशु पदीयोकोंन्नी मरते देखते है, और अनुमानसें तो तब अविनाशी मनुष्यात्मा सिह होवे जब मनुप्यात्माका कोई ऐसा चिन्ह होवे और पशु आत्मामें न होवे, सो तो हे नहि. पशु पक्षीका आत्मानी अविनाशी है तिसकी सिदिमे अनुमान प्रमाण है, सो यद है. मनुष्यात्मासें निन्न जितने आत्मा है यह पद है; सर्व अविनाशी है यह साध्य है; आत्मत्व जातिवाले होनेसं यह हेतु है; मनुष्यात्मवत् यह दृष्टांत है; इस अनुमानसें पशुओका आत्मानी अविनाशी सिह होता है. तथा जिस पदार्थका नपादान कारए नहि सो अविनाशी है, सो पशु पकीओका आत्माकानी नपादान कारण नहि है इस वास्ते अविनाशी है, परंतु जो कोई किसी शास्त्रमें पशु पहायोका आत्माको विनाशी कह गया है सो मांस खानेकी लोलुप्ता, अ. विवेक बुद्धिके प्रत्नावसे नसने ऐसा मनमें समजा होगा कि मांस खानातो मेरेसे बुटता नहि है इस वास्ते जिसका मांस खाने में आता है वे आत्मा विनाशी कहे तो ठीक, हमारा काम चलेगा, मांसनी खायगे और स्वर्गमेंनी जावेंगे. फिर ऐसे फुड पंयको मांसाहरी, निर्दय, अनार्य जीव क्यों न अंगीकार करे इस वास्ते जो, मनुष्य विना अन्य सर्व जीवात्माको विनाशी मानते है वो निपुण और बुद्धिमान् नहि है. कितनेक कहते है के ईश्वरने सर्व Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अज्ञानतिमिरनास्कर वस्तुओ मनुष्यके लोग वास्ते बनाई है. प्रश्रम तो यह कहनाही मिथ्या है क्योंकि ईश्वर किसी प्रमाणसें इस जगतका रचनेवालाः । सिह नदि होता है. प्रो कथन जैनतत्वादर्शमें अच्छी तरतें लिखा है. जेकर विना प्रमाण मिथ्यात्वके नदयसें जगत्कर्ता माने और पूर्वोक्त कथन करे तब तिसको ऐसे कहना ठीक है. जब को किसीकी माता, बहिन बेदीसें गमन करे, और अपनी माता, बहिन, बेटीसें गमन करै, माता, बहिन, बेटीके हरके ले जावे. किसीका धन चोरे, तब सरकारसे दंड और जगतमें अपयश और दम क्यों पाता है ? जेकर नसने अनीति और अगम्यगमन करा इस वास्ते वो दंड और अपयशके योग्य है तब तो अपराधी कहेगा कि मनुष्यके लोग करा है, मुजे दंग क्यों देते हो, जेकर ये स्त्रीमो मेरे लोग योग्य है तिनके वास्ते जो ईश्वरवें तुमको परवाना लिख दिया है सो मुजे दिखलाना चाहिये. इस वातका फिर उत्तर दो तो दीजिये. इस वास्ते हम नोलें जीवांके वास्ते लिखते है, ऐसा मत मानोगे तो नन्नय लोकसें ब्रष्ट, और अन्यायी बन जाओगे. इस वास्ते ऐसी उर्गति त्यागके अहंत नाषित मतको स्वीकार करो जिस्से तुमारी अंतर्दृष्टि उघमे, सत्यासत्यकी मालुम पमे... तथा कितनेक कहते है के मनुष्यके नोग वास्ते सर्व वस्तु ईश्वरने रची है, तो माकम और जुयां लीखां ये मनुष्यके शरीरको खाते है, और सिंह, व्याघ्र, बाज प्रमुख निःकेवल पशु पदीओकाही मांस खाते है, और सिंहादिक मनुष्यका लक्षण करते है, तथा समुश्के मच्छ लाखों मच्छकोही खाके जीते है. तथा कितनेक पशु पक्षी, घास, पान, अनादि खाके जोने है तो फिर यह कहना, सर्व वस्तु परमेश्वरने मनुष्यके वास्तेही रची है Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. सो सप्रमाण नही है. जेकर कहै, सर्व वस्तु परंपरासें मनुष्यके नौगमें आती है, घासादि खानेसे ऽध तया मांसादि होते है, वे मनुष्यके नोगमें आता है. इस तरेतो सर्व वस्तु सिंह व्याघ्रादिकके लोग वास्ते ईश्वरने रची है यह नी सिद्ध होवेगा. तद्यथामनुष्यके वस्तुके नोगसे मांस रुधिरादिककी वृद्धि करता है, तिस मनुष्यके शरीरको माकम, जं, लीव व्याघ्र सिंहादि नदाण करते है. तबतो परंपरासें नोग्य होनेसे सर्व वस्तु परमेश्वरने माकड, जूं, लिंख, सिंह व्याघ्रादि जीवोंके लोग वास्ते रचे सिह होवंगे. धन्य है यह समजको ! सर्व वस्तु मनुष्यके लोग वास्ते तथा अन्य जीवोके लोग वास्ते. रची है ! ईश्वरने नहि रचे है, किंतु जैसे जैसे जीवोने पुण्य पापरूप कर्म करे है, तैसे तैसे अपने अपने निमित्तद्वारा सर्व जीवांको मिलते है. परंतु ईश्वर परमात्माने किसीके लोग वास्ते कोई वस्तु नदि रची है. हे नोले मनुष्यो ! तुम क्यों ईश्वरको कलंक देके नरकगामी बनते हो क्योंकि जब ईश्वर आदिमें एकको राजा, एकको रंक, एक सुखी, एक दुःखी, एक जन्मसेंही अन्धा, लंगमा, लुला, बहिरा, रोगी, अंगहीन, निर्धन, नीच कुल में जन्म और जन्मसे मरण पर्यंत महा दुःखी रचे है और कितनेक पूर्वोक्तसें विपरीत रचे है. जेकर कहोगे, कर्मानुसार ईश्वर रचता है तबतो अनादि संसार अवश्य मानना पमेगा. जेकर कहोगे, ईश्वरकी जैसी इज्डा होती है तैसा रच देता है, तबतो ईश्वर अन्यायी, निर्दय, पक्षपाती; अज्ञानी, बखेमी, कुतूहली, असमंजसकारी, असुखी, नबरंगी, व्यर्थ कार्यकारी, बालक्रीडा करनेवाला, रोगी, वेषी इस्यादि अनेक दूषणोंसे युक्त होवेंगे. और वे दूषणो ईश्वरमें मूर्ख Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अज्ञानतिमिरास्कर. की समज उत्पन्न करता है. फेरनी मूढमति अपको ईश्वरका क्त मानता है. यह नक्तपणा ऐसा है जैसे अपले पिताके मुख उपर बैठी महीका नमावने वास्ते पिताके मुझ पर बैठी म को जुता अर्थात् खासमा मारणा है. मूर्ख तो नक्ति करता है परंतु पिताका नुकसान अर्थात् बेइज्जत होती नहि देखता है. इस वास्ते जगत् प्रवाह अनादि है. और मनुष्य पशुआदिककी आत्मानी अनादि है और अविनाशी है. कोई किसीके खाने पीने वास्ते किसीनें नदि रचा है. अनादि कालसे पापी जीव, जीवांका मांस खाता प्राया है. और ई वर परमात्माका सदा यह उपदेश है कि हे जीव ? जीव हिंसा, मृषावचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह, मांसभक्षण, मदिरापान, परस्त्री गमनादि पापकर्म मत कर. परंतु इस पापी जीवनें सत्य ईश्वरका उपदेश नही माना है. इस वास्ते नरकादि गतियों में महा दुःख जोग रहा है. जैसे कोई सच्चा वैद्य किसी रोगी को करुणासें कहे, तुं ये ये अपथप मत खा और यह औषधी खा जिस्से तुं निरोगी हो जावेगा. परंतु मूर्ख रोगी जेकर वैद्यका कहा न करे तो अवश्य :खी होवे. इसी तरें प्रति परमात्मा ईश्वरके कहे पापरूप अपथ्य न त्यागे और कौषधी समान तप, संयम, शील, संतोषादी दधारे तो संसार में दुःखी होवे. यहां कोई कह शकता है कि वैद्यनें रोगी को दुःखी करा ? नहि कह शकता है. इसी तरें परमेश्वरजी किसी को दुःखी नहि करता है. परंतु जीव अपने कुकर्मोसें दुखी होता है. इस वास्ते श्रत परमेश्वरकी आज्ञासें सर्व जीवांकी हिंसा बोडके, मांसादि अजय और मदिरादिअपेय और चोरी यारी आदि पाप कर्म बोमके हृदयमे दयालु मुल धारके सर्व जीवोसें मैत्रीजाव कर जिस्सें धर्मका अ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंम. २२३ धिकारी हो. पूर्वपद-सर्व जीवांकी रक्षा करनेवाला और मांसका न खानेवाला हमको कोई नहि दिख पडता है क्योंकि,-" जले जीवाः स्थले जीवाः जीवा आकाशमालिनि । सर्वजीवाकुले लोके कयं निकुरहिंसकः ॥१॥" अर्थ--जलमें, स्थलमें, प्रा. काशमें सर्व लोक जीवां करके जरा है तो फिर आहार, निहार, पूजन, प्रतिलेखनादि करणेंसें साधु अहिंसक क्योंकर हो शकता है ? अपितु नहि हो शकता है. ऐसा कोन जीव है जिसके हलने चलनेसें जीव हिंसा न होवे ? साधु लोकन्नी सचित्तादि पृथ्वी नपर चलते है, नदीमें नतरते है, वनस्पतिका संघट्टा करते है, निगोद अर्थात् शेवालके जीवांकी विराधना करते है, तथा विना नपयोग अनेक क्रीमा प्रमुख जीव मर जाते है, पूजना, प्रतिलेखना करते हुए वायुकायके जीव मरते है. इस वास्ते साधुनी अहिंसक नहि है तो फिर इसरा, साधु विना, कोन अहिंसक है ? नत्तरपद-हे नोले जीव ! तुं हिंसा अहिंसाका स्वरूप नहि जानता है, इस वास्ते तेरे मनमें पूर्वोक्त अहिंसाकी बाबत कुल कलि नती है. प्रथम तेरेको हिंसाका स्वरूप कहता हूं. “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इति तत्वार्थसूत्रम् . अर्थ-प्रमादवाले जिसके मन वचन कायारूप योग है. जीवांको प्राण रहित करणा तिसका नाम हिंसा है. प्रमाद क्या वस्तु है ? मिथ्यात्त्व १ अविरति १ कषाय ३ योग । तथा मद्य १ विषय २ कषाय ३ इन सर्वको प्रमाद कहते है. ये प्रमाद जिसके मन, वचन, कायामें होवे तिन मन, वचन, कायाके योगांसें जो जीव मरे तीसका नाम हिंसा है. इस वास्ते सत् साधु अर्हत नगवंतके आज्ञासें जो आहार, वि: Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श्व अज्ञानतिमिरनास्कर. हारादि क्रिया करता है वो जेकर अप्रमत्तपणेसे करे तो तिसको हिंसक न कहिए, और जे साधु वीतरागकी आज्ञासे अप्रमत्त वर्त्तते है वे सर्व अहिंसक परम दयालु है. ऐसे मुनि तरण तारणवाले है. पूर्वपक्षः-हम ऐसे कहते है कि सर्व जीव मांसाहारी है क्योंकि सर्व जीव अन्न, वनस्पति मट्टी, मांस प्रमुख खाते है वे सर्व, जीवाके शरीर खाते है. जे जीवांके शरीर है वे सर्व मांस है. इस बातको हम अनुमान प्रमाणसेनी सिह करते है. भक्षणीयं भवेन्मांसं प्राण्यंगत्वेन हेतुना। ओदनादिवदित्येवं कश्चिदाहेति तार्किकः॥१॥ अर्थ-नात प्रमुखकी माफीक मांस नक्षण करने योग्य है. प्राणीका अंग होनेसें. इत्यादि. नत्तरपकः-यह पूर्वोक्त कहना अयोग्य है क्योंकि त्रस जी. वांका मांस अन्नकी तुल्य नहि हो सकता है. अन्न जलसें नत्पन्न होता है. अन्न अस्पष्ट चैतन्यवाले जीवांका शरीर है, और मांस स्पष्ट चैतन्यवाले जीवांका शरीर है. अन्नके जीव मरते हुए वासमान नहि देखनेमें आते है परंतु त्रस जीवोकों मारती वखत बहुत त्रास नप्तन्न होता है. हरेक दयालु जीवोका वो त्रास देखकर हृदय कंपायमान होता है. अन्न खानेवाला अत्यंत निर्दय नहि होता है. मांस खानेवाला अत्यंत निर्दय होता है, अनके खानेवालाकों को कसाइ नहि कहते है. पंचेंशिय पशु. ओको मारके खानेवालेको लोकमेंनी कसा कहते है. इत्यादि अनेक युक्तियोसें अन्न खाना और मांस खाना तुल्य नहि दो शकता है. जेकर नौला जीव हठमें ऐसाही कहै, अन्नन्नो प्रादीत अंग है, और मांसन्नी प्राणीका अंग है, इस वास्ते दोनों Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. एक तरीखे है, तिसको हम कहते है. हे नोले प्राणी ! यह तेरा कहना लौकिक व्यवहासेंनी विरु६ है. क्योंकि लौकिक व्यवहारमें प्राणी अंगकी तुल्यतासेंनी कितनीक वस्तुओ नहि मांस ऐसा एक सरीखे है, उसको हम कहते है. हे नोले प्राणी ! यह तेरा कहना लौकिक व्यवहारर्सेनी विरुध है. क्योंकि लौकिक व्यवहा. हारमें प्राणी अंगकी तुल्यतासेंनी कितनीक वस्तुओ नहि मांस ऐसा व्यवहार प्रवर्तते है. जैसे गौका दुध लक्ष्य और गौका रुधिर अनक्ष्य, अपनी माताका दूध नक्ष्य और अपनी माताका रुधिरादि अन्नक्ष्य है. तथा स्त्रीपणा करके समाननी है तोनी - पनी माता, बहिन, बेटी, प्रमुख अगम्य है, नार्यादि गम्य है. जेकर सर्व वस्तुओ सदृशही माने तब तो मनुष्य नहि किंतु पशु, कुत्ने, गर्दनादि समान है. प्रत्यक्षमेंनी देखते है कि जे कोई राजे तथा बझे गवर्नर प्रसुखके शरीमें लाता दि मारे तो जीवसें जाये नदि तो सख्त बंदीखाना तो नोगे, और किसी के. गाल गरिब महेनती मजूर प्रमुखके शीरमें लात जूति मारे तो सरकार वैसा दंम नहि देती है. क्या उनके मनुष्य पणेमें कुछ फरक है ? मनुष्यपणे तो कुछ फरक नहि, परंतु तिनके पुण्योंमें फरक है. अधिक पुण्यवानकी अविनय करे तो महा अपराध और दमके योग्य होता है और हीन पुण्यवालेको जुता मारने सेंनी ऐसा नारी दंड योग्य नही होता है. इसी तरें पंचेश्य पशु महा पुण्यवान् है, तिसको मारना और तिसका मांस नक्षण करना महा पाप है, और नरकगतिका देनेवाला है, और अनादि स्थावरोको हिंसा और तिनके शरीरका नक्षण करणेंमें महा पाप नहि है. इस वास्ते अन्नका खाना और मां. सका खाना सरीखा नहि है. शुष्क तर्क दृष्टिने जो मांस Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श्६ अज्ञान तिमिरझास्कर. खानेंमं प्राणी अंग देतु दीना सो प्रसिद्ध, विरुद्ध अनेकांतिक दोष करके ष्ट दोनेसें सुनयें योग्य नंदि है. तथादि, निरंश वस्तुके दोनसे वो तो मांस साव्य है, और वो दि प्राणी अंग देतु है, इस वास्ते प्रतिज्ञार्थ एक देश प्रसिद्ध देतु है. जैसें, नित्य शब्द है, नित्य दोनेसे, जेकर मांससें प्राणी अंग भिन्न है तब तो अतिशय करके हेतु प्रसिद्ध है, व्यधिकरण दोनेसें. जेसे " देवदत्तस्य गृहं काकस्य काष्णर्यात्. " तथा यद देतु अनेकांतिकमी है, कुत्ते यादिके मांसको लक्ष्य दोनेसे. तथा प्रतिज्ञा ऐसी लोक विरुद्ध है, मांस अन्न एक करने. इसी तरें मांस और अन्न एक सरीखे नहि. इस वास्ते मांस खाने में महा पाप है. दयालु दोवे तो मांस खाना वर्जे और धर्ममां अधिकारीजी दोवे इति दशमो गुणः t इग्यारमा मध्यस्थ सोम दृष्टि नामा गुण लिखते है. मध्यस्थ जो किसी मतका पक्षपाती न होवे. सोमदृष्टि, प्रद्वेषके श्रावसें दृष्टि श्रद्धा है जिसकी सो मध्यस्थ सौम्यदृष्टि, कहते है. सर्व मतोंमें राग द्वेष रहित ऐसा पुरुष धर्मका विचार नाना पाखंरु मंडली रूप दुकानोंमें स्थापन करा है धर्मरूप का जिनोंने ऐसे सर्व मतोंमेंसें यथावस्थित सगुण, निर्गुण अल्प बहुत्व गुण करके जेते व्यवस्थित है तिसको, कनक परीक्षा निपुण विशिष्ट कनकाधिक पुरुषवत् जानता है और ज्ञानादि गुणो के साथ संबंध करता है, और गुणोंके प्रतिपक्षभूत दो पांको दूरसें त्याग देता है. सोमवसु ब्राह्मणवत् इति एकादशमो गुणः बारमा गुणानुरागी गुणका स्वरूप लिखते है, धार्मिक arath गुणो विषे राग करे अर्थात् गुणवंत यति, साधु श्रावका Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम 嘴有 दिक बहुमान करे, मनको प्रीतिका जोजन करे, यथाहो ! ये धन्य है, इनाने अच्छा पाया है मनुष्य जन्म. पूर्वपक्ष:--इस तुम्हारे कहने से परकी निंदा होती है. जैसे देवदत्त दक्षिणके चकुरों देखता है, वामेंसें नहि. तथा चोक्तं शत्रोरपि गुणा ग्राह्या, दोषा वाच्या गुरोरपि ॥ उत्तरपकः - यह तुमारा कहना ठीक नहि. धमीं जनको निर्गुणीथोकी निंदा करणी उचित नहि. धर्मीजन निर्गुणिओकी उपेक्षा करते है, क्योंकी धर्मीजन ऐसा विचारते है कि-संतोप्य संतोपि परस्यदापा नोक्ताः श्रुता वा गुण मावहति । वैराणि वक्तुः परिवर्द्धयंति, श्रोतुश्च तन्वंति परां कुबुद्धिं ॥ १ ॥ तथा कालंमि अणाइए अणाइ दोसेहिं वासिए जीवे । जयं वियह गणो विहु तं मन्नद भोम हृच्छय ॥ २ ॥ भूरि गुणा विरलच्चिय, इक गुणो विहु जणो न सव्वथ्य, निदा साणविभदं, पसंसि मोयो वदो सेवि ॥ ३ ॥ अर्थ -- अनादि कालसे अनादि दूषणों करि वासित जीवोंमैं जो गुण उपलब्ध होवे सो गुण देखी जो श्रोताजनो ! तुम महा प्राश्वर्य मानो, परंतु अवगुण देखी आश्चर्य मत मानो ॥ १ ॥ बहुते गुवाले तो विरले है, परंतु एक गुणबालाजी सर्व जगे नदि मिलता है, जं निर्दोष है तिनका तो कल्याणही है परंतु दमतो जिसमें थोके अवगुण होवे तिसकीनी प्रशंसा करते है. ॥ २ ॥ इत्यादि संसारका स्वरूप विचारता हुआ गुणरागी पुरुप निर्गुणांकी निंदा नदि करता है. मध्यस्थ जावसें रहता है. तथा गुणांका संग्रह में और ग्रहण करलेमें प्रवृत्त होता है, थोर १२७ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञानतिमिरनास्कर. अंगीकार करे हुए सम्यग्दर्शन विरत्यादि गुणांको नाश नहि करता है, पुरंदर राजकुमारवत्. इति छादशमो गुणः तेरमा सत्कथा नामगुणका स्वरूप लिखते है. इहां सत्क थासें विपर्यय होवे तिसका जो दोष होवे सो कहते है. विकथा करणेवालका विवेकरत्न नष्ट हो जाता है. विवेक अर्थात् असत् वस्तुका परिज्ञान सोश रत्न है, अज्ञानरूप अंधकारका नाशक होनेसें. अशुन कथा स्त्रीश्रादि कथा, तिनमें आसक्ती करके मलिन है मन अंतःकरण जिसका सो विकथाका करणेवाला है. विकथाके करणेमें प्रवृत्त दुआ प्राणी युक्त अयुक्तका विचार नहि करता है, और स्वार्थ हानिन्नी नहि देखता है, रोहिणिवत्. धर्म जो है सो विवेक सार अर्थात् हितावबोध प्रधानही है. इस वास्ते पुरुषको सत्कथा प्रधान होना चाहिये. सत्य शोन्ननिक-तीर्थंकर गणधर, महाऋषि चरित गोचर कथा अर्थात् वचन व्यापारवाला होवे तो धर्मका अधिकारी दोवे. चारो विकथा जो नदि करणे योग्य है, वै रीतिकी है. ___ “सा तन्वी सुनगा मनोहररुचिः कांतेक्षणा नोगिनी, तस्या हारि नितंबबिंबमथवा विप्रेरितं सुब्रुवः । धिक्तामुष्ट्रगति मलीमसतर्नु काकस्वरां उनगामित्थं स्त्रीजनवर्णनिंदनकथा दूरेस्तु धार्थिनां ॥१॥ अर्थ-ते स्त्री सुंदर, मनोहर कांतिसे युक्त, सुंदर नेत्र धरनेवाली, नोगवती है, तिनका नितंबबिंब और ब्रगुटोका कटाद बोहोत अच्छा है. नटजेसी गतिवाली, मलिन शरीरवाली, काक जेसा स्वर गली और ऊर्जागी ए स्त्रीकुं धिक्कार है. एसीतरेह स्त्रीकी प्रसंशा और निंदाकी कथा सो धर्मार्थीसे दूर है. इत्यादि स्त्रीकपा न करे, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए द्वितीयखम. "अहो कीरत्त्यानं मधुरमधुगावाज्यखंडान्वितं, चेसंश्रब्धौ दनौ मुखसुखकर व्यंजनेच्यः किमन्यत् । नपक्कान्नादन्यश्मयति मनः स्वाउ तंबोलमेकं. परित्याज्या प्राज्ञैरशनविषया सर्वदैवेति वार्ता" ॥१॥ अर्थ-वपाक, मीग गायका घी, खांझसे युक्त, दही और मुखमें सुखकरनेवाला शाक प्रमुखसे उसरा कोन है ? प. कान्न और तांबुल शिवाय दुसरा कोई मनकुं रंजन करनेवाला स्वादिष्ट नहि है. इत्यादि नोजन विषयकी वात प्राइलोको सर्वदा त्याग करते है. इत्यादि जक्तकथा न करे. ... "रम्यो मालवकः सुधान्यकनकः कांच्यास्तु किं वयंतां, गर्गागुर्जरनूमिरुनटनटालाटाः किराटोपमाः । कास्मीरे वरमुष्यता सुखनिधौ स्वर्गोपमाः कुन्तला, वा उर्जनसंगवच्छन्नधि. या देशी कथैवंविधा" ॥ १ ॥ अर्थ-मालवा देश रमणीय है. सारा धान्योर सुवर्णसे जरपूर है. कांची देशका वर्णन क्या करना ? गुजरात उगम है. लाट देशमें सूजट लोक उद्लट है. सुखका निधि कश्मिर देशमें रहेना अहा है, कुंतलदेश स्वर्ग जैसा है. ऐसी तरेहकी देशकया दुर्जनकी संगसे माफिक बुझ्मिान पुरुषे गेमी देना चाहिए. इ. त्यादि देशकथा न करे. - "राजायं रिपुवारदारणसहः हेमंकरश्चोरदा, युइं नीममनूतयोः प्रतिकृतं साध्वस्यतेनाधुना । अष्टोयं म्रियतां करोति सु. चिरं राज्यं ममाप्यायुषा, नूयोबंधनिबंधनं बुधजनैराज्ञां कया ही. यतां" ॥ १ ॥ आ राजा शत्रुका समूहका नाश करनेमें शक्तिवाला है. केम कुशल करनेवाला है; चौर लोककुं शिक्षा करनेवाला है, उस Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अज्ञानतिमिरजास्कर. दो राजाकी बीच जयंकर युद्ध था. प्रो राजा दुष्ट है. सो म. रना चाहिए. ए राजा चिरकाल राज्य करते है. उसका राज्य में मेरा आयुष्यका बंध दो. एसी राजकथा पंकित लोमोकुं बोमना चाहिए. इत्यादि राजकथा न करे. तथा श्रृंगार रसवाली, मतिको मोह उत्पन्न करनेवाला, दां स्त्री क्लेशकी जननेवाली, परके डुबण बोलनेवाली कथा न करे. जिन, गणधर, मुनि, सती प्रमुखकी सत्कथा करे. इति त्रयोददामो गुणः सुप युक्त नामा चौदमा गुणका स्वरूप लिखते है. नवा होवे पक्ष, परिवार जिसका सो सुप युक्त है. अन्यकुं धर्म कर तेको विघ्न न करे. धर्मशील, धर्मी, सुसमाचारः --- सत् आचारका श्राचरवाला ऐसा जिसका परिवार दोवे तिसको सुपक्ष युक्त कहते है, तिनमें अनुकूल जसको कहते है जो धर्म करतेको साहाय्यकारी दोवे. धर्मशील वा धर्सप्रयोजनके वास्ते प्रार्थना करे तो अभियोग अर्थात् वगार न समजे अपितु अनुग्रह माने. सुसमाचारी दोवेतो जिसमें धर्मकी लघुता न दोवे ऐसा काम करे. राज्य विरुद्ध कृत्य न करे. पूर्वोक्त ऐसा परिवार जिसका दोवे सो सुप युक्त है सोइ धर्मके योग्य है. जनंद कुमार वत् इति चतुर्दशमो गुणः पंदरमा दीर्घदर्शी नामा गुणका स्वरूप लिखते है. जो कार्य करे तिसका परिणाम प्रथम विचारके करे, सर्व कार्य परिणाम सुंदर, आवते काले सुख देनेवाला करे. जिस कार्य में बहुत लाभ दोवे और क्लेश महेनत थोडी होवे, बहुत स्वजन, परजन जिस कार्यकी स्तुति श्लाघा करे, शिष्ट जन जिस कार्यकी अच्छा - जाने ऐसा कार्य करे. सो पुरुष इस लोकमेंनी या देख पड़े Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम.. ऐसा कार्य परिणामिक बुद्धिके बलसे करे, धनश्रेष्टिवत् . इति पचदशमो गुणः. विशेषज्ञ नामा सोलमा गुणका स्वरूप लिखते है. सचेतन अचेतन वस्तुओका अथवा धर्मके हेतुओका गुण और अवगुण जाने, अपक्षपाती, मध्यस्थ होनेसें. जो पक्षपात करके संयुक्त होता है वो गुणोंको दूषण और दूषणांको गुण समजला है और कहतानो है. नक्तंच ___ “आगृहीत बत निनीषति युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्यनिविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेश"॥ १ ॥ इस वास्ते बहलता करके विशेषज्ञ सारतरका कहनेवाला नत्तम धर्मके योग्य होता है, सुबुद्धि मंत्रीवत् इति षोमश गुणः वृक्षानुग नामा सत्तरमा गुणका स्वरूप लिखते है. व६ वयकरी परिणाम बुद्धि, परिपक्कबुद्धिः परिणाम सुंदरसद् सद्विवेकादिगुणयुक्त इत्यर्थः तथा चोक्तं तपः श्रुतधृतिध्यानविवेकयमसंयमैः । ये वृद्धास्तेत्र शस्यते न पुनः पलितांकुरैः ॥१॥ सतत्वनिकषोद्भूतं विवेकालोकवतिं । येषां बोधिमयं तत्वं ते वृद्धा विदुषां मताः॥२॥ प्रत्यासत्तिसमायानैर्विषयैश्चांतरंजकैः । न धैर्य स्खलितं येषां ते वृद्धाः परिकीर्तिताः॥३॥ नहि स्वप्नेपि संजाता यषां सत्तवाच्यतां । । यौवनेपि मता वृद्धास्ते धन्याः शीलशालिभिः ॥४॥ प्रायाः शरीरशैथिल्यात् स्यात् स्वस्था मतिरगिना। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. यौवने तु क्वचित् कुर्यात् दृष्टतत्वोपि विक्रियां ॥५॥ वाईकेन पुनईत शैथिल्यं हि यथा यथा ॥ तथा तथा मनुष्याणां विषयाशा निवर्तते ॥६॥ हेयोपादेयविकलो दोपि तरुणाग्रणीः।। तरुणोपि युतस्तेन टर्टड इतीरितः॥७॥ नावार्थः-तप, श्रुत, धृति, ध्यान, विवेक, यम, संयम, तप करे नेदे, श्रुत अंगोपांगादि, धैर्य, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, विवेक, सत्तर नेदे संयम, इनो करके जो वृह-धरमा होवे सो जिनेशासममें वृक्ष कहा है, परंतु पलित धवले केशांवालेको वृक्ष नहि कहा है. तत्वरूप कसोटीके रगमनेसें जो विवेकरूपी प्रकाश व. ध्या है ऐसा बोधमय जिनको तत्वज्ञान है सो वृक्ष पंमितोको मान्य है. अंतरंगमें राग नत्पन्न करनेवाले ऐसे शब्दादिक विषय संबंधवालेन्नी दुए है. तोनो जिनकी धैर्यता चलायमान नहि दुई वे पुरुष वृक्ष कहे है. जिनोनें स्वप्नमेंनी व्रत खंम्न नहि करा है, सो धन्य है, शीलशाली सत् परुषोने तिनको यौवनमेंनी वृक्ष कहा है, क्योंकि बाहुल्यता करके शरीर शिथिल होनेसें जीवांकी मति स्वस्थ हो जाति है और यौवनमें तो तत्वका जानकरजी विकारवान हो जाता है. वृक्षणेमें जैसे जैसे शरीर शिथिलता धारण करता है तैसे तैसें पुरुषोकी विषयसे इच्छानी हट जाति है. जो हेय उपादेय ज्ञानसे विकल बुढानी है, तोनी तरुणाग्रणी है. और हेयोपादेय ज्ञान करी संयुक्त है तो तरुण अवस्थामेंनी वृशेने उसको वृक्ष कहा है. ऐसा जो वृक्ष होवे सो अशुलाचार, पापकर्ममें नदि प्रवर्तते है यथार्थ तत्वके अवबोध होनेसें जिस हेतुसे वृक्ष अहित काममें नदि प्रवर्तता है इस हेतुसे वृक्षांके पीछे उसना चाहिये; बुझानुगामी वृशेकी तरे पापमें नहि प्रवर्तते है. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम २१६ मनीषि वृद्धानुग मध्यम बुद्धिवत् किस देतुसें, वृोकी सत् संगतिसें जले गुण उत्पन्न हो जाते है. प्रोक्तमागमे " उत्तम गुण संसर्गी शील दरिदं पिकुण इसी लई ॥ जदमेरुरिविलगं तप करागत्तण मुवे इति ॥ अर्थ - उत्तमकी संगति शील रहितकोजी शीलमान कर देती है. जैसे मेरु पर्व - तमें लगा हुआ तृणजी सुवर्णताको प्राप्त होता है. इति सप्तदशमो गुणः अारमा विनय गुणका स्वरूप लिखते है. विनीयते - अपनीयते, अर्थात् दूर करीए जिस करके अष्ट प्रकारके कर्म सो विनयः यह सिद्धांतकी निरुक्ति है. सो विनय पांच प्रकारका है; ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय, उपचारिक विनय. ए पांच प्रकारे मोक्षार्थ विनय है. इन विनय, ज्ञान करके यथार्थ वस्तु षट् व्यांको जाऐ कार्य करता हुआ ज्ञान पूर्वक करे सो ज्ञान विनय १ व्यादिकों सम्यक् श्रद्धे सो दर्शन विनयर चारित्र सम्यक् प्रकारसें पाले सो चारित्र विनय ३ तप बारा प्रकारका सम्यग् रीतिसें सेवन करे सो तप विनय, नृपचारिक विनयकें दो भेद है. प्रतिरूप योग युंजनता अर्थात् यथायोग्य नक्ति करली १ अनाशातनाविनय २ तिनसें प्रथम प्रतिरूप योग युंजनता विनय के तीन भेद है. मन विनय १ वचन विनय २ काया विनय ३ तिनमें मन विनयके दो नेद है. अकुशल मनाका निरोध करणा १ कुशल मनको प्रगट करना २. वचन विनयके चार भेद है. दितकारी वचन बोना १ मर्यादा सहित श्रोमा बोलना २ कठोर वचन न बोलना ३. प्रथम विचारके बोलना ४. काया विनयके आठ नेट है. गुरु arrest ता देखके खफा होना १ गुरु आदिकको दाय 35 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४. अज्ञानतिमिरनास्कर. जोमना २ गुरु आदिकको आसन देना ३ गुरु नहि बेठे तब तक नहि बेठना । गुरु आदिको छादशावर्त वंदणा करणी ५ गुरु आदिककी शुश्रूषा करणी ६ गुरु आदिकको जातेको पहुँजाने जाना ७ पास रहेकी वैयावञ्च, नक्ति, सेवा करणी ७. अनाशातना विनयके बावन नेद है सो इस तरेसे जानने. अरिहत १ सिह २ कुल ३ गच्छ ४ संघ ५ क्रिया ६ धर्म ७ झा न ज्ञानी ए आचार्य १० स्थावर ११ नपाध्याय १२ गगी १३ यह तेरा पद है. तिनमें प्रथम अरिहंत, अरि वैरी-श्रष्ट कर्म रूप, जिनोंने नाश करे है, सो अरिहंत. नक्तंच.-- __ " अह विहंपि कम्मं अरिनूयं पि होई सव्वजीवाणं। कम्म मरिहंता अरिहंता तेण वुञ्चति ॥ १ ॥ अर्थ-अष्ट प्रकारके कर्म सर्व जीवांके शत्रुनूत है तिनको जो हणे सो अरिदंत कहा जा. ता है, अथवा अरुहंत-जिनका फिर संसारमें नवरूप अंकुर नहि होता है सो अरुहंत कहे है, अथवा अरहंत-चौसठ इंशेकी पूजाके जो योग्य होवे सो अरहंत कहा जाता है, अथवा जिनके झानसे को वस्तु गनी नहि सो अरहंत है. यह तीनों पागंतर है. तथा मुक्ति में जो चढे सो आरोहंत कहा जाता है. अरिहंत फिसीका नाम नहि है. जो पूर्वोक्त अर्य करी संयुक्त होवे और चौत्रीस अतिशय, पांत्रीस बचनातिशय और बारह गुणां करके संयुक्त होवे और अगरह दोषां करके रहित होवे सो अरिदंत कहा जाता है. ईश्वर, ब्रह्मा, शिव, शंकर शंनु, स्वयंनु, पारगत, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी इत्यादि अरिहंतहीके है परंतु पूर्वोक्त नाम जो अज्ञ लोकोने कामी, क्रोधी, विषयी, राजा, नृत्य करनेवाला, निलंज होके किरतीके आगे नाचनेवाला, वेश्यागमन करनेवाला, परस्त्री स्वस्त्री गमन करनेवाला, शरीरको राख ल.. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ द्वितीयखम. गानेवाला, जपमाला जपनेवाला, शस्त्र राखनेवाला, बैल प्रमु खकी स्वारी करनेवाला, बेटी आदिकसे विषय सेवनेवाला, वृकके फल खाने जावे, जब वृक्ष में फल न मिले तब शाप देके वृक्षको सुका देनेवाला, अज्ञानी, मांसाहारी, मद्य पीनेवाला इत्यादि अवगुणवालाको उपर जो ईश्वर पदका आरोप करा है. सो करने वालेकी महा मूढताका सूचक है ऐसे अयोग्य पुरुषांको बुद्धिमान् कदापि ईश्वर न कहेगा. ईश्वर तो पूर्वोक्त दूषणोंसें रहित होता है. तिसकोही जैनमतमें अरिहंत कहते है.. सिह पदका स्वरूप लिखते है. यद्यपि सिह अनेक प्रकारके है नाम सिह १ स्थापना ति६ २. य सिह ३. शरीरव्य ति६४ नव्य शरीर व्य ति ५ यात्राति ६ विद्या लिइ ७ मंत्रसिह ७ बुदिति ए शियासह २० ताति६ ११ ज्ञानति १२ कर्मक्षयसिह १३ इत्यादि अनेक सिह है, परंतु हा कर्मक्षय तिःशंका अधिकार है जे सर्व अष्ट कर्नकी नमाधि कय करके सिन्हुन है वे कर्मक्षय सिह कहे जाते है. कितनेक सिवको आदिनी नहि और अंतनी नहि है. कितनेक प्तिांको आदितो है परंतु अंत नदि है. सिह जो है वे अज, अमर, अलख, निराकार, निरंजन सि ६, बुझ, मुक्त, पारगत, परंपरागत, अयोनि, अरूपी, अद्य, अनेद्य, अदा, अक्लेद्य, अशोष्य, कूटस्थ, परब्रह्म, परमा. त्मा शिव, अचल, अरुज, अनंगी, शुभ चैतन्य, अक्षय, अव्य य, अमल इत्यादि नामांसें कहे जाते है. ये सिई पुनः संसारमें जन्म नहि लेते है. जैसै बीज अत्यंत दग्ध हो जाये तो फिर अंकुर नहि देता है ऐसेही कर्म बीज शुक्लध्यानरूप अग्नि करके दग्ध हुए फिर संसारमें जन्मरूप अंकुर नदि कर शकता हैनोले जीव जो शास्त्रमें लिख गये है और अब कहे रहे है, ई Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अज्ञान तिमिरजास्कर. श्वर परमात्मा जगतमें अवतार लेता है. किस वास्ते ! साधुओ के नृपकार वास्ते और दुष्ट दैत्योंके नाश करने वास्ते और धर्मके स्थापन करने वास्ते परमेश्वर युग युगमें अवतार लेता है. यद कदना बालक्रीमावत है, क्योंकि परमेश्वर विना अवतार के लिया क्या पूर्वोक्त काम नदि कर शकता है ? कितनेक जोले लोक कहते है कि परमेश्वरके तीन रूप है. पिता १ पुत्र २ पवित्रात्मा ६ ये तीनो एकजी है. तिनमें जो पुत्र था वो इस लोक में श्रवतार लेके और जगतके कितनेक लोकों को अपते मतमें स्थापन करके, तिन इमानवाले नक्तोका पाप लेके आप शूली पर चढा ऐसा लेख वांचके हम बहुत आश्चर्य पाते है. क्या ईश्वर विना अपने पुत्र जे जगवासीओका अंतःकरण शुद्ध नहि कर शकता है ? तथा मनुष्य के पेटके अवतार विना बना बनाया अथवा नवा बनाके अथवा आप पुत्ररुप धारके इस दुनिया में नहि श्रा शकता है जो मनुष्यपीके गर्भ से जन्म लीना ? क्या ईश्वरको प्रथम ऐसा ज्ञान नहि था कि इतनें जीवोंके वास्ते मुजे श्रवतार लेके शूली चढना परेगातो प्रथमदी इनको पापी न होने देऊ ? तथा जक्तोके पापका नाश नहि कर शकता था जिस्सें शूली चढना पका. क्या जक्तजनोंका इतनाही पाप या जो एकवार शूली चढनेसें संपूर्ण फल जोगनेंमें था गया. ईश्वरसें अन्य कोई सरानी बना ईश्वर है जिनसें बोटे ईश्वरको जक्तोके पाप फल जोगनेंमें शूली चढा दीया तथा पुत्र तथा बोटे ईश्वरनें बमी हिम्मत करी जो सर्व भक्तोंकी दया करके सर्वकें पापोका फल आपे जोगना स्वीकार कीया परंतु पिता तथा बडे ईश्वरनें परो. पकार, भक्तवत्सल, परमकृपालु ऐसे पुत्र तथा बोटे ईश्वरकी दया करके पाप नाश रूप बक्षिस न करी तथा जब पिता पुत्र Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखमः एक रूप है तो पिता शूलि नहि चढा इत्यादि अनेक तकों मेरी बुझिमें प्रकट होते है. सर्व लिख नदि शकता हुँ. तो क्या ई. श्वर कृपालु, दयानिधि मेरा संशय दूर नहि कर शकता है. अ. फसोस करता हूँ के नोले जीवोंने नोलेपनेसं परम पचित्र ईश्वरको कितना कलंकित करा है. मेरी लेखनमें लिखनेकी शक्ति नदि है, नोले जीव इस जगतको देखके इसी विचारमें डूब गये है कि ऐसी विचित्र रचना ईश्वर विना केसी हो शक्ति है, परंतु यह विचार नहि करते है कि ऐसा सामर्थ्य अनंत शक्तियो करी संयुक्त ईश्वर अपने आप नत्पन्न कैसे हो गया. नोला कहता है, ईश्वर तो अनादिसें ऐसाही है तो फिर हे नोले जीव! तुं इस जगतकोनी इसी तरें अनादि माने तो ईश्वर परमात्माके सर्व आरोपित कलंक दूर हो जावे. क्योकि यह संसार च्यार्थिक नयके मतमें अनादि अनंत है और पर्यायार्थिक नयके मतमें आदि अंतवाला है और इसका कर्ता नदि है. शक्ति है, परंतु सिंह परमात्मा किसी वस्तुका कर्ता नदि है. अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंत सम्यग् दर्शन चारित्र, अनंत स्थिति, अरूपी, अगुरु लघु, सर्व विघ्न रहित सिह नगवंत है. तथा शु६ च्यार्थिक नयके मतमें सिह परमात्मा परब्रह्म एकही माना जाता है. तथा अन्य नयके मतमें सिह अनंतेनी माने जाते है. सर्व सिह लोकाग्र आकाशमें स्थित है. व्यरूप करके सर्व व्यापी नहि है, आदित्यवत्; ज्ञान शक्ति करके सर्व व्यापी है, आदित्य प्रकाशवत्. सिझांके सुखको को उपमान नहि है. इन सर्व सिहकोही लोकोने अल्ला, खुदा, ईश्वर, परमे. श्वर, परब्रह्म आदि नामो करके माना है, प्रथम पद अरिहंतको अवतार, अंशावतार, तीर्थकर, बुझ, धर्मोपदेष्टा, धर्मसारथि, धर्म सार्थवाद, धर्मका नियामक, गोपाल, धर्मका रक्षक, जगत् प्रका Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर शक, शिवशंकर, अईन, जिन त्रिकाल वित् इत्यादि नामोसे कहते है. जब जीवांको प्रबल मिथ्यात्व मोहनीय कर्मका बहुत प्रचार और प्रबल नदय हुआ तब नोले जीवोने पूर्वोक्त परमेश्वरके नाम अयोग्य अर्थात् कामी, क्रोधी. लोनी, अज्ञानी, स्वार्थ तत्पर जीवोमें आरोप करे. तबसें इस जगतमें अनेक मत बनाय गये है. जिस जीवोमें नोले लोकोने ईश्वरका उपचार करा है तिसका जब चाल, चलन. कर्तव्य वांचने में आता है तब नोले जीवांकी समज पर लांबा नच्छवास लेके हाय ! कहना पड़ता है, इस वास्ते नोले लोकोंको सर्व कल्पित ईश्वरोंको गेमके अढारह दू. षण रहित परमेश्वरकों परमेश्वर मानना चाहिये, जिस्ले सिपदको प्राप्ति होवे. इति सिह पद. तीसरे पदमें कुल-कुल नसको कहते है जो एक आचार्यकी संतानमें बढत न्यारे न्यारे साधुओक समुदाय होवे. _ गब उसको कहते है जिसमें बहुत कुलोंका समूह एकग दोवे कौटिकादि गच्छवत्. संघ चतुर्विध-श्रमण १ श्रमणी २ श्रावक ३ श्राविका ४ तिनमें श्रमण नसकों कहते है, जो तप करे और पांचो इंख्यिकों रागयोदय करके स्वस्वविषयमें प्रवृत्त दुएको थका देवे. तथा श्रमण शब्दको प्राकृत व्याकरणमें समण ऐसा आदेश होता है, इस वास्ते समण शब्दका अन्वर्थ लिखते है. सम कहते है; तुल्य मैत्री नावसे सर्व नूतोंमें, सर्व जीवोंमें, बस स्थावरों में प्रवर्ते, इस वास्ते साधुको समण कहते है. सो साधु ऐसा विचारतें है-कोई मुजको मारे तव जेसें मुजको कुःख प्रिय नहि तैसेही सर्व जीवांको दुःख प्रिय नहि है. ऐसे जान करके मन, वचन, काया करके कोई जीवको न हणे, न Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. हणावे अन्यको हणतां नलो न जाणे. इस प्रकारसे सर्व जीवोमें जिसका मन प्रवर्ने सो समण कहा जाता है. “सर्वजीवेषु समत्वे, सममणतीति समणः” एक तो समग शब्दका यह पर्यायार्थ है. ऐसेही “ समं मनोऽस्येति समनाः” यह दुसरा पर्यायार्थ नाम है. इसका अन्वर्थ यह है. सर्व जीवोमेंसें नतो को वेष योग्य है और न को प्रिय है, सर्व जीवोंमे सम मन होनेसें. सम मन "समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना सममनाः" अथवा नरग-सर्प तिसके समान होवं. जैसें सर्प परके बनाये स्थानमें रहता है, तैसेंहि परके बनाये स्थानमें रहै. तथा पर्वत समान होवे, नपसर्गसें चलायमान न होवे. तथा अग्नि समान होवे, तप तेजमय होनेसें. तया समु समान होवे गुण रत्न करके परिपूर्ण तथा ज्ञानादि गुणा करके अगाध होनेसें. तथा आकाश समान होवे, निरालंबन होनसें. तथा वृदो समान होवे, सुख पुःखमें विकार न दर्शानेसें. तथा ब्रमर समान होवे, अनियत वृत्ति होनेसें. तथा मृग समान होवे, संसार प्रति नित्य नहिग्न होनेसें. तथा पृथ्वी समान होवे, सर्व सुख दुःख सहनें सें. तथा कमल समान होवे, पंक जल समान काम नोगांके नपरि वर्जे. तथा सूर्य समान होवे, अज्ञान अंधकारके दूर करनें सें. तथा पवन समान होवे, सर्वत्र अप्रतिबद होनेसें. इन पूर्वोक्त सर्व गुणांवाले पुरुषको श्रमण कहते है. और पूर्वोक्त सर्व गुणांकी धारणेवाली स्त्रीको श्रमणी कहते है. श्रावक उसको कहते है. जो श्रद्धापूर्वक जिन वचन सुसे, तथा श्रा-पाके नव तत्वके ज्ञानको पकावे-तब तत्वका जानकार होवे; 'टु वीजतंतुसंताने;' न्यायोपार्जित धन रूप बीज, जिनमंदिर, जिन प्रतिमा, पुस्तक, साधु, साध्वी, श्रावक श्राविकारूप सात क्षेत्रमें बोवें; 'कृविक्षपे, 'जो जप, तप, शील, संतोषादि करके अष्ट कर्मरूप का Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. चंबरको विखेरे. इन पूर्वोक्त तीनो अकरोके अर्थ करी संयुक्त होवे तिसको श्रावक कहते है. और पूर्वोक्त गुणोवाली स्त्रीको श्राविका कदते है. इन चारोका समुदाय तथा कुलांके समुदायको संघ कहते है.५ क्रिया ६ धर्म ७ ज्ञान ज्ञानी ए चारों प्रसिद है. स्थविर नसको कहते है, जो धर्मसे मिगते जीवांको फिर धर्ममें स्थापन करे १७ आचार्य नप्तको कहते जो उत्रीस गुणां करी सहित होवे और सूत्रका अर्थ कहे ११ नपाध्याय नसको कहते है जो पचवीस गुणां करी सहित होवे और सूत्र पाठ मात्र शिष्योको पठन करावे १३ गणी नसको कहते है जो सर्व शास्त्रका पढा हुआ बहुश्रा होवे १३ श्न तेरांकी आशातना न करे, तेरांकी नक्ति करे, तेराको बहुमान करे, तेरांके गुणांकी स्तुति करे. ऐवं ५२ नेद पाशातना विनयके हुए है. इस तरेका विनय सर्व गुणांकां मूल वर्तते है. नक्तंच, विणओ सासणे मूलं विणओ संजओभवे । विणयाविप्पमुकस्स कओ धम्मो कउ तवो॥१॥ अर्थ-विनय जिन शासनमें मूत और विनीतही संयत होता है, विनयसे रहितको धर्म और तप दोनोद नहि. विनय किनका मूल है-सत् ज्ञान दर्शनादिकोंका. नक्तंच. विणयाउणानं नाणाउ दसणं दसणाउ चरणं ॥ चरणे हिंतो मुस्को, मुरके सुखं अणावाहं ॥ १ ॥ __ अर्थ-विनयसे ज्ञान होता है, ज्ञानसें दर्शन होता है, दर्शनसे चारित्र होता हैः चारित्रसे मुक्ति होती है और मुक्तिसे अनाबाध सुख होता है. तथा विनयसें किस क्रमसें गुण प्राप्त होता है सो लिखते है. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. “विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानं, । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतेः फलं चाश्रवनिरोधः ॥ १ ॥ संवरफलं तपो बलमपि तपसो निर्जरा फलं दृष्टं । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रिया निवृत्तेयोगत्वं ॥ २ ॥ योगनिरोधादनवसंसतिदयः संसतिक्षयान्मोदः । तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां नाजनं विनयः ॥ ३॥ तथा-मुलान नखं धप्प नवो उमम्स खंधान पच्छा समुर्विति सा हा साहप्प साह विरुदं पत्ता, तनसि पुष्पं च फलं रसोय ॥ ॥ १ ॥ एवं, धम्मस्स विण मुलं परमोसे मुरको। जेणकित्तिं सुयं सिग्धं नीसेसंचालिगच्छ॥ २ ॥ अर्थ-प्रश्रम वृक्षके मूलसें स्कंध होता है, स्कंधसें पीले शाखा होती है, शाखासें प्रशाखा और प्रशाखासे पत्र होते है, तद् पी फुल फल और रस होता है, ऐसेही धर्मका मूल विनय है, और समान मुक्ति है, शेष, स्कंध, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प, फल समान बलदेव, चक्रवर्ती, स्वर्गादिके सुख है, इस वास्ते विनयवान धर्मके योग्य होता है. नुवन तिलक कुमारवत् इति अष्टादशमो गुणः ओगणीसमा कृतज्ञता नामा गुणका स्वरूप लिखते है. बहुमान करे, गौरव संयुक्त धर्म गुरु, आचार्यादिकको देखे, धर्मगुरु धर्मके दाता आचार्यादिकको कहते है, तिनको बहुमान देवे क्योंकि यह धर्मगुरु मेरे परमोपगारी है, इनाने अकारण वत्सलोनं अतिघोर संसाररूप कुवेमें पडतेको नझार करा है ऐसी परमार्थ बुदि करके स्मरण करता है परमागम स्थानांग सिशंतके वाक्यको, सो वाक्य यह है. तीन जणोंके नपकारका बदला नहि दिया जाता है. माता पिता १ शेठ २ धर्माचार्य ३ तिनमें कोई पुरुष सवेरे और सां 38 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर फको मातापिताको शतपाक, सहस्रपाक तेल करके मर्दन करे, पीठे सुगंधीक नवटने करी नवटन करे, पीछे तीर्थोदक, पुष्पोदक, शुद्धोदक तीन प्रकारके पानीसे स्नान करावे पीछे सर्वालंका र करी विनूषित करे, मनोज्ञ स्थाली, पाकशु६ अगरह प्र. कारके व्यंजन संयुक्त नोजन करावे; जब तक जीवे तब तक मातापिता दोनोंको अपनी पिठ नपर नगयके फिरे तोन्नी माता पिताके नपकारका बदला नहि दीया जाता है. जेकर पुत्र मातापिताकी केवल प्ररूपित धर्ममें स्थापन करे तो देणा नतरे. तथा को शेठ किसी दरिडी नपर तुष्टमान होके रास पुंजी: देश दुकान करवा देवे, पीछे दरिडी पुण्योदयसें धनवान हो जावे और शेठ दरिड़ी हो जावे तव शेउ तिसके पास जावे, तब वो संपूर्ण धन शेठको दे देवे तोजी शेठके नपकारका बदला नहिं नतरे, जेकर शेठको केवली प्ररूपित धर्ममें स्थापन करे तो बदला नतरे. . किसी पुरुष तथा रूप श्रमणके मुखसें एक आर्यधर्म संबंधी सुवचन सुना है तिसके प्रनावसे कालकरी देवता हुआ है, सो देवता तिस धर्माचार्यको निद देशसे सुनिक देशमें सहारे नजामसे गाम प्राप्त करे, बहुत कालके रोगांतक पीमितको निरोग्य करे तोजी तिस धर्माचार्यका देना नदि उतरे, कदाचित् धर्माचार्य केवली कथित धर्मसें भ्रष्ट होके जावे और वो जेकर फिर तिसी धर्म में स्थिर करे तो देना नुतरे. वाचकमुख्येनाप्युक्तं;-“ प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन्, तत्र गुरुरिहामुत्र च पुष्करतरप्रतीकारः " इति ॥ १॥ तिस वास्ते कृतज्ञ नाव करके नत्पन्न हुए गुरु बहु मानसे हमादि गुणांकी वृद्धि होती है, और धर्मकान्नी अधिकारी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम श्४३ होता है. घवल राजे के पुत्र विमलकुमारवत् इति एकोन विंशतिर्गुणः. वीशमें पर हितार्थकारी गुणका स्वरूप लिखते है. इस गुणका स्वरूप नामसेंही प्रसिद्ध है. इस गुणवालेको धर्मकी प्राप्ति हुए जो फल दोवे सो कहते है. जो पुरुष स्वभावसेंद पर हित कर में अत्यंत रक्त है तिसको धन्य है. तिसने सम्यक् प्रकार से जाना धर्मका स्वरूप जाननेसें गीतार्थ हुआ है. इस कहनें सें गीतार्थ पर ति नहि कर शकता है तथा चागमः " किं इत्तो कम्यरं जंसंममनाय समय सझावो, । अन्नं कुदेसाए कमियाके इति ॥ " १ ॥ इसके उपर तभी कोइ प्रतिशय करके कष्टतर अर्थात् पाप है, जो बिना जाणे Rice रहस्य कुदेशना करके अन्य जीवाकों प्रति कष्टमें गेरे है. पर हितार्थकारी पुरुष अज्ञात धर्मस्वरूपवाले जीवांको सद्गुरू पासे सुना है जो आगमवचन प्रपंच तिस करके धर्ममें स्थापन करे, और जिनोने धर्मका स्वरूप जाना है तिनको धर्मसें डिगता धर्ममें स्थिर करे, जीमकुमारवत्. इस कदने करके साधुकि तेरे श्रावकी धर्मोपदेश अपनी भूमिका अनुसार देवे यद कथन श्री जगवती सूत्रके दूसरे शतके पांचमे नदेशमे कहा दै. तथाच तत्पाठ: तहा रूवं तं भंते समणंवा माहाणंवा पज्जुवासमाणस्स किंफला पच्जुवासणा गामाया सवणफला, सेणं भंते स वणे किं फले नाणफले, सेणं भंते नाणे किं फले विन्नाण फले, सेणं भते विन्नाणे किं फले पच्चखाणफले, सेणं भंते पंच्चखाणे किंफले संजमफले, सेणं भंते संजमे किंफले Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्व अज्ञानतिमिरनास्कर. अणण्हयफले, एवं अणण्हयफले, तवे तवे वोदाणफले, वोदाणे अकिरियाफले, साणभंते अकिरिया किंफला सि ढिपज्जुवसणफला पन्नता गोंयमा गाहा ॥ सवणे १ ना. णेय २ विन्नाणे ३ पच्चखाणे ४ संजमे ५ अणण्हय ६ तवे ७ चेववोदाणे ८ अकिरिया ॥१॥ इस सूत्रकी वृत्तिकी नाषा-तथारूप नचित स्वन्नाववाले किसी पुरुषकी श्रमणं वा तपयुक्तकी उपलकणसें उत्तरगुणवंतकी माहनं वा आप हननेंसें निवृत्त होनेसें परको कहता है, मादन अर्थात् मत हन, नपलक्षणसें मूलगुण युक्तकी वा शब्द दोनो समुच्चयार्थमें है अथवा श्रमण साधु, मादन श्रावक इनकी सेवा करे तो क्या फल है. सितके सुननेका फल होता है सुननेका फल श्रुतज्ञान है, सुननेसेंही श्रुतझान पामीये है, श्रुतका फल विशिष्ट ज्ञान है, श्रुतझानसेंही हेयोपादेयके विवेक करणेवाला विज्ञान उत्पन्न होता है, विशिष्ट ज्ञानसें प्रत्याख्यान निवृत्ति फल रूप होता है, विशिष्ट ज्ञानवालाही पापका प्रत्याख्यान करता है, प्रत्याख्यानका फल संयम है, प्रत्याख्यानवालेहीके संयम होता है, संयमका फल अनाश्रव है, संयमवाला नवीन कर्म ग्रहण नहि करता है. अनावका फल तप है, अनाववाला लघुकर्म होनेसें तप करता है. तपका फल व्यवदान अथात् कर्मकी निर्जरा है तप करके पुरातन कर्म निर्जर जाते है, व्यवदानका फल अक्रिय योग निरोध फल है निर्जरासे योग निरोध करता है, अक्रियका फल सिदि लक्षण पर्यवसान फल है, सकल फलोंके पर्यंत वर्ति फल होता है, इस वास्ते साधु श्रावक दोनांको उपदेश देनेका अधिकार है. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. फिर परहितार्थकारी कैसा होवे-निस्पृह मनवाला हो वे जो किसी पदार्थ धनादिककी इच्छालें, शु नपदेष्टान्नी होवे तोजी प्रसंशने योग्य नहि है. तथा चोक्तं परलोकातिगं धाम तपःश्रुतमिति द्वयं । तदेवार्थित्वनि तसारं तृणलवायते ॥ १॥ परहितार्थकारी महा सत्ववाला होता है क्योंकी सत्ववालोहीमें यह गुण होवे है. तथाहि-" परोपकारैकरतनिरीहता वि. नीतता सत्यमतुच्छचित्तता, विद्या विनोदनुदिनं न दीनता गुणा श्मे सत्ववतां नवंति ॥ १॥" अर्थ-परोपकारमं तत्परता, विनयता, सत्य, मनकी ब. माई, प्रतिदिन विद्याका विनोद और दीनताना अन्नाव ओ सत्व वालेका गुण है. इहां नीमकुमारनी कथा जाननी. इति विंशति तमो गुणः एकवीसमा लब्धलक नामा गुणका स्वरूप लिखते है ज्ञानावरणीय कर्मके पतले होनसे लब्धकी तरे लब्ध है, सीखने योग्य अनुष्टान जिसके सो लब्धलक है, सीखानेवालेको क्लेश नहि नत्पन्न करता है, समस्त धर्म करणी चैत्यवंदनादि सीखता हुआ, तात्पर्य यह है कि पूर्वनवमें अभ्यास करेकी तरे सर्व शीघ्रही शीख लेवे, तथा चाह, प्रतिजन्म यदश्यस्तं जीवैःकर्म शुभाशुभं । तेनैवाभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्यते सुखं ॥१॥ ऐसा पुरुष सुशिक्षणीय योमेसे कालसेंही शिक्षाका पारगामी होता है नागार्जुनवत्. इति एकविंशतितमो गुणः धर्मार्थी पुरुषोने प्रथम इन पूर्वोक्त गुणांके उपार्जनेमें यत्न Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ अज्ञानतिमिरनास्कर. करणा चाहिए, क्योंकि इन गुणाके विना धर्म प्राप्त नही होता हे, जैसे शुनूमि विना चित्र नही रह शकता है. यहां प्रत्नास चित्र करका दृष्टांत जानना. धर्मका स्वरूप. अब पूर्वोक्त गुणांका धारी जिस धर्मका योग्य है तिस धर्म का स्वरूप किंचित् मात्र लिखते है, धर्म दो प्रकारका है. श्रावक धर्म १ और यतिधर्म २. तिनमें श्रावक धर्म दो प्रकारका है. अविरति १ विरति ३. तिनमें अविरत श्रावक धर्मका स्वरूप अन्यत्र ग्रंथोमें कहा है. अविरत श्रावक धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है सामर्थ्य होवे, आस्तिक होवे, विनयवान् होवे, धर्मार्थे उद्यमी होवे, पुननेवाला होवे, इत्यादि अधिकारी कहा है. और विरत श्रावक धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है. संप्राप्त दर्शनादि, प्रतिदिन यति जनोंसें समाचारी श्रवण करे, परलोक हितकारी, सम्मक् न. पयोग संयुक्त जो जिनवचन सुणे इत्यादि. और यति धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है. आर्यदेशमें नत्पन्न हुआ होवे, जाति कुल करके विशुद्ध होवे, प्राये कीण पापकर्म होवे, निर्मल बुध्विाला होवे, संसार समुश्में मनुष्य जन्म उर्लन है ऐसा जानता है. संपदा, चंचल और जन्म मरणका निमित्त है, विषय दुःखका हेतु है, संयोग्य वियोगका हेतु है, प्रतिसमय मरण है, इस लोकमेंही पापका फल नयानक है, इत्यादि नावनासें जाना है संसारका निर्गुण स्वन्नाव निस्से विरक्त हुआ है, कषाय प. तला हुआ है. सुकृतज्ञ है, विनीत है, राजविरुह काम जिसने नहि करा है, कोई अंगहीन नहि, सर्व अंग कल्याणकारी है. श्रशवान है, स्थिरस्वनाववाला है, नपशम संपन्न होवे इत्यादि अ. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. धिकारीओके लक्षण कहे है तो फिर एकवीश गुणांवाला कौनसे धर्मका यहां अधिकारी कहा है ? श्रावकका भेद, उत्तर—ये सर्व शास्त्रांतरके लक्षण सर्व प्राये इन एकवीस गुणांकेही अंगनूत है. इस बास्ते इन गुणांके हुए नाव श्रावक होता है. प्रभः-क्या नाव श्रावक विना अन्यन्नी श्रावक है जो ऐसे कहते हो ? उत्तर-इहां जिनागममें सर्व नाव अर्थात् पदार्थ चार प्रकारसे कहे है. “ नामस्थापनाच्यन्नावैस्तन्न्यास " इति वचनात्; सोश दिखाते है. नाम श्रावक-सचेतन, अचेतन पदार्थका " श्रावक " ऐसा करणा १ स्थापना श्रावक-चित्र पुस्तकादि गत २ व्य श्रावक-शारीर, जव्य शरीर, व्यतिरिक्त देवगुर्वादि श्रज्ञान विकल तथाविध आजीविकाके वास्ते श्रावकाकारधारक ३. और नावश्रावक-" श्रक्षालुतां श्राति श्रृणोति शासनं दानं वपेदाशु वृणोति दर्शनं । कृतत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ॥ १ ॥ इत्यादि श्रावक शब्दार्थ धारी. यथाविध श्रावक नचित व्यापारमें तत्पर होवे सो रहा ग्रहण करणा, शेष तीनोको यथा कथंचित् होनेसें. प्रश्नः-आगममें अन्यथानी श्रावकोके नेद सुनते है, यउक्तं श्री स्थानांगे, - “चनविहा समणो वासगा पन्नत्ता, तं जहा अम्मापिसमा णे १ नाय समाणे २ मित्तसमाणे ३ सबत्ति समाणे ५ अथवा चनविदासमणोवासगा पन्नत्ता, तं जहा आयंसमाणे १ पमाग समाणे २ खाणुसमाणे इ खरंट समाणे ४, ये साधुओंकी - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. पेक्षासे चार प्रकारके श्रावक जानने, ये नामादि चारोमें किसमें समवरतते है. नत्तर-व्यवहार नयके मत करके य चारो पूर्वोक्त नाव श्रावकही हैं, श्रावकवत् व्यवहारकरनेसें. और निश्चय नयके मत करके शौकन समान और खरंट समान ये दोनों प्राये मिथ्यादष्टि होनेसे व्यश्रावक है. शेष षट् नावश्रावक है. इन आगेका स्वरूप आगममें ऐसा कहा है. " चिंत जर कजाई न दिह खलिनविहोइनिनेहो । एर्गत वबलो जरजस्स जगणी समोसम्लो ॥१॥” नावार्थ साधुओ के सर्व कार्य आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, ओषधी प्रमुख जे होवे तिनके संपादन करनेकी चिंता राखे, संपादन करे; कदापि प्रमादोदयसे साधु समाचारीसें चूक जावे तब अांखोसे देखकेनी स्नेह रहित न हौवे. साधु जनांका एकांत वत्सलकारक होवे सो माता समान श्रावक कहते है. ___“हियए ससिणेहोच्चिय मुणीण मंदायरो विणयकम्मे । समो साइणं परान्नवे होश सुसहाओ" नावार्थ-हृदयमेंतो साधुओ नपर बडुत स्नेह रखता है परंतु साधुओकी विनय करने में मंद आदरवाला है, साधुओको संकट पझे तब नली रीते. साहाय्य करे सो श्रावक ना समान है. ___“जित्तसमायो मागाईसिंरूसअपुबिनकजें । मन्नतो अप्पाणं मुशीण सयणान अझहियं” ३ नापार्थः-जब साधु किसी कार्यमें न पुढे तब रूस जावे परंतु साधुको अपने स्वजनोसेंनी अधिक मानता है सो मित्रसमान श्रावक है. “योनिदप्पेही पमायखलियाणि निञ्चमुच्च रई सहो । तवनि कप्पो साहु जणं तणसमं गण" " नावार्थ-अनिमानी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. काष्ट वत कठिन होवे, बीड देखनेवाला होवे, प्रमादसे चूक जावे तो तीस दोषको नित्य कहे, साधु जनोको तृण समान गणे, सो श्रावक शौकन तुल्य है. उसरे चतुष्कमें-“गुरु नपिन सुत्तथ्लो विधिंजर अवितहा मणे जस्स । सो प्रायंससमाणो सुसावन वन्निनसमए " ॥१॥ नावार्थ-गुरुका कदा दुश्रा सूत्रार्थ अस्तिथ्यपणे जिसके मनमें बिंबित होवे सो आदर्श समान सुश्रावक सिशंतमें कहा है. “पवणेण पाडागाश्व नामिज जो जणेन मूढेण। अविगिठिय गुरुवयणो सो होइ पमाश्यातुलो” श्नावार्थ-जो मूखोंके कदनेसेन्नी पताकाकी तरे फिर जावे, गुरुका वचनका जिसको निश्चय नहि है सो पताका समान है. “पमिवन्नमसंग्रहं नमूयश्गीयथ्य समणुसिगेवि । पाणु समाणो एसो अप्पनसी मुणिजणेशवरं ॥ ३ ॥” नावार्थ-जो असत् प्राग्रह पकमा है तिसको गीतार्थके कहनेसेनी नहि गेते है सो स्थाणु अर्थात् खीला, खुंटा, वुठ समान श्रावक है इतना विशेष है मुनिजनों विषे तिसका वेष नहि. “नम्मग्ग देनस निन्हवोसि मूढोसि मंदधर्मोसि । श्य सम्मं पिकहंत खरंट एसो खरंट समो." नावार्थ. तुं उन्मार्गका उपदेशक है, निन्दव है, मूढ है, मंद धर्मी है. इत्यादि. शुक्ष साधुको पूर्वोक्त वचनो करके जो खरंट कलंक देवे सो खरंट स मान है. जैसे ढीली अशुचि व्य स्पर्श करनेसे पुरुषकोही लबेमती है तैसे शिक्षा देनेवालोकोही दूषित करे सोखरंट समान. . इन पूर्वोक्त प्रागे नेदोंमेंसे शौकन समान और खरंट ये दोनो निश्चय नयसेतो मिथ्या दृष्टि है और व्यवहार नयॐ श्रावक है, क्योंकि जिनमंदिरादिकमें जाते है. 7 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अज्ञानतिमिरनास्कर. नाव श्रावकका छ लक्षण, पूर्वोक्त नाव श्रावकके लक्षण पूर्वसूरि सद् गुरु ऐसे कहते हुए है. करा है व्रत विषय अनुष्टान कृत्य जिसने सो कृतव्रतकर्मा १ शीलवान २ गुणवान् ३ ऋजु-सरल मन ४ गुरु सेवा कारी ५ प्रवचन कुशल-जैनमतके तत्वका जाननेवाला ६ एसा जो होवे सो नावश्रावक होता है. इन ग्रहों गुणांका विस्तारसें स्वरूप लिखते है. - उहाँ लिंगोंमेंसें प्रथम कृतव्रतकर्माके चार नेद है. श्रवण करणा १ ज्ञानावबोध करणा २ व्रत ग्रहण करणा ३ सम्यक् प्रकारे पालना ४ तिनोंमें प्रथम सुननेकी विधि लिखते है. विनय बहुमान पूर्वक गीतार्थसे व्रत श्रवण करे. यहां चार नंग है, कोश्क धूर्त वंदना करके ज्ञान वास्ते सुने परंतु वक्ता विषे नारी कर्मी होनेसे बहुमान न करे. दुसरा बहुमानतो करे परंतु विनय न करे, शक्ति रहित रोगी आदि. तीसरा दोनोंदी करे, निकट संसारी. कोश्क नारी कर्मी दोनोंही नहि करे सो अयोग्य है. इस वास्ते विनय बहुमान सार पुरुष गीतार्थ गुरु पासे व्रत श्रवण करे. गीतार्थ उसको कहते है जो वेद ग्रंथोके गीत पाठ, और अर्थका जानकर होवे. गीतार्थ विना अन्यसे सुने तो विपरित बोधका हेतु होवे. यह व्रत श्रवण नपलक्षण मात्र है तिस्से जो ज्ञान सुने सो गीतार्थसे सुने, सुदर्शनवत्, यह एक व्रत धर्म. १. . . . . . . . . . - सर्व व्रतोके नेद जाने तथा सापेक, निरपेक्ष और अतिचारोको जाने. ( वारां व्रतांका स्वरूप जैनतत्वादर्श, धर्मरत्न, श्रावश्यकादिसे जान लेने ). संयम, तपादि सर्व बस्तुके स्वरूपके बोधवाला होवे, तुंगीश्रा नगरीके श्रावकवत्. २. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. २५१ तीसरा जावजीव अथवा योमे काल तां व्रत ग्रहण करे तो गुरु प्राचार्यादिकके समीपे ग्रहण करे, आनंदवत् व्रतके लेनेमें जो चर्चा है सो श्रावक प्रज्ञप्तिसें जान लेनी ३. चौथा प्रतिसेवनं अर्थात् पालना सो रोगांतक में तथा देवता मनुष्य, तिर्यंचादिकके उपसर्ग हुए जैसे जांगेसें ग्रहण करा है तैसे पाले परंतु चलायमान न होवे, श्रारोग्यद्विजवत्. नृपसर्ग में कामदेव श्रावकवत. इति प्रथम कृतव्रतकर्मका स्वरूप. संप्रति शीलवान् दुसरे लक्षणका स्वरूप लिखते है. प्रथम श्रायतन सेवे. प्रायतन धर्मी जनोके एकवे मिलनेके स्थानको कहै. जहां साधर्मी बहुत शीलवंत, ज्ञानवंत, चारित्राचारसम्पन्न दोवे सो सेवायतन वर्जे. अनायतन यह है. जीलपल्लीचौरोका ग्रामाश्रय पर्वत प्रमुख हिंसक दुष्ट जीवोंके स्थान में वास न करे. तथा जहां दर्शन जेदनी सम्यक्कके नाश करनेवानिरंतर विकथा होती होवे सो महापाप अनायतन है, सो वर्जे इति प्रथम शील. विना काम परघरमें न जावे - जावेतो चौर यारकी शंका दोवे. दुसरा शील. नित्य नद्नट वेष न करें. शिष्टोंको असम्मत वेष न पेदरे. तीसरा शील. विकार देतु, राग द्वेषोत्पत्तिहेतु वचन न बोले चौथा शील. बालक्रीमा, मूर्खोका विनोद जूयादि व्यापार न करे, पांचमा शील. जो अपना काम सावे सो मोठे वचन पूर्वक साधे बा शील. ये पूर्वोक्त पटू प्रकारके शील युक्त होवे सो शीलवान्र श्रावक है. तीसरा गुणवंतका स्वरूप लिखते है. - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अज्ञानतिमिरनास्कर यद्यपि गुण बहुत प्रकारके औदार्य, धैर्य, गांनीर्य प्रियंवद. त्वादिक है तोनी इहां पांच गुणो करके गुणवान् नावश्रावकके विचारमें गीतार्थ मुनिवरोनें कहा है, वे गुण ऐसे है, __ स्वाध्याय करणेमे नित्य नद्यमी, अनुष्टानमेंनी नद्यमी, गुरु आदिककी विनयमें नित्य प्रयत्नवान् होवे, सर्व प्रयोजन-इह लोक, परलोकिकमें कदाग्रही न होवे, नगवानके कहे आगममें प्रथम स्वाध्याय गुणका स्वरूप लिखते है. पठना १, पृचना २, परावर्तना ३, अनुप्रेक्षा, ४ धर्मकथा ५, ए पांचो वैराग्य निबंधन-वैराग्यका कारण विधि पूर्वक शेनश्रेष्टिवत् करे. तिनमें पठन विधि-" पर्यस्तिकामवष्टंन्नं तथा पादप्रसारणं । वर्जयेञ्चापि विकथामधीयन् गुरुसन्निधौ ॥१॥ पर्यस्तिका करके, अवष्टंन लेके, पग पसारके गुरुके पास न बेठे तथा विकथा न करे. पुग्नेकी विधि-आसन उपर या शैया नपर वैग दुआ न पूछे, किंतु गुरुके समीप आ करके पगनर बैठी हाथ जोडी पूजे. परावर्त्तनाकी विधि-विदि पमिकमी सामायिक करी मुख ढांकी, दोष रहित सूत्र पदच्छेद गुणे पढे. अनुप्रेका गीतार्य गुरुसें जो अर्थ सुना है, तिसका एकाग्र मनसे विचार करे. गुरुसे यथार्थ धारी होवे और स्वपरके नपकारकारक होवे ऐसी धर्म कया करे शेनश्रेष्टिवत् इति स्वाध्याय गुणका स्वरूप. करणनामा उसरा नेदका स्वरूप-तप नियम वंदनादिकके करणेंमें, कराववणेंमें, अनुमोदनेमें नित्य प्रयत्नवान् होवे. आदि शब्दसें चैत्यवं. दन जिनपूजादि करणेमें तत्पर होवे, इति करण नामा उसरा नेद. गुणवान् गुरुकी विनय करे. गुरुको देखके आसनसे उठे, गुरुको आवता जागी सन्मुख जावे, गुरुको आगे मस्तकमें अंजलि धरे. आप आसन निमंत्रे, गुरु बैठे तब बैठे. वंदन करे, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३५३ सेवा नक्ति करे, गुरु जातेको पहुचाने जावे, यह आठ प्रकारका विनय है. पुष्पसालसुतवत्. इति तिसरा नेद. अननिनिवेश-हठ रहित गीतार्थका कहा अन्यथा न जाने, सत्य माने, श्रावस्ती नगरीके श्रावक समुदायवत् . इति चौथा नेद. जिनवचन गुण रुचि पूर्वक-सम्यक्त पूर्वक सुने, विना रुचि श्रवण करना व्यर्थ है. क्योंकि सम्यक रत्न शश्रूषा और धर्मराग रूप होनेसे. शुश्रूषा और धर्मराग इन दोनों सम्यकके सहनावि लिंग करके प्रसिद है. जयंती श्राविकावत्, इति पांचवा नेद. इति नावश्रावकका गुणवंतनामा तिसरा नेद. ऋजु व्यवहारी नामा नावश्रावकका चौथा गुण लिखते है. ऋजु व्यवहारगुणके चार नेद है. यथार्थ कहना, असंवादी वचन धर्म व्यवहारमें, क्रय विक्रय व्यवहारमें, सादी व्यवहारादिकमें सत्य बोलना. इसका नावार्थ यह है परवंचन बुहिसें धर्मको अधर्म और अधर्मको धर्म नाव श्रावक न कहे, सत्य और मधुर वचन बोले, और क्रय विक्रयमेंनी वस्तुका जैसा नाव दोवे तैसाही कहै; मोघेको सस्ता और सस्तेको मोघा न कहै, राजसन्नामेंनी जूग बोलके किसीको दूषित न करे, और जिन बोलनेसे धर्मकी दासी होवे ऐसा वचननी न बोले, कमल श्रेष्टिवत्, इति प्रथमन्नेद. अब दुसरा नेद लिखते है, अवंचि. का क्रिया-परको दुःख देनेवाली मन वचन कायाकी क्रिया न करे, हरिनंदीवत् . इति उसरा नेद. अशु व्यवदारसें जो नाविकालमें कष्ट होवे तिसका प्रगट करना जैसे हे न ! मत कर पाप चौरी आदिक जिस्से इस लोक परलोकमें दुःख पावेगा. नश्श्रेष्टिवत् . इति तीसरा नेद. सदनावसे मैत्रीनावका स्वरूप कहते है. निष्कपटसें मैत्री करे, सुमित्रवत् क्योंकि मैत्री और कपटनावको परस्पर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अज्ञानतिमिरनास्कर. गया आतपकी तरे विरोध है, नक्तंच “शाग्येन मित्रं कलुषेण धर्म, परोपतापेन समृमिनावं । सुखे न विद्यां परुषेण नारी, वांछंति ये व्यक्तमपंमितास्ते ॥ १ ॥ अर्थ-जे पुरुष शठतासे मित्र, मलिन तासे धर्म, परोपतापसे समृद्धि, सुखसें विद्या और कठोरतासे नारीकुं श्चता है सो पुरुष पंमित नहि है, इति चतुर्थ नेद. जेकर श्रावक पूर्वोक्त चारों गुणोंसें विपरीत वर्ते तो धर्मकी निंदा करावणेसे अपनेकों और धर्मकी निंदा करनेवालोंको जन्म तकनी बोधि प्राप्त नहि होवे है. इस वास्ते श्रावक ऋजु व्यवहार गुणबाला होवे. गुरु शुश्रूषा नामा पांचमा नाव श्रावकका लक्षण लिखते है. गुरुके लक्षण ऐसे है, धर्मज्ञो धर्मकर्ताच, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्वभ्यो धर्मशास्त्राणां देशको गुरुरुच्यते॥१॥ अर्थ-धर्मकुं जाननेवाला, धर्मका कर्ता, सर्वदा धर्मका प्रवर्तक और प्राणीयोकुं धर्मशास्त्रोका उपदेशक होवे सो गुरु कहेवाता है. जो इन गुणों संयुक्त होवे सो गुरु होता है. तिस गुरुकी शुश्रूषा सेवा करता हुआ, गुरु शुश्रुक होवे सो चार प्रकार है. प्रश्रम सेवा नेद लिखत है. यथावसरमें गुरुकी सेवा करे, धर्मशान आवश्यकादिकोंके व्याधात न करणेसें, जीर्णश्रेष्टिवत्. इति दुसरा कारण नेद. सदा गुरुके सन्नुत गुण कीर्तन करणेंसें प्रमादी अन्य जीवांको गुरुकी सेवा करणेमें तत्पर करे. पद्मशेखर महाराजवत. इति श्रोषध नेषज प्रणामनामा तिसरा नेद-औषध के. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितोयखंम. | ՋԱԱ वल व्यरूप अथवा शरीरके बाहीर काममें आवे-नेषज बहुत व्यका नेलसें बनी अथवा शरीरके अभ्यंतर नोगमें आवे श्राशब्दसें अन्यन्नी संयमोपकारी वस्तु आप देवे, अन्य जनोंमें दीलावे, सम्यक प्रकारे निष्पादन करे, श्री युगादि जिनाधीश जीव अन्नय घोषवत् गुरुके तां नक्तंच अन्नं पानमोषधं बहुविधं धर्मध्वज कंबलं, वस्त्रं पात्र मुपाश्रयश्च विविधो दंडादि धर्मोपधिः। शस्तं पुस्तकपीठकादि घटते धर्माय यच्चापरं, देयं दानविचक्षणैस्तदखिलं मोक्षार्थिने भिक्षवे ॥१॥ अर्थ-दान में निपुण ऐसा पुरुषोए अन्न, पान, विविध औषध, रजोहरण, कांबल, वस्त्र, पात्र नपाश्रय, विविध दंम प्रमुख धर्मका नपधि और नत्तम पुस्तक पीठक, प्रमुख सब मोहाथीं मुनिकुं देना चाहिए. जो मन वचन काया गुप्तिवाले मुनिजनांको शुइ नावर्से औषधी आदिक देवे सो जन्म जन्ममें निरोगी होवे. नाव नामा चौथा नेद लिखते है. गुरुको बहुमान देवे, प्रीतिसार मनसे श्लाघा करे, संप्रति महाराजवत्. गुरुके चित्तके अनुसारे चले, गुरुको जो काम सम्मत होवे सो करे. नक्तंच “सरुषि नतिः स्तुतिवचनं, तदन्निमते प्रेम तहिषि शेषः दानमुपकारकीर्तन, ममूलमंत्रं वशीकरणं ॥१॥ ____ अर्थ-क्रोधीसे नमस्कार और स्तुति वचन, तिनका स्ने. हीसे प्रेम और वेषीसे वेष, दान, नपकारकी प्रशंसा ओ मूल मंत्र शिवायका वशीकरण है. इति. अथ प्रवचन कुशलनामा बग गुण लिखते है, सूत्र में कुश ल १, अर्थ सूत्रानिधेय तिसमें कुशल २, नत्सर्ग सामान्योक्तिमे Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अज्ञानतिमिरजास्कर. कुशल ३. अपवाद विशेष कहने में कुशल ४. जाव विषे विधिसार धर्मानुष्ठान करणे में कुशल, ए. व्यवहार गीतार्थ आचरित रूपमें कुशल ६ . इन म्होंमे गुरु उपदेशसें गुण कुशलपलेको पाम्या है अथ इन बदोंका जावार्थ कहते है. उचित योग्य श्रावक भूमिका तक सूत्र पठण करे, प्रवचन माता और ब जीव निकाय अध्ययन पर्यंत आगम सूत्र और असें पढ़े, और अन्यजी पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, कर्मग्रंथादि शास्त्र समूह गुरुगमसें. पण करे, जिनदासवत् इति प्रवचन कुशलका प्रथम नेद. सुले सूत्रका अर्थ स्वभूमिकातक सुगुरु समीपे गीतार्थ गुरु समीप श्रवण करनेसें समुत्पन्न प्रवचन कौशल करके जाव श्रावक होवे, ऋषिन पुत्रवत् इति प्रवचन कुशलका दुसरानेव. अथ नत्सर्पिवादनामा तीसरा चौथा भेद लिखते है. नत्सर्ग और अपवाद जिनमतमें दोनों प्रसिद्ध है, तिनका विषय विभाग करणा, करावणा यथावसरमें सो जाने तात्पर्य यह है कि केवल उत्सर्गही नदी माने, न केवल अपवादही माने किंतु यथावसरमें जो योग्य होवे तो करे. क्योंकि नंचि जगादकी श्र पेक्षा नीची प्रसिद्ध है, और निंचिकी अपेक्षा नंची प्रसिद्ध है. ऐसेदी नत्सर्ग अपवाद दोनों तुल्य है. इस वास्ते यथावसरे दोनोमेंसें [प बहुत देखें तैसे प्रवर्ते, क्योंकि सिद्धांत में जितने · त्सर्ग है तितनेही तिस जगे अपवाद है. इस वास्ते यथावसरे प्रवर्त्ते, दोनों गुणो उपर अचलपुरके श्रावक समुदायकी कथा जननी, इति प्रवचन कुशले तीसरा चौथा नेद. or विधिसार अनुष्टाननामा पंचम नेद लिखते है. धारण करे, पक्षपात करे, विधिप्रधान अनुष्टान में देव गुरु वंदनादिकमें तात्पर्य यह है - विधिसें करणेवालेका बहुमान करे आपनी साम Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखंझ. पीके हुए विधि पूर्वक धमार्नुष्टानमें प्रवर्ते. सामग्रीके अन्नावसें विधि न हो शके तो विधिका मनोरथ न त्यागे, प्रविधि करता दुआ विधिका मनोरथ करे तोनी आराधक है ब्रह्मसेन श्रेष्टिवत् इति प्रवचन कुशलका पांचमा नेद. __अथ व्यवहार कुशलनामा बग नेद लिखते है. देश सुस्थितःस्थितादि, काल सुनिक ऽनिदादि, सुलन उर्लन्नादि व्य हृष्ट स्नानादि लाव, इनको अनुरूप योग्य जाने. गीतार्थीका व्यवहार जो जहां देशमें, कालमें, जावमें, वर्तमान गीतार्थाने नत्सर्गापवादिके जानकारोने गुरु लाघव ज्ञानमें निपुणोने जो आचरण करा है व्यवहार तिसको दूषित न करे. ऐसा व्यवहारमें तथा ज्ञानादि सर्व नावमें कुशल होवे, अन्नयकुमारवत् . इति प्रवचन कुशलका व्यवहार कुशल बग नेद. तिसके कहनेस कथन करा प्रवचन कुशल नाव श्रावकका ठा लिंग ६. यह नक्त स्वरूप प्रवचन कुशलके बन्नेद. नाव श्रावकके लकण क्रियागत कहे है, जैसे धूम अनिका लिंग है ऐसेही यह नाव श्रावकके लक्षण कहे है. प्रश्न- तुम तो यह लक्षण क्रियागत कहते हो क्या अन्य नी लिंग है ? नत्तर-नावगत सतरे लिंग अन्यत्नी है वे नी यहां लिखते है. स्त्री, इंडिय, अर्थ, संसार, विषय, प्रारंन, गृह, दर्शन, गाडरिकादी प्रवाह, आगम पुरस्सर प्रवृत्ति, दानादिकमें यथाशक्ति प्र. वर्त्तना धर्मानुष्टान करता हुआ लज्जा न करे, सांसारिक नाव, रक्तष्ठि न होवे, धर्म विचारमें मध्य स्वनावे होवे, धन स्वः 88 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरत्नांस्कर. जनादिकके प्रतिबंधसे रहित होवे, परके नुपरोधसें काम लोग नोगे है, वैश्याकी तरे गृहवास पाले. अथ इनका स्वरूप लिखते है. प्रथम स्त्री नेदका स्वरूप लि खते है. स्त्री कुशीलता निर्दयतादि दोषांका नवन है, चल चित्त है, अन्य अन्य पुरुषकी अन्निलाषा करणेसे नरकके जानेको सीधी समक है, स्त्रीको ऐसी जानके श्रेयार्थी पुरुष स्त्रीके वशवर्ती तदधीनचारी न होवे, काष्ठश्रेष्ठीवत्. इति प्रथम नेद. - अथ इंभियनामा उसरा नेद. यहां इंघिय, श्रोत्र चकु, घ्राण, रसना, स्पर्शन, पांच नेद है. ये पांचो चंचल घोमेकी तरे दुर्गति, उर्योनि, पदकी तर्फ जीवको खेंचके ले जाते है. इस वास्ते इनको पुष्ट घोमेकी तरे शोननिक ज्ञानरूप लगाम करके वश करे, विजयकुमारवत् . इति दुसरा नेद.. अथ अर्थनामा तिसरा नेद. धनको सर्व अनर्थका मूल जाणी तिसमें लुब्ध न होवे. नक्तंच- अर्थानामर्जने दुःखं अर्जितानां च रणे। नाशे दुःखं व्यये दुःखं धीगर्यो दुःख नाजनं ॥१॥ अर्थ-व्य नपार्जन करने में सुःख है. उपार्जन पी नस. की रक्षामें दुःख है. और नाश तथा खर्च में पुःख है, च्य दुःख का पात्रज है, नसको धिक्कार है. तथा धन चित्तको खेद कर्ता है. यथा राजा रोहति किंतु मे हुतवहो दर किमेतःनं, किं वामी अन्नविष्णवः कृतनिन्नं लास्यंत्यदो गोत्रिकाः। मोषिष्यंति च दस्यवः किमु तथा नष्टा निखातं नुवि, ध्यायन्नेवमहर्निशं धनयुतोप्यास्तेतरां दुःखितः ॥ १ ॥ मेरा धन राजा ले जायगा, क्युं अनि जालेगा, क्युं मेरा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्पण हितीयखमः समर्थ नागीदार ले जायगा ? चोर लुटेगा, पृथ्वीमें डाटनेसे नाश होवे तो क्या होवे ? एसा धनवान् रातदिन दुःखी रहेता है. तथा क्लेश और शरीर परिश्रम तिनका कारण है, तथादि " अर्थ नक्रचक्राकुलजलनिलयं केचिउच्चस्तरंति, प्रोद्ययस्त्रानिघातोत्सितशिखिकणकं जन्यमन्ये विशंति । शीतोष्णांना शरीरग्लपिततनुलताः केत्रिकां कुर्वतेऽन्ये, शिल्पं चानल्पन्नेदं विदधति च परे नाटकाद्यं च केचित् ॥ १ ॥ अर्थ-धनके वास्ते कोई कोइ लोक मगरझूमवाला समुकू तरत है, को शस्त्रके घातलें अग्निकण प्रगट होवे ऐसे संग्राममें घूमते है. शीत, ताप और जलसे शरीरकुं ग्लानि करके खेती करते है. कोई अकेक प्रकारकी कारिगरि करते है और को नाटकादि करते है. तया धन असार हे, धनसे संपादन करनेसं, यदाह-- व्याधीनो निरुणदि मृत्युजननज्यानियेन दम, नेष्टानि प्टवियोगयोगहृतिकृतधृड् नच प्रेत्य च । चिंताबंधविरोधबंधनवधनासास्पदं प्रायशो, वित्तं वित्तविचक्षणः क्षणमपि केमावही नेहते ॥ १ ॥ इस वास्ते बुद्धिमान् धनमें लुब्ध न होवे चारुदत्तवत् . नाव श्रावक अन्यायसें धन उपार्जनेमें थोमानी न प्रवर्ने और न्यायसें उपार्जनमें अत्यंत तृष्णावाननी न होवे. तबतो क्या करे. जितना नफा होवे तिनमेंसें अर्ध धन धममें खरच करे, बाकी शेष रहे तिसलें शेष काम यत्नसे करे. इस लोक संबंधी यथायोग्य विचारी सो पूर्वोक्त अर्ध धन सात केत्रोंमें खर्च करे. इति तिसरा नेद. अथ संसारनामा चौथा नेद लिखते है. इस संसारमें रति न करे-क्या करके संसारका स्वरूप जाणिने कैसा है Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अज्ञानतिमिरनास्कर. संसारका स्वरूप-उखरूप है. जन्म, जरा, मरण रोग, शोक आदि करके ग्रस्त होनेसे दुःख रूप है, तथा दुःख फल है. जन्मांतरमें दुःख नरकादि फल है. पुःखानुबंधि वारंवार दुःख बांधनेसे तथा विझबनाकी तरें- जीवांको सूर, नर, नरक, तिर्य. ग, सुन्नग, उनगादि विचित्र रूप है. विझबना जिसमें ऐसा चार गतिरूप संसारको असार सुख रहित जागी इसमें रति, धृति न करे, श्रीदत्तवत् . इति चौथा नेद. अथ विषयनामा पंचम नेद लिखते है, क्षणमात्र जिनसे सुख है ऐसे जो शब्दादि पांच विषय जिनको जहर समान परिणाम खोटे जानता हुआ, जैसे विष किंपाक फल खाते दुऐ, मधुरस्वाद दिखलाता है और परिणाममें प्राणाका नाश करता है ऐसेही विषय विरसावसान है, ऐसा जानता हुआ नाव श्रावक तिनमें आसक्त न होवे, जिनपालितवत् . नवनीरु संसारवासमें चकित मनवाला विषयमें क्यों नदि गृह करता है ? तिसने जाना है तत्वार्थ जिनवचन श्रवण करणेस वे जिन वचन यह है. विषयमें सुख नहि है, निःकेवल सुखानिमान है परंतु सुख नहि है, जैसे पित्तातुर और धतुरा पीनेवालेको नपलमें और सर्व वस्तु सूवर्ण दिखती है. तथा ये विषयन्नोग में मधुरपणा मालुम होता है परंतु विपाकमें किंपाक फल समान है. पामा रोगके खाज समान है, दुःखका जनक है, मध्यान्ह कालमें मृगतृष्णा तुल्य है, विषयमें कुयोनि जन्म गहनमें पडता है, लोग महावैरी है, अनित्य है, तुब है,मलमूत्रकी खान है, इत्यादि. इति पांचवा नेद. __ अथ आरंजनामा ग नेद लिखते है. जिस व्यापारमें बहुत जीवांको पीमा होवे, खर कर्मादिमें सो आरंन वर्जे. क है, इत्यादि. श लिखते है. जि . क Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. २६१ दाचित ऐसा आरंभ करे विना निर्वाह न होवे तब ससूक गुरुलाघव विचार पूर्वक करे. परंतु निध्वंस परिणामोंसें न करे. स्वयंभूदत्तवत् तथा निरारंभी साधुजनोंकी प्रशंसा करे, धन्य है है महामुनि जे मन करकेजी परपीडा नदि करते है, आरंभलें निवर्त्ते है : त्रिकोटी शुद्ध भोजन करते है. तथा दयालु कृपावान् सर्व जीवोमं है. एक अपने जीवितव्यके वास्ते कोडो जीवांको दुःखमें स्थापन करते है तिनका जिवना क्या शाश्वता है ? ऐसे नाव श्रावक जावना करे. स्वयंनूदत्त कथा त्र ज्ञेयाः इति ग्ग नेद. अ भेद नामा सातमा भेद लिखते है. गृहस्थावासको पाशबंध समान मानता हुआ गृहस्थवासें रहें, जैसें पाशी में पका पक्षी उम नदि सक्ता है, तिस पाशीको कष्टरूप मानता है. ऐसे संसारनीरु माता पितादिकके संबंधसे संयम नदि धारण करशक्ता है तोजी शिवकुमारकी तरे नाव श्रावकगृहवास में दुःखीही होता है. इस वास्ते चारित मोहनीय कर्मके नाश करनेको तप, संयम रूप प्रयत्न करता है. इति सातमा नेद. अथ दर्शन नामा आठमा नेद लिखते है. जाव श्रावक दर्शन - श्रद्धा - सम्यक्त्व निर्मल अतिचार रहित धारण करे कैसा हो के - देव गुरु धर्मतत्वो में आस्तिरूप परिणाम तिन करके संयुक्त दोके, जिन, और जिनमत और जिनमत में स्थिर पुरुषांको व के शेष संसारको अनर्थरूप माने निश्चयसारकी प्रतिपत्ति जिनमतकी प्रज्ञावना यथाशक्ति करे, शक्तिके प्रभावसें प्रभावना करणेवालेकी उपष्टंन बहुमानसें करे तथा प्रशंसा करे जिनमंदिर, जिनचैत्य तीर्थयात्रादिसें नन्नति करे. गुरु धर्माचार्यकी वि शेष क्ति करे. इत्यादि धर्म कृत्योसें अच्छी बुद्धिवाला निश्वल Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अज्ञानतिमिरनास्कर. निःकलंक सम्यग् दर्शन धारण करे, अमरदत्तवत् . इतिआठमान्नेद. अथ गाडुरिका प्रवाह नामा नवमा नेद लिखते है. गाडरिका एकिका, गाडर, घेटी, नेम नामांतर तिनका प्रवाह चलना. एक नेमके पीछे सर्व नेकां चलने लगती है, इसका नाम गरिप्रवाह है. एक नेम नां करती है तब सर्व ना करने लग जाती है. आदि शब्दसे कीमे मक्कोमोंका प्रवाह तिनकी तरे ये संसारी लोक तत्वको तो समजते नहि है, एकही देखादेखी करने लग जाते है. इस गाडरी प्रवाहका यत्किंचित् स्वरूप हम यहां जैनमतादि और इतिहासादि पुस्तकोमें देखा है और जैसे सुना है और जो हमने देखा है सो लिखते है. असली ईश्वर नगवतका मत गोड के कुच्छकतो पीरले मतोकी बातां लेकर और कुच्छक स्वकपोलकलियत बातां मिलाके नवीन मत चलाना तिस मतको जब एक नोला जीव अंगीकार करे तब तिसकी देखादेख अन्य जीव नेमोंकी तरे विना तत्वके जाने नां नां, हां हां करते हुए तिस मतवालेके पीछे चलने लग जाते है, तिसको हम गामरिका प्रवाह कहते है, सो इस तरेका है. - प्रथम ईश्वर, नगवान् श्री ऋषनदेवनें जैनमत इस अवसपिणी काल में इस नरतखंडमें प्रगट करा और तिसके पुत्र नरतने श्री ऋषनदेवकी स्तुति और गृहस्थ धर्मका स्वरूप प्रतिपादन करनेवाले चार वेद रचे थे. तिस अवसरमें नरतका पुत्र और श्री ऋषनदेवका चेला मरीचि नामा मुनि संयमसे ब्रष्ट हुआ, तब स्वकपोलकल्पित परिव्राजकोके मूल वेशका हेतु त्रिमंमादि रूप धारण करा. तिसका चेला कपिल मुनि हुआ, तिसने स्वकपोलकल्पित सांख्य मुख्य नाम कापिल मत अपने शिष्य आसूरीको नपदेश करा. षष्ठितंत्र नामा पुस्तक रचा. जैनमतकों Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखंग. २६६ जैनमतको गेडके कितनेक लोक इस मतको मानने लगे जब नवमा सुविधनाथ पुष्पदंतका तीर्थ व्यवच्छेद हुआ तब ब्राह्मणानासोने हिंसक वेदांके नामसे अनेक श्रुतियां रची तिनसे राजादिकों के घरमें यजय याजन करने लगे. जब विसमें अरिहंत मुनिसुव्रत स्वामीकी नलादमें वसुराजा शुक्तिमती नगरीमें हुआ तिसके समयमें हीरकदंबक उपाध्यायके पुत्र पर्वतने महाकाल असुरके सहायॐ महा हिंसक नवीन ऋचांओ रची. तद पीछे व्यासजीनै सर्व ऋषि अर्थात् जंगलके ब्राह्मणोंसे सर्व श्रुतियां लेकर तिनके चार हिस्से करे. प्रथम हिस्सेका नाम ऋग्वेद रखा और अपने पैल नामा शिष्यको दिया. उसरे हिस्सेका नाम यजुर्वेद रखा और अपने शिष्य वैशंपायनकों दिया. तिसरे हिस्सेका नाम सामवेद रखा सो अपने जैमिनि नामा शिष्यको दिया. चोथे हिस्से का नाम अथर्ववेद रखा सो सुमंतु नामा शिष्यको दिया.श्न चारों वेदोके चार ब्राह्मण नाग है, तिनके अनुक्रमसें नाम रखे ऐतरेय, तैतरेय, तांझ, गोपथ. तिस अवसरमें वैशंपायन प्रमुखोंसें वैशंपायनके शिष्य याज्ञवल्यकी लडाइ दुश्, तब याज्ञवल्क्यनें और सुलसाने शुक्ल यजुर्वेद रचा. तिसका शतपथ नामा ब्राब्राह्मणनाग रचा. तिसमें लिखा है, यादवल्क्यने सूर्यके पास विद्या शीखके शुक्ल यजुर्वेद रचा है. यह सूर्य नामा को ऋषि होगा. पीछे इनमेंसें जैमिनिने पूर्व मीमांसा रची. जब तिस मतकी बहुत वृद्धि दुश् तब तिस मतके प्रतिपदी ब्रह्माद्वैत मतके प्रतिपादक सांख्यमतके साहाय्यसे ब्रह्मसूत्र रचे. तिनके अनुसार अनेक ऋषियोंने केन कठ मुंभ गंदाग्यादि उपनिषद् रचे. एकदा समये मगध देशमें गौतम ऋषिको ब्राह्मणोंने बहुत सताया तब गौतमने नपनिषद् और वेदके मतको खंगन करने वास्ते ईश्वर कर्तृ नैयायिक मत चलाया, तब लोक इसको मानने लगे, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अज्ञानतिमिरनास्कर. तब ईश्वर वादीओंको देखके पतंजलिने सेश्वरसांख्य अपरनाम पातंजल मत चलाया. उधर नपनिषदवालोनेन्नी वेद और नपनिषदोंमें ईश्वर दाखल करा. नुधर जैनमतवालानी आता था. तिस समयमें हिंज्लोक मतोंके वास्ते परस्पर बहुत विरोध करने लगे, तब अनेक ऋषियोके नामसे अनेक स्मृतिप्रो रची. की सीसे कुछ और कोसीमें कुछ लीख दीया. ऐसें गमुरी प्रवाह चला आया. जब श्रीपार्श्वनाथ जिनको दुआ २०० वा २७०० वर्षके लगनग गुजरे है तिनके निर्वाण पीने. तिनोंके शिष्योके शिष्योके पीछे कीसी गामके कृत्रिके पुत्रने जैनमुनि पासे दिक्षा लीनी साधुपणेंमें तिसका नाम बुझकीर्ति रखा सो सरजू नदीके किनारे नपर किसी पर्वतमें तप करता था, तिसके मनमें तप करता अनेक कुविकल्प नत्पन्न हुए, तब तिसने जैनमतकी कितनीक वास्ते लेकर योगाचार विज्ञानाद्वैत क्षणिकवाद नामा मत चलाया. तब लोग नसको मानने लगे, तव तिस मतके चार मत हुए. योगाचार १, माध्यमिक २, वैनाषिक ३, सौत्रांतिक ४. तब लोक चारो मतांको मानने लगे. तिसकी परंपरामे मौदगलायन और शारिपुत्र और आनंद श्रावक हुए, श्नोने बौधमतकी वृद्धि करी. जब महावीर स्वामिके पीछे राजा अशोक जैन मतको गेमके बौड़ दुआ तिसने अत्यंत बौ६ मतकी वृद्धि करी. अशोक राजाके पौत्र संप्रति राजाने फिर जैनमतकी वृद्धि करी. बौधोके और जैनमतके बलसे वेदमत, अद्वैत पातांजल, सांख्य प्रमुख मतो बहुत कम हो गये. तिस समय संवत ७00 के लगनग कुमारिलन उप्तन हुए तिनोनं मीमांसाके नपर वार्त्तिका रची. तिसमें कितनेक हिंसक काम निषेध करके और मनकल्पनासे कितनेक वेदश्रुतियोंके नवीन अर्थ बनाके फिर वैदिक मत चलाया, लोक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. २६५ तिसको मानने लगे. तिस समयमेंही शंकरस्वामी उत्पन्न हुए, तिसने विचार कियाकी जैनमत और बौधमत मानके अब लोक वैदिक मतकी हिंसा कदापि नहि मानेगे तिस वास्ते समयानुसारी उपनिषदो नपर नाष्य रची. तिसके समयमे पुराने शास्त्रो कीतनीक बातां निकाल दिनी और नवीन रचना करी. तिनके समयमें नवीन पुराण, उपपुराण नामसे बहुत शास्त्रों रचे गये. शंकर स्वामीने राजाओका बल पाकर बौक्ष्मतवालोंको हिमालयसे लेकर श्वेतबंधु रामेश्वर तक कतल करवा माला परंतु जैन मत सर्वथा नष्ट नहि दुआ, किंतु कम हो गया. शं. करस्वामिने अद्वैतमत, शैवमत और वाममतके मुख्य देव श्री चक्रको द्वारिका शृंगेरी प्रमुख मगेमे स्थापन करा, तब लोक तिनको मानने लगे. तिनके पीछे रामानुज उत्पन्न हुआ. संवत ११३३ के लगलग तिसने शंकरके मतको खंगन करके श्री वैब्णव चक्रांतियोका मत चलाया और नपनिषदोपर शंकरलाष्यसें विरु नाष्य बनाया, लोक तिसको मानने लगे. तिस पीने संवत १५०० के लगन्नग वल्लनाचार्यनें रास विलासी मत चलाया. वैष्णवमतमेसें अनेक शाखा निकली. निंबार्क, मध्वर्क रामानंदजीने वैरागीओका मत चलाया. गुजरात देशमें १०० वर्ष लगलग गुजरे है तिस समयमें एक प्राह्मणने स्वामिनारायणका पंथ चलाया है. पीडले सर्व मतोंको रद करते है. इस मतके चलानेवालेका चालचलन कैसी होवेंगी यह तो हम देखते है. परंतु तिनकी मादीवालेको तो हम देखते है. करोडो रुपश्योकी जमा ननोंने अपने सेवकोंसें एकही करी है, ऐसी बात लोक कहते है. और अस्वारी वास्ते सर्व वस्तु मोजूद है. गहना गांग पहनते है, स्त्रीओंसे विवाह करते है, स्त्रीओंसें लोग लोगते है, लड़के नुत्पन्न करते है, खुब खाते और मजे नमाते हैं. - ३० Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अज्ञानतिमिरनास्कर. और जो ननके चेले साधु है वे दो तरेंके है. एक धवले वस्त्र रखते है, रुपए रखते है, जघराणी करके महंतको देते है, और जो नगवे वस्त्र रखते है. चे तुबा रखते है रुपईये नदि रखते है, जुत्ते पेहरते है, अस्वारिपर चढते है, माथे उपर फेंटा बांधते है, स्नान करते है, खुब नोतरेसे जिमते है, लोकोंकों कहते है नववार सहित शील पालते है, इनके नक्तजन जैनीयो की तरे कांसिये बजाते है. इस मतको गुजरानमें रजपुत, कुनबी,, कोली प्रमुख बहुत लोको मानते है. इनोंने मत बहुत गुजरातमें चलाया है. उधर सिकंदर लोदी बादशाह के समयमें काशीके पंडितोसे लमनिडके और पतंजल शास्त्र कुच्छक सुरा सुणांके कुच्छ मनकल्पित गप्पे मिलाके कबीर जुलाहेनें कबीरमत चलाया. लोक तिसकोनी. मानने लगे. कबिरने मूर्ति पूजन निषेध करा. तिसके पीछे तदनुयायी वेद, पुराण और, जैनमतके भार मारफतवाले मुसलमानोके मतसें कुच्छक बात लेकर नानकसाहिब बेदि कृत्रिने नानकपंथ चलाया, तिसको लाखो लोक मानते है. अकबर बादशाहकी वखतमें दादुजीने दाउथ चलाया, तिसको हजारो लोक मानने लगे. नधर तुकाराम नक्तने दक्षिणमें नक्तिपंथ चलाया, तिसको हजारो लोग मानने लगे.. दीक्षीके पास बुडाणी गामके रहनेवाले गरीबदासः नामा जाटनें गरीबदास पंथ चलाया. लिसके संप्रदायो साधु परमानंद, ब्रह्मानंद, हंसराम प्रमुख अब वेदांती बन रहे है. ब्रह्मानंदतो चाषा.. कवित बनाने में कवि बन रहा है, इस मतको लोग मानमें लगे. नधर नानकसाहेबके समयमे गोरखनाथने कानफामे योगीोका मत चलाया, और सूरोदय विगेरे ग्रंथ रचे. तिसके पीछे मस्तनाथने नास्तिक कानफामे जोगीयोका पंथ चलाया. इस पंथका महंत दीजीके पास बाहेर गाममे रहता है, इनकोनी लोक मा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखमः । नने लगे. मेवामके शाहपुरमे रामस्नेही पंथ चलाया. निःकेवल सर्व दीन राम-राम-राम रटते है. नियानीके पास मेडराज और नानकीने एक मश्कर पंय निकाला है, तिसकोनी कितनेक मानते है. पंजाबने नारामसिंह सुतारने कुकापंथ चलाया है, तिसको हजारो लोक मानते है. गुरु गोविंदसिंहने निर्मला पंथ काढा, अब वेदांत मानते है. चल, कटे, रोदे, गुलाबदासी - त्यादि गेटे गेटे अनेक पंय निकले है सर्व पंथवाले अपनी अपनी खीचमी न्यार। न्यारी पकाते है. एक उसरे मतको जूग कहता है, आप सच्चा बनता है. नधर युरोपीअन लोकोने हिंदुस्थानमे साहीके मतका नपदेश करणा शुरु किया है. उपदेशसे, धनसें, स्त्री देनेसे लोकोको अपने मतमे वेष्टिझम् देके मिलाते है नधर बंगालेमे रायमोहन, केशवचं, नवीनचं, विगेरे बाबुओने ब्रह्मसमाज मत खमा करा है. तिसका कहीं ऐसा है कि ईश्वरका कहा पुस्तक जगतमें कोईनी नहि है. लोकोने अपनी अपनी बुदिसें पुस्तक बनाके ईश्वरके नामसे प्रसिध्द करे है, पुरुषकों नेक काम करना चाहिये, परनव है वा नहि, नरक स्वर्ग कोन जाने है कि नहि. इत्यादि मतोंसे आर्य लोकोंकी बहुत दुर्दशा हो रही है तोनी इतने में दयानंद सरस्वतिकोनी नवीन मत चलानेकी हिरस नत्पन्न नइ. तब अपनी अक्कलसें खुब विचारा और शौचा होवेगा कि जेकर ब्राह्मण, सन्यासी, वैष्णव वगैरों के पुस्तकानुसार उपदेश करूंगा तो प्रतिवादीयोको उत्तर देना कठिन पमेगा, और ब्रह्मा, शिव, विष्णु ये देव ठीक नहि और पुस्तकन्नी सन्यासी ब्राह्मणोंने बहुत जूठे रच दिये है, तिनके माननेसे आदमीका बहुत फजिता होता है, प्रतिवादीनौको उत्तर देनानी मुश्कील है, इस वास्ते वेदकी संहिता ईश्वरकी कथन करी दुर है, एक ईशावास्यक उपनिषद् गे. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० . अज्ञानतिमिरनास्कर. कि बाकि शेष नपनिषद्, वेदोंके चारे बाह्मणनाग, और सर्व स्मृलियो, सर्व पुराणादि प्रमाणिक नहि है, जितने तीर्थ गंया वियेरे है वे सर्व मिथ्या कल्पित है, वेदकी संहिताके जे प्राचीन नाष्य, टीका, दीपिकादि है वे नी यथार्थ नहि है, इस वास्ते अपनी बुझिसे दो वेद अर्थात् ऋग् और यजुर्वेद उपर नाष्य रचना शुरु करा. ( सो हमने अधूरा देखा है) दयानंदजीतो अजमेरमें काल कर गये संवत् १एव0 में मेंने सुणे है, सो कहा जाने नाष्य पुरा दुआ के नहि. हमारी समजमें दयानंदने बहुत वाते जैनमतसें मिलती कथन करी है. इतनाही फरक है कि दयानंद सरस्वति अधार दूषण वर्जित पुरुषका कथन मान लेता और घृतादि सुगंधी वस्तुका हवन, यजन करना गेड देता. जगतको प्रवाहसे अनादि मान लेता और सदामुक्त रहना जीवांकां मान लेता तो दयानंद परमानंद सरस्वति हो जाता. परंतु नगवंतने ऐसाही ज्ञानमें देखाथा सो बन गया. इसके मतमें बहुत अंग्रेजी, फारसीके पढनेवाले लोक है, वे कदाग्रहसें लोकोंसें मतकी बाबत झगडते फिरते है, परंतु ब्रह्म समाजीवाने और दयानंदजीने कितने हिंओकोइसाही होनेसे रोका है. ये कबीरसे लेकर दयानंदजी तक सर्व मतांवाले मूर्तिपूजन नहि मानते है. बाकी अन्य जो देश देशांतरेमें नवीन नवीन, गेटे गेटे पंथ निकले है वे सर्व आर्योकी बुद्धि बीगामने के हेतु है, ये सर्व कितनेक हिंलोक अंधी गदही समान है. जैसें अंधी गदहीको अपने मालीककी तो खबर नहि. जिसने वाले पर दंमा मारा और कान पकमा सोही उपर चढ वेग. इसी तरें हिंऽ कितनेक है, जिसने नवीन पंथ चलाया तिसके पीछेही लग जाते है. नुधर जैनमतमेंसें सात निन्दव निकले परंतु तिनका मत नहि चला है. श्रीमहावीरके निर्वाण पीछे ६ए वर्षे दिगंबर मत Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. नीकला, तिसके चार मत अर्थात् संघ बने. मूलसंघ, काष्टासंघ माथुरसंघ, और गोप्य संघ. इनमेसें वीसपंथी, तेरापंथी, गुमानपंथी, तोतापंथी, इनकेन्नी परस्पर कितनीक बातोका विरोध है. और मूल श्वेतांबर मतमेंसे पुनमीआ निकला, पुनमीएसें अंचलीश्रा निकला, नागपुरीया तपासें पासचंदीमा मत निकला; पी. ठे खंपक लिखारीने विना गुरुके जिन प्रतिमाका नत्थापक सन्मबिम पंथ निकाला, खुंपकमेंसें बीजा नामकनें बीजा मत निकाला कडुआ बनीयेनें कडुआ मत निकाला, धर्मप्ती ढुंढीएने पाठ कोटि पंथ निकाला, लवजीने मुखबंधे ढुंढकोका पंथ निकाला, धर्म दास बीपीने गुजरातके मुखबंधे ढुंढकोका मत निकाला, रघुनाथ ढुंढकके चेले नीषम ढुढकनें तेरापंथीयोका पंथ चलाया, रामलाल ढुंढकनें अजवी पंथ निकाला, वखता ढुंढकने कालवादी. प्रोका मत चलाया, अब आगे क्या बस हो गई है. वहुत कुमती नवीन पंथ चलावेगे, इन पुर्वोक्त सर्व मताको परस्पर विरोध है. इन सर्व मतोके माननेवाले हिंड लेड तुल्य है; जैसे एक ने नां करती है तब सर्व ने नां करती है. इस वास्ते हिंज्लोक सर्व मतको गोमके नवीन मतोके माननेसे गडुरी प्रवाहकी तरें चलते है, और हल्लो हल्लो करते फिरते है. को इसा बनता है, कोई महमदका कलमा पढता है, कोश कुछ करता है और को कुछ करता है तत्व सर्व मतोके शास्त्र यढके को नहि निकालता है. इस वास्ते गडुरिका प्रवाह करते है. तिसको बुडिमान् परिहरे. कुरुचश्नरेश्वत् . इति नवमा नेद. अथ आगम पुरस्सर सर्व क्रिया करे ऐसा दशमा नेद लि. खते है. मुक्तिके मार्गमें अर्थात् प्रधान लोक मोक्ष तिसका मार्ग ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपमें प्रमाण को नहि है. एक राग षा: Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. दि अहारह दूषणके जितनेवाले जिनके कहे सिशंतको वर्जके, क्योंकि जीनागम जूग नहि है. नक्तंच “रामाछाषा: मोहाचा चास्यव्यते धनतं । यस्य तु नैते दोषास्तव्यानृतकारणं किं स्यात् ॥ १॥" अर्थ-जे राग, क्षेत्र और मोहसें जूग वाक्य बोलते है, जीसकुं ए दोष नहिं लागता है, सो असत्यका कारण क्युं न होता है. जिनागम पूर्वापर विरुक्ष नहि है, इस वास्ते सत्य है. तथा धर्मका मूल दया है और जिनागममें जो क्रिया करणी कही है सो सर्व दयाकीही वृद्धि करती है, इस वास्ते जगवंतने प्रथम सामायिक कथन करा है; और दाति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, अकिंचन, ब्रह्मचर्यादि है ये सर्व दयाके पालक कथन करे है. इस वास्ते जिनागम समान कोश्नी पुस्तक प्रमाण प्रतिष्टित नहि है. इस वास्ते सर्व क्रिया, चैत्यवंदनक, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमणादि (चैत्यवंदन, गुरुवंदन, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण विधि सर्व धर्मरत्नकी वृत्तिसें जाननी) बहुत विस्तार है इस वास्ते इहां नहि लिखी है. सर्व विधि वरुण महाश्रावकवत् करे. इति दशमा नेद. अथ अग्यारमा यथाशक्ति दानादिकमें प्रवर्ने सो गुण लिखते है. अपनी शक्ति न गोपवे और जिस्से आत्माको पीमा न होवे, परिणाम नाम न होवे तेसे दानादि चार प्रकारके धर्ममें चशेदय राजाकी तरें आचरण करे. कैसे आचरण करे जैसे बदुत काल तक दानादि करणेमे सामर्थ्य होवे.शहां नावार्थ यह है. बहुत धन होवे तो अति तृष्णावान् कृपण न होवे. धन योमा होवे तो अति नदार न होवे, जिस्से सर्व धनका अन्नाव होवे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयम. ३७१ .. पीछे दुःखी होजावे. इसी वास्ते आगममें कहा है, “लानोचियदाणे, लाजोचियपरिजावे, लाज्जोचियनिदीगरे सियासो" ऐसे करता हुआ बहुत कालमें प्रभूत दान देवें.. ऐसेही शील. तप जावजी विचार लेना. पारिणामिक बुद्धि विचारके धर्म में प्रवर्त्ते, चंशेदयवत्.. चर्विध धर्मका स्वरूप. " अथ दान, शील, तप, जावना, इन चारोंका स्वरूप इस जगे नव्य जीवोंके जानने वास्ते धर्मरत्न शास्त्रकी वृत्तिसें लि-खते है, तिनमें प्रथम दानके तीस जेद है, ज्ञानदान, अजयदान, धर्मोपग्रहान तिनमें ज्ञानदान इस तरेंका है. जीवादि नव प दार्थका विस्तार और नजय लोकमें करणीय कृत्य जिस करके: जीव जाये तिसको ज्ञान कहते है, सो ज्ञान पांच प्रकारका होता मतिज्ञान; श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, और केवलज्ञान: तिनमें मति ज्ञानके तीनसो बत्तीस जेद है, और श्रुतज्ञानके चौदह भेद है, अवधिज्ञानके दो भेद है, मनः पर्यायज्ञानके दो भेद: है, केवल के जवस्थ, अनवस्थ दो भेद है. इन पांचों ज्ञानका स्व-रूप अनुमाने १०००० लोकप्रमाण नाष्यटीकासें विशेषावश्यकमें कथन करा है, तहांसें जान लेना. इन पांचो ज्ञानमेंसें व्यवहा.. रमें श्रुतज्ञान चतम है, दीपककी तरें स्वपरप्रकाश दोनेंसें, इस वास्ते श्रुतज्ञान प्रधान है. श्रुतज्ञान मोह महांधकारकी लेहेरोके नाश करणेंको सूर्य तुल्य है, और ज्ञान दिष्ट, प्रदिष्ट, इष्ट वस्तुको मेलनेको कल्प वृक्ष है. ज्ञान दुर्जय नाश करणेकों सिंह समान है. ज्ञान जीव, स्तार देखनेको लोचन है. ज्ञान करके पुण्य पाप जालीने पुण्यमें प्रवृत्ति और पाप निवृत्ति करे, पुण्यमें प्रवर्त्तमान हुआ स्वर्ग, कर्मकुंजरकी घटाके अजीव वस्तुका वि Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र अज्ञानतिमिरजास्कर. अपवर्गका सुख पामे, और पापसे निवृत्ति करे तो नरक, तिर्यंचके दुःख पापसे बुटे. जो अपूर्व ज्ञान पढे सो अन्य नवमें तीर्थकर पद पामे, जो पढाचे परकों सम्यग् श्रुत तिसका फल हम क्या कहे यद्यपि बहुत दिनोंमें एकपद धारण करे, पदमें अर्ध श्लोक पढे तोनी नद्योग न गेडे, जो ज्ञान पढनेकी इच्छा है तो अज्ञानी प्राणीनी बहुमान पूर्वक माषतुषवत् ज्ञान पढने नयम करे तो शीघ्रही केवल ज्ञान पामे, यह ज्ञान निर्वाणका कारण और नरकका वारणेवाला है. नला मुनित्ती ज्ञान रहित होवे तोनी कदापि मुक्ति न होवे. संविज्ञपक्षी जैसे सम्यक्त्व स हित सुदृढ ज्ञान धरता है सो अच्छा है; परंतु ज्ञान विहीन तीव्र तप चरणमें तत्पर होवे तो ठीक नहि. जो जीव जिनदीक्षा पाकर पुनः पुनः संसारमें ब्रमण करता है सो परमार्थके न जाननेसे, ज्ञानावरणके दोषसे ज्ञानहीन चारित्रमें नद्यतनी निवाण न पामे, अंधेकी तरे दोमता हुश्रा संसार कू में पमे. अ. ज्ञानी वैराग्यवाननी जिननाषित साधुश्रावकधर्म विधि पूर्वक कैसे कर सके. जे सकल जगत को करतलगत मुक्ताफसवत् जानते है और मह, सूर्य, चं, नक्षत्रकी आयु जानते हे ये सर्व ज्ञानदानका प्रत्नाव है. दानका स्वरूप. ज्ञान दान देता दुआ जगतमें जिन शासनको वहता है, श्री पुंडरीक गणधरकी तरे श्रमोल परम पद पावे. तिस वास्ते ज्ञानदान देना चाहिए, और ज्ञानवानमुनिके पीछे चलना चाहिये और कल्याणके श्चकनें सदाझानकी त्नक्ति करणी चाहिये. इति ज्ञानदानः उसरा अन्नय दान--सर्व जीवांकी रक्षा करणी ऐसा दयाधर्म प्रति है, एकही अजयदान सर्व जीवांको देकर वजायु Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. २३ धकी तरें क्रममें प्रवीण जरामरण सि होवे. नवनीरू जीवांको शरण रहितांको जाणीने स्वाधीन अन्नयदान नव्य जीवने देना चाहिये. इति अन्नयदान. धर्मोपग्रददान अनादिदान प्रारंनसे निवृत्ते मुनियोंको देवे, इन दानके प्रत्नावसे तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मंगलीक जगतमें अधिक पछीवाला होता है, सो सुपात्र दानसे होता है. जैसें नगवान श्री ऋषन जगतनाथ दुआ घृतके दान देनेस,और मुनियोंको नक्तदान देनेसे जैसे जरत चक्रवर्ती दुधा. मुनिवरका दर्शन करनेसे एक दीनका पाप नष्ट होता है, और जो को मुनिको दान देवे तो तिसके फलका तो क्या कहेना है. ज्यां समनाववाला मुनि प्रवेश करे तो वो घरनी पवित्र है. साधु विना जि नधर्म कदापि प्रगट नहि हो सकताहै, इस वास्ते मुनियोंको शुद दान गृहस्थने देना चाहिये. और सुपात्र विना अनुकंपादान सर्व जीव नूखे, प्यासे, नंगे, रोगी प्रमुखको अपनी शक्ति अनुसारे देना चाहिये. गृहस्थोसें शुरू तपत्नी नहि दो शकता है, और विषयासक्तोंसें शीलनी पूर्ण नहि पल शकता है, भारती होनेसे नावी कठिन होता है, इस वास्ते गृहस्थके दानही मुख्य स्वाधीन है. ऐसे दानके तीन नेद है. शीलका विचार, शील है सो अपने कुल फर ननस्थलमें चश्माकी तरें जगतमें कीर्त्तिका प्रकाशक है. नर, सुर, शिव सुखका करणेवाला शील है सो सदा पालना चाहिये. जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, विद्या, विज्ञान, बुदि करके रहितनी शोलवान् पुरुष सर्वत्र पूजनीय है, सो शील दो तरेंका है, देश और सर्व; तिनमें देशशील सम्यक्त्व मूल बारा व्रत गृहस्थके है और साधुमोके अगरह इ 40 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अज्ञानतिमिरनास्कर. जार शीलांग निरतिचार जावजीव विश्राम रहित धारण करणा सर्वशील है. लघुकर्मी और महासत्ववानो जीव विषम आपदामेनी पमा दुआ मन वचन काया करके शील पालता है सीताकी तरें. तपका विचार. असंख्य नावोमें उपार्जित कर्मरूप कचवरके पुंजको नमावनेमें पवन समान ऐसा तप, शीलयुक्तकोंनी यथाशक्ति करना चाहिये, सो तप दो प्रकारका है, बाह्य ने अभ्यंतर; दोनोंके उ बनेद है. इतने कर्म नरकवाला जीव बहुत हजारो वर्ष तक दुःख नोगनेंसें कय नहि कर शक्ता है. जिसने कर्म चतुर्थनक्त एक नपवास शुन्न जावांसे करनेवाला दय कर शकता है. तीव्र तप चरण करनेसे सिंह समान साधु तीर्थकी नन्नति करके विष्णुकुमारवत् परम पदको प्राप्त हुए है. इस वास्ते तपयुक्त साधुजनोकी नक्ति करे और आपत्नी कर्मक्षय करणे वास्ते तप करे. इति तप. भावका विचार. शील पालो, दानन्नी देवो, तपत्नी करो परंतु निर्मल नाव विना सर्व करणी निष्फल है, कुके फुलवत. शुन नावकी वृद्धि वास्ते अनित्यादि बारां नावना नव समुश्मे नावा समान मावनी चाहिये. नाक विना जैसे रूप और लक विहीन पंमित, नाव विहुणा धर्म ये तीनो हसनेही योग्य है. जिसने पूर्व नवमें सुकृत्य नहि करा, मरुदेवी स्वामिनीकी तरें शुन लावनाके वशसें जीव निर्वाण पद पामे है. इति ना बना. इति अग्यारमा नेद. अथ विहीक नामा बारमा गुण लिखते है. हितकारी, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंझ. पथ्यकारी इसलोक परलोकमें पाप रहित षमावश्यककी क्रिया जिनपूजादि निरवद्य क्रिया तिसको सम्यग् गुरुके उपदेशसें अंगीकार करता हुआ, सेवता हुआ लजा न करे. कैसी है क्रिया, चिंतामणि रत्नकी तरें पुर्खन पावणी है, तिस क्रियाको देखके जेकर मूर्ख लोक हांसीनी करे तोनी लजा न करे. दत्तवत, इति बारमा नेद. अथ अरक्तहिष्ट नामा तेरमा गुण लिखते है. देवकी स्थितिके निबंधनकारण धन, स्वजन, आहार, घर, केत्र, कलत्र, वस्त्र, शस्त्र,यानपात्रादिक जे है तिनमें रागद्वेष रहितकी तरें वास करे, संसार गत पदार्थो में अत्यंत गृहि न करे, शरीरके निर्वाहकी वस्तुमें अरक्तविष्ट न होवे, ताराचंश्नरेंवत् . इति तेरमा नेद. अथ मध्यस्थ नामा चोदमा नेद लिखते है. नपशम कषायका अनुदय तिस करके सार पधान धर्मस्वरूप जो विचारे सो नपशम सार विचारवाला नाव श्रावक होता है. कैसे ऐसा होवे, विचार करता हुआ राग षसे बाधित न होवे, सो दिखाते है. मैंने यह पद बहुत लोकोंके समक्ष अंगीकार करा है, और बहुत लोकोंने प्रमाण करा है. अब में इस पदको कैसे गडं यह विचार मध्यस्थके मनमें नहि आता है, इस वास्ते रागनी पीडा नहि कर शक्ता है, तथा मेरा यह प्रत्यनीक है, मेरे पक्षको दूषित करनेसें; इस वास्ते इसको बहु जनो समद खिष्ट करूं, सत् , असत् दूषण प्रगट करी आक्रोश देने करके तिरस्कार करूं. मध्यस्थ पुरुष ऐसे शेष करकेनी पीडित नहि होता है किंतु मध्यस्थ सर्वत्र तुल्यचित्तहितकानी अपना और परका नपकार वांटता हुआ असत् आग्रह सर्वथा गीतार्य गुरुके वचनसें त्याग देता है प्रदेशी महाराजवत् . इति चौदमा नेद. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अज्ञान तिमिरभास्कर. अथ संबद्ध ऐसा पंदरवा भेद लिखते है. विचार निरंतर करता हुआ तन, मन, धन, स्वजन, यौवन, जीवित प्रमुख सर्व वस्तु कणभंगुर है, ऐसा जानता हुआ बाह्य संबंधजी बाह्य वृत्ति प्रतिपालन वर्धनादि करके संयुक्तनी है तोजी तन, धन, स्वजन करि दरि प्रमुख वस्तुओमें प्रतिबंध मूर्छा न करे, नरसुंदर नरेश्वरवत् जाव श्रावक ऐसा विचारता है, बोम करके द्विपद चतुष्पद क्षेत्र, घर, धन धान्य, सर्व एक कर्म दुसरा आत्मा यह श्रात्मा कर्मके वश जैसे अच्छे कर्म करे है तैसे अच्छे के परजवको जाता है. कोइ दिनकी बाज़ी स्वप्नेश्जालवत है. दे चिदानंद ! इनमें से तेरी वस्तु कोइ नहि है. इति पंदरवा भेद. . परार्थ कामोपजोगी ऐसा सोलमा गुण लिखते है. यह संसार अनेक दुःखकां नाजन है. यतः ― " दुःखं स्त्री कुक्षिमध्ये प्रथममिद नवेद् गर्भवासे नराणां बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुः स्त्रीपयःपान मिश्रं । तारये चापि दुःखं भवति दिरदजं वृधनावोप्यसारः संसारे मर्ण मुक्त्वा वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित्. " ॥ १ ॥ अर्थ - प्रथम स्त्रीका उदर में गर्भावासमें दुःखदै, पीछे बा - ल वयमें शरीर मलसें मलिन होता है, और स्त्रीका स्तनपान में जी दुःख है. यौवन वय में विरहका दुःख वृद्ध पप में तो सब असार है. कहो संसारमें अल्प पण सुख है ? अर्थात् नहिं है. तैसें विरक्त मन हुआ था ऐसा विचारे, इन लोगोंसें प्राणी ओकों की तृप्ति नदि होती है ऐसा जानकर अन्य जनोंकी दाक्षिण्य जोगो में प्रवर्त्तते है जाव श्रावक पृथ्वीचंड नरेंश्वत् इति सोलमा भेद. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम tre वेश्याकी तरें निराशंस होके गृहवास पाले ऐसा स तरमा नेद लिखते है. वेश्याके तरें बोमी है टकाववाली बुद्धि, जैसे वेश्या निर्धन कामुकसें जब विशिष्ट लाज नहि जानती है और किंचित लाजमी नदि जानती है तब विचारती है, आज वा aa aसको बोम दनुंगी तब तिसका मंदादरसे उपचार करती है. ऐसेही नाव श्रावकनी आज वा कल्ल मैनें यह संसार बोग देना है ऐसे मनोरथ वाला परकीय पर संबंधी घर मानके गृहवास पालन करे, किस वास्ते ? संसार बोडनेकीतो शक्ति नहि है, इस वास्ते शिथिल जाव मंदादरवाला हुआ थका संयमके न प्राप्त दोनेसेंजी कल्याणको प्राप्त होता है, वसुश्रेष्टिसतसिः श्वत् इति सत्तरमा नेद. इन जाव इति कथन करे सतरे प्रकारके नाव श्रावकका जेद. पूर्वोक्त गुण युक्तको जिनागममें जाव श्रावक कहा है. श्रावक कहो वा व्य साधु कहो. श्रागम में जाव श्रावककों व्य साधु कहा है. यदुक्तं " मिनपिंको दव्वघडो सुसावत्र तह दव्व साहुति " अर्थ - मृत पिंड दै सो व्य घट है और नाव श्रावक है सो व्यसाधु है. इति जाव श्रावक धर्म निरूपणं संपूर्ण. भावसाधुका स्वरूप. अथ भावसाधुका स्वरूप लिखते है. पूर्वोक्त जाव श्रावकके गुण उपार्जनेंसे शीघ्र नाव साधुपको प्राप्त होता है. यह उसर्ग है एकांत नदि, इनके विना उपार्जेजी साधु व्यवहार नयके मतसें दो शक्ता है. परंतु यहां जावसाधुद्दीका स्वरूप लिखते है. नाव साधु कैसा होता है सो लिखते है. निर्वाण साधक यो गांको जिस वास्ते साधते है, निरंतर और सर्व जीवो विषे समनाववाला है तिस वास्ते साधु कहते है. कमादि गुण संपन्न Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ अज्ञानतिमिरनास्कर. होवे, मैत्र्यादि गुण नूषित होवे, सदाचारमें अममादी होवे, सो नाव साधु कहा है. यतः-“ निर्वाण लाधकान् योगान् यस्मात् साधयतेऽनिशं । समश्च सर्वभूतेषु तस्मात् साधुरुदाहृतः” ॥१॥ झांत्यादिगुणसंपन्नो, मै यादिगुण नूषितः । अप्रमादी सदाचारे जावसाधुः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥ अर्थ-जे निर्वाणका साधने वाला योगकुं सदा साधते है. और सर्व प्राणी मात्रमें समन्नाव रखते है, नसकुं साधु कहते है. जे कमा प्रमुख गुणवाले है, मेत्री आदि गुणधी सुशोनित है, प्रमाद रहित और सदाचारी है, सो नावसाधु कहा है. १-२ प्रश्न-कैसे उद्मस्थ जीव नाव साधुको जाणी शके ? उत्तर-लिंगो, चिन्हो करके जाणे, प्रभ-वे चिन्ह कौनसे है ? उत्तर-चेही लिखे जाते है. तिस नाव साधुके लिंग चिन्ह सकल संपूर्ण मोक्ष मार्गानुपातिनी मार्गानुसारिणी क्रिया पनि लेहनादि चेष्टा करे तथा करणेकी इच्छा प्रधान धर्म संयममें होवे तथा प्रज्ञापनीयत्व असत् अनिनिवेशपणेका त्यागी अर्थात् कदाग्रहका त्यागी, कुटिलतासे रहित तथा क्रिया सुविहित अनुष्टानमें अप्रमाद अशिथिल पणा तथा तप, संयम, अनुष्टानमें यथा शक्ति प्रवर्त्तना तथा महानुगुणानुराग गुण पक्षपात तथा गुरु आशा आराधन धर्माचार्यके आदेशमें वर्तना, यह सात लकण नाव साधुके है. भाव साधुका लिंग. अथ इनका विस्तारसे स्वरूप लिखते है. अन्वेषण करीए अनिमत स्थानकी प्राप्तिके ताई पुरुषोने जो, सो मार्ग कहीये है. सो मार्ग व्य, नाव नेदोंसें दो तरेका Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयच. है. व्य मार्ग प्रामादिकका है. और नाव मार्ग मुक्ति पुरका सन्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप है अथवा कयोपशम नावरूप नाव मार्ग है. तिस करके इहां अधिकार है. सो फेर मार्ग कारणमें कार्यका उपचार करणेमें आगम नीति अर्थात् सिहांतमें कथन करा आचार है. अथवा संविज्ञ, पापसे मरनेवाले बहुत सत् साधुओने जो आचीर्ण करा है सो वीतरागके वचन रूप है नक्तंच “आगमो हि आप्तवचनं, आप्तं दोषकयाछिदुः, वीतरागोड नृतं वाक्यं न ब्रूयाइत्वसंजवात् ." ॥ १ ॥ इसका नावार्थ आगम सिहांत प्राप्तके वचनांको कहते है; और आप्त अगरह. दूषणोके नाश होने से होता है. आप्त कहो चाहै वीतराग कहो.. और वीतराग अनृत वाक्य असत्य वचन नहि बोलता है, देतुके असंनव होनेसें. तिस आगमकी नीति नत्सर्ग, अपवादरूप शुः संयमोपाय, सो मार्ग है. नक्तंच __“ यस्मात् प्रवर्तकं शुवि निवर्तकं चांतरात्मनो वचनं । धर्म श्वैतत्संस्थो मौनीई चैतदिह परमं ॥ १ ॥ अस्मिन् हृदयस्थे. सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनी इति । हृदये स्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसंलिक्षिः ॥ ॥” नावार्थ-जिस हेतुले जगतमें प्रवर्तक और निवर्तक वचन अंतरात्माके है और यही धर्म है जब ऐसा धर्म संस्थित है सो जैनमतमें परम मुनीं तीर्थंकर नगवान है. ऐसे धर्मके हृदयमें स्थित हुआ निश्चयही सर्वार्थकी सिदि है. तथा संविज्ञ मोदानिलाषी बहुत पुरुष अर्थात् गीतार्थ मुनिजन तिनके विना अन्य जनोंके वैराग्य नहि हो शक्ता है. तिनोंने जो आचीर्ण करा है, क्रियारूप अनुष्ठान यहां संविज्ञ ग्रहणेसे असं विज्ञ बहुत जनेनी को आचीर्ण करे तोजी प्रमाण नहि ऐसा दिखलाया है. यद् व्यवहारनाष्यं, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० " जंजीयमसोदीकरं पसथ्यपभत्तसंजयाइहिं । बहुए दिवि आयरियं न पमाणं सुदचरणाशं ॥ १ ॥ " जो जीतव्यवहार शुद्धिका करनेवाला नदि, क्योंकि पार्श्वस्थोंनें प्रमत्त संयती बदुते श्रालसीओ ने आचरण करा है, प्रवर्त्ताया है सो जीत अर्थात् श्राचरणा, शुद्ध चारित्र पालनेवाले मुनियोंकों प्रमाण नहि. बहु जनोंके ग्रहण करनेसें कदाचित् किसी एक संविज्ञनें अजाणपणे दिसें वितथ आचरणा करी होवे सोजी प्रमाण नदि इस वास्ते संविज्ञ बहुजनोंने श्राचरण करा होवे सो मोक मार्ग है. इस वास्ते ननयानुसारणी श्रागम बाधा रहित संविज्ञ व्यवहाररूप सो मार्गानुसारिणी क्रिया है. अज्ञानतिमिरजास्कर. प्रश्न- श्रागम में कथन करा है सोइ मोक्षमार्ग कहना युक्त है, परंतु बहुजनाची कों मार्ग कहना प्रयुक्त है, शास्त्रांतर के विरोध दोनेसें; और आगमको प्रमाणकी आपत्ति होनेसें; सोइ दिखाते है. जेकर बहुत जनों का आचरण करा मार्ग सत्य मानोगे तबतो लौकिक धर्म मानना चाहिए, तिसको बहुत लोक मानते है. इस वास्ते जो श्रागम अनुगत है सोइ बुद्धिमानोंकों मानना - करणां चाहिये. बहुतोने मानातो क्या है, क्योंकि बसुते माननेवाले श्रेवार्थी नदि होते है. तथा ज्येष्ट बमे नचितके विद्यमान हुआ कनिष्टको पूजना प्रयुक्त है. इसी तरें भगवंतके वचन श्रागमके विद्यमान हुआ चाहो बहुतोनें श्राचरण करा है, तोजी तिसको मानना प्रयुक्त है. और आगमको तो केवली. श्री श्रप्रमाण नहि करं शक्ता है, क्योंकि.. समुच्चय उपयोग संयुक्त श्रुतज्ञानी यद्यपि अशुद्ध सदोष आदार ग्रदन करे तिस श्रादरको केवलजी खा लेता है, जेकर केवली तिस आहारको न नोगे तब तो श्रुतज्ञान प्रमाणिक हो जावे. एक अन्य दूषण यह है कि - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शर द्वितीयखम. आगमके होते दुआ आचरणा प्रमाण करीए तो आगमकी लघुता प्रगट होवे है. उत्तर-पूर्वपदीने जो कहा सोसत्य नहि है."अस्यसूत्रस्य"इस सूत्रका और शास्त्रांतरोंका विषय विनागगे न जाननेंसें, सोर दिखाते है. इस सूत्रमें संविज्ञ गीतार्थ जे है वे आगम निरपेक्ष नहि आचरण करते है. तो क्या करते है ? जिस आचरणासें दोषतो रुक जाते है और पूर्वकृत कर्म कय हो जाते है सो सो मुख्योपाय रोगीकी रोगावस्थामें जैसे रोग शांती होवे तैसें करते है “ दोषा जेण निरुइझंति जेण खियंते पुवकम्माई । सो सो मुस्को वान रोगावण्या सुसमणंच "॥१॥ इत्यादि आगम वचनका अनुस्मरण करते हुए व्य, केत्र, काल, नाव पुरुषादि विचारके यथा नचित संयमकी वृद्धि करनेवालाही आचरणा करते है, सो अन्य संविज्ञ गीतार्थ प्रमाण कर लेते है, सोश मोह मार्ग कहा जाता है. पूर्वपकीके कथन करे शास्त्रांतर जे है वे असंविज्ञ अगीतार्थोन जो असमंजसपणे आचरणा करी है तिसके निषेध वास्ते है इस वास्ते आचरणांका शास्त्रांतरोंके साथ कैसे विरोध संनव होवे. तथा आगमकोंनी अप्रमाणता नहि है किंतु सुष्टुतर प्र. तिष्ठा है जिस वास्ते आगमनी आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत नेदसे पांच प्रकारका व्यवहार प्ररूपण करता है. ययुक्तं श्री स्थानांगे " पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तं जहा, भागमववहारे, सूयववहारे, आणाववहारे, धारणाववहारे, जीयववहारे, ” जीत और पाचरणा दोनों एकही नामके अर्थ होनेसें. जब आगम पाचरणाकों प्रमाण करता है तब तो आगमकी अतिशय करके प्र 41 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अज्ञानतिमिरनास्कर. तिष्ठा सिइ है. इस वास्ते आचरणा प्रागमसें विरुइ नहि और प्रमाणिक है, यह स्थित पद है. इस वास्ते धर्मरत्न शास्त्रका कर्ता कहता है " अन्नह नगिय पिसुए किंची काला कारणा विख्ख । आश्न मनहञ्चिय दीसइ संविग्ग गीएहिं ॥ १ ॥ व्याख्या-अन्यथा प्रकारांतर करके पारगत तीर्थकरके आगममें कथन करानी है तोनी को कोई वस्तु कालादि कारण विचारके दुःखमादि स्वरूप आलोचन पूर्वक आचरणा व्यवहार गीतार्थ संविझोने अन्यथा करा देखते है, सोश दिखाते है. गाथा “कप्पाणं पावकरणं अग्रोयरचानझोलिया निखा । नवग्गहिय कडाहय तुंबय मुहदाण दोराइ ॥२॥” व्याख्या कल्प साधुकी चांदरा पठेवमीयां प्रावरणा आत्मप्रमाण लंबीया और अढाइ हाथ प्रमाण विस्तार चौमीयां कथन करीयां है सो आगममें प्रसिद्ध है. प्रावरणका अर्थ जिस्से शरीर सर्व ओरसे वेष्टन करीये ते प्रावरण है ते प्रसिह है. वे प्रावरण कारण विना जब निकादिकके वास्ते जावे तब प्रावरणा समेटके, स्कंधे उपर रखे, यह आगम कथन है. और आचरणासें तो इस कालमें सर्व शरीर ढांकके जाते है. तथा अग्रावतार नामा वस्त्र साधु जनोंमे प्रसिह है सो साधु राखे ऐसा आगममें कथन है. सं. प्रति काल में पूर्व गीतार्य संविझोकी आचरणासें तिस अग्रावतार वस्त्रका त्याग करा है. तथा कटीपट्टक, चोलपट्टकका अन्यथाकरणा, आगममें तो चोलपट्टक करणा कारण पमे तो कहा है और कायोत्सर्गादिकमें चोलपट्टेको कुहणीयोंसे दाबके रखना कहा है. और संप्रति कालमें आचरणासें चोलपट्टक सदा कहिमें कडी दोरसें बांधते है. तथा झोलिका दो गांठे करके नियं Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखं. ចុច៖ वित पात्र बंधरूप तिस्से निदा लेनेको जाना. आगममें तो मणिबंध प्रत्यासन्न पात्रबंध झोलिके दोनों अंचल मुष्टिसे धारण करणें कहे है. और आचरणांसें अब कुहणीके समीप बांधते है. तैसेंही नपग्राही तुबकके नवीन मुख जोडना तथा ईबक त्रेपनकादिके मुखमें डोरी देनी यह मुनि जनोंमें प्रसिद है. ये आचरण संप्रतिकालमें है. तथा “सिक्किगनिखिवणा पजोसवणातिहिपरावत्तो । नोयण विहियअन्नत्तएनाई विविहमन्नपि ॥ ३ ॥ टीका दवरक डोरी करके रचा हुआ नाजनाधार विशेष तिसमें रखके पात्रांको बांधना आदि शब्दसें नुक्त लेपरोगानादिसे पात्रांको लेप करणां, तथा पर्युषणादि तिथिका परावर्त करणा. पर्युषसा तिथि संवत्सरिका नाम है, तिसका परावर्त पंचमीसे चौबके दिन करणी, आदि शब्दसें चतुर्मासिक ग्रहण करणा, तिसकी तिथिका परावर्त चौमासा पूर्णमासीसे चौदसकों करणां ऐसा जो तिथ्यंतर करणा सो प्रसिद्ध है. तथा नोजन विधि जो अन्यतरें से करते है सो यतिजनोमं प्रसिद्ध है. यह सर्व व्यवहार पूर्व गीतार्थ संविज्ञोकी आचरणास संप्रतिकालमें चवता है. एवमादि ग्रहण करणेंसे षट् जीवनिकाय अध्ययन पढनेसे शिष्यकों वेदोपस्थापनीय चारित्र देते है. इत्यादि गीतार्थोकी आचरणासे विविध प्रकारका आचरित प्रमाणनून है ऐसा नव्य जीवोंकों जानने योग्य है. तथा च व्यवहार नायं “सथ्य परिन्ना बक्काय संजमो पिंम उत्तर झाए रूखे वसहे गोवे जो सोहीय पुस्करिणी ॥१॥” इस गाथाका लेश मात्र अर्थ ऐसे है. आचारांगका शस्त्रपरिज्ञाप्ययन सूत्रसे और अर्थसें जब जाणे, पढ लिया होवे तब शिष्यो महाव्रतमें नपस्थापन करना; Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. ऐसा अप्रेय प्रस्ताव परमेश्वरके वचनकी मुश है. और जोत व्यवहार ऐसा चलता है. षट्काय संयम, दशवैकालिकका चौथा षट्जीवनिकाय अध्ययन सूत्रार्थसें जाणे तद पीछे उपस्थापन करते थे. तथा प्रथम पिंमेषणा पठन करके पीछे उत्तर अध्ययन पठन करते थे. संप्रति कालमें प्रथम उत्तराध्ययन पठन करके पीछे अचारांग पढते है. पूर्वकालमें कल्पवृक्ष लोकांके शरीर स्थिति निर्वहके हेतु होतेथे, संप्रतिकालमें आंबकरीर प्रमुख निर्वाह होता है. पूर्वकालमें अतुल बल धवल वृषम होतेथे, संतकालमें सामान्य बैलोंसे व्यवहार चलाता है. गोपा और कर्षका गोपाल और केती करनेवाले चक्रवर्तीके गृहपति रत्नकी तरें जिस दिन बोवे तिसही दिनमें धान्यके निष्पादक थे. संप्रति कालमें तिनके अन्नावसे योमी गौवाले गोपाल और जाट कुणबीओसें काम च. लता है. तथा पूर्वकालमें योधा सहस्र योधादिक होते थे, संप्रति कालमें अल्प बल पराक्रमवालेजी राजे शत्रुओकों जीतके राज्य पालन करते है. पूर्वोक्त दष्टांतोकी तरे साधुनी जीतव्यवहारकरके संयम पाराधन करते है, यह उपनय है. तथा शोधि प्रायश्चित्त षड्मासिक प्राप्त हुएंनी जीतव्यवहारसे छादशक अर्थात् पांच नपवाल लगत मार करनेसे उमासी तपकी तरें शुदि करता है. पुष्करणीयांनी पूर्व पुष्करणीयोसें हीन है तोन्नी लोकोंकों नपका रिणी है. दाष्ट न्तिक योजना पूर्ववत् कर लेनी, इस प्रकारसे अनेक प्रकारका जीत उपलब्ध होता है. अथवा ___ "जंसव्वहान सुत्ने पमिसिई नयजीववहहेन तं सव्वंपि प. माणं चारित्त धणाण नशियंच ॥ ४ ॥” जो वस्तु सर्वथा सर्व प्रकारसे सिशंतमें निषेध नदि करी है, मैथुन सेवनवत्. उक्तंच निशीय नाण्यादौ "नय किंचि अणुन्नायं पिडिसिई वाविजिरावरें देहिं; मो. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखक. २८५ मेदुनाव नतं विणारागदासहिं ॥ १ ॥ " और जीववधनी जिसमें नदी है, आधाकर्म ग्रहणवतं. सो अनुष्ठान सर्वथा प्रमाणिक है. चारित्र धनवाले मुनिजनाको श्रागममें अनुज्ञात श्राज्ञा देनेंसें कथन करा है. पूर्वाचार्योंनें जो कथन करा है सो दिखाते है "अवलंबिन कज्जं जं कि पिसमायरं तिगी यथा । श्रोबावराद बहु गुण सव्वेसिं तं मातु ॥ ७५ ॥ अबलंबनको प्राश्रित दोके जोजो संयमोपकारी कृत्य गीतार्थ सिद्धांतानुसारी आचरण करते है तिसमें दूषणतो अल्प है और निष्कारणें परिभोग करतो प्रायश्चित्त पामे और जिसमें बहु गुण होवे, गुरु, ग्लान, बाल, वृध, कपक प्रमुखोंके नृपष्टंनक उपकारकारक दोवे, मात्रक अर्थात् मोटे व पात्रादि परिभोगकी तरें तो सर्व चारित्रयोंकों प्रमाण है, धार्यरक्षित सूरि समाचरित पूर्वलिका पुष्पमित्रकी तरें. इहां धार्यरक्षित दुर्वलिका पुष्पमित्रकी आर्यरक्षित, दुर्बलकाऔ कथा जाननी आर्यरक्षित सूरिनें चारों अनुयोग र पुष्पाभित्रकी प्रथक् प्रथक करे, और मुनियोंकी दया करके माकथा. त्रक मोटे व पुत्रके परिभोगके श्राज्ञा दीनी, और साधु पुरुष साध्वीको दीक्षा न देवे, साध्वी साधु मागे आलोयला न करे, और साध्वीकों बेदसूत्र नहि पढाने. यद्यपि श्रागममें पूर्वोक्त काम करणेंनी कड़े है तोजी काल नाव देखी श्रार्यरक्षित सूरियें प्रशव नाव आचरणां बांधी सो सर्व अन्य आचार्योका तथ्य करके मानी. यहां कोई प्रश्न करे. उक्त रीतिसें तुमनें श्राचरणा जैसे अपने वडे वमेरोकी प्रमाण करी है. तैसे दमकोजी अपने पिता दादादिककी नानारंभ मिथ्यात्व क्रियाकी चलाइ प्रवृत्तिमें चलना चाहिये. उत्तर तिसको देते है, दे सौम्य ! तेरी समज ठीक नहि क्योंकि हमने संविज्ञ गीतार्थोका आचरित स्था Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ अज्ञानतिमिनास्कर. पन करा है. न तु सर्व पूर्व पुरुष आचरित, इस वास्ते ग्रंथकार कहता है ___“जंपुण पमायरूवं गुरुलाधव चिंता विरहियं सवदं । सुहसील सढानं चरित्तियो तं न सेवंति" ॥ ६ ॥ व्याख्या, जो आचरित प्रमादरूप है संयमका बाधक होनेसें, इस वास्तेही गुरु लाघव सगुण अवगुणकी चिंता करके विचार करके वर्जित है. इस वास्तेही सवधं जीव वध संयुक्त यतनाके अन्नावसे सुखशील सलोकमें जे प्रतिबद है. शग मिथ्या जूग आलंबन करा है जिनोंमें तिनोंने जो प्राचीर्ण आचरा है सो आचीर्ण शुद चारित्र वंत नहि सेवते है. इस वातकाही नल्लेख स्वरूप दिखाते है. __“जह सढे सममत्तं राढा अशुभ नवही नताश, निधिज्ज वसहि तूलीमलूरगाईणपरिन्नोगो.॥ ७ ॥” अर्ध-व्याख्या, यथा शब्द नपदर्शनमें है. श्रावकों विषे जिनको ममत्व मपीकार मेरा यह श्रावक है ऐसा जिसको अति आग्रह है; गाम में, कुलमें, नगरमे, देशमे ममत्व नाव कहींनी नहि करे; “ गामे कुले वा नगरे वादेशेवा ममत्तन्नावं न काहें चिकुजा. ” ऐसे आगममें निषिनी है, तोन्नी कितनेकी ममत्व करते है. तथा राढाया श. रीरकी शोनाकी इच्छासे अशु नपधि नक्त पापी आदिक कितनेक ग्रहण करते है. तहां अशु६ नद्गम नत्पादनादि दोष उष्ट नपधि वस्त्र पात्रादि, नक्त अशन, पान, खाद्य, स्वाचादि आदि शब्दसें उपाश्रय ग्रहण है. ये पूर्वोक्त आगममें अशुभ लेने निषेध करे है. “ पिंक सिजंच वथ्यंच चनक्तं पायमेवय। अकप्पियं नडेजा पडिगहिज्जकप्पियं ॥ १ ॥ इहां राढा ग्रहण करणेसे पुटालंबन करके पुनिक अकेमादिकमे पंचक परिहानी करके किं. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ՋԵ3 चित् अशुधनी ग्रहण करे तो दोष नहि. यह ज्ञापन करा है. य. तोऽनाणि पिंडनियुक्ती. “ऐसो आहार विही जह नणिो सव्वनावदंसीहिं । धम्मावसग्ग जोगा जेण नहायंति तं कुज्जा॥१॥” तश्रा, “कारण पमिसेवा पुणनावेण सेवणति दळव्वा । आणा तिश्नवे सोसुक्षे मुखहेनत्ति ॥ ॥ इन दोनों गाधाका नावार्थ यह है. जिस्से आवश्य करणे योग धर्म कृत्यकी हानि न होवे, ऐसा आहारादि ग्रहण करणा नगवंतने कहा है । और जो कारणसें दूषण सेवना है सो नहि सेवना है. सो दोष सेवना शुभ है, मोकका हेतु है २. जिनकी वसति मनोहर चित्र सहित होवे ऐसी वसतिमें रहनेवालेके अनगारपणेकी हानि है. तथा नग्न दुइ वसतिको समरावे तोन्नी साधु नहि, षट्कायका वध होनेसें. तथा तुलीगदयला और मसुरकगिज्यातकीया ये दोनों प्रतिक है.. आदि शब्दसें तुलीका खल्लक कांस्य ताम्रके पात्रादि ग्रहण करणे यहनी साधुको नहि कल्पते है. “श्चाई असमंजसमणे गहा खुद्द चिठीयं लोये बहुएहिवि आयरियं नपमाणं सुइ चरणाणं ॥ ७ ॥” इत्यादि इस प्रकारका असमंजसमणा जो कहना सोनी नचित नहि शिष्ट जनांको.अनेक प्रकारका कुश्तुच्छ जीवांका आचरण लिंगीयोने बहुतोनेंनी आचरण करा है तोनी प्रमाण आलंबनका हेतु शुइ चारित्रीयोकों नहि है. इस आचरणको अप्रमाणता इस वास्ते है; सिहांतमें निषेध करणेसें, संयमके विरोधी होनेसें, विना कारण सेवनसें; ऐसे आनुषंगिक कथन करके प्रारंजितकी समाप्ति करते है. “ गोयत्य पारतंता इय विहं मग्गमगुसरंतरस जाबजल वुत्तं दुप्पसहं जग्चरणं ॥ नए ॥" गीतार्थकी पारतंत्रता आगमके जानकारकी आझासें जैसे पूर्व दो प्रकारका मार्ग एक आमरणानुसारी दुसरा संविङ्ग गीतार्थ वृहोकी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឌុចបី अज्ञानतिमिरनास्कर. आचरणारूप इन दोनों मार्गानुसारे जो प्रवर्त्तते है साधु तिसको नाव साधु कहना नचित है, सत्य है, कहां तक यावत् प्रसहा नाम पर्यंतवनि प्राचार्य होवेगा तहां तक क्योंकि तिस आचार्य तक सितमें चारित्रवान् चारित्रिये कहे है. इहां यह अनिप्राय है, जेकर मार्गानुसारी किया करता हुआ ओर यतन करता दूया चारित्रिया साधु न मानीये तबतो ऐसें साधुयोके विना अन्यतो को देखने में आता नहि है, तबतो चारित्र ब्युच्छेद हुआ. चारित्रके व्यवच्छेद होनेसे तीर्थ व्यवच्छेद कहना प्रत्यक्ष अतीत, वर्तमान, अनागत कालके सर्व जिननाथके कथन करे सितसे विरुप है. इस वास्ते परीक्षावान् पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि लिंगी, शिथिलाचारी निर्धर्मीओका कहना कदापि नदि मानते है. तथा च व्यवहारत्नाष्यं “केसिंचयाए सो दसरा । नाणेहि वढएतिथ्यं को विनंच चरित्तं वयमाणो नारिया चनरो॥१॥ जो जणीश्नथ्यि धम्मो नय सामश्यं नचेव वयाई। सो समण संघ वश्झो कायब्बो समण संघेण ॥ २ ॥” इन दोनोंका लावार्थ-कितनेक लिंगि बुझिहीन, मिथ्यादृष्टि स्त्रीओके लोलुपीयोंका ऐसा कहना है, ज्ञान दर्शनसेंही तीर्थ चलता है, चारित्तो व्यवच्छेद हो गया है. ऐसा कहनेवाला अवश्य विषय संपटी जानना. जो कहता है साधुधर्म नदि है, सामायकनी नहि और व्रतत्नी नहि है तिसको श्रमण संघसें बाहिर काढना चाहिये. इत्यादि आगमके प्रमाणसे मर्गानुसारि क्रिया करणेवालेंकों नावयति साधुपणा है. यह स्थितप्रज्ञ है. इति सकलमार्गानुसारीणी क्रिया रूप नाव साधुका प्रश्रम लिंग ॥१॥ संप्रति श्रधा प्रवरा प्रधान है धर्म विषे ऐसा दुसरा लिंग कहते है. श्रःक्षा अनिलाषवाला है श्रुत चारित्ररूप धर्ममें. प्रवर Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. जो विशेषण है सो कहेंगे तिस श्रक्षका फलनूत सो यह है. विधि सेवा, अतृप्ति. शुध देशना, स्खलित हुए शुहि करणी, यह प्रवर विशेषणवाली श्रक्षके लिंग है. तिनमें प्रथम विधि सेवाका ऐसा स्वरूप है. विधि करके प्रधान अनुष्टान सेवे श्रम गुणवाला, शक्तिमान्. सामर्थ्य संयुक्त होता हुआ अनुष्टान प्रतिलेखनादि करणेमें श्रझवान् होवे, अन्यथा अशलु नहि हो शक्ता है, यदि पुनः शक्तिमान् न होवे तब क्या करे. इव्य आदारादिक, आदि शब्दसे क्षेत्र, काल, नाव ग्रहण करीये है. तिनकी प्रतिकूलतासे गाढ पीमित होवे, तब विधि सेवाका पकपात करे. प्रभ-विधि अनुष्टानके अन्नावसे पक्षपात कैसे संनवे ? नत्तर-रोग रहित पुरुष खेम खाद्यादि सुंदर नोजनके र. सका जाननेवाला किसी आपदा दरिद्यवस्थामें पमा हुआ अशुल अनिष्ट नोजन करतानी है तोन्नी तिसमें राग नहि करता है, क्योंकि वो जानता है मेंतो इसकु नोजनके खानेसे आपदाको नल्लंघन करता हूं, जब सुनिद होवेगा तबशोन्ननिक आहार नोगुंगा ऐसा तिसका मनोरथ होता है. अब इस दृष्टांतका दाष्टींत कहते है. ऐसे कुलोजनके दृष्टांतसे शुइ चारित्र पालनेका रसीया है पण व्यादिककी आपदासें बाह्य वृत्ति करके आगम विरुक्ष नित्यवासांदि करता है और एकला होगया है, परंतु संयम आराधनकी लालसा जिसके मनमें है सो पुरुष सावचारिब, नावसाधुपणा नलंघन नहि करता है; एतावता वो नाव साधुही है संयम मूरिवत्. तथा चोक्तं, 'दव्वा' इत्यादि अ. शुः व्यादिक नोगनिक नावांका प्राये विन्न नहि कर शकते है. नाव शुइ और बाह्य क्रिया विपर्यय यह लोकमें प्रसिंह है. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अज्ञान तिमिरजास्कर. संग्राम में अपने प्रभुकी आज्ञातें सुनटको जो बारा लगता है सो परम वल्लन अपनी स्त्रीके करे कमल प्रहारकी तरें मालुम होता दै. तथा जैसे स्वदेशमें, तैसेही परदेशमें सत्वसें धीर पुरुष नदि चलायमान होते है धीर पुरुष मन वांबित कार्यको सर्व जगे सिद्ध करते है. तथा पुर्निकादिकके नृपव दानमें, शूरमे पुरुषांके. आशयरूप रत्नको नदि नेद शकते है, किंतु तिन दातांके प्रविधि दानके देनेको शुद्ध करते है. इस दृष्टांत करके महानुजाव शुभ समाचारि गत चारित्रीयेके जावकों व्यादि श्रापदाके नृपश्व नाश नहि कर शकते है. जो प्रसामर्थ्य होवे, रोग पीमित जर्जर देहवाला जैसें सिद्धांत में मुनिमार्ग कहा है कदापि वे नहि पालता है. सोनी अपने पराक्रम धैर्य बलको अणगोपता हुआ और कपट क्रियासें रहित हो करके प्रवर्त्ते वोजी अवश्य साधुही जानना, इति विधि सेवास्वरूप प्रथम श्राका लक्षण.. अतृप्ति श्रद्धाका स्वरूप. संप्रति अतृप्ति स्वरूप दुसरा लिखते है. तृप्ति संतोष,, बस मेरोकों इतनाही चाहिये, ऐसी तृप्ति ज्ञानके पढनें में चारिनानुध्यानके करगेंमें कदापि न करे, किंतु नव नव श्रुत सं पद उपार्जन में विशेष नृत्साहवान दोवे; क्योंकि सिद्धांत में कहा है, जैसें जैसें श्रुतशास्त्र मुनि अवगाहन करता है, पढता है कैसा श्रुत अतिशय रस प्रसर विस्तार संयुक्त, अपूर्व श्रुत, तैसे तैसे मुनि नव नव श्रद्धा सेवंग करके आनंदित होता है तथा जिन शास्त्रात मोहदयवाले जिनोत्तम तीर्थकरोने कथन करा है, और महाबुद्धिमान् गौतम, सुधर्म स्वाम्यादिकोंने सूत्ररूप रचा है सो सूत्र संवेगादि गुगाका जनक है, जैसे अपूर्व ज्ञानके Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम शर पढनेका यत्न, नवीन ज्ञानका उपार्जन सदा करणा. तथा चारित्र विषये विशुः विशुःइतर संयमके स्थानकोंकी प्राप्तिके वास्ते सदजावनासार अर्थात् शुभनाव पूर्वक सर्व अनुष्टान उपयोग संयुत करे; क्योंकि अप्रमादसे करे हुए सर्व साधुके व्यापार अनुष्टान उत्तरोत्तर संयम कंडकमें आरोहण करणेसें केवल ज्ञानके लान वास्ते होते है. तथा चागमे. जिनशासनमें जे योग कहे है तिनमेंसे एकैक योगको कर्म वयार्थ प्रयंजुन करता हुआ एकैक योगमे वर्त्तते हुए अनंते केवली हुए है. तथा वैयावृत्त तपस्वि प्रमुखकी आदि शब्दसे पमिलेहना, प्रमार्जनादि प्रहण करणे तिनमे यथाशक्ति शुनाव पू. र्वक प्रयत्नवान् होवे, अचल मुनीश्वरवत्, इति अतृप्ति नामा - सरा श्रक्षाका लक्षण. शुद्ध देशना श्रद्धाका स्वरूप. अथ शुइ देशना स्वन्नाव तिसरा लक्षण लिखते है. प्रथम देशनाका अधिकारी लिखते है. सुगुरु, संविज्ञ गीतार्थ आचार्यके समीपे पूर्वीपर सम्पक प्रकारसें सिहांत आगमके वाक्य पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ, तिनका यह तात्पर्य है, ऐसा तत्व स्वरूप सिहांतका, जाना है, जिसनें नक्तंच ___“ पयवक महावक्क पअश्दं पज्जथ्थ वत्यु चत्तारि । सुय, नावावगमंन्नीहंदिपगाराविणिदिहा ॥ १ ॥ संपुन्नेहिं जाय नावस्सय अवगमो इहरहान । होश विविजा सो विहु अणिनफल ओय नियमा ॥२॥” इनका नावार्थ, पदवाक्य, महावाक्ययह तात्पर्य, यह वाक्य है, यह चार श्रुतनावके जाननेके प्रकार कहे है. इन चारों प्रकारसे पदार्थका यथार्थ स्वरूप जाना जाता है. अन्यथा विपर्यय होनेसे नियमसें अनिष्ट फल है. ऐसे ज्ञानके Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. दुएनी गुरुकी आज्ञासे नतु स्वतंत्र मौखर्यादिकी अतिरेकतासे इस वास्ते धन्य धर्म धनके योग्य होनेसें मध्यस्थ, स्वपद परपक्षोमे रागद्वेष रहित सतूनूतवादी ऐसा जो होवे सो देशना धर्म कथा करे. इति धर्मदेशनाका अधिकारी. धर्मदेशनाका स्वरूप. अथ धर्मदेशना किस तरेसे करे सो कहते है. सम्यक् प्रकारसें जाना है पात्र धर्म, सुनने योग्य पुरुषका आशय जिसने सो 'अवगतपात्रस्वरूपः.” तथाहि, बाल, मध्यम बुदि, और बुद्ध येह तीन प्रकारके पात्र धर्म सुणावने योग्य है. तत्र “ बालः पश्यति लिंगं मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तं । आगमतत्वं तु बुधः परीकते सर्वयत्नेन ॥ १ ॥ अर्थ-बाल लिंग देखते है, मध्यम बुद्धि आचरणका विचार करते है, और बुद्ध सर्व यत्न करके आगम तत्वकी परीक्षा करते है. इन तीनोंका देशना देनेकी विधि ऐसें है. बालको बाह्यचारित्र प्रवृत्तिकी प्रधानताका नपदेश करणा, और उपदेशकनें आपत्नी तिस बालके आगे बाह्य क्रिया प्रधान चारित्राचार सेवन करना, लोच करणा, पगामें नपानह, मौजा प्रमुख न पहनना, नूमिका नपर नकका एक आसन और एक उपर एक नपरपट्ट, बीगके सोना, रात्रिमें दो प्रहर सोना, शीतोष्णको सहना, नपवास वेला आदिक विचित्र प्रकारका तप महाकष्ट करना, अल्प नपकरण राखने, नपधि निर्दोष लेनी, आहारकी बहुत शुदि करणी. नाना प्रकारके अनिग्रह ग्रहण करके, विगयका त्याग करणा, एक कवलादिकसे पारणा करणा, अनियत विहार करणा. नवकल्प करणा, कायोत्सादिक करणा, इत्यादि क्रिया चारित्रकी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ए बाह्यप्रवृति आप करणी, और बालजीवोंकों नपदेशनी इसी बाह्य क्रियाका करणा. मध्यम बुद्धिको र्यासमित्यादि पांच समिति, तीन गुप्ति यह अष्ट प्रवचन मातारूप मोक्षार्थीने कदापि नहि गेमके. इन अष्ट प्रवचनके प्रधान होनेसे साधु मुनिकों संसारका जय नहि होता है अत्यंत हितकारक फल होवे. गुरुकी आज्ञामें रहणा, गुरुका बहुमान करणा, परम गुरु होनेका यह बीज है. तिस्से मोद होता है. इत्यादि सावृत्ति मध्यम बुड़िकों सदा कहनी. प्रागमका परम तत्त्व बुडको कहना, नगवंतका वचन आराधना धर्म है, तिसका न मानना अधर्म है, यही सर्व रहस्य गुह्य सर्व सुधर्मका है इत्यादि. अथवा पारिणामिक, अपारिणामिक, अति पारिणामिक नेदसें तीन प्रकार के पात्र है. इत्यादि पात्र स्वरूप जान करके श्रावान् तिस पात्रको अनुग्रह हेतु नपगारी शुन्न परिणामाकी वृद्धिकारक आगमोक्त कथन करे, नत्सूत्र मोक्षके वैरी नूतको वर्जे, जैसे श्रेणिक राजा प्रति महा निग्रंथने उपदेश करा. प्रश्न. देशना नाम धर्मोपदेशका है, सो नाव साधुकों सर्व जीवांको विशेष रहित करनी चाहिये. पात्र अपात्रका विचार काहेंकों करणा चाहिये ? __ उत्तर-पूर्वोक्त कहना ठीक नहि. जैसे अन्य जीवांको बुध मीसरी पथ्य और स्वादनीय है तैसें संनिपात रोगवालेकों देनेसे गुण नहि होता है. इसी वास्ते निषेध करते है, कायादि कडवी वस्तु देते है; इस वातमें देनेवालेका नाव विषम नहि कहा जाता है; तैसें देशनामेंनी योग्य अयोग्यका विचार क. रना ठीक है. सर्वदान पात्रके तां दीया कल्याणफलका जनक है. पात्र कहते है. नचित ग्राहक जीवादि पदार्थका जाननेवाला Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. और समन्नावसे सर्व जीवांकी रक्षा करणेंमें उद्यतमति साधु यति सो पात्र है, तिसकों दीया कल्याण फल है. अन्यथा अनिरु६ आश्रवहारवाले कुपात्रको दीपा अनर्थजनक संसारके दुःखांका कारक होता है. क्या वस्तु प्रधानदान अर्थात् श्रुतज्ञानदान देशनादिरूप अतिशय करके कुपात्रकों नहि देना शास्त्रके जानकारोने ? रक्त, उष्ट, पूर्वकुग्राहित ये उपदेश देने योग्य नहि है. उपदेश देने योग्य मध्यस्थ पुरूष है. इस वास्ते अपात्रको जोमके पात्रकुं नचित देशना करणी; शुइ देशना कहते है. जेकर अपात्रकुं देशना देवं तब श्रोताकु मिथ्यात्व प्राप्ति होवे. वेष करे, तिस्से नात, पाणी, शय्या, वस्ति आदिकका व्यवच्छेद प्रा. णनाशादिक उपञ्च करे. इतने दूषण देशना करनेवालेकुं होते है. इस वास्ते जो अपात्रको त्याग के पात्रको देशना करे सो गीतार्थ स्तुति करणे योग्य है. प्रश्न-तुमने कहा है. जो सूत्रमें कथन करा है सो प्ररूपण करे. जो पुनः सूत्रमें नहि है और विवादास्पद लोकांमे है, कोई कैसे कहता और कोई किसीतरें कहता है. तिस विषयक जो कोई पूछे तब गीतार्थको कया करणा नचित है. नत्तर-जो वस्तु अनुष्ठान सूत्रमें नहि कथन करा है, करणे योग्य चैत्यवंदन आवश्याकादिवत; और प्राणातिपातकी तरें सूत्रमें निषेधमी नहि करा है, और लोकोमें चिरकालसे रूढिरुप चला आता है सोनी संसार नीरु गीतार्थ स्वमतिकल्पित दूषणे करी दूषित न करे. गीतार्थोके चित्तमें ये बात सदा प्रकाशमान रहती है सोश दिखातें है. संविज्ञ गीतार्य मोक्षानिलाषी तिस तिसकाल संबंधी बहुत भागमोके जानकार और विधिमार्गके रसीये, विधिकों बहुमान Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखंग. शए देनेवाले, संविज्ञ होनेसे पूर्वसूरि चिरंतन मुनियोके नायक जे होगये है तिनोनें निषेध नहि करा है; जो आचरित आचरण सर्व धर्मीलोक जिस व्यवहारको मानते है तिसको विशिष्ट श्रुत अवधि ज्ञानादि रहित कौन निषेध करे ? पूर्व पूर्वतर नत्तमा चार्योकी आशातनासे डरनेवाला अपितु कोइ नहि करे, बहुल कर्मीकों वर्ज के ते पूर्वोक्त गीतार्थो ऐसे विचारते है. जाज्वलमान अग्निमें प्रवेश करनेवालेसंनी अधिक साहस यह है. नत्सूत्र प्ररूपणा, सूत्र निरपेक्ष देशना, कटुक विपाक, दारुण, खोटे फलकी देनेवाली, ऐसे जानते हुएनी देते है. मरीचिवत्. मरीचि एक उर्जाषित वचनसें खरूप समुको प्राप्त हुआ एक कोटा कोटि सागर प्रमाण संसारमें भ्रमण करता हुआ; जो नत्सूत्र आचरण करे सो जीव चीकणे कर्मका बंध करते है. संसारकी वृद्धि और माया मृषा करते है तथा जो जीव नन्मार्गका उपदेश करे और सन्मार्गका नाश करे सो गूढ ह्वदयवाला कपटी होवे, धूर्ताचारी होवे, शब्य संयुक्त होवे, सो जीव तिर्यंच गतिका आयुबंध करता है. नन्मार्गका उपदेश देने से नगवंतके कथन करे चारित्रका नाश कवता है. ऐसे सम्यग् दर्शनसे ऋष्ठकों देखनामी योग्य नहि है. इत्यादि आगम वचन सुणकेन्नी स्व-अप ने आग्रहरूप ग्रह करी ग्रस्तचित्तवाला जो नत्सूत्र कहता है क्योंकि जिसका नरला परला कांदा नहि है ऐसे संसार समुश्में महा दुख अंगीकार करणेसें. प्रश्न. क्या शास्त्रको जानकेनो को अन्यथा प्ररूपणा करता है. ? उत्तर-करता है सोश दिखाते है. देखने में आते है-उषम कालमें वक्रजम बहुत साहसिक जीव लवरूप नयानक संसार Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. पिशाचसे मरनेवाले निज मतिकल्पित कुयुक्तियों करके विधि मार्गको निषेध करणेमे प्रवर्तते है. कितनीक क्रियांकों जे आगममें नहि कथन करी है तिनको करते है और जे आगमने निषेध नहि करी है-चिरंतन जनोंने आचरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते है, और कहते है-यह क्रियायो धर्मी जनांकों करणे योग्य नहि है. किन किन निकायों विषे " चैत्य कृत्येषु स्नात्रबिंबप्रतिमाकरणादि.” तिन विषे पूर्व पुरुषोंकी परंपरा करके जो विधि चली आती है तिसको अविधि कहते है. और इस कालकी चलाश्कों विधि कहते है. ऐसे कहनेवाले अनेक दिखला देते है. वे महा साहसिक है. प्रश्न. तिनोंने जो प्रवृत्ति करी है तिसकों गीतार्थ प्रसंशे के नहि प्रसंशे? नत्तर. तिस प्रवृत्तिको विशुगम बहुमान सार श्रधा है जीनकी ऐसे गीतार्थ सूत्र संवादके विना अर्थात् सूत्र में जौ नहि कथन करा है तिस विधिका बहुमान नहि करते है किंतु तिसका अवधारण अर्थात् निरादर करके मध्यस्थ नावसे उपेक्षा करके सूत्रानुसार कथन करते है. श्रोतासनोंको नपदेश करते है. ऐसे कथन करा शुइ देशना रुप विस्तार सहित तीसरा श्रक्षाका लक्षण. स्खलित परिशुद्धि श्रद्राका लक्षण. संप्रति स्खलित परिशुद्धि नामा चौथा श्रज्ञका लक्षण लिखतेहै. मूल गूण, नतरगुणकी मर्यादाका नल्लंघन करना तिसका नाम अतिक्रम अतिचार कहते है, सो अतिचारही मिडीर जायके पिंडकी तरे नज्वल गुण गणांके मलीनताका हेतु होनेसे मल अर्थात् मैल है; सो चारित्ररूप. चश्माको कलंककी Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ए तेरें कलंक है. सो कलंक प्रमादादि प्रमाद दर्प कल्पादि करके, आकुहि करके हिंसादिका करणा साधुको प्राये संजय नहि है; परंतु किसी तरें कांटो वाले मार्गमें यतनसें चलतांनी जैसे पगमें कांटा लग जाता है तैसे यतना करता दुआ जीव हिं. सादि हो जाती है. आकुट्टिका नसको कहते जो जानके करे ? दर्प नसको कहते है जो जोरावरील पिलचीने करे २ विकथा दि करके करे सो प्रमाद है ३ जो कारणसे करे सो कल्प कहते है ४ कदाचित इन चारों प्रकारसें हिंसादिक करे. . अथ दश प्रकार साधुको दूषण लग जाते है. दर्पसें १ प्रमादसे मा २ अजाणपणसें रोगपीडित होनेसे ४ आपदामें लगनेका दश पडनेसे ५ शंका नुत्पन्न होनेसे ६ बलात्कारसें 3 प्रकार. जयकरके वेष करके ए शिष्यादिककी परीक्षा वास्ते १० इन पूर्वोक्त कारणोंसे कदाचित् चारित्रमें अतिचारादिक कलंक लग जावे तिसकों गुरु. आगे आलोचन प्रगट करनेसे शुरू करे प्रायश्चित लेनेसें. कौन शुरू करे ? जिसको विमल श्रक्षा निष्कलंक धर्मकी अभिलाषा होके शिवन मुनिवत् . इति चतुर्थ लक्षण. इति उसरा नावसाधुका प्रवरा प्रक्षनाम लक्षण. ऐसी अक्षवाला मुनि अनिनिवेश असत् आग्रह करते रहित सुप्रज्ञापनीय होता है. प्रश्न-क्या साधुयोकेनी असत् ग्रह होता है ? उत्तर-होता है. मतिमोह महात्म्यसें. मतिमोह किस्से होता है. सो लिखते है. जैनमतके शास्त्रो में इस प्रकारके सूत्र है. विधिसूत्र १ उद्यम सूत्र ३ वर्णक सूत्र ३ जय सूत्र धानुत्सर्ग सूत्र ५ अपवाद सूत्र ६ ननय सूत्र ७ इन सातोंका स्वरूप ऐसे है. कितनेक विधमार्गके सूत्र है. यमा दश वैकालिकके पांचने अध्ययने. 48 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इट अज्ञानतिमिरजास्कर. I " संपत्ते जिस्क कालंमि श्रसंजतो अमुच्चिन । इमेख कम्म जाए, जत्त पासंग वेसइ ॥ १ ॥ " इत्यादि. तथा कितनेक उद्यम सूत्र है. यथा उत्तराध्ययन दशमे अध्ययने,. 6.6. तुम पत्तए पंडुय यज्हा निवडे इराय गलाण अचए, एवं मणुयाण जिवियं समयं गोयम मापमाय ॥ १ ॥ इत्यादि.. तथा कितनेक वर्णक सूत्र है. ज्ञाता, नववा प्रमुख में.. ' रिद्धि च्वमिय समिक्षा. ' इत्यादि तथा कितनेक जय सूत्र है. जैसें नरकमें मांस रुधिरका कथन करना नक्तंच 66 नरए मंत्र रुहिराइ वन्नणं पसिद्धि मित्तेला जय देन: इह रहतेसिं वे व्विय जाव ननतयं ” इत्यादि. उत्सर्ग सूत्राणि यथा.. " इच्चे सिं बएदं जीव निकायाणं नेवसयं दंडे समारंजिया "" इत्यादि षट्जीवनिकायके रक्षाके प्रतिपादक विधायक है. अपवाद सूत्रतो प्रायवेद ग्रंथोसें जाने जाते है. तथा "नयाल निशा निनां सहायं, गुलादियं वा गुण नस्समं-वा | इक्कोवि पावाइ विवद्ययंतो, विहरिय कामे सुय समालो || १ ॥ इत्यादि ज्ञावार्थ जब निपुण सहायक गुणाधिक अग्रवा बराबर गुणवाला न मिले तब पपांको वर्जता हुआ और काम में अनाशक्त होकर एकलाजी विचरे तथा तदुजय सूत्र जिनमें उत्सर्गापवाद दोनो युगपत् कहे जाते है. यथा , 783 D. " श्रझाणां नावे समं श्रहियासि यव्व वादी " तझावं मिन fafe परिवार पवचणं नेयं ॥ इत्यादि नावार्थ. जीस रोगव्याधिके हुए आर्त्तध्यान न दावे तवतो सहनी जेकर था - ध्यान तिस रोगव्याधिके दुवे तब तिसके उपचार में वर्त्तना. श्र बधी करणी. ऐसे नाना प्रकारके स्वसमय परसमय, निश्वय व्यव.. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम: IUU हार, ज्ञान क्रियादि, नानां नयोके मतके प्रकाशक सिद्धांत गंभीरजाव वाले महा मतिवालोके जानने योग्य जिनका अभिप्राय है, ऐसे सूत्र है. तिन पूर्वोक्त सूत्रांका विषय विभाग, इस सूत्रका यह विषय है; ऐसे न जानता हुआ ज्ञानावरण कर्मके उदयसे मतिमंदा होता है; तब वो जीव अपनेको और नपासकको असत् - ग्रह, सत् बोध उत्पन्न करता है. जमालीवत्. ऐसे मूढ अर्थी विनीतको, गीतार्थ संविज्ञ गुरु पूज्य, परोपकार कर में रसिक, दयासे विचारते है; यह प्राणी दुर्गतिमें न जावे. ऐसी अनुग्रह बुfs करके प्रेरे हुए प्रतिबोध करते है. आगमोक्त युक्तिकरके जिसको प्रतिबोधके योग्य जानते है. प्रयोग्यकोतो सर्वज्ञनी प्रतिबोध योग्य मुनि सुनंदनराजऋषिके सदृश सरलभावसें होता है. इति कथन करा प्रज्ञापनीयत्वनामा जावसाधुका तिसरा लिंग. fe करके प्रेरे हुए प्रतिबोध करते है, आगमोक्त युक्तिकरके जिसको प्रतिबोधके योग्य जानते है. प्रयोग्यकोतो सर्वज्ञनी प्रतिबोध कर सामर्थ्य नहि है. सोनी प्रतिबोध योग्य मुनि सुनंदनराजरुषिके सह सरनावसे होता है. इति कथन करा प्रज्ञापनीयत्व नामा जाव साधुका तीसरा लिंग. J संप्रति क्रियाले अप्रमाद ऐसा चौया लिंग लिखते है, जली जो दोवे गति सो कहिये सुगति-मुक्ति तिसके वास्ते चारित्रयति धर्म है. तक्तं विरहिततरिकांमा बाडुर्दमेः प्रचएम, कथमपि जलराशि घीधना लंघयन्ति । नतु कथमपि सिद्धिः साध्यते शीलहीनैर्दृढयत इति धर्मे चित्तमेवं विदित्वा ॥ १ ॥ "" << अर्थ- बुद्धिरूप धनवाले झांझबिना बादु दंमसे समुझको तर जाते है. शीतदीन पुरुषसें सिद्धि साध्य नहि होती है ऐसा Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अज्ञानतिमिरनास्कर. जानकर धर्ममें चित्त दृढ लगाना. सो चारित्त षट्कायाका संयमही है. पृथ्वी, जल, ज्वलन, पवन, वनस्पति, वसकायकी रक्षाकरणी सोइ चारित्र है. इन ग्रहों कायोमसे एक जीवनिकायकी विराधना करता हुआ जगदीश्वरकी आज्ञा पालनेवाला साधु संसारका वर्धक है. तथा चाहुः “ प्रतिसकलव्यामोहतमिश्राः श्रीधर्मदासगणिमिश्राः को राजाका मंत्री सर्ववस्तु राजाकी, स्वाधीननी कर लेता है तो राजाकी पाझा खंमन करे तोनी वध बंधन, व्यहरणादि दम पाता है. तैसें उकाय महाव्रत सर्व निवृति ग्रहण करके जेकर एक कायादिककी विराधना करते तो संसार समुश्में ब्रमण करे तथा षट्काय और महाव्रतका पालना यह यतिका धर्म है. जेकर तिनकी रक्षा न करे तब कहो शिष्य ! तिस धर्मका क्या नाम है ? षट्कायकी दया विवर्जित पुरुष नतो दीक्षित साधु है साधुधर्मसे ऋष्ठ होनेसें, और नतो गृहस्थ है, दानादि धर्मसे रहित होनेसे. यहां मागधी गाया नहि लिखी किंतु तिनका अर्थ लिखता है. सो पूर्वोक्त पुरुष संयम पालनेको समर्थ नहि है. विकथा करणेसें. विरुइ कथा, राज कयादि जैसे उपर रोहीके दृष्टांतमें स्वरूप लिखा है तैसें जानना. विषय का विकादि प्रमाद युक्त, संयम पालने समर्थ नहि है. इस वास्ते साधुको प्रमाद नहि करणा चाहिए, प्रमादही विशेष करके कष्टका हैतु है. सोइ कहते है. प्रवर्ध्या जिनमतकी दीक्षा तिलको विद्या जिसकी देवी अधिष्ठाता होवे तिस विद्यांको साधता दुआ जो प्रमादवान होवे तिसकों विद्या सिइ नहि होती है. किंतु नपश्च करती है, तैसेंही • पारमेश्वरी विद्या दीकाकी तरे महा अनर्थ करती है; अर्थात् शीतल विहारी, पार्श्वस्थादिकको जिन दीक्षा सुगतिके तां नहि Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयds. ३०१ किंतु देव दुर्गलि और दीर्घ जवमणरूप कष्ठकी करता आर्यमंगुवत्. क्योंकि शास्त्रमें कहा है. शीतल विहारसें दीर्घकालकृत संसार में बहुत क्लेश पाता है. तीर्थकर १ प्रवचन २ श्रुत ३ प्राचार्य ४ गणवर ५ महर्दिक ६ इनकी बहुत बार प्रशासना करते तो अतंत संसारी होवे. इस वास्ते साधुने सदा श्रप्रमादी 'होना चाहिए. प्रमादकांही युक्त्यैतरसें निषेध करते है. प्रतिलेखना चलनादि चेष्टा क्रिया व्यापार षट्कायके घातक देतु प्रसादी साधुकी सर्व क्रिया सिद्धांत में कही है. इस वास्ते साधु सर्व क्रियायोंमें श्रप्रमच दोके प्रवर्ते. अप्रमादि साधुका स्वरूप. अप्रमादी साधु जैसा होवे सो लिखते है, जो व्रतोंमे प्रतिचार न लगावे, प्राणातिपात व्रतमें त्रस स्थावर जीवांको संघट्टण, परितापन, उपव न करे. मृषावाद, व्रतमें सूक्ष्म मृषावाद प्रजापसेंसें, और बादर जायके न बोले. श्रदत्तादान व्रतमें सूक्ष्म प्रदत्तादान स्थानादिककी आज्ञा विना लेके न रहे, और बादर स्वामि १ जीव २ तीर्थकर ३ गुरु 8 इनकी प्राज्ञाविना जोजनादिक न करे, चौथे व्रतमें नव गुप्ति सहित ब्रह्मचर्य पाले पांच में व्रतमें सूक्ष्म बालादिकि ममत्व न करे बादर अनेषणीय दारादि न ग्रहण करे. मूसें अधिक उपकरण न राखे रात्रि जोजन विरतिमें सूक्ष्म लेप मात्र वासी न राखे और बादर दीनमें लेकर रातों खावे १ रात्रिमें लेकर दिनमें खावे २ दीनमें लेकर अगले दिनमें खावे ३ रात्रिमें लेकर रात्रिमे खावे 8 इन चारों प्रकार जोजन न करे. एसें सर्व व्रतांके अतिचार ठाले और पांच समति तिन गुप्तिमें उपयोगवान् दोवे. अधिक क्या लिखे. स्थिर चित्त होकर पाप देतु प्रमावकी सर्व क्रिया वर्जे और A Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ अज्ञानतिमिरनास्कर अवसरमें जो जिस प्रतिलेखनादि क्रियाका अवसर होवे तिसमें सर्व क्रिया करे. प्रमादसें अधिक मोठी क्रिया न करे. अन्य क्रिया करता हुआ विचमें अन्य क्रिया न करे. सर्व क्रिया सूत्रोक्त रीतिसे करे. सूत्र तिसको कहते है जो गणधरोंने रचे होवे, प्रत्येक बुड़ियोंके रचे, श्रुत केवलिके रचे, अनिन्न दश पूर्वधरके रचे, इनको निश्चय सम्यक्तवान् सद्भूतार्थ, सत्यार्थवादी होनेसे इनका कान सत्य है. इनके विना जो कोइ इनके कहे अनुसार कहे तोनी सत्य सूत्रही जानना. ऐसी पूर्वोक्त क्रिया करे, अप्रमादसें. सो जिन मतमें अप्रमत्त साधु है. इति कथन करा क्रियामें अप्रमादनामा नावसाधुका चौथा लिंग. संप्रति जिस अनुष्ठानके करणेकी शक्ति होवे सो अनुष्ठान करे ऐसा पांचमां लिंग लिखते है. संहनन वज रीषन नाचारादि और ब्य, केत्र, काल, नाव इनके नचितही अनुष्ठान करें, अनु. ष्ठान तप १ कटप २ प्रतिमादि जिस संहननादिकमें जो निर्वहण कर शकिये सोइ अनुष्ठान करे. क्योंकि अधिक करे तो पुरा न होवे. बीचमें गेडना पडे. प्रतिज्ञाका नंग होवे. फेर कैसे अनुष्ठानका आरंन करे-जिसमें लान्न बहुत दुवे, और संयमको बाधा न होवे, और प्रारंनित अनुष्ठान बहुतवार वारंवार कर शके क्योंकि अनुचित अनुष्ठान करके पीडित हुआ फैर नस अनुष्ठानके करणेमें नत्साह नहि करता है. जैसें साधु रोगी हो जावे, तिसकी चिकित्सा करे तो सदोष औषधी लेनी पड़े. जेकर सदोष औषधी न करे तव अविधिसे मरे, और संयमकी अंतराय होवे, इसी वास्ते कहा है, सो तप करणा जिस्से मनमें आर्सध्यान न होवे, और जिस्से इंडियांकी हानि न होवे, और योगांकी हानि न होवे तिस अनुष्गनके करणेमें अन्यजन सामान धर्मीयोंको करणेकी देखादेखी इच्छा नप्तन होवे. फिर कैती क्रिया करे जिस Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयम. ३०३ के करले की, गुरुकी नन्नति होवे. धन्य यह गच्छ गुरु है.. तिसके सहाय से ऐसे पुष्कर कारक मुनि दिखते है, ऐसें लोक श्लाघा करे. तथा जिस्सैं जिनशासनकी नन्नति होवे. बहुत अच्छा यह जैनमत है. इममी इसको अंगीकार करेंगे. फेर कैसी क्रिया करे जिससे इसलोक परलोककी वांबा न करे. श्रार्यमदागीरी, जगतका चरित वृत्तांत स्मरण करता हुआ सत् क्रिया करे. अत्र कथाज्ञेया पूर्वोक्त अर्थ प्रगटपरों कहते हैं. जिसके करणेकी साम होवे, समिति, गुप्ति, प्रतिलेखना, स्वाध्याय, अध्ययनादि तिसके करमे आलस्य न करे सो साधु चारित्र संयम, विशुद निःकलंक, कालसंहनन आदिके अनुसार संयम पालने सामर्य है, क्योंकि शक्यानुष्ठानही इष्ट सिद्धिका हेतु है. प्रश्न. धर्मजी करता हुआ कोई असत् प्रारंभ अशक्यानुare करता है. उत्तर. मतिमोद मानके अतिरेक करता है. किसकी तरे करता है ? जो कोइ मंदमति गुरु धर्माचार्यकों अपमान करे यह गुरु हीनचारी है. ऐसी अवज्ञा गुरुको देखता हुआ प्रारंज करता है. अशक्यानुष्टानका जो काल संहननादि करके दो नदि शक्ता है जिनकल्पादिकका मार्ग, जिसको शुद्ध गुरु नहि कर शक्ते है तिसको मतिमोह अभिमानकी अधिकतासें नक्षत प्रजिमानी जीव करता है सो कदापि नहि चल शक्ता है. शिवति आदि दिगंबर वत् इति कथन करा शक्यानुष्टानारंभ रूप पांचवा जाव साधुका लिंग .. अथ गुणानुराग नाम बा लिंग लिखते है. चरण सत्तरि ७७ करण सतरि ७० रूप मूल गुण उत्तर गुणांमें राग प्रतिबंध शुद्ध चारित्र निष्कलंक संमयका रागी और परिहरे-वर्जे तिस: a, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणानुरागसे दूषणांको कैसे दूषणांको गुण गुणांके मलीनता करणेंके हेतुयोंको झानादिकोंके अशुदि हेतुयोंको नाव साधु.. अथ गुणानुरागकाही लिंग कहते है.. थोडासानी जिसमें गुण होवे तिसके गुणकी नावसाधु प्रशंसा करे. कुपितकृष्णसारमेय शरीरे सितदंतपंक्तिश्लाथाकारक कृष्णवासुदेव वत्. और दोष खेश मात्रनी प्रमादसें स्खलित दुए अपने आपकों निस्तार मानें. धिग् है मेरेको प्रमाद शीलको. इस रीतिवाला नावयति होता है. कर्णस्थापितविस्मृतशुंगीखेमापश्चिमः दशपूर्वधर श्री वजस्वामिवत् . इहां कृष्णवासुदेव और वज्ज स्वामिकी कथा जाननी. लथा गुणानुरागकोही लिंगांतर कहते है.. क्योपशम नावसे पाये है जे ज्ञान दर्शन चारित्रादिः रूप गुण तिनकों जैसे माता प्रियपुत्रको पालती है. तैसें पाले. तथा गुणवानके मिलनेसे ऐसा आनंद मानता है जैसा चिरकालसें प्रदेश. गये. प्रियबंधवके, मिलने आनंद होता है. तद्यथा.. असतां संगपंकेन यन्मनो मलिनीकृतं तन्मेद्य निर्मलीभूतं साधुसंबंधवारिणा ॥१॥ पूर्वपुण्यतरोरद्य फलं प्राप्तं मयानघं संगेनासंगचित्तानां साधूनां गुणवारिणा ॥२॥ अर्थ-असत्पुरुषरूप. कादवका संग करनेसे मेरा मन मलिन दुआ मा, सो आज लत्लाधुका संबंधरूपः जलसें निर्मल हु: आ है. असंगचित्तवाले साधुओका गुणरूप जलसें मेरे पूर्वपुण्य रूप वृक्षका फल आज प्राप्त हुआ. सया गुणानुरागसेही नद्यम करता है.नाव, सार सदलाव सुंदरू होके ध्यान अध्ययन तप प्रमुख साधुके कृत्योंमे.और का Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३०५ यक जावसें जो उत्पन्न होते है ज्ञान दर्शन चारित्र रूप गुण रन्न, तिनका अभिलाषी होवे. होतीदी है उद्यमक्तको अपूर्व कारण कयक श्रेणि क्रम करके केवलज्ञानादिककी संप्राप्ति. यह कथन जैनमतमें प्रसिद्ध है. गुणानुराग गुणकादी प्रकारांतरसें ल कहते है. आपणा स्वजन होवे १ शिष्य होवे २ अपणा पूर्वकालका नपकारी दोवे ३ एक गच्छका वसनेवाला होवे ४ इनके उपर जो राग करणा है सो गुणानुराग नदि कदा जाता है. प्रश्न - तब साधुचारित्रिया इन स्वजनादिकोंके साथ कैलें वर्ते करुणा परदुःख निवारण बुद्धि नक्तंच परहितचित्ता मैत्री, परशुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुख तुष्टिर्मुदिता परदोषोपेक्ष समुपेक्षा ॥ १ ॥ अर्थ - परके हित में चित्त रखना सो मैत्री, परदुःखको नाश करना सो करुणा, परसुखसें संतोष होवे सो मुदिता और परदोषकी उपेक्षा करे सो नपेक्षा होती है.. तिस करुणा करके रसिक राग द्वेष बोमके स्वजनाविकको शिक्षा करे अथवा स्वजनादिकाको तथा श्रन्यजनाको मोक्षमामें प्रवर्त्तावे. गुणानुरागका फल कहते है. उत्तम - उत्कृष्ट जे गुण ज्ञानादिक तिनमें रागप्रीति प्रकर्ष होनेसें उपमकाल, निर्बल संदननादि दूपलो करके पूर्णधर्म सामग्री नदि प्राप्ति दुइ है, सो सामग्री गुणानुरागी पुरुषको भावांतर में पावणी दुर्लन नहि किंतु सुलन है, कथन करा गुणानुरागं रूप बा जाव साधुका लिंग. अथ गुरुकी आज्ञा आराधन रूप सातमा लिंग लिखते है. प्रथम गुरु कीसकों कहिये ? जो बत्तीस गुणां करके युक्त होवे तिसको गुरु अर्थात आचार्य कहतें है. वे बत्तीस गुण येद है. 44 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ अज्ञानतिमिरनास्कर. आचार्यके छत्तीस गुण. आर्य देशमें जन्म्या होवे तिसका वचन सुखावबोधक होता है, इस वास्ते देश प्रश्रम ग्रहण करा १ कुल-पिता संबंधी दवा कु श्रादि नत्तम होवे तो यथोदिप्त-यथा नगया संयमादि नारके वहनेस अकता नहि है २ जाति माता अच्छे कुलकी जिसकी होवे सो जाति संपन्न होवे सो विनयादि गुणवान होता है ३ रूपवान होवे. " यत्राकृतिस्तत्र गुणा नवन्ति” ॥इस वास्तेरूप ग्रहण करा ४ संहनन धृति युक्त होवे, दृढ बलवान् शरीर और धैर्यवान् होवे तो व्याख्यानादि करणेसे खेदित न होवे ५-६ अनाशंसी श्रोताओंसें वस्त्रादिककी आकांदा-वांछना न करे ७ अविकण्यनो हितकारी-मर्यादा सहित बोले ७ अमायी-सर्व जगे विश्वास योग्य होवे ए स्थिरपरिपाटी परिचित ग्रंथ होवे तो सूत्रार्थ लुले नहि १० ग्राह्यवाक्य सर्व जगे अस्खलित जिसकी आज्ञा होवे ११ जितपर्षत्-राजकी सन्नामें कोनको प्राप्त न होवे १२ जितनिशे-जितीहोवे निंदतो प्रमादि शिष्यको सूतांको स्वाध्यायादि करणे वास्ते सुखे आगता करे. १३ मध्यस्थसर्व शिष्योमें समचित्त होवे १५ देशकाल नावझ-देशकालनावका जानकार होवे तो सुखमें गुणवंत देशमें विहारादि करे १५ १६-१७ आसन्नलब्धप्रतिन्नः शीघ्रही पर वादीको उत्तर देने समर्थ होवे १७ नानाविधदेशनाषाविधिज्ञः नाना प्रकारके देशोकी नापाका जानकर होवेतो नाना देशांके नत्पन्न हुए शिष्यों को सुखे समजाय शके १७ ज्ञानादि पंचाचार युक्त होवे तो ति. सका वचन मानये योग्य होता है. २०-२१-२२-२३-२४ सूत्रार्थ तयुनयविधिज्ञः सूत्रार्थ तउन्नयका जाननेवाला होवे तो नत्सर्गापवादका विस्तार यथावत् कह शकता है ५५ आहारण दृष्टांत Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम.. ३७ हेतु अन्वय व्यतिरेकवान् कारणम् दृष्टांतादि रहित उपपत्ति मात्र नय नैगमादिक इनमें निपुण होवे तो सुखसे प्रश्नको कह शकता है ए ग्रहणा कुशल-बहुत युक्तियों करके शिष्योंकों बोध करे ३० स्वसमयपरसमयज्ञ-स्वमतपरमतका जानकार होवे सुखसेंही तिनके स्थापन उच्छेद करने में निपुण होवे ३१-३२ गंन्नीरः अलब्ध मध्य होवे ३३ दीप्तिमान पराधृष्य होवे ३५ शिवका हेतु होनेसें शिव जिस देश में रहे तिस देशके मारि प्रा. दिकके शांति करणेसे ३५ सौम्य-स्वजनोके मन नयनको रम. णिक लागे ३६ प्रश्रयादि अनेक गुणां करके संयुक्त होवे सो आचार्य प्रवचनानु योगके कथन करने योग्य होता है. अथवा आठ गणी संपदाको चार गुणां करीए तब बत्रीस होते है. प्राचार १ श्रुत शरीर ३ वचन ४ वाचना ५ मति ६ प्रयोगमति ७ संग्रह परिझाता ७ इनका स्वरूप आचार नाम अनुष्टानका .. है. सो चार प्रकारका है. संयम, ध्रुव, योग युक्तता. चारित्रमें नित्यसमाधिपणा १ अपने आपको जात्यादिकके अनिमानसे रहित करके २ अनियत विहार ३ वृक्ष शीलता शरीर मनके विकार रहित होवे ४ ऐसेही श्रुतसंपदा चार प्रकारे बहु श्रुतता जिस कालमें जितने आगम होवे तिनका प्रधान जानकार होवे १ परिचित सूत्रता. नुक्रम क्रम करके वांचने समर्थ होवे । विचित्र सूत्रका स्वसमयपरसमयादि नेदोका जानकार ३ घोष विशुद्दि करणता नदात्तादि घोषका जानकार ४ शरीर संपदा चार प्रकारे आरोह परिणाद युक्तता नचित दीर्घादि शरीर वान् १ अनवत्रप्यता अलज्जनीय अंग परिपूर्ण चनु आदि इंघिय होवे ३ तप प्रमुखमें शक्तिवान शरीर संहनन ४ वच संपद् चार प्रकारे, आदेय वचन १ मधुर वचन १ मध्यस्थ वचन ३ संदेह रहित वचन ४ शिष्यकों योग्य जानके उद्देश करावे १ शिष्यकों Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ឌុចថា अज्ञानतिमिरनास्कर योग्य जानके समुदेश करावे १ पूर्व दीया आलावा शिष्यको आगया जानके नवीन श्राखावा-पाठ देवे ३ पूर्वापर अर्थको अवि. रोधीपणेसे कहे ४ मति संपदा चार प्रकारे, अक्ग्रह १ ईहा २ अपाय ३ धारणा ४ संयुक्त होवे. प्रयोगमति संपद चार प्रकारे, यहां प्रयोगनाम वादमुशका है सो अपनी सामर्थ जानके वादीसे वाद करे १ पुरुषकों जानें क्या यह बौछादि है । केत्र परिझानं क्या यह क्षेत्र माया बहुल है, साधुयोंका नक्तिवान् है वा नहि ३ वस्तु ज्ञानं क्या यह राजा, मंत्री सन्नानक है वा अन्नक है ४ संग्रह स्वीकरणंतिस विषे ज्ञान सो आठमी संपदसो चार प्रकारे. पीठ फलकादि विषया १ बालादि शिष्य योग्य क्षेत्र विषया श् यथावसरमें स्वाध्यायादि विषया ३ यथोचित विनयादि विषया ४ विनय चार प्रकारे आचार विनय १ श्रुत विनय २ विकेपणा विनय ३ दोष निर्घातन विनय । तिनमें आचार विनय. संयम १ तप गच्छ ३ एकल विहार ४ विषये चार प्रकारकी समाचारी स्वरूप जाने. तिनमे पृथ्विकाय संयादि सत्तरे नेद संयमे आप करे, अन्यासे करावे, डिगतेकों संयममे स्थिर करे, संयममे यतन करने वालेकी उपवृंहणा करे. यह संयम समाचारी है। पदादिकमें आप चतुर्थादि तप करे, अन्योंसे करावे. यह समाचारी है २ पडि लेहणादिमे, बाल ग्लानादिककी वैयावृत्तिमें डिगतकों गच्छमें प्रवविना श्नमे आप स्वयमेव नद्यम करे. यह गच्छ समाचारी है ३ एकल विहार प्रतिमा अाप अंगीकार करे अन्योंको अंगीकार करावे. यह एकल विहार समाचारी ४ श्रुत विनयके चार नेद है. सूत्र पढाना १ अर्थ सुनावना हित, योग्यता अनुसारे वांचना देनी ३ निःशेष वाचना निःशेष समाप्तितक वाचना देनी ४ विके पणा विनयके चार नेद है. मिथ्यात्व विक्षेपणा मिथ्या दृष्टिकों Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३गए स्वसमयमै स्थापन करना १ सम्यग् दृष्टिकों आरंजसे विदेपणा चारित्रमें स्थापन करना २ धर्मसें ब्रष्टकों धर्ममें स्थापन करना ३ चारित्र अंगीकार करनेबालेको तथा अपणेकों अनेषणीय नक्तादि निवारण करके हितार्थमें नद्यम करणा ४ दोष निर्घात विनयके चार नेद है. क्रोधीका क्रोध दूर करणा १ परमतकी कांदा वालेकी कांदा बेदनी २ आपणा क्रोध दूर करणा ३ अपणी कांदा निवारणी येह देश मात्र स्वरूप लिखा है. विशेष स्वरूप देखवाहो बे तो व्यवहार सूत्र नाष्यसें जानना. ये पूर्वोक्त सर्व एकठे करीए तो उत्तीस गुण आचार्यके होते है. तीसरे प्रकारे उत्रीस गुण लिखते है, छत्रीस गुणका तिसरा प्रकार. बतषद् , कायषद् , ये प्रसिद्ध है अकल्पादि षट्क ऐसे है. एक शिष्यक स्थापना कल्प ? दूसरा कल्प स्थापना कल्प शतिसमें प्रथम जिसने पिंडेषणा १ शय्या १ बस्त्र एषणा ३ पात्र एपका ये चारों अध्ययन जिस शिष्यने सूत्रार्थसे पठे नहि है तिसका पाल्या आहार वस्त्रपात्रादि साधुओको लेने नहि कल्पते है. तथा स्तुबह कालमे असमर्थ १ और वर्षा चतुर्मासमें असमर्थ स. मर्थ दोनोंको माये दीक्षा देनी नदि कटपते है. यह स्थापना कल्प प्रथम १ उसरा अनेषणीय पिंक १ शय्या २ वस्त्र ३ पात्र ४ ग्रहण नहि करणा ॥ १ ॥ गृहिनाजन कांस्यकटोरी प्रमुखमें नोजनादि नहि करे ३ पर्यंक मंचकादि ऊपर नदि बैबना ३ निदा वास्ते गयें गृहस्थके घरमें बैठना नदि ४ स्नान दो प्रकारका प्रांखकी पदमणामात्रन्नी प्रक्षालन करे तो देशमान सर्वांग दालना सर्वस्नान ये दोनो नहि करणा ए शोना विनूषा करणी वर्जे ६. सर्व अगरह दूए इनकों आचा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, र्यके गुण इस वास्ते कहते है, इनमें दोष लगे तो तिनका: प्रायश्चित्त आचार्य जानता है ज्ञानादि पंचाचार सहित होवे सो आचारवान् १ शिष्यके कहे अपराधको धारण करे सो आचार वान्न २ पांच प्रकारके व्यवहारका जानकार होवे सो व्यवहारवान् ३ नब्बीलए अपनीमकः लजापनोदको आलोयणा करने वालेकी लज्जा। दूर करणे समर्थ होवे जिसे आधोयण करे. ४ पालोचित दूषणकी सिद्धि करणे समर्थ होवे ५ निर्जापक ऐसा प्रायश्चित्त देवे जैसा आगला परजीव वह शके ६ अपरिस्सावी आलोचकके दोष सुणके अन्यजनो आगे न कहे ७ सातिचारको परलोकादिकमें नरकादिके दुःख दिखलावे - यथा दश प्रकारका प्रायश्चित्त जाननेवाला होवे, पालोचना १ प्रतिक्रमणा २ मिश्र ३ विवेक ४ व्युत्सर्ग ५ तप ६ छेद ७ मूल ७ अनवस्थाप्य ए परांचित. १० निरतिचार निकट घरसे निकादिका ग्रहणा गुरु आगे प्र गट करणा इतनांही करणा आलोचना योग्य प्रायश्चित्तं जानना. १ अना नोगादिसें विना पुंज्या झुंकादि धेके तिसमें जीव वध न हि दोवे तिसका मिथ्या :कृत देना सो प्रतिक्रमणाई २ संत्रम जयादिकसे सर्व व्रतो के अतिचार लगे आलोचना प्रतिक्रमण मिथ्या:कृत रुप नन्नयाई ३ उपयोगसे शुइ जानने अन्नादिनहण करे पी अशुः मालम हुआ तिस अनादिकका परित्याग करणा सो विवेकाई ४ गमना गमन विहारादिमे पञ्चीस नवा. स प्रमाण कायोत्सर्ग करणा सो व्युत्सर्गाई ५ जिसके सेवनेसे निनिकृतिकादि षटु मास पर्यंत प्रायश्चित दिजीए सो तपाई ६ जीस प्रायश्चितमें पंचकादि पर्यायका बेद करीए सो बेदाई ७. जिसमें फेर दीक्षा देनी पो सो मूलाई जबतक तपनसेवन चुके तबतक व्रतमें न स्थापन करीए सो अनवस्थाप्याई ए जिस Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३११ मैं तप लिंग क्षेत्र कालके पारको प्राप्त होवे सो पारांचित. १० ये पूर्वोक्त सर्व एक करीए तव बत्तीस होते है. ऐसा गुणां करी संयुक्त गुरु होवे तिसकी चरणांकी सेवा सम्यग् प्राराधना परंतु गुरुके निकटवर्ति मात्र नहि; किंतु सेवामें अतिशय करके रत होवे. कदाचित् गृरु निष्ठुर कठोर वचनसें निना करे तोजी गुरुकों बोनेकी इच्छा न करे. केवल गुरु विषये बहुमान करे. ऐसा विचारे कि धन्य पुरुषकी नपर गुरुकी दृष्ठि परती है, और हित कार्यसे मना करते है. तथा गुरुका प्रादेश करनेकी इच्छावाला गुरुके समीप वर्त्ति रहे.. ऐसा साधु चा'रित्र जार वहने में समर्थ होता है. तीस कोही सुविहित करते. है. कैसें यह निश्चय जानीए सोइ कहते है. सकल अगरह: सदस्र जे शीलांग गुण है तिनका प्रथम कारण श्राचारांग में गुरु: कुलवास करणा कहा है तिसका प्रथम सूत्र. 66. सूर्य में व संतेां जगवया एव मखायं " इस सूत्र का भावार्थ यह है. सर्व धर्मार्थियोनें गुरुकी सेवा करणी. इस वास्ते सदा गुरुचरणके समीप रहे चारित्रार्थी चारित्रका कामी तथा गच्छ वसने गुण हैं. गुरुके परिवारका नाम गच्छ है. तहां वसतांको बहुत निर्जरा है. विनय है. स्मारण, वारण, नोदना सें दूषएग उत्पन्न नदि होते है. कदाचित् संयम बोके निकलनेकी इच्छा होवेतोजी अन्य साधु नपदेशादिकसें तिसकों रख लेते है. प्रश्न- श्रागमके तो साधुकों आहार शुद्धिही मुख्य चारिकी शुद्धिका देतु कहा है यदुक्तं. " पिंडं असोडतो अचरिती इच्छा संसननथिय । चारितं मिश्र संते सव्वादि खानिर यथा " अर्थ — जो आहारकी शुद्धि 'न करे वो चारित्रीया नहि, तव सर्व दीका निरथक है. तथा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अज्ञानतिमिरनास्कर. “जिण सासणस्समूलं लिखायरिया जिणेहिं पन्नत्ता । इच्छ परितप्पमाणं तंजाण सुमंद सहीयं." अर्थ-जिन शासनका मूल निकाही शुद्धि तीर्थंकरोनें कही है, जो इसमें शिथिल है सो मंद श्रक्षावाला जानना. आहारकी शुद्धि बहुते साधुओंमें वसता पुष्कर है ऐसा मेरेको नासन होता है. इस वास्ते नकला होके आहार शुदि करना चाहिये. ज्ञानादिकके लानको क्या करणा है. मूल चूत चारित्रही पालना चाहिये. मुलके होते दुआही अधिक लानकी चिंता करणी नचित है. उत्तर-पूर्वोक्त कहना सत्य नहि है. जिस वास्ते गुरु परतंत्रतासे रहित होनेसे असरे साधुकी अपेक्षाके अनावसे लोनको अति पुर्जय होनेसे कण कणमें परि वर्तमान परिणाम करके एकला साधु आदार शुद्धिको पालनेही समर्थ नहि है. तथा चोक्तं. एगणियस्स दोसा इच्छी साणे तहेव पमिणीए, लिखवि सोहि महव्वय तम्हा सवि श्द्य एगमणं” ॥ १ ॥ एकले साधुकों स्त्रीसें दोष होवे, श्वानसे, प्रत्यनीकर्स नपव रूप दोष होवे, निदाकी शुदिन होवे, महाव्रत नहि दोवे इस वास्ते उसरे साधुको साथ रहना और चलना चाहिये. तथा “पिल्लि जेसण मिको" इत्यादि. अर्थात् एकला एषणाका नाश करे तब एषणाको अन्नावसे कैसे मूल नूत चारित्र पालने में समर्थ होवे. कोइ एकला शुइ निकाली ग्रहण करे तोली. “सव्व जीण पडिकुठं अगवथ्था थेर कप्प नेय । एगोय सुया नुत्तोकि इण तव संजमं अश्यारा" ॥१॥ इति व चनात्. अर्थ-सर्व तीर्थकसेने एकला विचरणा निषेध करा है, एकसा रहणा अनवस्थाका कारण है. स्थिवर कल्पका नाश नेद Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम ३१३ करणा है. एकला साधु अच्छे उपयोगवालाजी तप संयमका नाश करनेवाला है, और प्रतिचार सेवनेवाला है. तीन जवनके स्वामी की आज्ञा विरोधनेंसें एकलपणा सुंदरताको नदि प्राप्त होता है, तथा चाह सूत्रकारः । एयस्स परिचाया सुद्धं बाइ विन सुंदरं नलियं । कंमाविपरिशुद्धं गुरु प्राणा वत्तिनो विंति ॥ १२७ ॥ व्याख्या. एयरस गुरुकुल वासके परित्याग सें सर्वथा गुरु कुल बोमनेसें शुद्ध शिक्षा, शुद्ध उपाश्रय, वस्त्रपात्रादिनी सुंदर शोजनिक नदि है. ऐसा कनागमके वेत्ताने कथन करा है. तथाच तडुक्तिः 66 66 'सुई बाइ सुजुत्तो गुरुकुल चागा इगेंद विन्नेन सवर ससर खपिंar घाय पाया ठिवण तुब्लो ॥ १ ॥ श्रस्य व्याख्या. शुद्ध निर्दोष निक्षा लेता हैं. कलह ममत्व त्यागा है जिसने ऐसा नद्यमी जेकर गुरुकुलवास त्यागे तथा सूत्रार्थकी हानि जानके ग्लान रोगी की वैयावृत्त त्याग देवे तिसकों जैनमतमें कैसा जानना जैसा सबर राजाको सरजस्ककी पीछी वास्ते मारला, मारतो देना, परंतु पगां करके गुरुके शरीरका स्पर्श न करना ऐसा पूर्वोक्त एकल विदारीका चारित्र पालना है. कथानक संप्रदाय ऐसा है. किसी एक संनिवेशमें शबर नामा सरजस्कोंका भक्त एक राजा होता जयां; तिसकों दर्शन देने वास्ते एकदा प्रस्तावे तिसका गुरु मोर पांखके चंद सहित बत्र शिर उपर धारण करता हुआ तहां आया तब तिसका दर्शन राजाने राणी सहित करा तितका मोर पांखका बत्र देखके राशीका मन तिस बनके लेनेको चलायमान हुआ, तब राजाकों कहा, तब राजाने सरजस्क सें मोर पांखात्र मागा, तिस देशमें मोरपीबी, मोरपंख 45 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१४ अज्ञानतिमिरजास्कर. नहि होते थे, इस वास्ते गुरुकी देनेकी इच्छा नदि हुइ, तब राजा अपने घेर गया. तहां राणीने तो जोजनका करना त्यागा; मोर पीaat a श्रावेगा तवही नोजन करूंगी. तब राजाने वारवार सरजस्कसें बत्र लेने वास्ते प्रार्थना करी तोजी गुरु देता नदि, तदा दुर्वार प्रेम ग्रहके व्यामोहसें राजा श्रपने सेवकोंसें कहता है-दात् जोरावरीसें खोसल्यो ? तब सेवक कहते है गुरु मांगनेसें देता नदि और जोरावरीसें लेना चाहते है तब गुरु शस्त्र लेके दमको मारणेकुं प्राता है. तब राजा कहता है. तुम दुरसे बालों से विंधके मारगेरो और बव लीन लेवो परंतु अपने पगोका स्पर्श गुरुके शरीर न करणा, क्योंकि गुरुकी प्रवज्ञा महा पातकका देतु है. जैसा शबरराजा, गुरुका विनाश करता हुआ और पगांका स्पर्श करणा मना करता हुआ विवेक है तैसा गुरुकुल वासके त्यागनेवाले शुद्ध प्रादार लेनेवाले साधुका संयम पालना है; और आधा कर्म नदेशिकादि दूषण सहितजी आहार गुरु आज्ञा वर्तिक शुद्ध है. निर्दोष है, शुद्ध प्रहारकातो क्या कहना है जो गुरुका प्रदेश माने तिसकों गुरु श्राज्ञा वर्त्ती कहते है, ऐसा कथन श्रागमके जानकार करते है. इस वास्ते गुरु श्राज्ञा मोदी है. तिस वास्ते गुरु श्राज्ञा माननेवाला धन्य है, प्रशंसने योग्य है, जसे मनवाले है. इस वास्ते गुरु कर्कश वचनसें शि क्षा देवे तदा मनमें रोष न करे. गुरु कुलवास न बोडे. प्रश्न- जैसा तैसा गुरुगण संपत्तिके वास्ते सेवना चाहिये के विशिष्ट गुणवाला सेवना चाहिये ? उत्तर - गुणवानदी, गुण गण अलंकृतदी गुरु दो शक्ता है सो श्रुत धर्मका उपदेशक, चारित्र धर्मका पालनेवाला, संविज्ञ, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३१५ गीतार्थ गुरु मानना योग्य है. गुरुके व्रत षट्क ५ काय षट्रक ६ अकल्प १३ गृहन्नाजन १४ पर्यंक १५ गृहस्थके घरे बैठना १६ स्नान १७ शोना १० ऐसा अगरह गुणका स्वरूप दश वैका लिकके उठे अध्ययनमें श्री शय्यंनव सूरिजीए विस्तारसे कथन करा है. इन अगरह गुण विना गुरु नहि हो शक्ता है-जैसें तंतु विना पट-वस्त्र नहि हो शक्ता है. प्रतिरूप, योग्यरूपवान् होवे १ तेजस्वी होवे २ युग प्रधानागमका जानकार होवे ३ मधुर वचन होवे । गंजीर होवे ५ बुद्धिमान होवे ६ सो नपदेश देने योग्य प्राशर्य है. किसीके आलोया दूषण दुसरे आगे न कहे १ सौम्य होवे २ संग्रह शील होवे ३ अन्निग्रह मति. होवे ४ हितकारी मर्यादा सहित बोले ५ अचपल होवे ६ प्रशांत ह. दय होवे, इत्यादि, तथा देश कुल रूप इत्यादि विशेष गुण करके संयुक्त होवे सो गुरु जैन सिशंतमें माना है. कार्य साधक होनेसें. जिसमें पूर्वोक्त गुण न होवे सो जैन मतके प्रवचन वेत्ताओने गुरु नहि माना है. प्रश्न-सांप्रत कालके अनुनवसे पूर्वोक्त सर्व गुणवाला गुरु मिलना उर्जन लै; कोस्नी किसीसे किसी गुण करके दीन है, को अधिक है ऐसा तारतम्य नेद करके अनेक प्रकारके गुरु नपलब्ध होते है. तिस वास्ते तिनमें से किसको गुरु मानना चाहिये और किसकों गुरु न मानना चाहिये ऐसा दोलायमान म. नवाले हमकों क्या नचित है.? । उत्तर-“ मूल गुण संपनत्तो नदोस लव जोग न मोदेन । महुर वक्कम नपुण पवत्तियवो जदुत्तमि ॥ १३१ ॥ व्याख्या. मूल गुण पंचमहाव्रत षट्काय आदि तिन करके संयुक्त स. म्यक सबोध, प्रधान प्रकर्ष नद्यमातिशय करके युक्त. ऐसे मूल Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणां करके संप्रयुक्त गुरु युक्त होता है. कदाचित् गुरु मंद बुदिबाला और बोलनेमें अचतुर, थोमेसे प्रमादवाला होवे, इत्यादि लेश मात्र दूषण देखके यह गुरु त्यागने योग्य है ऐसा मनमें न मानना क्योंकि मूल गुण पांच जिसमें होवे सो अन्य किसी गुण करके रहितनी गुरु गुणवंत है. चारुश्वत्, इत्यादि आगम व. चनानुसारे मूल गुण शुः जो गुरु होवे सो नोमने योग्य नहि है. कदाचित् गुरु प्रमादवान् हो जाते तब मधुर वचन करके और अंजलि प्रणाम पूर्वक ऐसें कहे-अनुपकृत, परहितरत तु. मने नला हमको मृहवाससे छोमाया अब ननर मार्गके प्रवर्तावनेसे अपणी आत्माको नीम नवकांतार संसारमें तारो. इत्यादि प्रोत्साहक वचनोंसे फेर नले मार्गमें प्रवनवे जैसे पंथग मुनिने सेलग राजऋषिकों फेर मार्गमे स्थिर करा, अत्र कथा ऐसे करता साधुको जो गुण होवे सो कहते है. ऐसे मुल गुण संयुक्त गुरुको न गेडता हुश्रा और गुरुको सत्य मार्गमें प्रवर्त्तावता हुआ साधुनें बहुमान सप्रीति नक्ति गुरुकी जरी है, तथा कृतज्ञता गुण अंगीकार करा तथा सकल गच्चको गुणांकी वृद्धिअधिक करी, क्योंकि सम्यक् आज्ञावर्ती पुरुष गह गुरुके ज्ञानादि गुणकी वृद्धि करताही है जेकर शिष्य शिखाये पठाये अविनीत होवे गुरुकी शिक्षा न माने तब गुरु तिनको त्याग देता है. कालिकाचार्यवत. तथा अनवस्था मर्यादाकी हानी तिसका त्याग करणा होता है. यह अतिप्राय है कि जो एक गुरु मुल गुण महाप्रसादको धारण करणेंकों स्तंन्न समान ऐसें गुरुको अल्प दोष पुष्ट जानके जो त्यागे तिसकों अन्यत्नी को गुरु नहि रचे. कालके अनुन्नावसे सूक्ष्म दूषण प्राये त्यागनेकों कोश्नी समर्थ नहि हो शक्ता है. इस हेतुसे उसको कोश्नी गुरु नहि रुचेगा. तबतो एकला विचरेगा तब Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखंम. ३१७ " एकस्स कनधम्मो सच्छेद म पयारस्त । किंवा करे को परिदर नकंदमकजंवा ॥१॥ कत्तो सुतथ्यागम पनि पुग्ण चोशणे वाकस्स । विणय या वञ्चं आराहण याव मरणते ॥ २ ॥ पिल्ले जेसण मिको पश्न पमया जणान निञ्चनयं । कानमणो विप्रकचेन तर कानण बहु मझे ॥ ३॥ उच्चार पासवण वंत मुत मुच्छा इमो दिन को । सहव जाल विदथ्यो निखिव इच कुण नाई ॥४॥ एमदिव संपि वहुया सुदाय असुहाय जीव परिणामा । इक्को असुद परिणो चश्य प्रालंबणं ला" मित्यादिना निषिद मप्ये काकित्वं । इनका नावार्थ. एकले विचरणेवाले साधुके धर्म नहि, स्वच्छंदमति होनेसे. एकला क्या करे; कैसे एकला अकार्य परिहरे; एकलेको सूत्रार्थका आगम नहि. किसको पूरे एकलेको कौन शिक्षा देवे; एकला विनय वैयावृत्तसे रहितहे. मरणांतमें आराधना न करशके. एषणा न शोधी शके. प्रकीर्ण स्त्रीओंसें तिसकों नित्य जय है. बहुत साधुओंमें रहनेवालाके मनमें अकार्य करणेकी इच्छगनी होवे तोनी नहि कर शक्ता है. नच्चार, विष्टा, मूत्र, वमन, पित्त, मूर्ग इन करके मोहित एकला कैसें पात्रांके हाथ लगावे. कैसे पाणी लावे. जेकर जगत्की अशुचि न गिणेतो जगतमें जिन मतका नडाद निंदा करावे. एकला एक अवलंबन खोटा लेके सन्मार्गसे भ्रष्ट हो जावे. इत्यादि गाथाओसें साधुको एकला रहणा निषेध करा है. तथा एकल जो होना है तो स्वबंदसें सुख जानके होता है तिसकी देखादे. ख अन्यअन्य मूढ, विवेक विकलनी एकले होते है. ऐसी प्रनवस्था करते है. और जो पूर्वोक्त गुरु गच्छमें रहते है वे पू. ोक्त सर्व दूषणोंसे रहित होते है, गुरूकी सेवा करणेसें. इत्यादि अन्यन्नी गुरुग्लान, बाल, वृक्षदिकोंकी विनय वैयावृत्त करणे. से सूत्रागम कर्म निर्जरादि अनेक गुण होते है. जो विपर्यय Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ अज्ञानतिमिरनास्कर. होवे तिसको क्या होवे सो कहते है. मूल गुणधारी गुरुके त्यागर्नेसें नक्त गुण गुरु बहु मानादि कृतज्ञता सकल गह गुणाकी, वृद्धि अवस्था परिहार इत्यादि गुणांका उच्छेद होवे. लोकमें: साधुओका विश्वास नदि होवे. लोक ऐसे माने-ये एकले परस्पर निंदक स्वबंदचारी अन्यअन्य प्ररूपणा करनेवाले. सत्यवादी है ? वा मृषावादी है ? जब लोकमें ऐसा होवे तब तिनकों परनवमें जिनधर्मकी प्राप्ति न होवे. इत्यादि एकले स्वच्छन्दचारी साधुकों दूषण होते है, जेकर थोडेसे दूषण प्रमाद जन्य देखके गुरु त्यागने योग्य होवे तब तो इस कालमें कोनी गुरु मानने योग्य नहि सिः होवेगा. क्योंकि जैनमतके सिहांतमें पांच प्रकारके निगंथ कहे है. पुलाक १ बकुश २ कुशील ३ निग्रंथ ४ स्नातक ५ इन पांचोका नेद स्वरूप देखना होवे तो श्रीनगवती सूत्रसें तथा श्री अन्नयदेवसूरि कृत पंच निग्रंथी संग्रहणीसें जानना. इन पांचोमेंसें निग्रंथ, स्नातक ये दोनों तो निश्चयही अप्रमादी होते है. किंतु ते कदे होते है, श्रेणिके मस्तके सयोगी अयोगी गुणस्थानमें होते है. इस वास्ते तीर्थकी प्रवृत्तिके हेतु नहि है. और पुलाकन्नी लब्धिके होनेसें ही होता है. यह तीनो सांप्रत कालमें व्यवच्छेद हो गये है. इस वास्ते बकुश कुशीलसेही श्कवीस हजार वर्ष तक निरंतर श्री वर्धमान लगवंत का तीर्थ चलेगा. तीर्थ प्रवाहके हेतु बकुश कुशील है. और बकुश कुशील अवश्यमेव प्रमादजनित दूषण लव करके संयुक्त होते है.जे. कर पूर्वोक्त दूषणोवालोकों साधु नमानीये तब तो सर्वसाधु त्यागने परिदरणे योग्य हो जायेंगे. यही बात चित्तमें लाकर सूत्रकारकहताहै. - "बकुश कुशीला तीथ्यं दोस लवाते सुनियम संलविणो । जई तेहिं वद्यणिज्जो अवद्यनिद्यो तऊपण्यि ॥ १३५ ॥” व्याख्या, बकुश कुशील व्यावर्णित स्वरूप दोनो निग्रंथ सर्व तीर्थंकरोके Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखंरु. ३१ तार्थ संतान के करनेवाले है. इस वास्तेही सूक्ष्म दोष बकुश कुशलमें निश्चय करके होते है. जिस वास्ते तिनके दो गुण स्थानक प्रमत्त श्रप्रमत्त होते है. प्रमत्त गुणस्थानकमें अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है. जब प्रमत्त गुणस्थानक में वर्त्तता है तब प्रमादके होनेसें प्रवश्यमेव सूक्ष्म दोष लववाला साधु होता है; परंतु ज्हां तक सातमा प्रायश्चित्त प्रावनेवाले दुषण सेवे तदां तक तिसको चारित्रवानदी कहिये. तिस वास्ते बकुश कुशीलमें निश्चयी दूषण लवांका संभव है. जेकर तिनको साधु न मानीए तबतो अन्य साधुके अभाव जगवंतके कड़े तीर्थकाजी श्राव सिद्ध दोवेगा. इस उपदेशका फल कहते है. 66 इय जाविय परमथ्था मद्यथा नियगुरु नमुंचति । स व्वगुण संप नगं अप्पारा मिवि पिता " ॥ १३६ ॥ व्याख्या.. ऐसें पूर्वोक्त प्रकार करके मनमें परमार्थका विचारनेवाला मध्यस्थ अपक्षपाती पुरुष अपने धर्माचार्य गुरुको मूल गुण मुक्ता माणि क्य रत्नाकर गुरुकों न बोगे, न त्यागे. क्या करता हुआ सर्वगुण सामग्री अपर्णेमें न देखता हुआ तथा अन्य दूषण यह है. जो गुरुका त्यागनेवाला है वो निश्चय गुरुकी अवज्ञा करनेवाला है, तब तो महा अनर्थ है सो आगमद्वारा स्मरण कराके कहते है.. एवं श्रमन्तो वृत्तो सुत्तं मिपाव समति । मह मोह बंध गोaिय खितो अप्प तप्पंतो ॥ १३६ ॥ व्याख्या. ऐसे पृर्वोक्त कहे गुरुको दीलता हुआ साधु सूत्र उत्तराध्ययनमें पाप श्र ar कहा है. और गुरुकों निंदने, खिजनेवाला प्रावश्यक, सम वायांगादिक में महा मोहनीय कर्मका बेध करनेवाला कहा है. 66 प्रश्न - गुरुकों सामथ्र्कके अभाव हुए जेकर शिष्य अधिक - तर यतनावाला तप श्रुत अध्ययनादि करे सो करणा युक्त है ? वा गुरुके लाघवका देतु होनेसें प्रयुक्त है ? Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अज्ञानतिमिरनास्कर. उत्तर-गुरुकी आज्ञा संयुक्त करे तो गुरुके गौरवका हेतु होवे. शिष्य गुणमें अधिक होवे तो गुरुके गौरवका हेतु है. श्री वजस्वामिके दुए सिंहगिरि गुरुवत्. अत्र कया. शिष्यके गुणाधिक दुआ गुरुका गौरव है, किंतु तिस शिष्य गुणाविकनेनी गुरुको गुणहीन जानकर अपमान करना योग्य नहि. ऐसें गुरुकी नावसे विनय, नक्ति, वैयावृनादि करे तबही साधु शुःइ, अकलंक चारित्रका जागी होके. इस वास्ते पुष्कर क्रियाकारकन्नी शिष्य तिस गुरुकी अवज्ञा न करे परंतु तिसकी आज्ञा करनेवाला होवे. नक्तंच ___ “हम दसम ज्वालसेहिं मास.इ. मासखमणेहिं । अकरंतो गुरुवयणं अशंतसंसारिओ नणिो . अर्थ-उपवास, ठ, अम्म, दसम, हादशम, अर्धमास, मासक्षपण तप करनेवाला शि. प्य गुरुका वचन न माने तो अनंतसंसारी कहा हैं. अथ साधुके लिंग सामाप्ति करता हुआ ग्रंथकार तिसका फल कहता है, पूर्वोक्त सात लक्षण सकल मागानुसारिणी क्रिया १ श्रा प्रधान धर्ममें २ समजावने योग्य सरल होनेसे ३ क्रियामें अप्रमाद ४. शक्ति अनुसारे अनुष्टान करे ५ गुरुसे बहुत राग ६ गुरु आझा आराधन प्रधान ७ इन सात लक्षणोका धरनेवा. ला नाव साधु होता है. तिस नाव साधुकों सुदेवत्व, सुमनुष्यत्व, जातिरूपादिक लान होवे, और परंपरासे मुक्ति पद मि. से. ऐसे साधुकोंही गुरु मानना चाहिये. कथन करा श्रावक साधुके संबंध नेदसें दो प्रकारका धर्म रत्न. इति श्री धर्मरत्न प्रकरणानुसारेण गुरुतत्वका स्वरूप किंचित मात्र लिखा है. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. अथ जैनमतका किंचित् स्वरूप लिखते है.. प्रथम तो आत्माका स्वरूप जानना चाहिये. यह जो रचा है सो जीव है, यह आत्मा स्वयंनू है परंतु किसीका रचा दुआ नहि है. अनादि अनंत है. पांच वर्म, पांच रस, दो गंध आठ स्पर्श इन करके रहित है. अरूपी है आकाशवत. असंख्य प्रदेशी है. प्रदेश नसको कहते है जो आत्माका अत्यंत सूक्ष्म अंस कथंचित् नेदानेदरूप करके एक स्वरूपमें रहे. तिनका नाम आत्मा है. सर्व आत्म प्रदेश ज्ञानम्वरूप है. परंतु, आत्माके एकैक प्रदेश पर आठ कर्मकी अनंत अनंत कर्मवर्गणा, झानावरण १ दर्शनावरण र सुखःखरूप वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नामकर्म ६ गोत्रकर्म ७ अंतरायकर्म करके श्रागदित है. जैसे दर्पणके उपर गया आ जाती है. जब ज्ञानावरणादि कमोंका क्षयोपशम होता है तब इंघिय और मनधारा आत्माको शब्द १ रूप २ रस ३. गंध ४. स्पर्श ५. तिनका झान और मानसी ज्ञान नत्पन्न होता है. कर्मोका कय और कयोपशमका स्वरूप. देखना होवे तब कर्म प्रकृति और नंदिकी. बृहत् टीकार्मेसे जान लेना. इस आत्माके एकैक प्रदेशमें अनंत अनंत शक्ति है. कोई ज्ञानरूप, कोई दर्शनरूप, कोई अव्यावाध सुखरूप, कोई चारित्र रूपा, कोई श्रिररूप, कोइ अटल अवगाहनारूप, कोई अनंत शक्ति सामर्थ्यरूप, परंतु कर्मके आवरणमें सर्व शक्तिया लुप्त हो रहि है. जब सर्व कर्म आत्माके साधनद्वारा पुर होते है. तब यही आत्मा, परमात्मा, सर्वज्ञ,, सिह, बुह, ईश, निरंजन,, परम ब्रह्मादिरूप हो जाता है. तिसहीका नाम मुक्ति है. और जो कुच्छ आत्मामे नर, नारक, तिर्यग्, अमर, सुनग, दुर्चग,.. सुस्वर 46. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अज्ञानतिमिरनास्कर. उस्वर, नंच, नीच, रंक, राजा, धनी, निर्धन, दुःखी, सुखी जो जो अवस्था संसारमें जीवांकी पीठे दुई है, और अब दो रहि है, और आगेको होवेगी, सो सर्व कौके निमित्तसें है. वास्तवमें शुइ च्यार्थिक नगके मतमें तो आत्मामें लोक १ तीनवेद २ थापना ३ नुच्छेद मुख्य करके नहि ४ पाप नहि ५ पुन्य नहि ६ क्रिया नहि ७ कुच्छ करणीय नहि त राग नदि ए वेष नहि १० बंध नहि. ११ मोक्ष नहि १२ स्वामी नहि १३ दास नहि १४ पृथ्वीरूपी १५ अपूरूप १६ तेजस्काय १७ वायुकाय १७ वनस्पति १ए बेंसी ३० तेही १ चौरेंदी २२ पंचेंडी २३ कुलधर्मकी रीत नदि शिष्य नहि २५ गुरु नहि २६ हार नहि २७ जीत नदि श सेव्य नहि ए सेवक नहि ३० इत्यादि नपाधप्या नहि परंतु इस कथनको एकांतवादी वेदांतिओकी तरें माननेसं पुरुष अतिपरिणामी होके सत्स्वरूपसें ब्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है. इस वास्ते पुरुषको चाहिये, अंतरंग वृत्तितो शुभ च्यार्थिक नयके मतकों माने और व्यवहारमें जो साधन अढारह दूषण वर्जित परमेश्वरने कर्मोपाधि दूर करनेके वास्ते कहे है तिनमें प्रवर्ने. यह स्याछाद मतका सार है. तथा यह जो आत्मा है सो शरीर मात्र व्यापक है. और गीणतीमें प्रात्मा लिन निन्न अनंत है. परंतु स्वरूपमें सर्व चेतन स्वरूपादिक करके एक सरीखे है परंतु एकही आत्मा नहि, तथा सर्व व्यापीनी नहि. जो एक आत्माको सर्व व्यापी और एक मानते है वे प्रमाणके अननिश है. क्योंकि ऐसे आत्माके माननेसें बंध मोक्ष क्रियादिका अन्नाव सिह होता है तथा आत्माका यह लक्षण है. . . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयar. यः कर्त्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संर्त्ता परिनिर्वर्त्ता सआत्मा नान्यलक्षणः ॥ १ ॥ अर्थः-- जो शुभाशुभ कर्म नेवांका कर्ता है, और जो करे कर्म फल जोगनेवाला है. और जो भ्रमण करनेवाला, और निर्वाण होता है सोइ श्रात्मा है. इनसेंसें एक वातजी न मानी तो सर्व शास्त्र जुवें ठहरेंगे, और शास्त्रांका कथन करनेवाला प्रज्ञानी सिद्ध होवेंगे. तथा पूर्वोक्त श्रात्माके साथ जेकर पुन्य पापका प्रवाह अनादि संबंध न मानीएतो बने दूषण मतधारीयोके मत में श्राते है. वे ये है. जेकर आत्माको पहिलां माने और पुन्य पापकी उत्पत्ति आत्मामें पीछेमाने तबतो पुन्य पापसें रहित निर्मल श्रात्मा सिद्ध हुए १ निर्मल ग्रात्मा संसार में उत्पन्न नहि हो शकता है. २ विना करे पुन्यपापका फल जोगना असंभव है ३ जेकर विना करे पुन्य पापका फल जोगनेमें घावे तबतो सिद्धमुक्तरूपत्नी पुन्य पापके फल भोगेंगे ४ करेका नाश, विना करेका आगमन यह दूषण प्रावेगा ए निर्मल आत्माके शरीर उत्पन्न नदि होवेगा ६ जेकर विना पुन्य पापके करे ईश्वर जीवकुं अच्छी बुरी श रादिककी सामग्री देवेगा तब ईश्वर अन्यायी, अज्ञानी, पूर्वापर विचार रहित, निर्दयी, पक्षपाती इत्यादि दूषण सहित सिद्ध होवेगा तब ईश्वर काका ७ इत्यादि अनेक दूषण है. इस वास्ते प्रथम पक्ष प्रसिद्ध हैं. १ ३२३ दुसरा पक्ष कर्म पहिलें उत्पन्न हुए और जीव पीछे बना यही पक्ष मिथ्या है. क्योंकि जीवका उपादान कारण कोइ नदि १ श्ररूपी वस्तुके बनाने में कर्ताका व्यापार नदि २ जीवने कर्म करे नदि इस वास्ते जीवकों फल न होना चा * Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ अज्ञान तिमिरजास्कर. दिये ३ जीव कर्त्ताके विना कर्म नृत्पन्न नहि हो शकते ४ जे कर कर्म ईश्वरने करे तब तो तिनका फलनी ईश्वरको जोगना चाहिये. जब कर्म फल भोगेगा तब ईश्वर नहि ५ जेकर ईश्वर कर्म करके अन्य जीवांको लगावेगा तव निर्दय, अन्यायी, पक्षपाती, अज्ञानी, सिद्ध होवेगा. क्योंकि जब बरे कर्म जीवके विना करे जीवकों लगाये तबतो जो नरक गतिके दुःख तिर्यग्गतिके दुःख, दुर्भग, दुःस्वर, श्रयश, अकीर्ति, अनादेय, दुःखी, रोगी, जोगी, धनहीन, जूख, प्यात, शीतोष्णादि नाना प्रकार के दुःख जीवने जोगने जोगे है वे सर्व ईश्वरकी निर्दयतासें हुये १ विना अपराधके दुःख देनेंसें अन्यायी २ ए. ककुं सुखी करनेसे पक्षपाती ३ पीछे पुन्य पाप दूर करणेका नपदेश देनेंसे अज्ञानी ४ इत्यादि अनेक दूषण होनेसे दूसरा पकमी प्रसिद्ध है. तीसरा पक्ष जीव और कर्म एकदी कालमें उत्पन्न हुए यह पकी मिथ्या है; क्योंकि जो वस्तु साथ नृत्पन्न होती है तिनमें कर्नाकर्म नदि होते है. तिस कर्मका फल जीवकु न होना चाहिये. जीव और कर्मोंका उपादान कारण नदि जेकर एक ईश्वर जीव और कमका उपादान कारण मानीए तो प्रसिद्ध है, क्योंकि एक ईश्वर जमचेतनका उपादान कारण नदि हो शक्ता है. ईश्वरकुं जगत रचनेसें कुच्छ हानि नहि. जब जीव और जम नहि थे तब ईश्वर किसका था. जव कर्म स्वयमेव नत्पन्न नहि हो शक्ते है. इस वास्ते तिसरा पक मिथ्या है. चौथा पक्ष. जीवही सच्चिदानंदरूप एकला है. पुन्य पाप नदि यही पक्ष मिथ्या है. क्योंकि विना पुन्य पाप जगतकी विचित्रता कदापि सिद्ध न होवेगी. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___हितीयखम. ३२५ - पांचमा पर. जीव और पुन्य पापही नहि है. यहनी कहना मिथ्या है क्योंकि जब जीवही नहि तब यह शान किसकों दुआ कि कुच्छ है ही नहि है. इस वास्ते जीव और कर्माका संयोगसंबंध प्रवाहसे अनादि है. तथा यह जो आत्मा है सो कर्माके संबंधसे त्रस थावर रूप हो रहा है. थावर पांच है. पृथ्वी १ जल २ अग्नि ३ पवन ४ वनस्पति ५. और वस चार तरेंके है, दो इंख्यि । तेंश्यि २ चौरोंदिय ३ पंचेंश्यि तथा नारक १ तिर्यंच ३ मनुष्य ३ देवता । तिनमें नरकवासीओके १५ नेद है. तिर्यंच गतिके ४७ नेद है. मनुप्य गतिके ३०३ नेद है. देव गतिके १ए नेद है. ये सर्व ५६३ नेद जीवांके है. यह आत्मा कथंचित् रुपी और कथंचित् अरूपी है. जब तक संसारी आत्मा कर्म करी संयुक्त है तब तक कथंचित् रूपी है. और कर्म रहित शुभ आत्माकी विवका करीए तब कथंचित् अरुपी है. जेकर आत्माकोंएकांतरूप मानीए तब तो आत्मा जम सिह होवेगा और कटनेसे कट जावेगा और जेकर आत्मा एकांत अरूपी मानीए तो आत्मा क्रिया रहित सिह होवेगा तब तो बंध मोक्ष दोनोका अन्नाव होवेगा. जब बंध मोदका अन्नाव दुआ तब शास्त्र और शास्त्रकार जूग ठहरेंगे, और दीक्षा दानादि सर्व निष्फल होवेंगे. इस वास्ते आत्मा कथंचित् रुपी कथंचित् अरूपी है. तथा तत्वालोकालंकार सूत्रमें आत्माका स्वरूप लिखा है. “चैतन्य स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षादलोक्ता स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं निनः पौगलिकं दृष्ट्वाश्चर्यमिति.” इस सूत्रका अर्थः Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ अज्ञानतिमिरनास्कर. चैतन्य साकार, निराकार उपयोग स्वरूप जिसका सो चैतन्य स्वरूप १ परिणमन समय समय प्रति पर अपर पर्यायोमें गमन करना अर्थात् प्राप्त होना सो परिणामः सो नित्य है इसके सो परिणामी कर्ना है अदृष्टादिकका सो कर्त्ता ३ साक्षात् नपचार रहित नोक्ता है सुखादिकका सो साक्षादलोक्ता । स्वदेह परिमाण अपणे ग्रहण करे शरीर मात्रमें व्यापक है ५ शरीर शरीर प्रति अलग रहें ६ अलग अलग अपने अपने करे काँके प्राधीन है ७ इन स्वरूपोका खंमन मंमन देवना होवे तब तत्वालोकालंकारकी लघुवृत्ति देख लेनी. तथा ये आत्मा संख्यामें अनंतानंत है. जितने तिन कालके समय तथा आका श के सर्व प्रदेश है तितने है. मुक्ति होनेसे कदापि सर्वथा संसार खाली नदि होवेगा-जैसे आकाशको मापनेसे कदापि अंत नहि आवेगा. तथा आत्मा अनंतानंत जिस लोकमें रहते है सो असंख्यासंख्य कोमाकोमि जोजन प्रमाण लांबा चोमा नमा नी. चा है. तथा इस आत्माके तीन नेद है बहिरात्मा १ अंतरात्मा २ परमात्मा ३ तहां जो जीव मिथ्यात्वके लक्ष्यसे तन, धन, स्त्री, पुत्र पुत्र्यादि परिवार, मंदिर, नगर, देश, शत्रु, मिवादि इष्टानिष्ट वस्तुओमें रागद्वेषरूप बुझि धारण करता है सो बहिरात्मा है अर्थात् वो पुरुष जवानिनंदी है. संसारिक वस्तु ओमेंदी आनंद मानता है. तथा स्त्री, धन, यौवन, विषय नो. गादि जो असार वस्तु है तिन सर्वको सार पदार्थ समजता है, तब तकदी पंडिताइसे वैराग्य रस घोटता है, और परम ब्रह्मका स्वरुप बनाता है, और संत महंत योगी रूपी बन रहे है जब तक सुंदर उन्नट योवनवंती स्त्री नहि मिलती और धन नदि मिलता है, जब ये दोनों मिले तब तत्काल अबैत ब्रह्मका बैत Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ द्वितीयखं. ब्रह्म हो जता है, और लोगोकुं कहने लगता है-नश्यां हम जो स्त्री नोगते है, इंडियोंके रसमें मगन है, धन रखते है, डेरा बांधते है इत्यादि वो सर्व मायाका प्रपंच है. हम तो सदा अलिप्त है. ऐसे ऐसे ब्रह्मज्ञानियोंका मुह काला करके और गइपर चढा के देशनिकाल करना चाहिये, क्योंकि ऐसे ऐसे व्रष्टाचारी ब्रह्मज्ञानीपोने कितनेक मूर्ख लोगोकों ऐसा ब्रष्ट करा है कि ननका चित्त कदापि सन्मार्गमें नहि लग शकता है, और कितनीक कुलकी स्त्रियोंकों ऐसी बिगाडी है कि वे कुलमर्यादा लोकपर श्न नंगी जंगी फकीरोंके साथ पुराचार करती है. और यह जो विषयके निखारी और धनके लोनी संत महंत नंगी जंगी ब्रह्मज्ञानी बन रहे है वे सर्व उतिके अधिकारी है, क्योंकि इनके मनमें स्त्री, धन, काम, नोग, सुंदर शय्या, आसन, स्नान, पानादि नपर अत्यंत राग है. उखके आये दीन दीन दोके विलाप करते है. जैसे कंगाल बनीआ धनवानोको देखते झूरता है तैसे यह पंडित संत महंत नंगी जंगी लोगोंकी सुंदर स्त्रीयां धनादि देखके झूरते है, मनमें चाहते है ये हमकुं मिल तो गैक है. इस बातमें इनका मनही साक्षी है. तथा जो जीव बाह्य वस्तुकोंही तत्व समजता है तिसहीके नोगविलासमें आनंद मानता है सो प्रथम गुणस्थानवाला जीव बाह्यदृष्टि होनसे बदिरात्मा कदा जाता है. १. अब अंतरात्माका स्वरूप कहते है. जे तत्वज्ञान करके युक्त होवे, कर्मबंधन निबंधनके स्वरूपकुं अच्छी तरहसे समजाता हावे, अरु सदा चित्तमें ऐसा वि'चार करता होवे के- यह अपार संसारमें जीव जे जे अशुन्न कर्म नपार्जन करता है सो सो अंतमें उदय पानेसे प्रापसे प्राप Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अज्ञानतिमिरनास्कर. नोगता है, उसरेका कर्म उसरा नही नोगता है. धन कुटुंब अरु खजाना यह सबी पर वस्तु हे इसमें मेरा कुछ नही है-मेरा ज्ञानरुपी आत्मच्य सदा अखंडित है इत्यादि अंतरनावनासे विचार करता होवे, अरु कदाच हीरा, ज्वारात, सुवर्ण आदि नत्तम वस्तुका लान होवे, तब ऐसा विचारेके यह पौद्गलीक वस्तुका मेरसे सबंध दुवा है, इसमें मेरेकुं श्रानंदित न होना चाहिये. फिर वेदनीय कर्मका नद्य होनेसे कदाच रोग, सोग, अरु. कष्ट आ पडे तबन्नी समन्नावकुं धारन करे अरु अपने अंतरात्माकुं परनावसे अर्थात् विषयजन्य सुखोंसे जुदा समजे, चितमें परमात्माका ध्यान करे, अरु धर्म कृत्यमें विशेष करके उद्यम रखे, सो कादशनूमिकावर्ती अंतर दृष्टिवाला अंतरात्मा कहा जाता है. अब परमात्मात्माकानी किंचित् स्वरूप लिखते है.. (यउक्तं ) श्रामद्-हेमचंज्ञचार्यपादैः महादेवस्तोत्रे । [अनुष्टुप् वृत्तम् ] परमात्मा सिद्धिसंप्राप्तो बाह्यात्मा च भवांतरे। अंतरात्मा भवेदेह इत्येवं त्रिविधः शिवः ॥ १॥ जे आत्माका स्वन्नावकु प्रतिबंध करनेवाले अर्थात् अंतराय करनेवाले कर्मोका नाश करके निरुपम नत्तम केवलज्ञान आदि सिह सुखकुं प्राप्त हुआ है, अरु जे करतलमें रहे. दुवा मुक्ताफलकी तरेह समस्त विश्वकुं अपने ज्ञानके प्रत्नावसे जानता है. अरु जे सदा ज्ञान दर्शन चारित्ररुप सच्चिदानंद पूर्ण ब्रह्मकुं प्राप्त दुवा है, सो त्रयोदश भूमिकावर्ती देहधारी आत्मा अरु शु स्वरुपवान् निर्देही सिक्षात्मा यह दोनुकुं परमात्मा कहा जाता है. जिस जीवकुं याने आत्माकुं आत्मज्ञान हो गया होवे वो Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखम. ३२ प्राणी परम आनंद रसमें मन दुवा थका सांसारिक अल्प अरु अस्थिर सुखकुं कबीनी नहि चाहता है. क्युं के वोतो. कृतकृत्य दोनेसें अतींदिय सुखमें मन है, सो अपना परम आनंदमय आत्मसुखकुं बोडके विषयजन्य सांसारिक सुखमें क्यूं लिपटा यगा ? जेसें चकुमान पुरुष अंधकूपमें कबीजी पतन करना नदी बता है, वैसे आत्मज्ञानीजी संसाररूप कूपमें पतन करना कबीजी नही बता है. reat बात है के जिसकुं तात्पर्यज्ञान हो गया दोवे वो बाह्य वस्तुके संसर्ग करनेकी इबावाला कबीजी नही हो शका है, जिस प्राणी अमृतका स्वाद मालूम दुवा होवे वो प्राणी कार नदककी इच्छावाला केसे हो शके ? इत्यादि लक्षणोसें परमात्माकी प्रतीति की जाती है; जिस प्राणीकुं प्रात्मबोध नही दुवा है सो प्राणी यद्यपि मनुष्य देहवाला है तोनी तिसकुं शास्त्रकार ज्ञानी पुरुषो तो शृंग पुसे रहित पशुदीज कदेते है, क्युंके तिसकी प्रादार, निश, जय, अरु मैथुन यादि क्रिया पशुतुल्यही होती है, जिस प्राणी कुं तत्ववृत्तिसें आत्मबोध हो जाता है, तिस्सें सिद्धि गति श्रर्थात् मोहकी प्राप्ति दूर नही है. जब तलक आत्मबोध नही होता है तब तलकदी सांसारिक विषय सुखमें लीन रदेता है, जब सकल सुखका निधानरूप श्रात्मबोध दो जावे तब प्राणी - सच्चिदानंद पूर्ण ब्रह्मस्व रूप- अनंतज्ञान - अनंत - दर्शन - प्र. नंत सुख अरु अनंत शक्तिमान हो जाता है, थरु मोक्ष मेइसमें प्रतीयि सुखका आस्वादन करता है. इति किंचित् बहिरात्मा, अंतरात्मा परमात्मा स्वरूपम्. 42 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० अज्ञानतिमिरनास्कर अथ गुरुप्रशस्तिः ॥ अनुष्टुप् वृत्तम् ॥ शासनं देवदेवस्य महावीरस्य सुंदरं । नवाब्धौ नयनीतानां यानपात्रमखंडितं ॥१॥ अनंतसुखसर्वस्वनिधानाख्यानबीजकं । अंगिनां सर्व सौख्याय जातं कल्पतरुसमं ॥२॥ आद्यपट्टाधिपं श्रीमत् सुधर्म स्वामिनं मुदा । प्रणम्य लिख्यते किंचित् तपगच्छस्य सूचना ॥ ३ ॥ सुधर्मस्वामितो ह्यऽष्टपट्टपर्यंतमुच्चकैः। अस्मिन् गच्छे गुणोत्पन्नमनूनिग्रंथ नामकं ॥४॥ ततोऽनूतां निधिपट्टे निधान इव संपदां । सुस्थितसुप्रतिबद्यौ सुधियौ गच्छनायकौ ॥५॥ सूरिमंत्रस्य रम्यस्य कोटिमानेन जापतः। कौटिकाख्यं ततो नाम लोके लब्धं गुणाकरं ॥ ६ ॥ ततो मनोरमे पंचदशमे पट्टपुष्करे । चश्मा श्च यो नाति सूर्यितीश्वरः ॥७॥ तदातत्सूरीणां रम्यगुणग्रामात्समुन्नवं ॥ गच्छस्यापि स्फुटं नाम जातं चंज्ञनिधंवरं ॥७॥ ततः षोमदशमे पट्टे सूरिःसामंतनश्कः॥ निस्पृहिकतया येन निर्जित सकलं जगत् ॥ ए॥ निर्ममो निर्मदः सम्यक् सदाचारेण संयुतः । वियोगः कारितो येन विद्याहंकारयोर्हदि ॥१०॥ सूरेरस्य सदारम्ये वने वासं विलोक्य च । नामोक्तं वनवासिकं जैनः सर्वगुणास्पदं ॥ ११ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. षष्टत्रिंशत्नमे पट्टे सूरिनूरिगुणान्वितः। सर्वदेवानिधः सर्वमुनिवृंदाय सौरव्यदः ॥१२॥ वटवृक्षादधो लागे मूरिपट्टानिषेकतः। चटगच्छेत्यनून्नाम लोके सत्वगुणोनवं ॥ १३ ॥ ततो रम्ये चतुश्चत्वारिंशतितमपट्टके । अनूसूरिर्जगञ्चंः पुष्करे चश्मा इव ॥१४॥ अन्यदा विहरन्सूरिर्मेदपाटस्य मेदनौ ! आघाटपुरतो बाह्यं प्राप्तवान स्थानमुत्तमं ॥१५॥ ततस्तत्पुरनूपस्तु सूरि दृष्ट्वा तपस्विनं। मंत्रिणं पृष्टवान् कोयं घोरेण तपसा कशः ॥ १६ ॥ तन्मुखात्प्राप्तवृत्तान्तः नूपो नक्तिपरायणः । तपागच्छ शतिनाम यथातथ्यं मुदा ददौ ॥ १७ ॥ तत्पट्टे सूरिदेवेंधर्मघोषादयः क्रमात् । श्रीमदीरविजयाद्याः संसेव्या अन्नवन्नृपैः ॥ १७ ॥ ततो वादिकुंरंगाणां शवणे शार्दूलोपमः । अनूहिजयसिंहाव्हः सूरिराड् विजितेंझ्यिः ॥ १५ ॥ तस्य शिष्यः सुधीः सत्यविजयारव्यो मुनीश्वरः। सर्वोत्तमगुणैाप्तः नानाशास्त्र विशारदः ॥७॥ कर्पूर विजयस्तस्य शिष्योऽनून्दूरिशिष्यकः । शास्त्रज्ञः सज्जनो धीमान वादिकंदकुदालकः॥१॥ तस्य शिष्यः सदाचारी शासनोन्नतिकारकः । कमादिगुणसंपन्नः दमाविजय इत्यनूत् ॥२॥ तत्पट्टे कोविदः श्रीमान् विजयो जिनपूर्वकः । वादिवादेंजालं यः जर्जरीकृतवान् कणात् ॥ २३ ॥ तत्पट्टे विजयी श्रीमउत्तम विजयः सुधीः । अनूइिंशे यथा देवैः संसेव्यो मुनिपुंगवैः ॥ २॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. तच्छिष्यः पद्मविजयः सुदृढो धर्मकर्मणि । नूरिग्रंथाः कृता येन प्राणिनां बोधबीजदाः॥ ५॥ श्रीमान रूपविजयारव्यः तस्य पट्टांबरें विधुः। अनूत्सर्वसुधीवर्यः कात्यादिगुणगुम्फितः ॥ २६ ॥ तत्पट्टे वादिवादस्य खंडने योग्रवत्सदा । नाम्ना कीर्तिविजयोऽनूत् शुइसत्वप्रदर्शकः ॥ २७॥ कस्तूर विजयस्तस्य कस्तूरीवेष्ठगंधदः । निष्णातो जैनशास्त्रेषु मीनकेतननाशकः ॥ २० ॥ तत्प? तपसायुक्तः मणिविजय इत्यनूत् । मुत्त्याच यस्य चारित्रं निर्मलं शतपत्रवत् ॥ श्ए। तत्पट्टे बुझिविजयः निस्पृहो धीषणाकरः । निर्मलं मानसं यस्य ज्ञानध्याने स्थितं सदा ॥ ३०॥ आनंद विजयस्तस्य आत्मारामापरान्निधः। सत्यतत्वानिलाषित्वात् जातोदमाईते दृढः ॥ ३१ ॥ ग्रथोऽयं निर्मितोऽज्ञानतिमिरनास्करो मया । स्तंननाधिष्ठिते रम्ये स्थित्वा खंनातपत्तने ॥ ३ ॥ इमं ग्रंथं यदाकोऽपि समालोक्य सविस्तरं । दधाति मत्सरं तर्हि ग्रंथस्य किमु दूषणं ॥ ३३ ॥ मिष्टस्वादाननिश्चेत् शादाषु करतो मुखं । वक्रीकुर्यात्तस्तासां माधुर्यं क्वापि कि मतं ॥ ३॥ लन्यते नूरिरत्नानि अनर्धाण्यपि हेलया। परं सम्यक् सुधायुक्तं तत्वज्ञानं तु उर्खन्नं ॥ ३५ ॥ यद्यपि ज्वरितस्याति जंतोर्जनयते जलं । तथाप्युष्पीछतं तस्य मुख्यपथ्यं तदेवदि ॥३६ ॥ अंबरे ज्योतिषां चक्र यावद् जाम्यति विस्मृते । तावन्नंदतु ग्रंथोऽयं प्रतिपन्नो मनीषिन्निः ॥३७॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयखं. ३३३ नावार्थ-श्री महावीरस्वामीका सुंदर शासन प्रो संसाररूप समुश्में नवनीतकुं झांझ समान है. और अनंत सुखका सर्व स्वनिधानका बीज तथा सर्व प्राणीका सुखने वास्ते कल्पखुद समान है. प्रश्रमपदका अधिपति श्री सुधर्मास्वामीकुं हर्षसे प्रणाम कर तपगच्छकी किंचित् सूचना लिखते है. सुधर्मास्वामी पीने आठ पद पर्यंत तपगछमें निग्रंथ नामे गुणोत्पन्न हुआ ते पीछे संपत्निका निधान जैसां निधिपट्टमे सुस्थित और सुप्रतिबद्ध नामे दो विद्वान् गच्छका नायक हूआ. तिसमें रम्यमूरिमंत्रका कोटी जाप करनेसें तिसका नाम लोकमें 'कौटिक' एसा हुआ त्यारपीछे पंदरमे पदे जैसा चंसूरिनामे यतीश्वर दुआ, त्यारबाद सोलमे पदे सामंतन नामे सूरि दुआ जे सूरिने निःस्पृहपणासे सर्व जगत्को जितलियाथा निर्मम, मद रहित और सदाचार युक्त ऐसा जे सूरिने हृदयमें विद्या और अहंकार, ओ दोनुका वियोग बनवाया ओ सूरि सदाकाल वनमें वासकर रहेते, ओ कारणसे ओ सर्व गुणका स्थानरूप सूरि विजयसिंह नामे जितेंश्यि सूरी दुवा नसका शिष्य सत्यविजय दुआ, सो सर्व नत्तम गुणोसें व्याप्त और विविध शास्त्रोम प्रवीण हुवावा. नसका शिष्य कपूरविजय दुवा सो बोहोत शिष्यवालेथा और शास्त्रकुं जाणनेवाला, सज्जन, बुध्मिान् और वादीरूप कंदमे कुवाडारूपया. नसका शिष्य कमाविजय नामे दुवा सो सदाचारी, शासनकी नन्नति करनेवाला और हमादि गुणोसे संपन्न दुवाथा. उसका पदमें श्रीमान् ‘जिनविजय ' नामे विद्वान् मुनि हुवा. सो मुनिने वादीओका वादरूप इंजालको दणमें जर्जरकीयाथा. उसका पदमें सुबुद्धिमान् और विजयी दुवाश्रा, सो देवोकुं जैसा इं. सेव्य है ऐसा नुत्तम मुनिओकुं सेव्य दुवाया. नुसका शिष्य पद्मविजय दुवा सो धर्मकर्ममें दृढ दुवाथा और ननोने प्राणि Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ओको बोधरूप बीजको देनेवाला बहोत ग्रंथ बनायाया. मसका पटरूपकुं लोको वनबासी कहने लगे. ते पीछे उनीशमे पटमें सर्वदेव नामका एक बोहोत्त गुणवाले सूरि हुवा, सर्व मुनिवृंदको सुखदेनेवाला दुवा. ओ सूरिको वडकावृतनींचे पटका अनिषेक दुवा, ए कारण लोकमें नुसकानाम 'वटगच्छ' एसासत्व गुणीनाम नया ते पीछे चोंवालीशमे सुंदर पटमें पुष्करमें चंकी माफक जगञ्चसूरि नत्पन्न हुवा. कोइ समयमें ओ सूरि मेवामकी नूमिमें विहार करते करते आघाट नगरकी बाह्य नूमिका स्थानपर आया. तब ए नगरका राजाए तपस्वी मुनिको देखकर अपना मंत्रीसें पुग्या के, तपसे पुर्बल एसा ओ कोन है ? मंत्रीका मुखसे ओ मुनिका वृत्तांत जागकर राजा उसका नक्त दुवा. और हर्षलें तिस समयमें 'तपागच्छ' एसा यथार्थ नाम दीया. ते पीछे नतका पदमें अनुक्रमे देवें सूरि और धर्मघोष तथा श्री हीरविजय प्रमुख राजा के सेव्य एसा सूरी हुवा. त्यारपी वादिरुप हरणोकुं नशामने में सिंह जैसा आकाशमें चंइसमान श्रीमान रूपविजय नामे शिष्य दुवा, सो सर्वविछानोमें श्रेष्ठ और कमा प्रमुख गुणोको धारण करनेवाला था. नसका शिष्य कस्तूरविजय दुवा, सो कस्तूरीकी माफक इष्ट गंधको देनेवाला, जैनशास्त्रोका पारंगत और कामदेवका नाशक दुवाथा नसकी पाटे 'मणिविजय' नामे तपस्वी मुनि दुवा, उसका चारित्र मु. क्तिसें कमलकी माफक निर्मल था. नसकी पाटे बुझिविजय हुवा था, जिसका निर्मल हृदय हरदम ज्ञान ध्यानमें रहेताथा. नसका शिष्य 'आनंदविजय' दुवा, जिसका उसरा नाम आत्माराम है. सो में सत्य तत्वका अनिलाषी होकर जैनमतमें दृढ दुवा दु. में ओ अज्ञानतिमिरनास्कर' अथ स्तंननतीर्थ खनात Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयखम. ३३५ मे रहे कर बनाया है. कोइ पुरुष जो इस ग्रंथको सविस्तर देखकर मत्सर देखे तो उसमें ग्रंथका दूषपा क्या है ? क्युंके मिष्टस्वादको नहि जाननेवाला गधेडा जखमें मुख माले इससे शखका माधुर्य क्युं चच्या जता है ? बोहोत अमूल्यरत्न एक क्रीमामात्रसें मीलता है परंतु सम्यकरूप अमुतसे युक्त एसा तत्वज्ञान उर्खन्न है. यद्यपि बुखारवाले प्राणीके जल पीडा देनेवाले है, तथापि सोइ जल नष्ण करनेसे नसको पथ्यकारी होता है. विस्तारवाले आकाशमें ज्योतिष-तारा चक्र. जबतक फीरतरहै, तबलग बुध्मिानोने प्रतिपादित. एसो ओग्रंथ आबाद रहो. Mode POROOR इतिश्री तपगच्छीय मुनिश्री मणिविजय गणिशिष्य श्री बुद्धिविजय तच्छिष्य आत्माराम-आनंद विजय विरचिते अज्ञानतिमिर नास्करे द्वितीयं खंड संपूर्णम् । 8609 Mode R 00000mAODDOGBAGD9202 O OOGDACHODesc0000000 टिकटकटमाटर जसपटर 4001 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्रम्. शुद्ध. कुछ अशुद्ध. कुछक स्तिष्ट वेदने इस्वीमें वीतमय धमंड स्त्विष्ट वेदमें स्वीसनमें वीतन्नय घमंग बग विषेश विशेष तो बुद्धि यज्ञ इन बुट्टि यद शिप्य शिष्य इव खिप्याणां शिष्याणां लीना, कुरानी कितकेकतो कितनेकतो सर्व वखन कियाकांममें क्रियाकांडमें इम इस विधान विधान नाप्य नाष्य कुग्नी सर्व वखत Ա १०० १०४ ११५ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ २० . १२३ २२ १२५ १७ १३५ १५२ २५२ १५७ (२) धांध बाध रसा रसोई आश्कि अहिक रखनेका रखनेका अर्हन अहंन् सक्ता शिवप्रसाददके शिवप्रसादके समझाग समजाय अपत्नी अपनी हलवल हलचल नयसे नयके श्रीपनदेवकी श्रीरूषनदेवकी केंठ कंठ मव्यसें व्यसें लिखना लिखता राणीजीके राणाजीके १४ १एए १६३ १६७ १६० २७२ १७२ १७६ पृष्ठमे पृष्टमे १७ १३ समकानसा जानाकर समयकोनसा जानाकार १५ घुगा घृणा नूत्ति जयतकी जगतकी १७ ԴԵԱ १ए? १७३ १५ २३ रोक रोकि नोग नाग हसीने २०० श्सी Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ गुससे २०० २१२ २१॥ १२२ २३२ 2- L M p 0 2 " 2 7 2 43 MEET 2 2. करे २४० गुस्सेंसें सुज्ञक्षिण्य . सुदाक्षिण्य ___ओरजोनिवृत्तिहे कारए कारण मुश मुख कौषधी औषधी लोमोकुं लोगोकुं धर्सप्रयोजनके धर्मप्रयोजनके समजला समजेला सुंदरसद् सुंदरसद बार अपते अपने ऐवं एवं गोमाया गोयमा गोंयमा गोयमा निस्से तिस्से पडिवन्नमसंग्रहं पमिवन्नमसंग्गरं गेते गेडे शश्रूषा शुश्रूषा जैनमतकों बा शिष्योके वास्ते वाते मानमें मानने यढके पढके २४३ २५४ २४६ २५ श्वए २४ए २५३ २६२ २६३ २६५ २६४ २६६ शक्षए s दो Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्द सेवंग प (4) 23 17 नावी नावबी 20 17 . श्रेवार्थी श्रेयार्थी शन् अग्रोयर अग्गोयर 273 चवता चलता 24 शस्त्रपरिज्ञाप्ययन शस्त्रपरिझाध्ययन ចង नपवाल नपवास पापी पानी ឧប០ संवेग श प्रयंजुन प्रयुजन शए नकका नका शएश एक नपर 4 निषेधमी निषेधनी श५ देखनामी देखनानी श विधमार्गके विधिमार्गके श महा मोह 303 धर्मनी धर्मनी 30 // स्तुबह रुतुबह ३गए बैरना बैठना 310 प्राधोयण आलोयण 313 25 गुरुसे सूचना-पृष्ट 7 में 16 पंक्तिमें नीचे प्रमाणे अर्थमें वधारा करके वांचनायज्ञका अवशेष भागकुं खाने वाले संतपुरुषो सर्व पापसे मुक्त होते है. 27 पदंतु परंतु गुससे