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________________ द्वितीयम. २०७ गृहस्थ और सा स्थित नहि हो शकता है. ऐसेही योग्यता विना धुका धर्मी प्राप्त नहि होता है. हम देखते और सुनते है, त मतोवाले बहुते जीवांको अपने मतमें लाने वास्ते और जातिसें ष्ट करनें वास्ते अपना खाना लिखा देते है, अपने मतमें और अपनी जातिमें दाखल कर देते है. जब वे उनके मत में मिलते है तब बेधक बंडुके लेकर जंगलो मेंसे जानवर मारकर खाने लगते है, और अंग्रेजो सरिखा वेष पेहनके ऐसे घमंडसे चलते है कि भूमिकोजी धा देते है, और मन चाहेसो बकवाद करते है. बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माका किंचित् स्वरूपनी नहि जानते है. और वेदांति कितनेक जीवोकी एसी बुद्धि बिगाते है. कि वे व्यवहार सत् कर्मोसें भ्रष्ट हो जाते है. और कितनेक मतवाले स्त्रीका जोग, मांस खाना, बदफैली कर दुसरे मतवालोको कतल करणा, उनके पुस्तकोको जला देना उनके मंदिर, मूर्ति तो फोम अपने मतका स्थान बनाना, इ. त्यादि काम करके अपने आपको स्वर्ग जानेवाला मानना यही धर्म मानते है. परंतु हम सब मतवालोंसे नम्रता पूर्वक विनती करते है कि सर्व मतवाले अपनी जाति, अपने मतमें कहै बुरे कामको वो अपने आपको योग्यता प्रगट करी धर्मके अधिकारी बनावे, और सर्व पशु पक्षी और मनुष्यो नपर मैत्री - नाव करे और देवगुरु धर्मकी परीक्षा करे तो यथार्थ धर्मको प्राप्ति होवे इस वास्ते हम इहां प्रथम योग्यताका स्वरूप लिखते है. प्रथम इक्कीस गुण जिस जीव में होवे अथवा प्राये नवीन उपार्जन करे तिस जीवमें उत्कृष्ट योग्यता जाननी और थोडेसें यो इक्कीस गुणोंसे चाहो कोइ दस गुण जीवमें होवे तिसको जघन्य योग्यतावाला जानना. ११-१२-१३ – १४–१५–१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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