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प्रज्ञानतिमिरनास्कर. अंगीकार करे हुए सम्यग्दर्शन विरत्यादि गुणांको नाश नहि करता है, पुरंदर राजकुमारवत्. इति छादशमो गुणः
तेरमा सत्कथा नामगुणका स्वरूप लिखते है. इहां सत्क थासें विपर्यय होवे तिसका जो दोष होवे सो कहते है. विकथा करणेवालका विवेकरत्न नष्ट हो जाता है. विवेक अर्थात् असत् वस्तुका परिज्ञान सोश रत्न है, अज्ञानरूप अंधकारका नाशक होनेसें. अशुन कथा स्त्रीश्रादि कथा, तिनमें आसक्ती करके मलिन है मन अंतःकरण जिसका सो विकथाका करणेवाला है. विकथाके करणेमें प्रवृत्त दुआ प्राणी युक्त अयुक्तका विचार नहि करता है, और स्वार्थ हानिन्नी नहि देखता है, रोहिणिवत्. धर्म जो है सो विवेक सार अर्थात् हितावबोध प्रधानही है. इस वास्ते पुरुषको सत्कथा प्रधान होना चाहिये. सत्य शोन्ननिक-तीर्थंकर गणधर, महाऋषि चरित गोचर कथा अर्थात् वचन व्यापारवाला होवे तो धर्मका अधिकारी दोवे. चारो विकथा जो नदि करणे योग्य है, वै रीतिकी है. ___ “सा तन्वी सुनगा मनोहररुचिः कांतेक्षणा नोगिनी, तस्या हारि नितंबबिंबमथवा विप्रेरितं सुब्रुवः । धिक्तामुष्ट्रगति मलीमसतर्नु काकस्वरां उनगामित्थं स्त्रीजनवर्णनिंदनकथा दूरेस्तु धार्थिनां ॥१॥
अर्थ-ते स्त्री सुंदर, मनोहर कांतिसे युक्त, सुंदर नेत्र धरनेवाली, नोगवती है, तिनका नितंबबिंब और ब्रगुटोका कटाद बोहोत अच्छा है. नटजेसी गतिवाली, मलिन शरीरवाली, काक जेसा स्वर गली और ऊर्जागी ए स्त्रीकुं धिक्कार है. एसीतरेह स्त्रीकी प्रसंशा और निंदाकी कथा सो धर्मार्थीसे दूर है. इत्यादि स्त्रीकपा न करे,
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