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द्वितीयखम
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दिक बहुमान करे, मनको प्रीतिका जोजन करे, यथाहो ! ये धन्य है, इनाने अच्छा पाया है मनुष्य जन्म. पूर्वपक्ष:--इस तुम्हारे कहने से परकी निंदा होती है. जैसे देवदत्त दक्षिणके चकुरों देखता है, वामेंसें नहि. तथा चोक्तं शत्रोरपि गुणा ग्राह्या, दोषा वाच्या गुरोरपि ॥ उत्तरपकः - यह तुमारा कहना ठीक नहि. धमीं जनको निर्गुणीथोकी निंदा करणी उचित नहि. धर्मीजन निर्गुणिओकी उपेक्षा करते है, क्योंकी धर्मीजन ऐसा विचारते है कि-संतोप्य संतोपि परस्यदापा नोक्ताः श्रुता वा गुण मावहति । वैराणि वक्तुः परिवर्द्धयंति, श्रोतुश्च तन्वंति परां कुबुद्धिं ॥ १ ॥ तथा कालंमि अणाइए अणाइ दोसेहिं वासिए जीवे । जयं वियह गणो विहु तं मन्नद भोम हृच्छय ॥ २ ॥ भूरि गुणा विरलच्चिय, इक गुणो विहु जणो न सव्वथ्य, निदा साणविभदं, पसंसि मोयो वदो सेवि ॥ ३ ॥
अर्थ -- अनादि कालसे अनादि दूषणों करि वासित जीवोंमैं जो गुण उपलब्ध होवे सो गुण देखी जो श्रोताजनो ! तुम महा प्राश्वर्य मानो, परंतु अवगुण देखी आश्चर्य मत मानो ॥ १ ॥ बहुते गुवाले तो विरले है, परंतु एक गुणबालाजी सर्व जगे नदि मिलता है, जं निर्दोष है तिनका तो कल्याणही है परंतु दमतो जिसमें थोके अवगुण होवे तिसकीनी प्रशंसा करते है. ॥ २ ॥ इत्यादि संसारका स्वरूप विचारता हुआ गुणरागी पुरुप निर्गुणांकी निंदा नदि करता है. मध्यस्थ जावसें रहता है. तथा गुणांका संग्रह में और ग्रहण करलेमें प्रवृत्त होता है, थोर
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