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________________ प्रश्रमखं. रापस्तद् ब्रह्म तदमृतरस आत्मा प्रजापतेः समावेश्म प्रपद्ये यशोहं नवानि ब्राह्मणानां यशो राज्ञां यशो विशां यशोऽहमनु प्रापत्ति सहाहं यशसां यशः ॥ ७ ॥ गन्दोग्योपनी प्रपा ७ ॥ अणुः पन्या वितरः पुराणो मा स्पष्टो विता मयैव ॥ तेनधीरा अपि यन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गलोकमितो विमुक्ताः ॥७॥ तस्मिञ्चुलनीलमादुः पिंगलं हरितं लोहितं च ॥ एष पन्था ब्रह्मणा हानुविचरतेनेति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यश्च ॥ ए॥ प्राणस्य प्राणमुत चकुपञ्चकुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रमनत्यानं मनसो ये मनो विदुः ॥ ते निचक्युब्रह्म पुराणमग्रयमनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन ॥ १० ॥ मृत्योः स मृत्युमामोति यह इह नानैव पश्यति । मनसैवानुश्ष्टव्यमेतदप्रमेयं ध्रुवम् ॥ ११ ॥ बिरजः पर आकाशात् अज आत्मा महावः तमेव धीरा विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ॥ १२॥श का १४ अ०७॥ इनका अर्थ दयानंदजीने ऐसा लिखा है-अब मुक्ति विषयमें नपनिषदकारोंका जो मत है सोजी आगे लिखते है, (यदापंचाव) अर्थात् जब मनके सहित पांच ज्ञानेंघिय परमेश्वरमें स्थिर होके उसी में सदा रमण करती है और जब बुहिनी ज्ञानसे विरू५ चेष्टा नही करती उलीको परमगति अर्थात् मोक्ष कहते है ॥१॥ (तां योगण) उसी गति अर्थात् इंडियोंकी शुद्धि और स्थिरताको विछान लोग योगकी धारणा मानते है. जब मनुष्य नुपासना योगसे परमेश्वरको प्राप्त होके प्रमाद रहित होता है तन्नी जानोकी वह मोक्षकों प्राप्त दूया. वह नपासना योग कैसा है कि प्रनव अर्थात् शुद्धि और सत्यगुणोंका प्रकाश करनेवाला (अप्यय:) अर्थात् सब अशुदि दोषों और असत्य गुणोंका नाश करनेवाला है. इस लिये केवल उपासना योगही मुक्तिका साधन है ॥२॥ 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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