SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणोंका नाव बना रहता है. इसमें दृष्टांतत्नी दिया है कि जैसे वानप्रस्थ आश्रममें बाहर दिनका प्राजापत्यादि व्रत करना होता है उसमें थोमा नोजन करनेस कुधाका योमा अन्नाव और पूर्ण नोजन करनेसे कुधाका कुछ जावन्नी बना रहता है, इसी प्रकारसे मोदमेंनी पूर्वोक्त रीतीसें नाव और अन्नाव समज लेना. इत्यादि निरूपण मुक्तिका वेदांत शास्त्र में किया है ॥ ३ ॥ इस अर्थके ये सूत्र लिखे है-- अथ वेदांतशास्त्रस्य प्रमाणानि ॥ अभावं बादरिराहह्येवम् ॥ १॥ भावं जैमनिर्विकल्पामननात् ॥ २ ॥ द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोतः ॥३॥ अ० ५॥पा० ४ सू० १०॥ ११ ॥१२॥ इनका अर्थ नपर लिखा है, और दयानंदजीने नुपनिषदकारोके मतसें बारांतरेकी श्रुतियोंसे मुक्ति लिखी है तिनका संस्कृत पाठ यह लिखा है । “ यदा पंचावतिष्ठन्ते झानानि मनसा सह । बुधिश्च नविचेष्टेत तामाहुः परमां गतिम् ॥१॥तां योगमितिः मन्यन्ते स्थिरामिन्श्यिधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा नवति योगो हि प्रनवाप्ययौ ॥२॥ यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हदि श्रिताः। अथ मयोऽमृतो नवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥३॥ यदा सर्वे प्रनिद्यन्ते हदयस्येह ग्रंथयः। अथ मयोऽमृतो नवत्येतावदनुशासनम्" ॥४॥ को अ० वल्ली ६ मं० १०-११--१४-१५ ॥ देवेन चकुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते ॥ ५॥ य एते ब्रह्मलोके नं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषा ५ सर्वे च लोका आत्ताः सर्वे च कामाः स सर्वा ५श्च लोकानाप्नोति सर्वा ५श्व कामान् यस्तमामातमनुविध जानातीति है प्रजापतिरुवाच ॥ ६॥ यदन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy