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________________ हितीयखम.. ३७ हेतु अन्वय व्यतिरेकवान् कारणम् दृष्टांतादि रहित उपपत्ति मात्र नय नैगमादिक इनमें निपुण होवे तो सुखसे प्रश्नको कह शकता है ए ग्रहणा कुशल-बहुत युक्तियों करके शिष्योंकों बोध करे ३० स्वसमयपरसमयज्ञ-स्वमतपरमतका जानकार होवे सुखसेंही तिनके स्थापन उच्छेद करने में निपुण होवे ३१-३२ गंन्नीरः अलब्ध मध्य होवे ३३ दीप्तिमान पराधृष्य होवे ३५ शिवका हेतु होनेसें शिव जिस देश में रहे तिस देशके मारि प्रा. दिकके शांति करणेसे ३५ सौम्य-स्वजनोके मन नयनको रम. णिक लागे ३६ प्रश्रयादि अनेक गुणां करके संयुक्त होवे सो आचार्य प्रवचनानु योगके कथन करने योग्य होता है. अथवा आठ गणी संपदाको चार गुणां करीए तब बत्रीस होते है. प्राचार १ श्रुत शरीर ३ वचन ४ वाचना ५ मति ६ प्रयोगमति ७ संग्रह परिझाता ७ इनका स्वरूप आचार नाम अनुष्टानका .. है. सो चार प्रकारका है. संयम, ध्रुव, योग युक्तता. चारित्रमें नित्यसमाधिपणा १ अपने आपको जात्यादिकके अनिमानसे रहित करके २ अनियत विहार ३ वृक्ष शीलता शरीर मनके विकार रहित होवे ४ ऐसेही श्रुतसंपदा चार प्रकारे बहु श्रुतता जिस कालमें जितने आगम होवे तिनका प्रधान जानकार होवे १ परिचित सूत्रता. नुक्रम क्रम करके वांचने समर्थ होवे । विचित्र सूत्रका स्वसमयपरसमयादि नेदोका जानकार ३ घोष विशुद्दि करणता नदात्तादि घोषका जानकार ४ शरीर संपदा चार प्रकारे आरोह परिणाद युक्तता नचित दीर्घादि शरीर वान् १ अनवत्रप्यता अलज्जनीय अंग परिपूर्ण चनु आदि इंघिय होवे ३ तप प्रमुखमें शक्तिवान शरीर संहनन ४ वच संपद् चार प्रकारे, आदेय वचन १ मधुर वचन १ मध्यस्थ वचन ३ संदेह रहित वचन ४ शिष्यकों योग्य जानके उद्देश करावे १ शिष्यकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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