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________________ द्वितीयखंम १८१ वर्तक, अन्याय शिरोमणि, हीन पुण्यवाला, परस्त्री देखी झुरनेवाला, असमर्थ, इत्यादि अनेक दूषसो वो देव में सिह होता है. तो फिर ऐसे देवको ईश्वर मानना अथवा ईश्वरका अंशावतार मानना, धर्मका उपदेष्टा मानना, तिसकी सेवा, भक्ति, पूजा, ध्यान, जाप, अरू रटने से अपनेकों मुक्त होना मानना, वो महा ज्ञानी जीवोका काम नही है. ऐसे देव, देव नदि थे, परंतु नारीकर्मी जीवोनें पापोदयसे सच्चे देवकी स्पर्धा करके आटोके धोवनके दुध मानके और प्राकके दुधको गोडुग्ध मानके पीया है अर्थात् कुदेवो सच्चा देवका आरोप किया है. जो देव शस्त्र रखते है, तिस्सें यह सिद्ध होता है कि शस्त्र तो शत्रु जयवाला रखते है, इसवास्ते वो देव सजय है, इसका शत्रु नपर द्वेष होनें से हैवी है, शत्रुको विना शस्त्र मार नहि शकता है इस वास्ते असमर्थ है, शत्रुको उत्पन्न करनेसें अज्ञानी है. पूर्व जन्मादिमें पाप करे तिस वास्ते वैरी नृत्पन्न हुए इत्यादि प्र नेक दूषणो शस्त्र रखनेवाला देवमें है, तथा जो सदा स्त्री के साथ विषयासक्त रहते है सो देव सदा कामदेवकी अदिग्ध प्रज्व लित है, तिस देवके नक्तोकों लज्जा नहि आती होवेगी ? जपमाला रखनेवालाजी देव नहि. माला तो वो रखते हैं जिनको जापकी संख्या याद नदि रहती है. भगवान तो सर्वज्ञ है. अथवा माला वो रखते है जिनोनें किसीका जाप करना होवें. भगवान तो किसिका जाप नहि करते है तो फिर मालाके जाप करनेसें देव क्या मागते है. ring अशुचि दूर करने वास्ते है, जगवंतकु प्रशुचि है नहि. पुस्तक वाचनेसें सर्वज्ञ नहि है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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