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________________ १० अज्ञानतिमिरनास्कर, व्यासजीके स्तवन करें सूत्रसेतो जैनमत चारों वेदोंका बननेसे पहिला विद्यमान था. ग्रंथकार जिस मतका खंडन करता है तो मत तिसके समयमें प्रबल विद्यमान होता और ग्रंथकारके मतको विरोधी होता तब लिखता है. इस लिखनेसेनी यह सिड होता है कि जैन धर्म सर्व मतोंसे पहिला सच्चा मत है. इस वास्ते जैनमतको जो कोइ नवीन मत कहता है सो बडी नूल खाता है. तथा जैनमतके तीर्थंकरोकी मूर्ति देखनेसेंनी जैनमतका नपदेष्टा सर्वज्ञ, निर्विकार, निर्नयादि गुणो करके संयुक्त सिहोता है, तथा अन्यमतके देवताओकी मूर्ति देखनेसें वे देव असर्वज्ञ कामी, हिंसक, सन्नयादि करके संयुक्त थे ऐसा अनुमानसें सिह होता है. जैसे हम अन्य देवोकी मूर्ति स्त्री और शस्त्र संयुक्त देखते है अथवा लिंग नगमें देखते है तथा जानवर पक्कीके नपर चढा हुआ हाथमें जपमाला, कमंमल, पुस्तक विगेरे रखेला देखते है. श्न चिन्हो द्वारा हम जीस देवकी मूर्ति देखते है, तिस मूर्ति छारा हम तिस देवको पीगन शकते है. प्रथम जो देव स्त्री रखता था तिसका स्त्रीके संगमसे सुख होता था; जितना चिर स्त्रीसें विषय नहि सेवता था तितना काल काम पीमित दुःखी रहता था. इस वास्ते स्त्री रखनेवाला देव दुःखो, कामी, मोही, रागी, आत्मानंद वर्जित, निशूक, पुजलानंदी, ब्रह्मज्ञान वर्जित, शुः स्वरूपका अननिक, अजीवन्मुक्त, सविकारी, स्त्रीके मुखका धुंक चाटके सुख माननेवाला, मांस, रुधिर, नसाजाल, वातपित्त, कफकी ग्रंथिरूप कुचके मर्दन और आलिंगन करके सुख माननेवाला, परवश, इत्यादि दूषण है. स्वस्त्रीके रखनेवालामें इतना दूषण है, जेकर परस्त्री हरण करे अथवा परस्त्रीसें मैथुन सेवे तब तो लुच्चा, चोर, धामी, पारदारिक, माकु, कुव्यसनी, अन्यायी, स्वस्त्रीसें असंतोष, विषयका निक्षाचार, राज्य संबंधी दंम योग्य, अन्याय प्र विषय नहि सब रखनेवाला देव मुखमान वर्जित, शु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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