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प्रज्ञानतिमिरजास्कर.
शरीर के विभूति लगाने से कृतकृत्य नहि दुआ है. जानवरोकी स्वारि करणेसें जानवरोकों दुःख देता है और असमर्थ है, क्योंकि विना जानवरकी स्वारि प्रकाशमें नहि नम शकता है.
पूर्वोक्तदूत प्रतिमा में नदि है. इस वास्ते श्रईत सर्वज्ञ, दयालु, निर्भय, निर्विकारी, रागद्वेष मोहादि कलंक पंकसें रहित था तो तिसकी मूर्तिनी वेसेही चिन्ह पाये जाते है. इस वास्ते लोकोंने स्पर्धा प्रयोग्य पुरुषोंके विषे देवका उपचार करा है. परंतु वे देव नहि. इस वास्ते जैनधर्मही सच्चा और सनातन मोक्ष मार्ग है.
जैनमतक जितनें आगम है वे सर्व प्राकृत भाषा में है और इन शब्दो में अनंत अर्थ देनेकी शक्ति है. ॥ राजानो ददते सौख्यं ॥
इस वाक्यके आठ लाख अर्थ तो में करे शकता हुँ, इस वास्ते जैनवाणी बहुत अतिशय संपन्न है.
कितनेक झोले जीवोंको ऐसा संशय होवेगा कि दिवाली कल्पादि शास्त्रो में लिखा है कि विक्रमादित्यके संवत १९१४ में कलंकी होवेगा. सो नहि हुआ है, इस वास्ते जैनवाणी में संशय रहता है. इसका उत्तर यह है,
प
शास्त्रमें नदि
दे नव्य जीव ! जिनवासीतो सदा निःकलंक और सत्य है, रंतु समजमें फेर है. क्योंकि विक्रमादित्य के संवत १९१४ में कलंकी राजा होवेगा ऐसा लेख किसी जैनमतके है. दिवाली कल्पादि ग्रंथो में तो श्रीवीरात् संवत लंकीका होना लिखा है. तिस कालको आज वर्ष व्यतीत हो गये है तो फेर इस समय में से दोवे.
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१७१४ में क
दिन तक ६०० कलंकी कहां
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