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अज्ञानतिमिरास्कर.
की समज उत्पन्न करता है. फेरनी मूढमति अपको ईश्वरका क्त मानता है. यह नक्तपणा ऐसा है जैसे अपले पिताके मुख उपर बैठी महीका नमावने वास्ते पिताके मुझ पर बैठी म
को जुता अर्थात् खासमा मारणा है. मूर्ख तो नक्ति करता है परंतु पिताका नुकसान अर्थात् बेइज्जत होती नहि देखता है. इस वास्ते जगत् प्रवाह अनादि है. और मनुष्य पशुआदिककी आत्मानी अनादि है और अविनाशी है. कोई किसीके खाने पीने वास्ते किसीनें नदि रचा है. अनादि कालसे पापी जीव, जीवांका मांस खाता प्राया है. और ई वर परमात्माका सदा यह उपदेश है कि हे जीव ? जीव हिंसा, मृषावचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह, मांसभक्षण, मदिरापान, परस्त्री गमनादि पापकर्म मत कर. परंतु इस पापी जीवनें सत्य ईश्वरका उपदेश नही माना है. इस वास्ते नरकादि गतियों में महा दुःख जोग रहा है. जैसे कोई सच्चा वैद्य किसी रोगी को करुणासें कहे, तुं ये ये अपथप मत खा और यह औषधी खा जिस्से तुं निरोगी हो जावेगा. परंतु मूर्ख रोगी जेकर वैद्यका कहा न करे तो अवश्य :खी होवे. इसी तरें प्रति परमात्मा ईश्वरके कहे पापरूप अपथ्य न त्यागे और कौषधी समान तप, संयम, शील, संतोषादी दधारे तो संसार में दुःखी होवे. यहां कोई कह शकता है कि वैद्यनें रोगी को दुःखी करा ? नहि कह शकता है. इसी तरें परमेश्वरजी किसी को दुःखी नहि करता है. परंतु जीव अपने कुकर्मोसें दुखी होता है. इस वास्ते श्रत परमेश्वरकी आज्ञासें सर्व जीवांकी हिंसा बोडके, मांसादि अजय और मदिरादिअपेय और चोरी यारी आदि पाप कर्म बोमके हृदयमे दयालु मुल धारके सर्व जीवोसें मैत्रीजाव कर जिस्सें धर्मका अ
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