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________________ द्वितीयखम. २६१ दाचित ऐसा आरंभ करे विना निर्वाह न होवे तब ससूक गुरुलाघव विचार पूर्वक करे. परंतु निध्वंस परिणामोंसें न करे. स्वयंभूदत्तवत् तथा निरारंभी साधुजनोंकी प्रशंसा करे, धन्य है है महामुनि जे मन करकेजी परपीडा नदि करते है, आरंभलें निवर्त्ते है : त्रिकोटी शुद्ध भोजन करते है. तथा दयालु कृपावान् सर्व जीवोमं है. एक अपने जीवितव्यके वास्ते कोडो जीवांको दुःखमें स्थापन करते है तिनका जिवना क्या शाश्वता है ? ऐसे नाव श्रावक जावना करे. स्वयंनूदत्त कथा त्र ज्ञेयाः इति ग्ग नेद. अ भेद नामा सातमा भेद लिखते है. गृहस्थावासको पाशबंध समान मानता हुआ गृहस्थवासें रहें, जैसें पाशी में पका पक्षी उम नदि सक्ता है, तिस पाशीको कष्टरूप मानता है. ऐसे संसारनीरु माता पितादिकके संबंधसे संयम नदि धारण करशक्ता है तोजी शिवकुमारकी तरे नाव श्रावकगृहवास में दुःखीही होता है. इस वास्ते चारित मोहनीय कर्मके नाश करनेको तप, संयम रूप प्रयत्न करता है. इति सातमा नेद. अथ दर्शन नामा आठमा नेद लिखते है. जाव श्रावक दर्शन - श्रद्धा - सम्यक्त्व निर्मल अतिचार रहित धारण करे कैसा हो के - देव गुरु धर्मतत्वो में आस्तिरूप परिणाम तिन करके संयुक्त दोके, जिन, और जिनमत और जिनमत में स्थिर पुरुषांको व के शेष संसारको अनर्थरूप माने निश्चयसारकी प्रतिपत्ति जिनमतकी प्रज्ञावना यथाशक्ति करे, शक्तिके प्रभावसें प्रभावना करणेवालेकी उपष्टंन बहुमानसें करे तथा प्रशंसा करे जिनमंदिर, जिनचैत्य तीर्थयात्रादिसें नन्नति करे. गुरु धर्माचार्यकी वि शेष क्ति करे. इत्यादि धर्म कृत्योसें अच्छी बुद्धिवाला निश्वल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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