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________________ अज्ञानतिमिरजास्कर, रोक्त नहीं है. ब्राह्मण पुस्तक वेद नही. जब दयानंदसरस्वतीजी ऐसें मानते है तो फेर ब्राह्मण शतपथादिकोंका क्यों प्रमाण देते है. और अपनी बनाई वेद जाण्यभूमिकाके ३४१ पृष्टमें लिखते है कि । इस वेदनाष्य में शब्द और उनके अर्थद्वारा कर्मainer aन करेंगे परंतु लोगों के कर्मकां में लगाये हुए वेदमंत्रो मेंसें जहां जहां जो जो कर्म प्रमिदोत्र लेके अश्वमेधके अंत पर्यन्त करने चाहिये, उनका वर्णन यहां नही किया जायगा, क्योंकि उनके अनुष्ठानका यथार्थ विनियोग ऐतरेय शतपद्यादि ब्राह्मण पूर्वमीमांसा श्रौत और गृह्यसूत्रादिकोंमें कहा हुआ है, उसीको फिर कदनेसें पीसेकों पीसने के समतुल्य अल्प पुरुषोंके लेखके समान दोष इस नाप्यजी सकता है. इस लिखनेसेंतो ऐसा मालुम होता है कि स्वामिजी ब्राह्मण और श्रौत गृह्यसूत्र सूत्रांके करे विभागश्री मानते है. श्रौत गृह्यसूत्रांकानी स्वरुप आगे चलकर लिखेंगे. इस वास्ते दयानंदसरस्वतीजीका कहना एक सरीखा नही. इसका यही ताप्तर्य है कि ब्राह्मण पुराणादिकोंमें अनुचित लेख देखके प्रतिवादियोंके जयसें दयानंदजीने अन्य पुस्तक सर्वे वेद संहिताके सिवाय मानने बोम दीये है, और पूर्वलें असें लज्जायमन होकर स्वकपोलकल्पित नवीन अर्थ बनाए है सो जिसकों अच्छे लगेंगे सो मानेगा. दयानंदसरस्वतीका जैनमत विषे जूट और दमतो दयानंदसरस्वतीके बनाए श्रर्थीको कदापि सत्य नदी मानेंगे, क्योंकि दयानंदसरस्वतीने विचार. अपनें बनाये सत्यार्थ प्रकाशके बारवें समुल्लास में जैनमतकी बाबत बहुत जूठी बात लिखी है. ऐसाही उनका बनाया वेदना होवेगा. दयानंदसरस्वतीने जो मत निकाला है सो इसाइयांके चाल चलन और मतके साथ बहुत मिलता है. परंतु चार वेद ईश्वरके कहे हुए है, और अमि, सूर्य, पवनरूप ऋषियों Jain Education International ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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