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अज्ञानतिमिरक्षास्कर. को प्रेरके ईश्वरने वेदमंत्र कहा है और मुक्ति हुआ पीले फेर ज. गतमें आकर नत्पन्न होता है. वेदमें यज्ञका और मुक्तिबाला जहां चाहता है वहां नमके चला प्रयाजना जाता है, और ईश्वर सर्वव्यापी है, जीव और परमाणु अनादि है, घी सुगंधीके होमनेसें वर्षा होतीहै, हवा सुधरती है, मुक्ति वा स्वर्ग ऐसी कोई स्थान नहीं, इत्यादि वातें तो इसार मतसें नहीं मिलती है. शेष वात प्रायः तुल्यही है.बमे आश्चर्यकी बाततो यह है, प्राचीन ब्राह्मणोंके मतकों गेडके अन्यमतवालोंके शरणागत होना और जो कुछ अंग्रेजोंने बुहिके बलसें तार, रेल, धूर्यके जहाज आदि कला निकाली है, ननही कलाकों मूो आगे कहना कि हमारे वेदोमेंनी इन कलाका कथन है. सूय और पृ. दयानंदसरस्वती इस यजुर्वेदके मंत्रसे सूर्य स्थिर थ्वी विषे दयानंदका वि और पृथ्वी ब्रमण करती सिह करता है."आयंगौः चार. पृभीरक्रमीदसदन्मातरं पुरःपितरं च प्रयत्स्व॥” यजुर्वेद अध्याय ३ मंत्र ए तथा इस मंत्रसे तार ( टेलीग्राफ) की विद्या कहता है. "युवं पेदवे पुरुवारमश्विना स्पृधां श्वेतं तरुतारज्वस्पथःशर्यैरनियं पृतनासुजुष्टरं चर्कत्यमिमिवचर्षणीसहम्॥"ऋग्वे. द अष्ठक ? अध्याय ७ वर्ग २१ मंत्र १० जेकर तो पूर्व नाष्यकारोंने इनमंत्रोका इसीतरें अर्थ करा होगा तब तो दयानंदका कहना ठीक है. नहीं तो स्वकपोलकल्पनालें क्या होता है ? वेद विषे पांड- तथा दयानंदसरस्वतीजी जो वेदोंका घमंम करता त मोक्षमूलरका अभिप्राय है कि वेद ईश्वरके रचे हुए है, अति उनम पुस्तक है, तिनकी परीक्षा करने वाला विचक्षण पंमित मोकमूलर अपने बनाये संस्कृत साहित्य ग्रंयमें लिखता है कि वेदोंका बंदोनाग ऐसा है कि जैसें अज्ञानीके मुखलें अकस्मात् बचन निकला
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