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________________ ११६ अज्ञान तिमिरास्कर. स्य प्राण० ) जो परमेश्वर प्राणका प्राण, चक्कुका चक्षु, श्रोत्रका श्रोत्र, अन्नका अन्न, और मनका मन है, उसको जो विद्वान् निश्चय करके जानते है वे पुरातन और सबसे श्रेष्ट ब्रह्मको मनसें प्राप्त होनेके योग्य मोक्ष सुखको प्राप्त होके श्रानंदमें रहतें हैं. ( नेदना० ) जिस सुखमें किंचित्जी दुःख नहीं है ॥ १० ॥ ( मृत्योः स मृत्यु० ) जो अनेक ब्रह्म अर्थात् दो तीन चार दश बीस जानत है वा अनेक पदार्थोके संयोग से बना जानता है वह वारंवार मृत्यु अर्थात् जन्म मरणकों प्राप्त होता है क्योंकि वह ब्रह्म एक और चेतन मात्र स्वरूपही है. तथा प्रमाद रहित और व्यापक होके सबमें स्थिर है. उनको मनमेंही देखना होता है, क्योंकि ब्रह्म श्राकाशसेंनी सूक्ष्म है ॥ ११ ॥ ( विरजः पर प्रा० ) जोपरमात्मा विशेष रहित श्राकाशमें परम सूक्ष्म ( श्रजः ) अर्थात् जन्म रहित और महाध्रुव अर्थात् निश्चल है. ज्ञानी लोग उसीको जानके अपनी बुद्धिकों विशाल करें, और वह इसी ब्राह्मण कहता है ॥ १२ ॥ तथा याज्ञवल्क्यकी कही मोक लिखी है. सहोवाच एतद्वैतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्य स्थूलमण्वेवा-हस्वदीर्घमलोहितमस्नेहलमच्छायमतमोऽ वाय्वनाकाशम संगमस्पर्शमगंधमरसमचक्षुष्कम श्रोत्रमवाग मनोऽतेजस्कम प्राणममुखमनामागोत्रम जरममरमभयममृतमरजोऽशब्दमविवृतमसंवृतमपूर्वमपरमनंतमबाह्यं न त दश्नोति कंचन न तदश्नोति कश्चन ॥ १३ ॥ श० कां० १४ अ० ६ । कं० ८ ॥ अथ वैदिक प्रमाणम् ॥ य यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इंद्रस्य सख्यममृतत्त्वमनशे तेभ्यो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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