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________________ प्रथमवंक. भद्रमंगिरसा वा अस्तु प्रतिभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥ १ ॥ ऋ० अ० ८अ० २ व० १ म० १॥ स नो बंधर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा यत्र देवा अ मृतमानाशानास्तृतीयधामन्नध्यत्यन्त ॥ २॥२० अ० ३२ मं० १०॥ अथ याज्ञवल्क्यकी कही मुक्ति दयानंद सरस्वती लिखता है ( सहोवाच ए) याज्ञवल्क्य कहते है, हे गार्गि ! जो परब्रह्म नाश, स्थूल, सूक्ष्म, लघु, लाल, चिक्कन, बाया, अंधकार, वायु, आकाश, संग, शब्द, स्पर्श, गंध, रस, नेत्र कर्ण, मन, तेज, प्राण, मुख, नाम, गोत्र, वृक्षवस्था, मरण, जय, आकार, विकाश, संकोच, पूर्व, अपर, नीतर, बाह्य, अर्थात् बाहिर इन सब दोष और गुणोंसे रहित मोक स्वरूप है. वह साकार पदार्थके समान किसीको प्राप्त नहीं होता और न कोई नसको मूर्ति व्यके समान प्राप्त होता है, क्योंकि वह सबमें परिपूर्ण, सबसे अलग अद्नुत स्वरूप परमेश्वर है, नसकों प्राप्त होनेवाला कोई नही हो सकता है, जैसे मूर्तव्यको चकुरादि इंश्योंसें सादात कर सकता है, क्योंकि वह सब इंडियोंके विषयोंले अलग और सब इंडियों आत्मा है. नसी मार्गसें ब्रह्मका जाननेवाला तथा (तैजसः) शुःइस्वरूप और पुण्यका करनेवाला मनुष्य मोक्ष सुखको प्राप्त होता है, तथा कव दयानन्दजी अपनें ऋग्वेद और यजुर्वेदकी कही मुक्ति लिखते है. ( यज्ञेन ) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानरूप यज्ञ ओर आत्मादि व्योंकी परमेश्वरको दक्षिणा देनेसें वे मुक्तलोग मोक्षसुखमें प्रसन्न रहते है. (इंश्स्य ) जो परमेश्वरको सख्य अर्थात् मित्रतासे मोकनावकों प्राप्त हो गये है नन्हीके लिये लक्ष्नाम सब सुख नियत किय गये है, (अंगिरसः) अर्थात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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