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अज्ञानतिमिरनास्कर. को बुरी कहे लो इस वातमें क्या निंदा है. वेद माननेवालेली वैदिक हिंसाकी निंदा करते है तथा च श्रुतिः-- ___“प्लवाद्यते अहढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म एतच्यो येऽनिनंदति मूढास्ते जरामृत्युं पुनरेवापि यांति" अर्थ-यह यज्ञरूपी प्लव जो नाव है सो अदृढ कहता दृढ नही और अगरह अध्वर्यु आदि पुरोहित यजमानादिक जो ननोंने करा ऐसा जोकम हिंसा रूप सो नीच कर्म है, तिस हिंसामय यझके करने वाले पुरुष वारंवार जन्ममरणाको प्राप्त होते है. यह श्रुति वेदकी पुरी 'निंदा' करती है. यः श्रुति किसी दयावान ऋषिनें जैन मतकी प्रबलतामें बनाई है. तमा वैदिक यज्ञ करने वाले मूर्ख अज्ञानी है ऐसेनी एक श्रुनिमें कहा है- कश्चिवा अस्माल्लोकात्मेत्य आत्मानं वेद अयम हमस्मीति कश्चित्स्वं लोकं न प्रतिजानाति अग्निमुग्धो हैव धूमतांत ” इति-अर्थ-कोईक अपणालोक जो ब्रह्मधाम आत्मतत्व वा तिसको जानता नही जो पुष्परूप अवांतर फलमें परम फलका माननेवाला अग्नि साध्य अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्ममें आसक्त होने से नष्ट हो गया है विवेक जिसका, तिसको अंतमें धूममार्ग है अर्थात् पाप है. तथा ऋग्वेदके ऐतरेय ब्राह्मणकी दूस। पंचिकामें पुरुषमेध लिखा है, तिस पुरुषमेधकी यह श्रुति है.
“ पुरुषं वै देवाः पशुमालभंत ।" देवतानी पुरुषकु पशुवत् आलनन करता है.
इस पुरुषमेवका निषेध नागवतके पंचम स्कंधके हमेके अध्यायमें निषेधद्वारा नरकमें यम जो पीडा देता है सो लिखी है___ “ तथाहि येत्विद वै पुरुषाः पुरुषमेधेन यजंते याश्च स्त्रियो नृपशून खादंति तांश्च ताश्च ते पशव इह निहता यमसदने पातयंतो रोगणाः सौनिक श्व स्वधितिनाविदयाला भिवंति नृत्यति गा
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