SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श् अज्ञानतिमिरनास्कर. गृहपत्न्या व्रतप्रदायाः सहैवैनयोरोष्ठस्तं गृहपतिरेवानु शास्ति मणिर्जाश्च स्कन्धास्तिस्त्रश्च ग्रावस्तुतस्तित्रश्चैकीकसा अईञ्चापानश्चोन्नेतुरत उर्दू चमसाध्वषूणां क्लोमाः शमयितुः शिरः सुब्रह्मण्यस्य यश्चसुत्यामाहूयते तस्य चर्म इत्यादि। गोपथ ब्रा० ३ प्रपाठ खंफ १७ इसका नावार्थः-प्रस्तोता प्रतिहर्ता नजाता अध्वर्यु नपगाता प्रतिप्रस्थाता ब्रह्मा ब्राह्मणासीहोता मैत्रावरुण अगवक नेष्टा सदस्य आनीध्र ग्रावस्तोता नन्नेता अध्वर्यु शमिता सुब्रह्मण्य गृहप ते व्रतपद प्रमुख यज्ञ करने में मदतगार जो पुरोहित नपर लिखे है वे सर्व जिसतरें यज्ञमें वधकरे पशुके अंग आपसमें बुरयोंसें काट काटके वांटा करते है जो जो अंग हनु सजिव्हा प्रमुख जिसजिसके वांटेमें आता है तिन पुरोहिताका और तिन अंगाका नाम लिखा है, और यज्ञ करने वालेकी प्रशंसा लिखी है. ३ अथातो यज्ञक्रमा अग्न्याधियमग्ना धीयात्पूर्णाहुति। पूर्णाहुतग्निहोत्रमग्निहोत्रादर्शपौर्णमासौ दर्शपौर्णमासाश्या माग्रयणं आग्रयणाचातुर्मास्यानि। चातुर्मास्येभ्यःपशुबन्धः पशुबंधादग्निष्टोमो अग्निष्टोमाद्राजसूयो राजसूयाद्वाजपेयः। वाजपेयादश्वमेधः । अश्वमेधात्पुरुषमेधः । पुरुषमेधात्सर्वमेधः। सर्वमेधादक्षिणावन्तो। दक्षिणावद्भ्यो दक्षिणाअदक्षिणा सहस्रदशिणे प्रत्यतिष्टंस्ते वा एते यज्ञक्रमः ॥ ५ प्रपाठक ७ खंग ॥ इनका अर्थ सुगमही है इसवास्ते नही लिखा है. उपर लिखे प्रमाणे यझका विस्तार बताया है. सो चारों वेदोंमें एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy