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________________ शण प्रथमखं. सरीखा है. शाखानेद वा वेदके नेदसे कर्मकांममें थोडासा परचूरण वातोंमें फर्क है. कोई कहता है, घीका वासन वामें पासे रखना कोई दाहने पासे रखना कहता है. कोर खडा होके मंत्र पढना कहता है. कोई बैठके पढना कहता है. ऐसी ऐसी वातोंमें फेर है. इसीका ब्राह्मणोंको आग्रह है. बाह्मण विना औरोकों वेद पढनेकी आज्ञा नही । इति अथर्वण वेदः ॥ अथ वेदोत्पत्ति. मूलमें वेदके मंत्र एकके बनाये नही है. अनेक ऋषियोंने वेद मंत्र बनाये है. अनेक ऋषियोंके पास थे, वेद परमेश्वरके बनाये हुये नही किंतु अनेक ऋषियोंके बनाये दूये है. पूर्वमीमांसा के कर्ता वेदोंकों ईश्वरके कहे मानते है, परंतु यह मत बहुत पुराणा नही और बनानेवाले ज्ञानीजी नही थे किंतु अज्ञानीयो समान थे, ऐसा मोदमुलर पंमित अपनें बनाये संस्कृत साहित्य ग्रंथमें लिखता है. अथाग्रे वेदके कर्ता ऋषि है. ऐसे बहुत जगें वेदोंमें लिखा है. शौनकोक्त सर्वानुक्रमपरिशिष्ट परिनाषा खंझमें लिखा है यस्य वाक्यं स ऋषि: या तेनोच्यते सा देवता यदक्षर परिमाणं तच्छंदः तथा नमो वाचस्पतये नम ऋषियो मंकृद्भ्यो मंत्रपतिभ्यो मामामृषयो मंत्रकृतो मंत्रपतयः परादुर्मा । तैतरेय आरण्यके ४ प्रपाठक १ अनुवाक १. __ ऋग्वेदसंहितामें बहुत जगे ऐसें लिखा है कि वेदमंत्र - षियोंने नत्पन्न करे हैं. तिनमेंसे एक वचन नीचे लिखा जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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