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खा है.
अज्ञानतिमिरनास्कर. कृति निचे मुजव है और तिस पत्रमें एसा लिखा है.
१ उप देवचंडीय श्रीपार्श्वनाथ देवस्यतो । २३ । सो ताम्रपत्र नश्वरजीके नंमारमें अब विद्यमान है जीसको शंका होवे सो ताम्रपत्र देख ले. इस ताम्रपत्रके लेखकी कल्पन सुज्ञ जननें ऐसी करी है.
॥ ॥ इति ऐसा पालीलिपिमें ॥ व ॥कारकी संज्ञा है त ब ऐसा अर्थ सिह होता है-देवचं नाम विशेषण रूप वणिग् ऐसी जातिवालेका अनुमान किया है क्योंकि नूगोल हस्तामलकी १४४ में पृष्ठमे पाली लिपीकी वर्ण मालामें ॥" "॥ इति ऐसा चिन्ह " व " कारका देखनेमे आया है इस वास्ते "व" कार करके वणिग् जाति है ऐसा समजमें आता है ॥ देवचंड़ीयेति ॥श्य प्रत्यय करके देवचंद श्रेष्टी संबंधी जाननेमें आता है. अर्थात् देवचं शेठने प्रतिष्टा करी. पार्श्वनाथ देवकी प्रतिष्टा मंदिर यह विशेषण है.पार्श्वनाथ देवस्य, ऐसा मुलनायकका नाम है. इस कालमें तो कितनेक वर्ष पहिला श्रीमहावीर नगवतका ब दांतिविजय नामक यतिने स्थापन करा है. छठी विन्नक्तिका संबंध आगे जोमते है ( देवस्य ) इहां " स्य" कारके नुपर एक मात्रा जोमनी चाहिये. क्योंकि ब्रांतिके सबबसें ताम्रपत्रमें मालुम नहि होता है. हम ऐसे जानते है कि जब ऐसा हुआ तब तो संधि पृथक को तब 'इत' ऐसा शब्द सिह हुआ. तिसका यह पूर्वापर संबंध है. पार्श्वनाथ देवस्य इतः' तब ऐसा अर्थ दुआ ॥ पार्श्वनाथ देवस्य इतः । इस प्रतिष्टाके कालमें लगवान महावीर तेवीस वर्ष पहिले दुआ को पूके नगवान वीर ऐसा तु ने कहांसें जाना तिसका नत्तर यह है कि ऐसे अकरके आगे
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