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________________ प्रथमखम. ११ हम कहेंगे जैसे आकाश सर्वव्यापी है तेसैही ईश्वर मुक्तस्थानरूप सर्व जगें व्यापक है, तिसमें मुक्तलोग स्वबंदतासें चलते नमते फिरते है तो हम पूछते है चील कौये तो अपने नकादिकी तलासमें फिरते है परंतु मुक्तलोग तो सर्व कामसें पूर्ण है तो फेर ननकों देश देशांतर जानेसे क्या प्रयोजन है. अब इस लिखनेसें यह सिह हुआ कि जो दयानंदजीने मुक्तिके स्वरूप वास्ते योग न्याय वेदातांदि मतोकि सादी लिखी है वह वेदोंमें मुक्ति स्वरूपके अधूरेका पुरे करने वास्ते लिखी है. नसनें तो वेदोक्त मुक्तिको पुरा तो नही करा बलकि वेदोक्त मुक्तिका खंमन कर दीया और वेद अधुरो कथन करनेसे सर्वज्ञ इश्वरके बनाये दूए सिह नही होती है. इति प्रश्रम पदः ॥१॥ दूसरा पद तो संन्नवही नही हो सकता है क्योंकि हमने द्वितीय पक्ष. बहुत जगें पंमित ब्राह्मणोसें सूना है कि दयानंदजीके बनाये वेदनाप्यन्नूमिकादि ग्रंथ सच्चे प्रतीत करने योग्य नही है. प्रतीति और प्रमाणिकता तो दूर रही बलकी दयानंदकी न्यायबुहि बाबत बाबू शिवप्रसाद सतारे हिंदनें अपने दूसरे निवेदन पत्रमें ऐसा लिखा है. दूसरे निवेदन पत्रका पाठ-राजा शिवप्रसाद कहता है, कि जब मैंने गौतम और कणादके तक और न्यायसें न अपने प्रश्रका प्रमाणिक नुत्तर पाया और न स्वामीजी महाराजकी वाक्यरचनाका नससे कुछ संबंध देखा मराकि कहीं स्वामीजी महाराजनें किसी मेंम अथवा साहिबसें को नया तर्क और न्याय रुस अमेरिका अथवा और किसी दूसरी विलायतका न सीख लिया हो ? फरकिस्तानके विजनमंडलीनूषण काशीराज स्थापित पाठशालाध्यक्ष दाक्तर टीबो साहिव बहापुरको दिखलाया बहुत अचरजमें आये और कहने लगे हम तो स्वामी जी महाराजको बझे पंमित जानतेथे फेर अब उनके मनुष्य हो. 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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