SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० अज्ञानतिमिरनास्कर. श्राब हवा की जगह है? ६ अपवा विनाही प्रयोजन वावलोकीतरें फिरत है ? इन सातोही पकोमें अनेक दूषण है. इन पदोमेंसे एकजी पक जाना जायेगा तो मुक्त सिह तो किसी तरें नी नही होगा परंतु मुक्तिकी खरावी तो लिह हो जावेगी क्या जाने इस मुक्तिके माननेवालेकी एसी मनसा होवेकि यहां तो देश देशांतर जानेमें रेलादिकका नामा देना पड़ता है और जब हम मुक्त हो जावंगे तब तो पदीयोंकी तरे जहांका तमाशा देखना होगा तहां चले जावेंगे तो इस बातकों कौन मना कहता है. परंतु प्रेक्षावान तो युक्तिविकल मुक्तिको कदापि नही मानेगे. तथा मुक्त होके चलना फिरना, देशदेशांतरमें जाना आना, ऐसी मुक्ति तो पोजति गौतम वादरि जैमिनि व्यास याज्ञवल्क्यादि. कों में किसीनेनी नही मानी तो फेर ननके मतके शास्त्रोंसे मुक्ति स्वरूप लिखने से क्या प्रयोजन लिइ होता है, और दयानंद सरस्वीजीने जो वेदोक्त मुक्ति लिखी है उसमेंनी मुक्त लोगोंका लोकांतरमें जानाबाना नही लिखा है तो फेर यह नमें फिरने लोक लौकांतरमें जाना आनेवाली मुक्ति सरस्वतीजीनें कहांसें निकाला लीनी. तया फेर दयानंदजी लिखते है मुक्त हूयां पीछे उनके सब काम पूर्ण हो जाते है, को काम अपूर्ण नही रहता है, तो फेर हम पूजते है कि मुक्तलोग लोकलोकांसमें किल वाल्ते जाते आते है ? प्रयोजन तो उनका कोश्जी बाकी नही रहा है. यह पूर्वापरव्याहति है. फेर दयानंदजी लिखते हैकि पूर्वोक्त मुक्ति प्रजापति परमेश्वर सब के लिये वेदोन बताता है तो हम पूछते है, ऐसी चलने फिरने वाली मुक्ति परमेश्वरने कौनसे वेदमें वताई है. जो तुमने ऋग्वेद, यजुर्वेदके दो मंत्रसे मुक्ति स्वरूप लिखा है तिसमें तो चलने फिरनेवाली मुक्ति नही लिखी है. तया फेर दयानंदजी लिखते है मुक्तिस्था. रमेश्वरहीहै, अन्य को मुक्तिस्थान नही तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy