________________
प्रथमखंम.
११५
समझ थी उसने वैचा वैसा लिख दिया तब तो मुक्तिके स्वरूप में संशय होनेसें पूर्वोक्त मुक्ति तीनों तरेकी प्रेक्षावानोंकों नपादेय नही, तो फेर दयानंदजीनें इनमेंसें कौनसी मुक्तिकों स्वीकार करा यह नही मालुम होता. और तीनो तरोकी मुक्ति मानें तो परपस्पर विरोध वे है, और वेदांतियाँके जाप्यादि शास्त्रोंसें दयानंदके करे दूरु है, न तो ऐसे अर्थ वेदांती मानतें है, और न एसे शांकर नायादिकमें लिखें है. हम नही जानते के दयानंदकी कल्पना क्योंकर सत्य हो सकती है जेकर कसीके शा inपको रासन चरें तो देखनेवालेकी क्या हानि है, दानितो कुछ नही परंतु अनुचित काम देखनेंसें मनको अच्छा नही लगता है, जिनके शास्त्रांका नलटा कर्थ करा है वेही दयानंदजी सें पूना होवेगा तो पूछ ले वेंगे हमतो जैसे अर्थ दयानंदसरस्वतीजीनें लिखे है नदीका विचार करते है, दयानंदसरस्वती लिखता है कि मुक्त लोगोंका जाना थाना सब लोक लोकांतर में होता है. मुक्त लोक जो सब जगे प्राते जाते है और घूमते है इसमें क्या हेतु है, क्या उनके एक जगे रहने से हाथ पग शरीरादि प्रकर जाते है उनके खोलने वास्ते लोक लोकांतरमें घूमते है इसमें १ अथवा उनका एक जगें चित्त नही लगता है ? २ अथवा एक जगे रहना अपने आपको कैदी समजतें है इस वास्ते लोक लोकांतर में दौमते फिरतें है ? ३ अथवा मुक्त होकेनी उनके मनमें लोक लोकांतरके तमाशे देखने वास्ते सब जगें दौना पकता है इस वास्ते नमे नमे फिरते है ? ४ अथवा मुक्त
पीछे उनको पूर्ण ज्ञान नही होता है और वस्तुयांके देखनेकी वा बहुत होती है सो वस्तुके समीप गया बिना देख नही सकता है इस वास्ते हरेक जंगे नटकते फिरते है ? ५ अथवा एक जगें रहनेसें वांकी आब हवा बिगम जाती है इस वास्ते अछी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org