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श्रज्ञानतिमिरजास्कर.
लज्जा नदि प्राती है, जैनलोक चूरमेके लाडू और दुधपाकादिके खाने वास्ते तो हजारो एकट्ठे हो जाते है, परंतु पुस्तकों के उधार वास्ते सूते परे है: हमारे लिखनेका प्रयोजनतो इतनादी है कि जैनलोगों को उचित है कि सर्व देशवाले मिलके पाटन, जैसलमेर, खंजात प्रमुखके जंकार पुस्तकका जीर्णोधार करावें, और बने बने शहरो में जैनशाला बनाकें अपने लमकोंका संस्कृतादि विद्या पढावे, और आगम विना अन्य योग्य ग्रंथ लिखावादि करके प्रसिद्ध करें, जीसमें फेर जैनधर्मकी वृद्धि होवे; तथा जैनमतके शास्त्रोके संकेत अन्यमतवालोंकी समजमें नदि श्राती है, सो तो जैनीयोसें पुत्र लेनें चाहिये. यह जैनमत बहुत उत्तम है इसकी उत्पत्ति इस अवसर्पिणी कालमें जैनमतानुसार जैसे हुई है तैसे लिखी जाती है.
जैनोका पूर्व इतिहास.
इस अवसर्पिणी कालके तीसरे आरेके अंत में जब सात कुलकरमेंसे व व्यतीत हो गये तब नानि कुलकरकी मरुदेवा नायकी कूखसें श्री ऋषभदेव नृत्पन्न दुवे, श्री ऋषभदेवसें पहिलां इस भरतखंग में इस अवसर्पिणी कालमें किसी मतका धौर
सारिक विद्याका कोइनी पुस्तक नहि था, क्योंकि श्रीऋषनदेवसें पहिला ग्राम नगरादि नदि थे, इस समयके मनुष्य वनवासी और कल्पवृक्षोंके फलांका आदार करते थे, इस जगत में जो व्यवहार प्रजाके हितकारी है वे सर्व श्री ऋषभदेवजी नही प्रवतीये है इसका खुलासा जैनतत्वादर्शमें लिख दिया है तथा जी सतरें श्री ऋष देवके पुत्र भरतनें चार आर्य वेद बनाये तथा जीस तरें ब्राह्मणनें बनाये, इत्यादि तिसका सर्व स्वरूप जैनतस्वादर्शमें लिख आये है. पन्नर कुलकरके दिसाबसें सबसे पीछेका
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