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________________ द्वितीयखम. १६७ कुलकर रूपनदेव हुआ है तिनके चलाये व्यवहारकी कितनीक वातों लेकर और कितनीक मनकल्पित. वातों एकटी करके नृगुजीने मनुस्मृति बनाई है, मनुस्मृति बनायका बहुत काल नदि दुआ है; इसका प्रमाण प्रथम खंगमें लिख आये है. श्रीरूपनदेवही कोही लोक श्रादीश्वर, परमेश्वर, ब्रह्मादि नामोंस पुकारते है. क्योंकि भरतके बनाये चारों आर्य वेदोंमें श्रीषनदेवकीदी अनेक नामोंसें स्तुति थी, सो जब चारों श्रर्यवेद और जैनधर्म न व सुविधिनाथ पुष्पदंत अइतके निर्वाण पीछे व्यवच्छेद दो गये तव ब्राह्मणजी मिथ्यादृष्टि हो गये, तब तिन ब्राह्मणानासने नेक मनमानीयां श्रुतियां रच लीनी, पीछे व्यास, याज्ञवल्क्या दिकोंने ऋग, यजुर. साम, अथर्व नामा चार, वेद बनाये, और ऋषजदेवकी जगे एक ईश्वर कल्पन करा, तीसकी अनेक रूपसें कल्पना करी. और इन वेदोंमें अनेक ऋषियोंकी बनाई श्रुतियां है, और वेद अनेकवार नलट पुलट करके रचे गये है, जिसने जो चाहा तो लिख दिया. पीछे महाकाला सुरनें ब्राह्मणका रूप करके शाफल्य नामसें प्रसिद्ध ऋषि होके सगर राजाको नरक पहुंचाने वास्ते शुक्तिमती नगरीके कीरकदंबक उपाध्यायके पुत्र पर्वत से मिलके महा हिंसक वेद मंत्र बनाये, वे वेद आज कालमें चल रहे है, इनका पुरा स्वरुप जैन तत्वादर्शसे जान लेना तेवीस श्री पार्श्वनाथ प्रत हूये तिनके पीछे मौलायन और सारीपुत्र और आनंदश्रावक हुआ, यह आनंद श्रावक जो नपासकदशांग शास्त्र में कहा है सो नहि, इनोंने बौधमतकी वृद्धि करी यह कथन श्री श्राचारांगकी वृत्तिमें है अंग्रेजोनें सांचीके स्तनकों खुदवाया तिसमेंसें मौलायन और सारीपुत्रकी हकीकत निकली है और तिस मब्बेके ऊपर इन दोनोंका नाम पाली श्र करमें खुदै दुये है. इस लिखनेका तात्पर्यतो यह है कि श्रीपन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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