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________________ २० अज्ञानतिमिरनास्कर. श्री ऋषभदेव- श्रीऋषन्नदेवजीने प्रथम इस अवसप्पिणी कालमें का विद्यादान कर और भरतने न सर्व तरेकी विद्या प्रजाके हित वास्ते श्न नारतवजैन वेद बना- पीयोंकों सिखलाई और श्रीऋषन्नदेवके बड़े बेटे या. नरतने आदीश्वर ऋषन्नदेवकी स्तुतिगति और गृहस्थधर्मके निरूपक चार वेद बनाके बहुत सुशील, धार्मिक श्रावकोंकों सिखलाए और कहा कि तुम इन चारों वेदोंकों पढो और प्रजाकों गृहस्थाश्रम धर्मका उपदेश करो तब वो श्रावक पूर्वोक्त काम करणेसें ब्राह्मण नामसें प्रसिद हुए. आठमें तीर्थकर चंइप्रन तकतो सात्विक धर्मका नपदेश प्रजाको होता रहा, परंतु नवमें सुविधिनाथ पुष्पदंतहतके पीछे इस नरतखममें सात्विक धर्म लुप्त हो गयाथा; तब तिन ब्राह्मणोंने जगतमें अंधाधुंध मचाई, और वेदोंके नामसें नवीन हिंसक श्रुतियां बनाई अपनें आपको सर्वसें नत्तम और ईश्वरके पुत्र ठहराया. अपने स्वार्थके वास्ते अनेक पाखंम चलाये. जो को इनको पाखंमसें मने करतेथे ननहीको ब्राह्मण राक्षस और नास्तिक कहने लग गए, क्योंकि श्रीशषन्नदेव आदीश्वर नगवाननें ही प्रथम सात्विक और दयाधर्मका उपदेश करा, नागवतमें लिखा है नारदजोनें कै जगें हिंसकयज्ञ बुमवाये. तिसकानी यही तात्पर्य है कि जैनीयोंके शास्त्रमें नारदजीकों जैनधर्मी लिखा है. ननोंने जो हिंसक यज्ञ उपदेशसें बंद करे तो क्या आश्चर्य है ? और नागवतमेंनी ऋषनदेवजीकों विष्णुनगवानका अवतार लिखा है. पी ईश्वर जगत्कर्ता माननेवालोंका मत चला. जबसे दवा हिंसाका बहुत तकरार हुआ तिसके पीछेके बनें नारत, गीता, नागवतादि ग्रंथोका स्वरुपही औरतरेंका है. बहुत लोक मनमें ब्राह्मणोंकों शांतिरुप गरीब जानते है, परंतु जिस बखत बेगुनाह बौदोंके बाल बच्चोंकों हिमालयसें लेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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