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________________ प्रथमखं. यानउविशति विश्रयाते यस्यामशंतः प्रहारमेशपं ॥ ऋग्वेद० अ० ८॥इसका अर्थ बहोत बीनत्स है. निगमप्रकाशका कर्ता लिखता है कि ऐसे मंत्रका अर्थ लिखीये तो बहुत अमर्यादा होवे इस वास्ते छना है सोही नला है. १२०० सो वर्ष पहिला शंकर स्वामी हूये तिनोने राजायोंकी मदतसें बौक्ष धर्मवालोंकों कतल करमा शुरु किया, परंतु जैन धर्म सर्व देशोमें दक्षिण, गुजरातादिक देशोमें बना रहा. शं. कर स्वामीनी वेदोक्त हिंसाको अच्छी मानते थे, क्योंकि शंकर विजय नामक ग्रंथ शंकरस्वामीके शिष्य आनंद गिरिका करा हुआ है तिसके बव्वीसमें अध्यायमें बौधोंके साथ संवाद जिसतरेंसे दूआ है सो लिखा है. शंकरस्वामी ने कहा है कि वेदमें जो हिंसा लिखी है सो हिंसा नही, यह तो धर्म है. सो संन्नाषण नी चे लिखा जाता है. “इदं प्राह सर्वप्राण्यहिंसा परमो धर्मः । परमगुरुनिरिदमुच्यते ॥रे रे सौगत नीचतर किं किं जल्पति । अहिंसा कथं धर्मो नवितुमर्हति । यागीयहिंसायाधर्मरूपत्वात् तथा हि अनिष्टोमादिक्रतुः गगादिपशुमान् यागस्य परमधर्मत्वात् । सर्वदेवतृप्तिमूलत्वाच्च । तद्द्वारा स्वर्गादिफलदर्शनाच पशुहिंसा श्रुत्याचारतत्परैरपिकरणीया तद्व्यतिरिक्तस्यैव पाखमत्वात् तदाचाररता नरकमेव यान्ति ॥” वेदनिंदापरा ये तु तदाचारविवर्जिताः ते सर्वे नरकं यांन्ति यद्यपि ब्रह्मबीजजाः "॥ इति मनुवचनात् ।। हिंसा कर्तव्येत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्तते ब्रह्मदत्रवेश्यशूज्ञणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव तदन्यः पतितो नरकगामी चेति सम्यगुपदिष्टः सौगतः परमगुरुं नत्वा निरस्तसमस्तानिमानः पद्मपादादिगुरुशिष्याणां पादरक्षधारणाधिकारकुशलः सततं तऽ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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