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________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. निष्ठानापुष्ठतनुरजवत् ॥ इत्यनन्तानंद गिरिकृतौ पमूविंश प्रकरणं ॥ २६ ॥ ७‍ अर्थ-सौगत कहता है अहिंसा परम धर्म है, तब शंकर कदता है, रे रे सौगत नीचोंमे नीच, क्या क्या कहता है ? अहिंसा क्योंकर धर्म हो सकता है यज्ञ हिंसाकों धर्मरूप दोनेसे, सोइ दिखाते है -अनिष्टोमादि यज्ञमें वागादि पशुका मारना परम धर्म है, और सर्व देवता तृप्त हो जाते है. और इस हिंसासें स्वर्ग मिलता है, इस वास्ते धर्म है. पशुहिंसा श्रुतिका आचार है, अन्य मतवालोंकोजी अंगीकार करणे योग्य है. वैदिक हिंसासें उपरांत सर्व पाखं है. जे पाखं मानते वे नरकमें जाते है. जो वेदकी निंदा करते है और जो वेदोक्ताचार वार्जित है वे सर्व नरक जायेंगे, ब्रह्मका बीज क्या न हो ? यह मनुनें कहा है. हिंसा करनी इसमें वेदोंकी हजारों श्रुतियां प्रमाण देती है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूर इनको वेद, इतिहास, पुराणोंका कदा प्रमाण है, इससे अन्य कुछ मानेतो नरकगामी है. यह सुके सौगत शंकरके पद्मपादादि शिष्योंका नौकर बनके उनकी जूतीयोंका रखनेवाला दूया. और उनकी जूट खाकर मस्तरहने लगा. अब विद्वानोंकों विचारना चाहिये कि शंकरस्वामी आनंद गिरि ये से कैसे अकलवंत थे क्योंकि प्रथम जो संबोधन नीचतरका करा है यह विद्वानोंका वचन नदी, फैर अहिंसा धर्मका निषेध करा यह वचन निर्दयी शौकरिक, कसाई, जंगी, ढेढ, चमारों और बावरीयोंका है कि जिनोंनं जीवहिंसाही सें प्रयोजन है और यज्ञकी हिंसा बहुत श्री कदी, सो श्रप्रमाणिक है. और इस जो मनुका प्रमाण दीया वो ऐसा है, जैसा कीसीने कहा हमारा गुरु तरण तारण है, इसमें प्रमाण, मेरा शाला जो कहता है के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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