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________________ प्रथमखेम. नेकुं चाहते है ? मुखकी हानि और सुखकी प्राप्ति श्रो श्रेय एकमसे नही मीलजाता है प्राचीन बहीराजा कहेते है-महाबाहु नारदजी, मेरी बुद्धिकर्मसे नष्ट हो गई है, उसके लीएमें श्रेयकुं जानता नही है जीससे में कर्मसे मुक्त होजान, एसा निर्मल ज्ञान मुजकुंकहो कूट धर्मवाले घरोकी अंदर पुत्र, स्त्री, धन औ अर्थकी बुध्विाला मूढ पुरुष संसारका मार्गमें नमते है, परंतु ओ परमतत्वकुं नहीं प्राप्त करते है तब नारदमुनि कहेते है, हे प्रजापति राजा, देखले ओ पशुओकुं जो हजारो पशुओकुं तुम निर्दय होकर यझमें मारमार्या है, ओ सब अहिं खमे है ओ पशुओ तेरी हिंसाकुं स्मरण करते तेरी राह जोते है मृत्यु पीठे ओ क्रोधसे लोहाका कुवामेसं तुजकुं देगा. ७ असलमें नारदजी जैनी रे क्योंकि जैनीयोंके शास्त्रमें नारदजीनारदका उप- को जैनी लिखा है. यद्यपि नारदजीका वेष सन्यासीदेश जैनी जे ज का था तोजी श्रद्धा नवही नारदोंकी जैनमतकी थी. इसी वास्ते नारदजीने मरुत राजाको हिंसक यज्ञ करनेसे हटाया, और इसीतरें प्राचीन वर्हिष राजाकों हिंसक यज्ञ करनेसे मना किया. नारदजीने बहुत जगें हिंसक यज्ञ दूर करे है.. इससेंनी यह सिह होता है कि वेद हिंसक पुस्तक है, और ईश्वर के कथन करे दूए नही, जेकर ईश्वरोक्त वेद होते तो नारदजी क्योंकर वेदोक्त कमका निषेध करते और वेदोक्त यज्ञ करनेवाले नरकमें क्योंकर मरके. जाते? इस वास्ते वेद हिंसक जीवोंके बनाये हूए है. लागवतका प्रथम स्कंधमें युधिष्ठिरनेंनी कहा है जैसे चीककडसें चीकम नही धोया जाता तथा जैसे मदिरेका नाजन मदिरेसे धोयां शुरू नही होता है तैसेंही जीवहिंसा करने से शुरू नही होता है, इस वास्ते यज्ञमें जीवहिंसाके पापको दूर नही कर सकते है. तथा नारत मोदधर्म अध्याय एश में । “प्रजानामनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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