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अज्ञानतिमिरनास्कर. कंपार्थ गीतं राज्ञा विचख्युना"॥१॥ टीका-प्रजानां पुरुषादिपशूनां अर्थ-यझमें होमता ऐसे जो पुरुषादि पशु तिन नपर दया करनेके अर्थे विचख्यु नासक राजाने कदा है. विचख्यु रा- सो विचख्यु नालक राजा तिसमें गबालंन्न अर्थात्
1 ५. गौवध करके यइमें काटा है जिसका शरीर ऐसा जो वृषन्न बलद तिलको देखके मायोका अत्यंत विलाप देखके यज्ञपामेमें रहे ऐसे जो निर्दय ब्राह्मण तिनकों देखकें विचख्यु राजानें ऐसा कहा
नारते मोक्षधर्षे अध्याय ए में, " स्वस्ति गोन्यस्तु लोकेषु ततो निर्दचनं कृतं ! हिस्सायां हि प्रललायाम्माशिरेषा तु कल्पिता॥ अव्यवस्थितमर्यादर्विमूढ़नास्तिकैनरैः। संशयात्मन्निख्यक्तैर्हिसा समनुवर्णिता ॥ ४॥ आत्मा देहोऽन्यो वान्योऽति कर्ताऽकर्ता वा अकर्तापि एकोऽनेको वा एकोपि संगवानसंगोवा.” अर्थ-विचख्यु राजानें जो निवर्चन करा लो यह है. नाजों स्वस्ति कल्याण निरुपश्च होवे, कोई किसी प्रकाररोजी लकी हिंसा नकरे क्योंकि हिंसाकी प्रवृत्ति अर्थात् यहोरें लीवोंका वध करणा मर्यादा रहितोंने और मूर्योने और नास्तिकोने और आत्मा देहदी है अथवा देहसें अन्य है, अन्यत्री है तो कतो वा अकर्ता है, अकर्तानी एक है वा अनेक है, एकती है तो क्या संगवान है वा असंग है ऐसे ऐसे संशयवालोने हिंसक यइका वर्णन करा है, वैदिक हिंसक यझोंकों श्रेष्ट ठहराते है.
इस कयनसेनी यह सिह होता है कि वेद "बेमर्यादे मूर्ख और नास्तिकोंके और अझानियोंके” बनाये हुए है. तथा नारदपंचरात्रे च
न तबास्त्रं तु यहास्त्रं वक्ति हिंसामनदां ।
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