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अज्ञान तिमिरजास्कर.
संग्राम में अपने प्रभुकी आज्ञातें सुनटको जो बारा लगता है सो परम वल्लन अपनी स्त्रीके करे कमल प्रहारकी तरें मालुम होता दै. तथा जैसे स्वदेशमें, तैसेही परदेशमें सत्वसें धीर पुरुष नदि चलायमान होते है धीर पुरुष मन वांबित कार्यको सर्व जगे सिद्ध करते है. तथा पुर्निकादिकके नृपव दानमें, शूरमे पुरुषांके. आशयरूप रत्नको नदि नेद शकते है, किंतु तिन दातांके प्रविधि दानके देनेको शुद्ध करते है. इस दृष्टांत करके महानुजाव शुभ समाचारि गत चारित्रीयेके जावकों व्यादि श्रापदाके नृपश्व नाश नहि कर शकते है. जो प्रसामर्थ्य होवे, रोग पीमित जर्जर देहवाला जैसें सिद्धांत में मुनिमार्ग कहा है कदापि वे नहि पालता है. सोनी अपने पराक्रम धैर्य बलको अणगोपता हुआ और कपट क्रियासें रहित हो करके प्रवर्त्ते वोजी अवश्य साधुही जानना, इति विधि सेवास्वरूप प्रथम श्राका
लक्षण..
अतृप्ति श्रद्धाका स्वरूप.
संप्रति अतृप्ति स्वरूप दुसरा लिखते है. तृप्ति संतोष,, बस मेरोकों इतनाही चाहिये, ऐसी तृप्ति ज्ञानके पढनें में चारिनानुध्यानके करगेंमें कदापि न करे, किंतु नव नव श्रुत सं पद उपार्जन में विशेष नृत्साहवान दोवे; क्योंकि सिद्धांत में कहा है, जैसें जैसें श्रुतशास्त्र मुनि अवगाहन करता है, पढता है कैसा श्रुत अतिशय रस प्रसर विस्तार संयुक्त, अपूर्व श्रुत, तैसे तैसे मुनि नव नव श्रद्धा सेवंग करके आनंदित होता है तथा जिन शास्त्रात मोहदयवाले जिनोत्तम तीर्थकरोने कथन करा है, और महाबुद्धिमान् गौतम, सुधर्म स्वाम्यादिकोंने सूत्ररूप रचा है सो सूत्र संवेगादि गुगाका जनक है, जैसे अपूर्व ज्ञानके
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