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द्वितीयखम
शर पढनेका यत्न, नवीन ज्ञानका उपार्जन सदा करणा. तथा चारित्र विषये विशुः विशुःइतर संयमके स्थानकोंकी प्राप्तिके वास्ते सदजावनासार अर्थात् शुभनाव पूर्वक सर्व अनुष्टान उपयोग संयुत करे; क्योंकि अप्रमादसे करे हुए सर्व साधुके व्यापार अनुष्टान उत्तरोत्तर संयम कंडकमें आरोहण करणेसें केवल ज्ञानके लान वास्ते होते है. तथा चागमे. जिनशासनमें जे योग कहे है तिनमेंसे एकैक योगको कर्म वयार्थ प्रयंजुन करता हुआ एकैक योगमे वर्त्तते हुए अनंते केवली हुए है. तथा वैयावृत्त तपस्वि प्रमुखकी आदि शब्दसे पमिलेहना, प्रमार्जनादि प्रहण करणे तिनमे यथाशक्ति शुनाव पू. र्वक प्रयत्नवान् होवे, अचल मुनीश्वरवत्, इति अतृप्ति नामा - सरा श्रक्षाका लक्षण.
शुद्ध देशना श्रद्धाका स्वरूप. अथ शुइ देशना स्वन्नाव तिसरा लक्षण लिखते है. प्रथम देशनाका अधिकारी लिखते है. सुगुरु, संविज्ञ गीतार्थ आचार्यके समीपे पूर्वीपर सम्पक प्रकारसें सिहांत आगमके वाक्य पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ, तिनका यह तात्पर्य है, ऐसा तत्व स्वरूप सिहांतका, जाना है, जिसनें नक्तंच
___“ पयवक महावक्क पअश्दं पज्जथ्थ वत्यु चत्तारि । सुय, नावावगमंन्नीहंदिपगाराविणिदिहा ॥ १ ॥ संपुन्नेहिं जाय नावस्सय अवगमो इहरहान । होश विविजा सो विहु अणिनफल ओय नियमा ॥२॥” इनका नावार्थ, पदवाक्य, महावाक्ययह तात्पर्य, यह वाक्य है, यह चार श्रुतनावके जाननेके प्रकार कहे है. इन चारों प्रकारसे पदार्थका यथार्थ स्वरूप जाना जाता है. अन्यथा विपर्यय होनेसे नियमसें अनिष्ट फल है. ऐसे ज्ञानके
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