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________________ द्वितीयखम. जो विशेषण है सो कहेंगे तिस श्रक्षका फलनूत सो यह है. विधि सेवा, अतृप्ति. शुध देशना, स्खलित हुए शुहि करणी, यह प्रवर विशेषणवाली श्रक्षके लिंग है. तिनमें प्रथम विधि सेवाका ऐसा स्वरूप है. विधि करके प्रधान अनुष्टान सेवे श्रम गुणवाला, शक्तिमान्. सामर्थ्य संयुक्त होता हुआ अनुष्टान प्रतिलेखनादि करणेमें श्रझवान् होवे, अन्यथा अशलु नहि हो शक्ता है, यदि पुनः शक्तिमान् न होवे तब क्या करे. इव्य आदारादिक, आदि शब्दसे क्षेत्र, काल, नाव ग्रहण करीये है. तिनकी प्रतिकूलतासे गाढ पीमित होवे, तब विधि सेवाका पकपात करे. प्रभ-विधि अनुष्टानके अन्नावसे पक्षपात कैसे संनवे ? नत्तर-रोग रहित पुरुष खेम खाद्यादि सुंदर नोजनके र. सका जाननेवाला किसी आपदा दरिद्यवस्थामें पमा हुआ अशुल अनिष्ट नोजन करतानी है तोन्नी तिसमें राग नहि करता है, क्योंकि वो जानता है मेंतो इसकु नोजनके खानेसे आपदाको नल्लंघन करता हूं, जब सुनिद होवेगा तबशोन्ननिक आहार नोगुंगा ऐसा तिसका मनोरथ होता है. अब इस दृष्टांतका दाष्टींत कहते है. ऐसे कुलोजनके दृष्टांतसे शुइ चारित्र पालनेका रसीया है पण व्यादिककी आपदासें बाह्य वृत्ति करके आगम विरुक्ष नित्यवासांदि करता है और एकला होगया है, परंतु संयम आराधनकी लालसा जिसके मनमें है सो पुरुष सावचारिब, नावसाधुपणा नलंघन नहि करता है; एतावता वो नाव साधुही है संयम मूरिवत्. तथा चोक्तं, 'दव्वा' इत्यादि अ. शुः व्यादिक नोगनिक नावांका प्राये विन्न नहि कर शकते है. नाव शुइ और बाह्य क्रिया विपर्यय यह लोकमें प्रसिंह है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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