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________________ ឌុចបី अज्ञानतिमिरनास्कर. आचरणारूप इन दोनों मार्गानुसारे जो प्रवर्त्तते है साधु तिसको नाव साधु कहना नचित है, सत्य है, कहां तक यावत् प्रसहा नाम पर्यंतवनि प्राचार्य होवेगा तहां तक क्योंकि तिस आचार्य तक सितमें चारित्रवान् चारित्रिये कहे है. इहां यह अनिप्राय है, जेकर मार्गानुसारी किया करता हुआ ओर यतन करता दूया चारित्रिया साधु न मानीये तबतो ऐसें साधुयोके विना अन्यतो को देखने में आता नहि है, तबतो चारित्र ब्युच्छेद हुआ. चारित्रके व्यवच्छेद होनेसे तीर्थ व्यवच्छेद कहना प्रत्यक्ष अतीत, वर्तमान, अनागत कालके सर्व जिननाथके कथन करे सितसे विरुप है. इस वास्ते परीक्षावान् पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि लिंगी, शिथिलाचारी निर्धर्मीओका कहना कदापि नदि मानते है. तथा च व्यवहारत्नाष्यं “केसिंचयाए सो दसरा । नाणेहि वढएतिथ्यं को विनंच चरित्तं वयमाणो नारिया चनरो॥१॥ जो जणीश्नथ्यि धम्मो नय सामश्यं नचेव वयाई। सो समण संघ वश्झो कायब्बो समण संघेण ॥ २ ॥” इन दोनोंका लावार्थ-कितनेक लिंगि बुझिहीन, मिथ्यादृष्टि स्त्रीओके लोलुपीयोंका ऐसा कहना है, ज्ञान दर्शनसेंही तीर्थ चलता है, चारित्तो व्यवच्छेद हो गया है. ऐसा कहनेवाला अवश्य विषय संपटी जानना. जो कहता है साधुधर्म नदि है, सामायकनी नहि और व्रतत्नी नहि है तिसको श्रमण संघसें बाहिर काढना चाहिये. इत्यादि आगमके प्रमाणसे मर्गानुसारि क्रिया करणेवालेंकों नावयति साधुपणा है. यह स्थितप्रज्ञ है. इति सकलमार्गानुसारीणी क्रिया रूप नाव साधुका प्रश्रम लिंग ॥१॥ संप्रति श्रधा प्रवरा प्रधान है धर्म विषे ऐसा दुसरा लिंग कहते है. श्रःक्षा अनिलाषवाला है श्रुत चारित्ररूप धर्ममें. प्रवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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