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________________ अज्ञानतिमिरजास्कर. ३५ मनादेवोपजायतइति तदुहितृत्वेन व्यपदिश्यते तस्यां चारुण किरणा बीज निपात् स्त्रीपुरुषसंयोगवदुपचारः एवं समस्ततेजाः परमेश्वरत्वनिमित्तेन्दशब्दवाच्यः सवितेवाहर्निलीयमानतया रात्रे - रहल्याशडवाच्यायाः क्षयात्मकजरणहेतुत्वात् जीर्यत्यस्मादनेन वोदितेन वेत्यहल्याजार इत्युच्यते । न परस्त्रीव्यभिचारात् " ॥ अर्थ- प्रजापालने का अधिकारसें प्रजापतिका अर्थ सूर्य होता है. ते सूर्य प्ररुणना नदयमें नबाकी पीछे चलता है. नपा सूर्यका श्रागमनसें होती है ते वास्ते उसकी बेटी रूपे व्यपदेश होता है. तीसमें अरुका किरrरुप बीजका निक्षेप होनेसें स्त्रीपुरुषका संयोगका उपचार होते है. समस्त तेजवाला परमेश्वरत्व निमित्तरूप ईइ शब्द सूर्य में लीन होनेसें रात्रिका अर्थ अहल्या होता है. सूर्यका उदय होनेसें रात्रिरूप अहल्याका कय हेतु है. तेम जीर्ण होनेसें जार शब्दका अर्थ है तिन वास्ते ग्रहब्याजार ऐसा अर्थ होते है. इहां परस्त्रीका व्यभिचार न लेना, दयानंदसर इसी तरेका अर्थ दयानंदसरस्वतीजीनेजी वेदनास्वतीका क पोलकल्पित प्यभूमिकामें करा है, सो दो तीन पत्रे लिख मारे अर्थ. है. उनमें लिखा है कि यह रूपकालंकार है. ऐसे ऐसे प्रांतिजनक रूपकालंकार कहे विना यहां क्या काम अटक रहाया ? और ब्रह्मवैवर्त्त जागवतके बनानेवालोंकों रूपकालंकार नही सूझा ? कुमारिलजी दयानंदसरस्वतीने विशेषार्थ करा है, लिखा हैकि गौतम नाम माका है, और कहीं सूर्य, प्रजापति, वरुण, अनि, पवनादि शब्दका वाच्यार्थ परमेश्वर और कहीं सूर्य, कहीं और कुछ, इस स्वकपोलकल्पनाके यह फल है कि जूठी बात को सच्ची करनी, घोर वादीयोंका तर्कतापसें बच जाना इसी वास्ते तो दयानंदसरस्वतीजीने सर्व पुस्तक बोमके संहिता प्रमाकि मानी है, क्योंकि संहितामें अन्य पुस्तकोंकी तरे विदुंदी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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