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अज्ञानतिमिरनास्कर. परंतु मनु और याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारोंने वेदोक्त रीतीसें पशुवध करके तिसके मांसन्नकण करणेमें दोष नही लिखा है, किंतु पूर्वोक्त रीतीसें मांसन्नकण करे तो धर्म लिखा है, और मनुस्मृतिका निषेध तुम किसी तरेन्नि नही कर सकते हो क्योंकि तुमारे वेदोमें मनुकी बहुत तारीफ लिखी है. “ मनुवै यत्किंचिदवदत्तप्रेषजं”। गंदोग्यब्राह्मणे. जे कोइ मनुस्मृतिको जूठी मानेगा तिसकों वेदनी जूठे माननें परेंगे. जे कर कोई कहे मनुस्मृति
आदि शास्त्रोंमें जो हिंसक श्लोक है वे सर्व पीउसे मांसाहारियोंने प्रक्षेप कर दीये है, परंतु मनुजीने हिंसक श्लोक नही रचे है क्योंकि नारतके मोक्षधर्म अध्याय ए में लिखा है--
सर्वकर्मस्वहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । कामकाराहि हिंसंति बहिर्वेद्यां पशूनराः ॥
अर्थ-धर्मात्मा मनु सर्व कर्म ज्योतिष्टोमादि यझने विषेनी अहिंसाहीका व्याख्यान करता नया, नर जो सो काम कारणसेंही बहिर्वेदीने विषे पाने मारता है परंतु शास्त्रसे नही. विषेपार्थ देखना होवेतो इस श्लोककी टीका देख लेनी. टीकामें श्रुति लिखी है सोन्नी हिंसक यशका निषेध करती है. इस वास्ते मनुस्मृत्यादिकमें जो हिंसक श्लोक है वे पीसें हिंसक और मांसाहा. रियोंने प्रदेप करे है.
नतरपद-यह कहना ठीक नही, क्योंकि जब वेदोहीके बीचमें हिंसक यज्ञ करनेवालोंकी अनेक तरेकी कथा प्रशंसारूप लिखी है तो फेर मनुमें हिंसक यझोके विधिविधानके श्लोक प्रदेपरूप कैसे संनव हो सकते है. ऐसें मान लेवं कि जैनधर्मकी प्र. बलतामें जो मनुस्मृत्यादिक शास्त्र बनाये गये है तिनमें दयाधर्मका कुछ कुछ कथन है. ऐसा तो संनवन्नी हो सकता है. तथा
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