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प्रथमखंरु.
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में अध्यायमें ऐसे ही लिखा है- " सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृशरौदनम् । धूर्तैः प्रवर्तितं तदेषु कल्पितम् ॥ मानान्मोहाच लो नाच लोब्यमेतत्प्रकल्पितम् " अर्थ- सुरा - मदिरा म मधु हित मांस और आसव एक प्रकारका मद्य इन वस्तुयोंका क्षण करणा धूतानं भवर्ताया है, यह कयन वेदमें नही है. मोदतें, लोन, मानसें, लौलपणा इन पूर्वोक्त वस्तुयोंका जक्षण करना कल्पित करा है इत्यादि अनेक जंगे अनेक शास्त्रोंमें हिंसक यज्ञ और मांस मदिरेकों नकल निषेध करा है. इस वास्ते हम जानते है और हमारे वेदोमें हिंसा करोका और मांस मदिरादिकके नका उपदेश नही तो हम पूछते है जो लव्हट महीधर सायन माधव प्रमुख जो जायकारक दूये है तिनोंनें वेदों के अर्थ करे है तिनमें तो साफ लिखा है कि वैदिक यज्ञमें इस तरेंसें पशुका वध करणा और तिसके मांसका होम करके शेष मांस नक्षण करणा, सौत्रामणी यज्ञमें मदिरा पीना और आश्वलायन सूत्र तथा कात्यायनसूत्र तथा लाट्यायनसूत्रादि सूत्रकारोंनें और नारा. यस हरदत्तादि वृत्तिकारानंजी वेदोक्त यज्ञोंमं तथा मधुपर्क अनुस्तरणी आदि अनुष्ठानोंमें बहुत जीवाका वध करणा लिखा है. यह कथन उपर हम विस्तार सहित लिख आये है तहांसें देख लेना; तो फेर हम क्योंकर मान लेवे के वेदोमं हिंसा करणी नदी लिखी है ?
हिंसाका विष पूर्वपक्ष-ये पूर्वोक्त जाप्यकार सूत्रकार और वृत्तिय पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष कार मूर्ख अज्ञानी थे. इस वास्ते उनकों वेदाका
सच्चा अर्थ नही प्रतीत हुआ, इस बास्ते जो मन माना सो लिख मारा. हम उनके लिखे अर्थोकों सचे नही मानते है.
उत्तरपक्ष - नला इनको तो तुमनें जूठे असत्यवादी माने
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