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________________ १०४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ध्यासितव्य इत्यादि वाक्योपलक्षिताः सर्ववेद ऋग्वेदादयः जति इष्टं यजनं चः समुच्चये पापकर्मणा पापहेतुनूतपशुबंधाद्यनुष्टानेन न नैव तं वेदाध्येतारं यष्टारं वा त्रायंते रदंति लवादिति गम्यं । किं विशिष्टं दुःशीलं तान्यामेव हिंसादि प्रवर्तनेन दुराचारं यतः कआणि बलवंति ऽर्गतिनयनं प्रति समर्थानीद नवदागमानिहिते वेदाध्ययने यजने च नवंतीति गम्यते पशुवधप्रवर्तकत्वेन तयोः कमपोषकत्वादिति नावः ततो नैतद्योगात्पात्रनूतो ब्राह्मणः किंतु पूोक्तगुण एवेति नावः ॥ ____अर्थ-वेद जो दे ऋग्वेदादि वे सर्व बागादि पशुयोंके वधके हेतु है, क्यों कि वेदोंमें ऐसी ऐसी श्रुतियां लिखी है " श्वेतं गगमालनेत वायव्यां नूतिकामः " इस वास्ते सर्व वेद पशुवधके हेतुनूत वेद है. और यज्ञ जो है वे सर्व पापके हेतुनूत है. इम वास्ते वेद, पढनेवाले और यज्ञ करने वालोंकि रक्षा संसारमें नही कर सकते है. क्यों कि कर्म बमें बलवान है, वेद पढनसें और यज्ञ करनेसे पापकर्म नत्पन्न होता है वो पाप दु. र्गतिका हेतु है. इस वास्ते पूर्वोक्त गुणवानही ब्राह्मण हो स. कते है. .: जैन मतके आगम शास्त्रोम वेदों बाबत इतनाही लिखा है र यह लिखना ननके शास्त्र मुजब ठीक है. क्योंकि दका विचार. जैनीयोके शास्रमें अहिंसा परमधर्म लिखा है और हिंसा करनी बहुत बुरी बात लिखी है. इसी तरें वेद मानने वालेनेनी हिंसक यज्ञोंकी निंदा' बहुत शास्त्र भारत नागवत नारद पंचरात्रि प्रमुखमें लिखी है. जब हिंसाकी निंदा' लखी तब चोरकी निंदा' साथही हो गई. जेकर कोई कहे वेदोमें हिंसा करनी नही लिखी क्योंकि भारतके मोकधर्म नामक एश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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