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________________ १५४ अज्ञानतिमिरनास्कर. आगे दयानंद पृष्ट ४२० में जैनी जिसतरें कालकी संख्या मानते है सो लिखता है. हां, हमारे सदागममें जो कालका स्वरूप लिखा है सो हम सर्व सत्य मानते है क्योंकि जब हमने जगत अनादि सिह कर दया है तो इस जगतमें अनंत कालका वर्तना संनव हो सक्ता है. और जो दयानंद अपने अनुयायी गणितबिद्यावालोकों पूबता है तुम जैनके कालकी संख्या कर सक्ते हो वा इस संख्याको सत्य मान सक्ते हो ? ऐसा लिखके पीछे हमारे तीर्थंकरोका उपहास्य करा है तिसका नत्तर-तुमसे पूछते है तुम समुश्के पानीके, खसखससंन्नी बदूत सूक्ष्म जलबिंध्योकी गिनती करके बता सक्ते हो ? नही. तया इस सृष्टिसें अनंत काल पहिला जो दयानंदके ईश्वरने सृष्टि रवीश्री नसके वर्ष कह सक्ते हो ? नहो. जैनमतमें तो इतने अंकलक गणितविधि है- एश्६३२५३७३१०२४११५७७३५६७५६ ए६४०६१ए६६न्मन१८३२एकी उपर एकसो चालीश शून्य. दयानंद पृष्ट ५२१ में लिखता है जैनीयोका एक योजन दश सहस्त्र कोशका होता है. यह दयानंदका लिखना जूठ है. क्योंकि दश सहस्र कोशका योजन हमारे किती शास्त्र में नही है. हमारे शास्त्रमें तो किसी कालांतरमें प्रथम ओर आदिमें ओर किसी छीपमें ओर किसी समुश्में ऐसी जातकी वनस्पती कम लनालादिकको नत्सेधांगुलके योजनसे अर्थात् प्रमाणांगुल, आत्मांगुल, नत्सेधांगुलसें हजार योजनकी अवगाहना होती है और किसीक कालमें और किसीक द्वीप समुशदिमें ऐसे हींश्यि जीव होते है की जिनकी अवगाहना पूर्वोक्त बारा योजनकी होती है और तीनेश्यि जीवकी तीन कोस और चतुरिंक्ष्यि जीवकी चार कोसकी पूर्वोक्त नत्सेध कोससे अवगाहना होती है. दयानंद और दयानन्दके अनुयायीयोंने सर्व कालका स्वरूप और सर्व छीप स; For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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