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________________ प्रथमखम. १.३१ मानते है हमतो अपने ज्ञानके बलसे बनाते है तबतो तुमारे मु. खसेंही सिह दूआ कि यह ग्रंथ. सत्यार्थप्रकाश नहीं किंतु असत्यार्थ प्रकाश है, क्योंकि सत्यवातके प्रकाश करणेंके स्थलोंमें तो व्याकरण काव्य कोश अलंकारके अनुसारही रचना करनी कविजनोंके वास्ते लिखी है, तबही शास्त्रके अर्थका और शब्दकी शक्तिका ग्रहण. हो सकता है. तथाहि-“ शक्तिग्रहं व्याकरणोपमा नकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदंति, सांनिध्यतः सिपदस्य वृक्षः " ॥ अर्थ-शब्दकी शक्तिका ग्रहण व्याकरण, नपमान, कोश, श्राप्तवाक्य, व्यवहार, शेष वाक्य, विवृति, सिपदकी सानिध्यता इत्यादिकोंके अनुसार होता है. केवल व्युत्पप्ति. मात्रसें नहीं होता है. जेकर केवल व्युत्पत्ति मात्रसेंही शब्दकी शक्तिका ग्रहण होवे तबतो यह नीचे लिखे दुवेनी नाम परमेश्वरके होने चाहिये.. १. “ अंन्हिः-पुल्लिंग-संसारवृक्षस्य अंन्दिः कोर्थः मूलं तदिव यो वर्तते. स अंन्हिः "-अर्थ-संसारवृक्षके मूलकी तरें होनें-- से ईश्वरका नाम अंन्हि है. “ अकिंचित्करः--पुं. न किंचित् करोति इति अर्कि:चित्करः कस्मात् कृतकृत्यत्वात. ” अर्थ--कृतकृत्य होनसें कुउनी नहीं करता है. तिस लिये ईश्वरका नाम अकिंचित्कर है.. ३ " अकृत्यः पु. न विद्यते कृत्यं यस्य कृतकृत्यत्वात् इति अकृत्यः ” अर्थ--कृतकृत्य होनेसे बाकी कुबनी करणेंका नही रहा है तिस लिये ईश्वरका नाम अकृत्य है.. नलूकः पु. नुहलत्ति सर्वत्र समवैति व्याप्नोति वा इति उखकः ” अर्थ-सर्व जगें व्यापक होनेसे ईश्वरका नाम नलूक है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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