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________________ १० . अज्ञानतिमिरनास्कर. कि बाकि शेष नपनिषद्, वेदोंके चारे बाह्मणनाग, और सर्व स्मृलियो, सर्व पुराणादि प्रमाणिक नहि है, जितने तीर्थ गंया वियेरे है वे सर्व मिथ्या कल्पित है, वेदकी संहिताके जे प्राचीन नाष्य, टीका, दीपिकादि है वे नी यथार्थ नहि है, इस वास्ते अपनी बुझिसे दो वेद अर्थात् ऋग् और यजुर्वेद उपर नाष्य रचना शुरु करा. ( सो हमने अधूरा देखा है) दयानंदजीतो अजमेरमें काल कर गये संवत् १एव0 में मेंने सुणे है, सो कहा जाने नाष्य पुरा दुआ के नहि. हमारी समजमें दयानंदने बहुत वाते जैनमतसें मिलती कथन करी है. इतनाही फरक है कि दयानंद सरस्वति अधार दूषण वर्जित पुरुषका कथन मान लेता और घृतादि सुगंधी वस्तुका हवन, यजन करना गेड देता. जगतको प्रवाहसे अनादि मान लेता और सदामुक्त रहना जीवांकां मान लेता तो दयानंद परमानंद सरस्वति हो जाता. परंतु नगवंतने ऐसाही ज्ञानमें देखाथा सो बन गया. इसके मतमें बहुत अंग्रेजी, फारसीके पढनेवाले लोक है, वे कदाग्रहसें लोकोंसें मतकी बाबत झगडते फिरते है, परंतु ब्रह्म समाजीवाने और दयानंदजीने कितने हिंओकोइसाही होनेसे रोका है. ये कबीरसे लेकर दयानंदजी तक सर्व मतांवाले मूर्तिपूजन नहि मानते है. बाकी अन्य जो देश देशांतरेमें नवीन नवीन, गेटे गेटे पंथ निकले है वे सर्व आर्योकी बुद्धि बीगामने के हेतु है, ये सर्व कितनेक हिंलोक अंधी गदही समान है. जैसें अंधी गदहीको अपने मालीककी तो खबर नहि. जिसने वाले पर दंमा मारा और कान पकमा सोही उपर चढ वेग. इसी तरें हिंऽ कितनेक है, जिसने नवीन पंथ चलाया तिसके पीछेही लग जाते है. नुधर जैनमतमेंसें सात निन्दव निकले परंतु तिनका मत नहि चला है. श्रीमहावीरके निर्वाण पीछे ६ए वर्षे दिगंबर मत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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