SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयम. ३७१ .. पीछे दुःखी होजावे. इसी वास्ते आगममें कहा है, “लानोचियदाणे, लाजोचियपरिजावे, लाज्जोचियनिदीगरे सियासो" ऐसे करता हुआ बहुत कालमें प्रभूत दान देवें.. ऐसेही शील. तप जावजी विचार लेना. पारिणामिक बुद्धि विचारके धर्म में प्रवर्त्ते, चंशेदयवत्.. चर्विध धर्मका स्वरूप. " अथ दान, शील, तप, जावना, इन चारोंका स्वरूप इस जगे नव्य जीवोंके जानने वास्ते धर्मरत्न शास्त्रकी वृत्तिसें लि-खते है, तिनमें प्रथम दानके तीस जेद है, ज्ञानदान, अजयदान, धर्मोपग्रहान तिनमें ज्ञानदान इस तरेंका है. जीवादि नव प दार्थका विस्तार और नजय लोकमें करणीय कृत्य जिस करके: जीव जाये तिसको ज्ञान कहते है, सो ज्ञान पांच प्रकारका होता मतिज्ञान; श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, और केवलज्ञान: तिनमें मति ज्ञानके तीनसो बत्तीस जेद है, और श्रुतज्ञानके चौदह भेद है, अवधिज्ञानके दो भेद है, मनः पर्यायज्ञानके दो भेद: है, केवल के जवस्थ, अनवस्थ दो भेद है. इन पांचों ज्ञानका स्व-रूप अनुमाने १०००० लोकप्रमाण नाष्यटीकासें विशेषावश्यकमें कथन करा है, तहांसें जान लेना. इन पांचो ज्ञानमेंसें व्यवहा.. रमें श्रुतज्ञान चतम है, दीपककी तरें स्वपरप्रकाश दोनेंसें, इस वास्ते श्रुतज्ञान प्रधान है. श्रुतज्ञान मोह महांधकारकी लेहेरोके नाश करणेंको सूर्य तुल्य है, और ज्ञान दिष्ट, प्रदिष्ट, इष्ट वस्तुको मेलनेको कल्प वृक्ष है. ज्ञान दुर्जय नाश करणेकों सिंह समान है. ज्ञान जीव, स्तार देखनेको लोचन है. ज्ञान करके पुण्य पाप जालीने पुण्यमें प्रवृत्ति और पाप निवृत्ति करे, पुण्यमें प्रवर्त्तमान हुआ स्वर्ग, Jain Education International For Private & Personal Use Only कर्मकुंजरकी घटाके अजीव वस्तुका वि www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy