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________________ १७ अज्ञानतिमिरनास्कर. षेध कहीं नहि लिखा है. तथा नानकजी, कवीर, दाङ, गरी. बदास, ढुंढीये, ब्रह्मसमाजी प्रमुख जो प्रतिमाकी निंदा करते है सो नवीन, और अननिझ होनेसे हिंओंके मतसें विरु६ है. क्योंकि प्रतिमाकी निंदा हिंओंके प्राचीन किसी शास्त्रमें नहि लिखी है. तथा जो कहते है कि ईश्वर निरंजन, निर्विकारी, अरूपी, अक्रिय, जगतका कर्ता, और सर्वव्यापक है तिस ईश्वरकी मूर्ति बनही नाई सकती है, मूर्ति तो देहधारकी दो शकती है, - उत्तर-पूर्वोक्त जगतका कर्ता और सर्वव्यापी इन दोनों विशेषणोवाला ईश्वर तो किसी प्रमाणसेंनी सिह नहि होता है, और पूर्वोक्त विशेषणोवाला ईश्वर नपदेशकन्नी सिह नहि होश कता है तिसका यह प्रमाण है. धर्माधर्मों विना नांगं विनांगेन मुखं कुतः । मुखाद्विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथं ॥१॥ अदेहस्य जगत्सर्गे प्रत्तिरपि नोचिता। न च प्रयोजनं किंचित् स्वातंत्र्यान्न पराज्ञया ॥२॥ क्रीडया चे प्रवर्तेत रागवान्स्यात् कुमारवत् । कृपयाथ सृजेत्तर्हि सुख्येव सकलं सृजेत् ॥ ३ ॥ दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिकलेशविव्हलं । जनं तु सृजतस्तस्य कृपालोः का कृपालुता ॥४॥ कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि न स्वतंत्रोस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किमनन शिखंडिना ॥५॥ अयं स्वभावतो दृत्तिरवितर्कमिहेशितुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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