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________________ १८ ‍ द्वितीयखंग. परीक्षकाणां तष परीक्षाक्षेपडिंडिमः ॥ ६ ॥ सर्वभावषु कर्तृत्वं ज्ञातृत्वं यदि सम्मतं ॥ मतं नः संति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभूतोपि च ॥ ७ ॥ सष्टिवादकुवाकमुन्मुत्चैत्य प्रमाणकं ॥ त्वच्छासने रमंते ते येषां नाथ प्रसीदसि ॥ ८ ॥ इति वीतरागस्तोत्रे जगत्कर्त्तृनिरासस्तवस्यः सप्तमः प्रकाशः अर्थः- धर्म, धर्म अर्थात् पुण्य, पाप विना अंग, शरीर होता नहि है, धर्मसें रमणीक और अधर्मसें रमणीक शरीर होता है, परंतु धर्म धर्म विना शरीर होतादी नदी है, और शरीर विना मुख कैसे होवे, और मुख विना कथन करना नहि होता है. इस देतुसे, हे नाथ ! अवर जो ईश्वर शरीर विना है वो कैसे शास्तारः अर्थात् शिक्षाका दाता हो शक्ता है. १ हे नाथ प्रदेहस्य दरहितको जगततकी सृष्टिमें अर्थात् जगतकी रचनामें प्रवृत्त होनाजी उचित नहि है तथा दे नाथ ! प्रददस्य, देद रहितको जयतकी रचनायें स्वतंत्रता और परतंत्रता प्रवर्त्तनेका प्रयोजन नहि है, क्योंकि स्वतंत्रता से तो ईश्वरकी जगत रचनेंमें तब प्रवृति होवे जब ईश्वरको किसी वस्तुकी ईच्छा होवे क्योंकि ई वाला है सो ईश्वर नहि है, और परतंत्रतासें तब प्रवृत्ति होवे जब ईश्वर किसीके प्राधीन न होवे. इस वास्ते दोन प्रकारसें प्रवृत्ति नही. २ जेकर देह रहित ईश्वर क्रीमाके वास्ते जगतको रचता है तब तो राजकुमारवत् सरागी हुआ, और ईश्वरपयाही जाता रहा; जे कर दया करके जगतकी रचना करता है तब तो सुखीही सर्व जीव रचनें चाहिए, क्योंकि कीसीको सुखी और किसी को दुःखी रचेगा तव तो विषमदृष्टि होनेर्स ईश्वरत्वसिंह नहिं होता है. ३ जेकर देह रहित ईश्वर दुःखी जनांको र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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