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________________ १० अज्ञानतिमिरजास्कर.. → चता है तब तो ईश्वरको दया नदि, क्योंकि जब ईश्वर दुःख दुर्गति, योनि, जन्मादि क्लेश करके व्याकुल जीवांको रचता हुआ तब ईश्वदमें कौनसी कृपालुता है. 8 जेकर पूर्वोक्त ईश्वर कमीपे कासे अर्थात् जैसे जैसे शुभाशुभ कर्म जीव करते हैं तिमको तैसा तैसा सुखी दुःखी रचता है तब तो ईश्वर अस्मादिकों की तरें स्वतंत्र न हुआ, किंतु परतंत्र हुआ अर्थात् कर्माके आधीन जैसे हम वर्तते तैसे ईश्वरजी दुआ, जब कर्मोही जगतकी विचित्र रचना है तव तो जगतका कर्ता नपुंसक ईश्वर कादेको मानना, नसके मानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहि होता है ५ जेकर ईश्वरका स्वजावही ऐसे जगत रचनेका है, तब तो यह कहना परीक्षककी डमीका नाश करणा है अर्थात् परीक्षकोंकी बुद्धिका नाश करणा है, क्योंकि स्वजाव पक्षको लेकर महा मूढनी जय पताका ले सकता है. ६ जेकर सर्व पदार्थोके जानवेका नाम कत्व है तब तो देह रहित सिद्ध और देह सहित केवली कर्त्ता सिद्ध हुए तब तो हमाराही मत सिद्ध हुआ. व हे नाथ ! वे पुरूप तेरे शासन में रति करते है क्या करके, पूर्वोक्त श्रप्रमाणिक अर्थात् प्रत्यकादि प्रमाण रहित सृष्टिवाद कुदेवाक बोडके अर्थात् खोटी अभिलाषा बोके कब बोते है जब तुं तुष्टमान होता है इति सप्तम प्रकाशका अर्थ. इस वास्ते देहधारी, सर्वज्ञ, वीतराग प्रतिदी की मूर्ति मानने योग्य है, अन्य देवोंकी मानने योग्य नहि है क्योंकि अन्य देara परमेश्वरver किसी प्रमाणसे सिद्ध नहि होता है. जो देव कामी, क्रोधी प्रज्ञानी, मत्सरी, स्त्रीका अभिलाषी, चोर, परस्त्री गमन करनार, शस्त्रधारी, माला जपनेवाला, शरीरको स्म विभूति लगानेवाला, लोजी, मानी, नाचनेवाला, हिंसाका नप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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