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हितीयखं. देशक, दुनियाको करामत देखानेवाला, जगतमें अपनी बढाइका इच्छक इत्यादि अवगुण करके संयुक्त है वो परमेश्वर सिह नहि होता है.
अहंत परमेश्वर वो अवगुणसे रहित है इस वास्ते इसकी मूतिनी शांतरूप, ध्यानारूढ, निर्विकारी होनी चाहिये, जिसके दैखनेसें वीतरागकी अवस्था याद आवे. ऐसी मूर्तितो जैन मतमें ही है, अन्यमतमें नहि क्योंकि अन्यमतोमें पूर्वोक्त दूषण रहित को देवत्नी नहि दुआ है. __ जैनमतमें अगरह दूषण जिसमें नहि होवे तिसको अर्हत परमेश्वर मानते है, वे दूषण यह है.
अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः। हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोकएव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा।। रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्ठादशाप्यमी ॥२॥ अर्थ-दानगत, अंतराय, लालगत अंतराय, वीर्यगत अंतराय, नोगगत अंतराय, नपन्नोगगत अंतराय यह पांचतो नगवंतके विघ्न नहि है, नगवंत तीन लोककी लक्ष्मी तृणाग्र मात्रसे दान करे तो को रोकनेवाला नदि; नगर्वतका परश्रकी चारवर्ग अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाका लान तथा जगवंतका समस्त साधन और अनंत चतुष्टयकी प्राप्तिमें कोई विघ्न करता नहि तथा लानातरायके वयसे अचिंत्य माहात्म्य, विनूति प्रगट हु है तिससे जगवंतके लानमें कोई विघ्न करता नहि, नगवंत अनंत शक्ति सें, चाहे तो तीन लोकको स्वाधीन करे लेवे तिसमें को रोक शकता नहि है; नगवंत अनंत आत्मिक सुख नोगते है तथा नुपन्नोग अनंत प्रकारका चाहे तो कोई विघ्न करता नदि; नगवंत
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