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________________ प्रथमखम. १४ नंदजीके साथ जो परस्पर पत्रव्यवहार दूआ था तिनमेंसें प्रथम पत्रोंको एकत्र करके दयानंदमुखचपेटिका नाम पुस्तकका प्रथम नाग उपवाके प्रसिह करा. इत्यादि कारणोंसें दयानंद सरस्वतीजी ने बहुत खीज करके दूसरे सत्यार्थप्रकाशमें पूर्वोक्त श्लोकोको ठिकाने लगाया परंतु कितनीक बाते स्वकपोलकल्पिक करके जैन मतियोंको तिरस्कार करनेवाले वचनोंकी वर्षा करी है. तिनका न. चर यहां हम लिखते है. नवीन सत्यार्थप्रकाश पृष्ट ४०१ में जो दयानंदजी लिखता है कि आनाणक चार्वाकनें जो लिखा है वेदके कर्ता नाम धूर्त और निशाचरवत् पुरुषाने बनाये है. यह जूठ है, ! हां नाम धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए है, ननकी धूर्तता है वेदोकी नही. इसका नत्तर, दयानंदजीके लिखने मूजब तो जो आनाणक चार्वाकनें लिखा है कि धूर्तोकी रचना, अति बिन्नत्त कार्य करना कराना धूतोंके विना नहीं हो सक्ता १० और जो मांसका खाना लिखा हे वह वेद नाग राक्षसका बनाया है. ११ पृष्ट ४०१ में, यह कहना आनाणकका सत्य मालुम होता है. क्योंकि यजुर्वेदकी टीकामें वेदश्रुतियोंका वैसाही अर्थ महीधर श्रादिकोंने करा है और जैसे वेदश्रुतियोंके अर्थ महीधर, नव्हट, रावण सायन, माधव आदिकोंने करे है तैसेंही आयावर्चके प्राचीन वैदिक मतवाले मानते चले आये है, तो फेर इस कथनमें आनाणकनें क्या जूठ लिख दिया है जिसको वांचके स्वामीजी कूदते और गन्नराते है. हां, दयानंदकी रची स्वकपोलकल्पित नाष्य जेकर प्रान्नाणक बांचता और सच्ची मानता तो ऐसा न लिखता; इस वास्ते वेदकी रक्षा करने वास्ते दयानंदजीके ईश्वरने दयानंदजीको सत्य नाष्य बनाने वास्ते सर्व नाष्यकारोसे पहिला जन्म न दिया यह दयानंदजीके ईश्वरकी नूल है. तथा दयानंदके ईश्वरने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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