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________________ १५० अज्ञानतिमिरनास्कर. बनाये वेदोंके जूटे अर्थ बनाते दूए लिखते दूए महीधर आदिकोंकी हस्तांगुलियों न स्तब्ध करी, जिव्हा आकर्षण न करी आदि सत्यानाश न करा यह दयानंदजीके ईश्वरकी असमर्थता वा अज्ञता सिह होती है. तथा दयानंदजीने महीधरादिकोंको वाममार्गी और कुकर्मी लिखे है परंतु हम तो ऐसा वचन नही लिख सक्तेहै. ___ दयानंदजी लिखते है कि बमा शोक है कि जैनाचार्योने वेदकी संहिता नही पढी थी, जिससे वेदकी निंदा कर गये और करते है. नत्तर, जगवंत श्रीमहावीरके बडे शिष्य गौतम आदि इग्यारे गणधर सर्व विद्यायोंके पारगामी अग्निहोत्री ब्राह्मण थे. तथा इनके शिवाय शय्यंनवजट्ट आदि सैंकमो जैनाचार्य चार वेदके पाठी थे. इस वास्ते वेदांको हिंसकशास्त्र जानकर, तिनको त्याग कर परमदयामय जैनधर्म अंगीकार करा. हां, दयानंदजीकी स्वकपोलकल्पित नाष्य हमारे आचार्योनं नही पनि करी श्री, न होनेसें. जो तिनके समयमें दयानंदजी वेदनाष्य बनाते तो लिहितो करते. दयानंदजीकी नाष्य वांचकर मैरा निश्चय खूब दृढ दूया कि सोतरें स्वकपोलकल्पनासें आर्य वेदोंके नष्ट होनेसें ऐसे वेद हो गये है. बृहस्पति चार्वाकमतका आचार्य था, वोनी चार वेदका पाठी था, परंतु वेदरचनाको अयौक्तिक जानके नास्तिक मत वेद श्रुतियोंसे निकाला मालुम पड़ता है, तिन श्रुतियोंमेंसें यह एक श्रुतिका नमुना है. ___“ विज्ञानघन एव एतेश्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येव अनु विनश्यति न प्रेतसंज्ञा अस्ति ।" अर्थ-विज्ञानघन आत्मा इन जूतोंसें उत्पन्न हो करके तिन नूतोंको कायाकारसे नाश होतोंके साथही नाश हो जाता है इस वास्ते प्रेतसंज्ञा अर्थात् परलोक नामकी संज्ञा नही है..., Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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