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________________ ६० अज्ञानतिमिरजास्कर. स्याश्वस्य नराधिप । तान्यग्नौ जुदुवुर्धीराः समस्ताः पोमशात्र्विजः । व्यासः सशिष्यो भगवान् वर्धयामास तं नृपं ॥ ततो युधि ष्टिरः प्रादात् ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि । गोविंदं च महात्मानं बलदेवं महाबलं । तथान्यान्वृष्णिवीरांश्च प्रद्युम्नाद्यान् सहस्रशः । पूजयित्वा महाराज यथाविधि महायुति । एवं बजूव यज्ञः स धर्मराजस्य धीमतः । बवन्नवनरत्नायैः सुराजैरेयसागरः ॥ सर्पिःपंका हृदा यत्र बनवुश्चान्नपर्वताः । पशूनां वध्यतां चैव नातं दहशिरे जनाः ॥ विपाप्मा भरतश्रेष्ठः कृतार्थः प्राविशत्पुरं । तं महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनाकुलं ॥ इति श्री महाभारते श्राश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि श्रश्वमेघसमाप्तौ एकोननवतितमोऽध्यायः || G || अर्थ-युधिष्टिर धर्मराजा भीष्माचार्यको प्रश्न करता जयाकि गृहस्थ और साधु इन दोनोमेंसें उत्तम धर्म किसका है ? जीष्मनें उत्तर दीनाकी दोनो धर्म है. पीछे कपिलची बोला कि मैं वेदाकी निंदा नहीं कर शकता हूं. आश्रम प्रमाणे धर्म होता है. स्यूमरश्म बोला कि स्वर्गमें जाने वास्ते यश करो. इसतरें सदा वेद कहता है. तिस परंपरा यज्ञ करते आये है. बकरेका, घोका, भेडका गायका, पक्षीयोंका यज्ञ होता है. गाम में और सीमामें जो जानवर है वे सर्व नक्षण करने योग्य है; ऐसा वेदमें कहा है. और जानवर और धान्य इन दोनोंसें यज्ञ होता है; ऐसा वेदनें कहा है. इसतरें प्रजापति देवनें ठहराव करके यज्ञविधि जानवर और धान्य ये सर्व उत्पन्न करे. तिसी तरें देवते यज्ञ करने लगे. यज्ञमें जो जीव मारे जाते है वे सर्व ब्रह्मदेवकी आज्ञा है. और तिसीतरें पूर्वज करते श्राये है. जनावर, मनुष्य, वनस्पति ये सर्व स्वर्ग में जानेकी इच्छा करते है जनावर धान्य इत्यादि १२ प्रकारकी सामग्री यज्ञमें चाहिये तो और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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